Friday, July 30, 2010

babri masjid बाबरी मस्जिद तथ्यों के प्रकाश में sharif khan

जब कोई व्यक्ति स्वयं को अल्लाह की ग़ुलामी में समर्पित कर देता है तो उसको मुस्लिम कहते हैं। अल्लाह ने अपने ग़ुलामों की रहनुमाई के लिये क़ुरआन भेजा और उसको समझाने व उसके अनुसार जीवन गुज़ारकर दिखाने हेतु अपने दूत के रूप में हज़रत मुहममद सल्ल० को नबी बनाकर भेजा। नबी के द्वारा किये गए कार्यों को सुन्नत तथा उनके द्वारा कही गई बातों को हदीस कहते हैं लिहाज़ा हर मुसलमान इस बात के लिये बाध्य हो गया कि वह केवल क़ुरआन और हदीस के मुताबिक़ ही अपना जीवन गुज़ारे। अल्लाह की इबादत के लिये मस्जिद बनाई जाती है जिसके लिये जो नियम बनाए गए हैं उनके अनुसार यह आवश्यक है कि मस्जिद की जगह ख़रीदी गई हो या किसी मुसलमान द्वारा स्वेच्छा से दी गई हो अथवा सरकार द्वारा उपलब्ध कराई गई हो। किसी नाजाइज़ जगह पर बनाई गई मस्जिद में नमाज़ नहीं पढ़ी जा सकती इसीलिए न तो पुलिस थानों में मस्जिद बनाने की मांग की जाती है न सार्वजनिक स्थलों को घेरकर और न ही पार्क आदि में मस्जिदों का निर्माण होता है।
चूंकि हर मुसलमान इन बातों के साथ इस बात से भी वाक़िफ़ है कि अवैध स्थान पर बनी हुई मस्जिद में पढ़ी गई नमाज़ अल्लाह के यहां क़ुबूल नहीं होती लिहाज़ा किसी मस्जिद में लगातार नमाज़ पढ़ा जाना ही मस्जिद की वैधता को साबित करने के लिये काफ़ी है। बाबरी मस्जिद में लगातार नमाज़ पढ़ी जाती रही परन्तु 22@23 दिसम्बर 1949 की रात में इशा की नमाज़ के बाद जब सब लोग चले गए तब मस्जिद के अन्दर मूर्ति रख दी गई और सुबह को जब फजर की अज़ान देने के लिये मुअजि़जन आया तो मस्जिद में मूर्ति देखकर इमाम साहब को इस बात की सूचना देने के लिये वापस लौट गया। इसके बाद इस बात की कोतवाली में एफ़.आई.आर. दर्ज कराई गई। इसके बाद के तथ्यों पर ग़ौर करके देखें तो भारत में लोकतन्त्र के चारों स्तम्भों के खोखलेपन का अन्दाज़ा आसानी से हो जाएगा।
1. यह कि, मस्जिद में मूर्ति रखे जाने की शिकायत को दूर करने का कार्य कोतवाल के अधिकार क्षेत्र में ही आता था लिहाज़ा यदि साज़िश के तहत यह कार्य न किया गया होता तो मस्जिद में से मूर्ति निकलवाकर मस्जिद को पाक करने में कोतवाल के सक्षम होने के बावजूद उसके द्वारा यह कार्य न किया जाना साज़िश साबित करता है।
2. यह कि, के.के. नैयर, जो उस समय वहां का डी.एम. था, ने वहां आकर इमाम साहब व दूसरे मुसलमानों से कहा कि दो तीन सप्ताह ठहर जाइये जांच करके मामले को सुलझा दिया जाएगा तब तक कोई मुसलमान मस्जिद से 100 मीटर दायरे के अन्दर न आए। इस प्रकार से मामले को उलझा दिया गया और इस घिनौने कार्य के बदले इनाम के तौर पर इसी डी.एम. को जनसंघ पार्टी से एम.पी. बनवाया गया। डी.एम. का इस साज़िश में शामिल होना मूर्ति रखने वाले महन्त रामसेवक दास के मीडिया के सामने दिये गए इस बयान से साबित हो जाता है कि ‘‘मुझसे तो मूर्ति रखने के लिये नैयर साहब ने कहा था।‘‘
3. यह कि, मामला तो केवल मूर्ति निकलवाने का था न कि मस्जिद की वैधता को साबित करना परन्तु सबके देखते देखते मस्जिद को ढांचा कहा जाने लगा और मन्दिर की दावेदारी को स्वीकृति देने की राह हमवार की जाने लगी।
4. यह कि, मस्जिद की जगह पर कराये जाने वाले मन्दिर निर्माण की साज़िश के सहयोगियों में अपना नाम दर्ज करवाने हेतु राजीव गांधी द्वारा मस्जिद का ताला खुलवा दिया गया। और बाक़ी काम भा.ज.पा. के लिये छोड़ दिया गया।
5. यह कि, ताला खुलने के बाद देश में आतंकवाद का दौर शुरू हुआ जिसको सफल बनाने का बीड़ा भा.ज.पा. ने उठाया और उसके नेताओं ने इस काम को निहायत ईमानदारी से पूरा भी किया। मुसलमानों को आतंकित करने के लिये हर प्रकार के हथकण्डे अपनाए गए। एक नारा लगाया कि, ‘‘यह अन्दर की बात है प्रशासन हमारे साथ है‘‘ और प्रशासन ने पुलिस की सुरक्षा में इस प्रकार के नारे लगाते हुए जलूसों को आज़ादी से निकलवाया और मीडिया ने प्रचारित किया। लाल कृष्ण अडवानी ने रथ यात्रा निकाल कर पूरे देश के वातावरण को साम्प्रदायिकता की गन्दगी से दूषित कर दिया। ज़्यादा तफ़सील में जाने की ज़रूरत इसलिये नहीं है क्योंकि पूरा देश इसका गवाह है।
6. यह कि, चूंकि क़ानून हाथ में लेकर किसी इमारत को तोड़ डालने वाले को ग़ुण्डा कहते हैं इसलिये हम भी इस शब्द का इस्तेमाल करते हुए कहते हैं कि दो लाख ग़ुण्डों ने इकट्ठा होकर मस्जिद को शहीद करके ताला खुलवाने के बाद राजीव गांधी द्वारा सौंपे गए काम को पूरा कर दिया और देश का प्रधानमन्त्री टी.वी. पर इस कार्रवाई को देखता रहा। उस समय के माहौल का अन्दाज़ा करने के लिये सिर्फ़ इतना कहना ही काफ़ी है कि देश में रह रहे 20 करोड़ मुसलमानों की मौजूदगी में यह घिनौना कार्य होना तब तक सन्भव नहीं था जब तक कि उनको आतंकित न कर दिया गया होता। इस पूरी कार्रवाई को अन्जाम देने में केन्द्रीय सरकार, प्रदेश सरकार व प्रशासन का पूरा सहयोग रहा।
इसके बाद के हालात भी सब जानते हैं कि भा.ज.पा. के द्वारा किये गए इस घिनौने कार्य के इनाम के रूप में उसकी केन्द्र में सरकार बनवाकर हमारे देश के आदर्शवादी कहलाए जाने वाले समाज ने आतंकवाद में अपनी आस्था भलीभांति साबित कर दी। न्यायालय में चल रहे मुक़दमे के दौरान एक पक्ष के यह कहने,‘‘अदालत का फ़ैसला कुछ भी हो मन्दिर यहीं बनेगा‘‘ में न्यायालय की अवमानना किसी को भी नज़र न आई।
पवित्र क़ुरआन के 72 वें अध्याय की 18 वीं आयत में अल्लाह तआला फ़रमाता है, अनुवाद, और यह मस्जिदें अल्लाह ही के लिए ख़ास हैं अतः इनमें अल्लाह के साथ किसी और को न पुकारो‘‘ इस प्रकार से चाहे तो बाबरी मस्जिद एक्शन कमैटी हो या फिर कोई दूसरी संस्था हो, यदि वह मस्जिद जहां थी और जितनी थी उसी के मुताबिक़ उसको को दोबारा वहीं तामीर करा सकें तो ठीक है वरना इसके अतिरिक्त किसी भी प्रकार का समझौता करने का हक़ किसी को भी नहीं है। लिहाज़ा चाहे ज़बरदस्ती या किसी क़ानून का सहारा लेकर यदि मस्जिद के स्थान पर कुछ और तामीर हुआ तो मुसलमानों को चाहिए कि उसको तस्लीम न करके यह समझ कर धैर्य रखें कि देश में जहां बहुत से मुसलमानों को क़त्ल करके शहीद किया जा रहा है वहां मस्जिद भी शहीद कर दी गई।

Tuesday, July 27, 2010

swarg nark स्वर्ग और नर्क sharif khan

एक सज्जन अमेरिका में रहने वाले अपने बड़े भाई से मिलकर लौटे हैं और आजकल जहां भी जाते हैं यही चाहते हैं कि लोगों को अपने संस्मरण सुनाकर गौरवान्वित होते रहें। वहां का गुणगान वह कुछ इस अन्दाज़ में करते हैं जैसे कि स्वर्ग से लौटकर आये हों और नर्कवासियों को वहां के हालात से परिचित करा रहे हों। कुछ दोस्तों की एक महफ़िल में यह सज्जन मिले और वार्तालाप को अपने कब्जे में लेते हुए कहने लगे कि अगर स्वर्ग देखना है तो अमेरिका देख लो। उनके बात आगे बढ़ाने पहले ही मैंने कहा कि यदि नर्क देखना है तो अमेरिका को देख लो। जैसा मैं चाहता था, उसी के अनुसार प्रभाव पड़ा तथा लोग मेरी ओर आकर्षित होकर मेरी बात सुनने आमादा हो गए जो इस प्रकार थी।
हमारे पूर्वजों ने हज़ारों वर्षों में जिस प्रकार के समाज का निर्माण किया उसकी बुनियाद है वैवाहिक व्यवस्था। हमारे समाज ने बिना विवाह किये हुए किसी महिला के परपुरुष के साथ रहने को अथवा सम्बन्ध बनाने को कभी मान्यता नहीं दी तथा इस कार्य को व्याभिचार कहा गया है। इस प्रकार के सम्बन्ध बनाने वाले लोगों को सदैव ही धिक्कारा गया है तथा ऐसी महिलाओं को रखैल व इस सम्बन्ध के नतीजे में जन्मे बच्चों के लिये हरामी शब्दों का प्रयोग किया जाता है तथा इन शब्दों को गालियों के रूप में इस्तेमाल किया जाना ही यह साबित करने के लिये काफ़ी है कि सभ्य समाज में यह बात नाक़ाबिले माफ़ी अपराध है।
इस प्रकार के शब्दों का अपनी भाषा में प्रयोग मुझे शर्मसार कर रहा है जिसके लिये मैं क्षमा प्रार्थी हूं।
अमेरिकी सामाजिक परिवेश पर यदि नज़र डाली जाए तो हम देखते हैं कि वहां आधे से ज़्यादा युवतियां शादी से पहले मां बन जाती हैं और उसके बाद तय किया जाता है कि विवाह किया जाए या ऐसे ही साथ रहते रहें और यदि विवाह करना हो तो क्या बच्चों के बाप से किया जाए अथवा किसी दूसरे व्यक्ति से। इससे भी ज़्यादा अफ़सोसनाक बात यह है कि वहां के समाज ने इसे मान्यता दी हुई है। ऐसे घिनौने समाज का गुणगान करते हुए उसकी स्वर्ग से उपमा देने वाले सज्जन की बात के जवाब में यदि उसको नर्क कहा जाए तो किसी भी प्रकार से अनुचित न होगा।
हमारे देश में गर्ल फ्रेण्ड व बॉय फ्रेण्ड का चलन तो टी.वी. और फ़िल्मों के माध्यम से आरम्भ होकर व्याभिचार के द्वार खोल ही चुका है और दूसरी ओर लोकतन्त्र के चारों स्तम्भों विधायिका, न्यायपालिका, कार्यपालिका तथा मीडिया में ऐसे तत्व मौजूद हैं जो इस कार्य को क़ानून की सहायता से आगे बढ़ाते हुए अमेरिका के मानिन्द हमारे समाज का भी जनाज़ा निकालने की कोशिश में लगे हुए हैं।
ब्लॉगर बिरादरी से मेरा अनुरोध है कि यदि समाज को पतन की राह पर जाते हुए महसूस कर रहे हैं तो, बजाय ख़ामोश तमाशाई बनने के, समाज के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी को समझें और सारे भेदभाव भुलाकर इस मुद्दे को एक कॉमन प्रोग्राम की तरह से उठाने की कार्ययोजना तैयार करने में सहयोग करें वरना वह दिन दूर नहीं जब हमारा प्यारा देश भी अमेरिका की तरह से रखैलों और हरामी बच्चों के देश के रूप में पहचाना जाने लगेगा।

Saturday, July 24, 2010

poverty and its solution भूख और उसका समाधान sharif khan

महाभारत का युद्ध समाप्त होने के पश्चात् कौरवों की मां गान्धारी अपने सभी सौ पुत्रों के मारे जाने के समाचार से आहत होकर युद्ध क्षेत्र का अवलोकन करने पहुंची और जब अपने एक पुत्र के शव को पड़े देखा तो बिलखकर रोने लगी। इस मन्ज़र को देखकर वहां उपस्थित लोगों के हृदय भी द्रवित हो गए परन्तु इसके पश्चात् जब उसका एक के बाद दूसरे और दूसरे के बाद तीसरे शव से लिपटकर रोने का क्रम जारी हुआ तो इस हृदय विदारक दृश्य ने सभी उपस्थित जनों को विचलित कर दिया। वहां उपस्थित लोगों के आग्रह पर श्री कृष्ण ने इस शोकपूर्ण वातावरण को बदलने का उपाय इस प्रकार से किया कि गान्धारी को भूख का एहसास करा दिया। इस प्रकार वह भूख से इतनी विचलित हुई कि अपने पुत्रों की मृत्यु के दुःख को भूलकर पेट की भूख मिटाने का उपाय सोचने लगी। चारों ओर नजर दौड़ाने पर एक बेरी का वृक्ष दिखाई पड़ा जिसपर एक बेर लगा हुआ था। अपनी क्षुधापूर्ति हेतु गान्धारी ने उस बेर को तोड़ने का प्रयास किया परन्तु वहां तक हाथ न पहुंच पाया। हाथ बेर तक पहुंचे, इसके लिए जो तरकीब अपनाई गई उसका वर्णन रोंगटे खड़े करने देने वाला तो है ही साथ ही उससे यह भी ज़ाहिर होता है कि भूख से जो पीड़ा उत्पन्न होती है वह सारे दुःखों पर भारी है। वर्णन कुछ इस प्रकार है
जब बेर तोड़ने के लिये गान्धारी का हाथ वहां तक नहीं पहुंच पाया तो नीचे ज़मीन पर पड़े हुए अपने एक पुत्र के शव को पेड़ के नीचे तक खींच कर लाई और उस पर चढ़कर प्रयास किया परन्तु हाथ फिर भी बेर तक न पहुंच पाया। फिर दूसरे पुत्र का शव खींच कर लाई और उसको पहले पुत्र के शव के ऊपर रखा परन्तु फिर भी सफल न हो पाई। चूंकि वहां आस पास उसी के पुत्रों के शव पड़े थे इसलिये वह उन्हीं को एक के बाद एक लाती रही और बेर तोड़ने का प्रयास करती रही। इस दिल हिला देने वाली घटना के बाद भूख को गान्धारी ने इस प्रकार से बयान किया है
वसुदेव जरा कष्टम् कष्टम दरिद्र जीवनम्।
पुत्रशोक महाकष्टम् कष्टातिकष्टम परमाक्षुधा।।
अर्थात् हे कृष्ण! बुढ़ापा स्वयं में एक कष्ट है। ग़रीबी उससे भी बड़ा कष्ट है। पुत्र का शोक महा कष्ट है परन्तु इन्तहा दर्जे की भूख सारे कष्टों से भी बड़ा कष्ट है। ध्यान रहे गान्धारी ने स्वयं यह सारे कष्ट झेले थे।
हज़रत उमर (रजि०) ने ख़लीफ़ा बनने के बाद यह फ़रमाया था कि अगर एक बकरी भी भूख से मरती है तो उसका ज़िम्मेदार मैं होऊंगा। शायद इन्हीं विशेषताओं को ध्यान में रखकर देश के आज़ाद होने के बाद गांधीजी ने आम सभा में फ़रमाया था कि मैं हिन्दोस्तान में हज़रत उमर जैसी शासन व्यवस्था चाहता हूं। असहनीय भूख तो कष्टकारी होती ही है। आप कल्पना करके देखिये कि भूख से जो मौतें होती हैं वह कितनी पीड़ादायक होती होंगी। शायद पुलिस हिरासत में होने वाली मौतों से भी ज़्यादा भयानक होती हों।
हमारे देश के विधायक और सांसद यदि देश सेवा का संकल्प लेकर राजनीति में आए हैं तो एक साधारण क्लर्क के बराबर वेतन के बदले देश सेवा करें। इस प्रकार से उनको मिलने वाले वेतन व भत्ते आदि से होने वाली बचत ही इतनी हो जाएगी कि उसको यदि ग़रीबों पर ख़र्च किया गया तो हमारे देश से भूख के विदा होने में देर नहीं लगेगी।

Wednesday, July 21, 2010

muslims and media भारत में मुसलमानों की छवि और मीडिया का चरित्र sharif khan

भारत आबादी के ऐतबार से दुनिया का सबसे बड़ा लोकतान्त्रिक देश है। विधायिका, न्यायपालिका, कार्यपालिका एवं मीडिया (पत्रकारिता) लोकतन्त्र के चार स्तम्भ माने जाते हैं। आज के युग में चतुर्थ स्तम्भ (मीडिया) का तो प्रत्येक क्षेत्र में इतना अधिक महत्त्व हो गया है कि इसके बिना देश का लोकतान्त्रिक ढांचा क़ायम रह पाना असम्भव प्रतीत होता है। समाचार पत्र व पत्रिकाएं उन खिड़कियों के समान है जिनके द्वारा देश की आन्तरिक स्थिति का बाहर से तथा वाह्य स्थिति का अन्दर से अवलोकन किया जा सकता है तथा यदि मीडिया को देश की आंखें व कान कहा जाए तो अतिश्योक्ति न होगी। अतः मीडिया रूपी आंखों व कानों का स्वस्थ होना अति आवश्यक है। जिस प्रकार बीमार आंखों से कभी एक के दो दिखाई देते हैं और कभी सब कुछ अस्पष्ट दिखाई देता है तथा रोगग्रस्त कानों से सत्यता का ज्ञान होना कठिन है उसी प्रकार यदि मीडिया निर्भीक, निष्पक्ष तथा स्पष्टवादी न होकर पूर्वाग्रह जैसे रोग से ग्रसित हो तो उसके द्वारा समाज की विचारधारा को ग़लत राह पर मोड़ दिये जाने की आशंका से इंकार नहीं किया जा सकता है।
देश के स्वतन्त्रता संग्राम में भारत की पत्रकारिता ने जो शानदार भूमिका निभाई वह सर्वविदित है। स्वतन्त्रता सेनानियों के दिलों में देशभक्ति की भावना जागृत करने तथा आवश्यकता पड़ने पर देश के लिए अपने प्राण तक न्योछावर कर देने की लालसा पैदा करने में मीडिया की भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता। इसी प्रकार यदि मीडिया गुजरात के जंगल राज से देश की जनता को अवगत न कराती तो वहां मुसलमानों के ऊपर किये गए ज़ुल्म, लूट व हज़ारों लोगों के क़त्ल से दुनिया के लोग अनभिज्ञ ही रहते। 1984 में प्रधानमन्त्री श्रीमति इन्दिरा गांधी की हत्या के बाद सिखों पर जो अत्याचार हुए तथा हज़ारों बेकसूर सिखों की हत्या कर दी गई, इसका जिस निर्भीकता और निष्पक्षता से वर्णन किया गया उसके लिए मीडिया निःसंकोच तारीफ़ के क़ाबिल है। इसी प्रकार चाहे नेताओं के द्वारा किये गए घोटाले हों, भ्रष्टाचारियों के काले करतूत हों अथवा पुलिस की हैवानियत के मानवता को कलंकित करने वाले कारनामे हों, आदि के बारे में जनता को भलीभांति परिचित कराने का श्रेय मीडिया को ही जाता है।
मीडिया से जुड़े हुए व्यक्तियों का खोजी स्वभाव का होना तो आवश्यक है ही परन्तु इसके साथ यदि उनमें सत्यता, निष्पक्षता तथा निर्भीकता के गुण नहीं हैं तो उसका नतीजा बहुत बुरा निकलता है। अफ़सोस की बात यह है कि पिछले कुछ समय से कुछ ऐसे तत्वों का मीडिया में प्रवेश होता जा रहा है जिनमें सत्यता को जानने और निष्पक्षता से कार्य करने की भावना का अभाव है। बल्कि यह कहना अनुचित न होगा कि इस प्रकार के व्यक्ति हर घटना को साम्प्रदायिकता के चश्मे से देखने के आदी हो गए है। और ऐसा प्रतीत होता है कि मुख्यतः मुसलमानों के खिलाफ़ तो एक संगठित अभियान के रूप में इस षडयन्त्र पर कार्य किया जा रहा है।
अब कुछ ऐसे संगठन पैदा हो गए हैं जिनका मकसद देश में साम्प्रदायिकता फैलाकर आपसी भाईचारे को समाप्त करना है चाहे इस कार्य के लिए उनको कितना ही घिनौना कार्य करना पड़े। समाज को हिन्दू और ग़ैर-हिन्दू दो भागों में बांटने की नापाक कोशिश की जा रही है। ऐसे अराजक तत्वों ने गैर-हिन्दुओं (मुसलमान, ईसाई आदि) के अधिकारों का हनन ही हिन्दुत्व की परिभाषा मान लिया है। इसी मानसिकता के लोगों का वर्चस्व होने के कारण उनके इस कार्य में मीडिया भी बराबर की भागीदार प्रतीत होती है। देशहित के विरुद्ध किये जा रहे इस घृणित कार्य के इतनी त्वरित गति से होने के पीछे पुलिस का सहयोग भी अपने स्थान पर विशेष महत्त्व रखता है।
ग़ैर-हिन्दुओं में मुसलमान सबसे बड़ा अल्पसंख्यक वर्ग है जिसकी छवि को धूमिल करने की ज़िम्मेदारी मीडिया ने अपने ऊपर ले रखी है जिसको वह बड़ी तत्परता से निभा रही है। देश में कहीं भी कोई आतंकवादी घटना यदि घटती है तो उसकी ज़िम्मेदारी मुसलमानों पर थोप दी जाती है। पुलिस फर्जी मुठभेड़ दिखाकर कुछ बेक़सूर मुसलमानों को मार देती है और कुछ को फ़रार दिखाकर कुछ और बेक़सूरों को मारने के लिए रास्ता खोले रखती है। यदि मीडिया ऐसे मामलों में निष्पक्षता से काम ले तो पुलिस के क्रूर हाथों से बेक़सूर मुसलिम नौजवान न मारे जाएं। मीडिया की मुसलमानों के प्रति दुर्भावना को सिद्ध करने के लिए बहुत से उदाहरण दिये जा सकते हैं।
यह मीडिया का ही कमाल है कि अबुल बशर नाम के एक ऐसे आलिम को, जो मोबाइल का प्रयोग तो दूर साइकिल तक चलाना तक न जानता हो, को तो आतंकवादियों के मास्टर माइण्ड के रूप में जनता के सामने पेश किया गया तथा इण्टरनेट का प्रयोग करने वाली, मोटरसाइकिल आदि चलाने वाली, बात बात में मुसलमानों के खिलाफ़ विषवमन करने वाली और रिवाल्वर से लेकर ए.के. 47 तक का प्रयोग करना जानने वाली प्रज्ञा सिंह को साध्वी के रूप में महिमामण्डित किये जाने में तनिक भी संकोच न किया गया।
सबसे ज्यादा अफ़सोसनाक बात यह है कि आर. एस. एस. के हिन्दुत्व वाली विचारधारा के लोगों की जो पौध तैयार की गई थी उसने अब परिपक्व होकर लगभग प्रत्येक राजनैतिक दल में तथा कुछ हद तक मीडिया में अपनी जड़ें जमा ली हैं जिसके नतीजे में देश की आज़ादी में हज़ारों जानें क़ुर्बान करने वाले मुस्लिम समाज को आतंकवादी दल का रूप देकर कलंकित करने में तनिक भी संकोच नहीं किया जाता है।
मुसलमानों की छवि धूमिल करने के इस अभियान में मीडिया काफी हद तक सफल रही है जिसके परिणामस्वरूप मुसलमानों को आतंक का पर्याय बना दिया गया है जोकि देशहित के पूर्ण रूप से खिलाफ़ है।

Tuesday, July 20, 2010

कटु सत्य sharif khan

अरबी भाषा का एक शब्द है ‘उलू‘ जिसका अर्थ है बुलन्दी, ऊंचाई, महानता।
इसी प्रकार से एक शब्द है ‘दुनू‘ जिसका अर्थ है पस्ती, गिरावट, निम्नता।
उलू से बना आला जिसका अर्थ हुआ महान या ऊंचा
और दुनू से बना अदना जिसका अर्थ हुआ निम्न या नीचा।
आला शब्द का स्त्रीलिंग होता है उलिया
अतः जिस प्रकार से हम किसी महापुरुष के लिये कहते हैं आला हज़रत .....
उसी प्रकार से किसी महान महिला के लिये कहेंगे उलिया हतज़रत ........
इसी के अनुसार अदना शब्द का स्त्रीलिंग होता है दुनिया अर्थात् निम्नतम श्रेणी से सम्बन्धित चीज़ के लिये दुनिया शब्द बनता है।
अल्लाह ने पूरी कायनात (ब्रह्माण्ड) में सबसे बेहतर (आला) इन्सान को बनाया है। और उसको निम्नतम श्रेणी से सम्बन्धित स्थान अर्थात् दुनिया में भेजा। इसके साथ ही अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए दुनिया से विदा होने पर मनुष्य की जो स्थिति होती है उसको उदाहरण के तौर पर समझाने हेतु हम कह सकते हें कि सफ़ेद कपड़े पहनाकर यदि कुछ लोगों को कोयलों की कोठरी में से होकर गुज़ारने के बाद उनका अवलोकन करें तो हम देखेंगे कि किसी व्यक्ति के कपड़ों पर कम दाग़ होंगे, किसी के कपडों पर अधिक होंगे, कुछ के कपड़े ऐसे होंगे कि रंग का पता ही न चलेगा और उनमें जो उत्तम श्रेणी के लोग होंगे उनके कपड़ों पर कोई दाग़ न होगा और वही कामयाब कहलाने के हक़दार होंगे। इन्हीं सब बातों को ध्यान नें रखते हुए हमको अपने जीवन का मक़सद समझना चाहिए और कोशिश करनी चाहिए कि इस दुनिया से विदा होते समय हमारा दामन दाग़दार न हो।

Monday, July 19, 2010

कर्ज़न के गधे by-sharif khan

अंगरेज़ों के राज में भारत के वायसराय लार्ड कर्ज़न जब अपने देश वापस जाने लगे तो परम्परानुसार उन्होंने लोगों को उनकी हैसियत और ख़िदमत के मुताबिक़ पुरस्कार आदि दिये। जैसी कि एक कहावत है कि, ‘‘दिल का रास्ता पेट से होकर जाता है‘‘ के मुताबिक़ सबसे ज़्यादा जिस व्यक्ति से वह खुश थे वह था उनका बावर्ची (रसोइया) लिहाज़ा उसको उसी की इच्छानुसार इनाम देने के लिये उससे कहा कि चूंकि तुमने हमारी बहुत सेवा की है और बहुत लज़ीज़ खाने खिलाए हैं इसलिए हम चाहते हैं कि तुम जो मांगना चाहो वह हमसे मांग लो। यह सुनकर बावर्ची ने कहा कि सरकार आपने सदैव मेरा ख़याल रखा है इसलिए मुझे जो कुछ आप देंगे उस से बेहतर मेरे लिए कुछ नहीं हो सकता लेकिन जब उससे दोबारा उसकी इच्छा पूछी गई तो उसने कहा कि हुज़ूर मेरा बेटा पढ़ने में कमज़ोर होने के कारण हाई स्कूल में फ़ेल हो गया है। यदि आप मुझे कुछ देना ही चाहते हैं तो मेरे बेटे को कलक्टर बना दीजिए। और इस प्रकार से उस बावर्ची का हाई स्कूल फ़ेल पुत्र कलक्टर बना दिया गया। ऐसे विशिष्ट पद उपरोक्त पाविारिक पृष्ठभूमि व शैक्षिक योग्यता वाले व्यक्ति के को सौंपा जाना एक अजूबा था और अजूबा ही साबित भी हुआ क्योंकि उसने अपने स्तर के अनुसार ऐसे अनाप शनाप काम किये कि जल्दी ही उसके ख़िलाफ़ शिकायतों की एक पूरी फ़ाइल तैयार हो गई परन्तु उसके ख़िलाफ़ कार्रवाई करने में कोई भी सक्षम नहीं था। अन्त में उसके ख़िलाफ़ तैयार की गई फ़ाइल को लार्ड कर्ज़न के अवलोकनार्थ इस टिप्पणी के साथ इंग्लैण्ड भेजा गया कि कृपया अपने इस गधे के कारनामों पर विचार करके निर्देश देने का कष्ट करें।
जवाब में लार्ड कर्ज़न ने लिखा कि भारत में बहुत सारे गधे पल रहे हैं उनके साथ यदि मेरा भी एक गधा परवरिश पाता रहेगा तो देश का बहुत ज़्यादा अहित न होगा।
उपरोक्त कथन चाहे सच पर आधारित न हो परन्तु यदि हम बारीकी से देखें तो क्या प्रत्येक क्षेत्र में कर्ज़न के गधे मौजूद नहीं हैं? पुलिस हो चाहे प्रशासन हो, ऐसे अजीब फ़ैसले लिये जाते हैं कि सुनकर हैरानी होती है। पुलिस हिरासत में मौत (क़त्ल), फ़र्जी मुठभेड़ के द्वारा क़त्ल और आला अधिकारियों के द्वारा इस प्रकार के अपराधियों का पक्ष लेना आदि वारदातों की बाढ़ सी आई हुई है और ऐसे नरपिशाचों की सरपरस्ती करने के लिये देश में ही बहुत सारे कर्ज़न मौजूद हैं। बुद्धिजीवी वर्ग इस ओर भी ध्यान देकर यदि कुछ समाधान निकाल सके तो देशहित में योगदान होगा।

Saturday, July 17, 2010

holy books are respectable पवित्र ग्रन्थ की ग़लत व्याख्या करना मानसिक दिवालियापन sharif khan

स्वतन्त्र भारत में देश के संविधान ने विचारों की अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता बेशक दी है परन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि किसी भी धर्म और आस्थाओं के खि़लाफ़ कोई भी ऐसी टिप्पणी या अनर्गल बात कही जाए जिससे लोगों की भावनाओं को ठेस पहुंचने का अन्देशा हो। बंगलादेश की कुख्यात लेखिका ‘तस्लीमा नसरीन’ ने एक अंग्रेज़ी अख़बार में पवित्र क़ुरआन की ग़लत व्याख्या देकर अपनी जहालत और इस्लाम दुश्मनी का सबूत पेश किया है। उदाहरण के तौर पर क़ुरआन के हवाले से वह कहती हैं कि सूर्य पृथ्वी के चारों ओर चक्कर लगा रहा है, जबकि पृथ्वी पहाड़ों की मदद से अपनी जगह रुकी हुई है। हालांकि क़ुरआन में ऐसा कुछ भी नहीं लिखा। क़ुरआन की ग़लत व्याख्या करके लेखिका का मक़सद शायद यह साबित करना रहा हो कि सृष्टि की रचना करने वाले अल्लाह को ऐसे सामान्य से तथ्यों का भी ज्ञान नहीं है जिनको एक हाई स्कूल का छात्र भी जानता है। इसी लिये हम सभी को पैदा करने वाले की पवित्र किताब में ग़लती निकालने के बजाय उसकी आयतों का सही मतलब जान लिया गया होता तो उपरोक्त लेखिका का मानसिक दिवालियापन ज़ाहिर न होता।
पवित्र क़ुरआन के 36वें अध्याय की 38वीं आयत में अल्लाह फ़रमाता है कि ‘‘और सूरज अपने ठिकाने की ओर जा रहा है।’’ इससे सूर्य का पृथ्वी के चारों ओर चक्कर लगाना कहीं भी साबित नहीं होता। एन्साइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका में ‘सन’ की व्याख्या में यह लिखा है कि सौरमण्डल 20 किलोमीटर प्रति सेकिण्ड के वेग से चल रहा है। अर्थात सूर्य अपने ग्रहों सहित उपरोक्त वेग से चल रहा है। यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि पवित्र कु़रआन में यह बात उस समय कही गई थी जब यह माना जाता था कि पृथ्वी ब्रह्माण्ड का केन्द्र है और चांद सूरज आदि सब उसके चक्कर लगा रहे हैं। फिर यह माना जाने लगा कि सूर्य एक जगह रुका हुआ है और पृथ्वी उसके चक्कर लगा रही है। इस प्रकार से जैसे जैसे मनुष्य के ज्ञान में वृद्धि होती गई उसी के अनुसार वह उन तथ्यों से अवगत होता गया जिनसे पहले अनभिज्ञ था। परन्तु क़ुरआन तो जैसा प्रारम्भ में था वह ही आज है और हमेशा ऐसा ही रहेगा।
इसके बाद वह लिखती हैं कि क़ुरआन में महिलाओं को ग़ुलाम तथा कामवासना को शान्त करने का साधन मात्र कहा गया है।
इस संदर्भ में पवित्र क़ुरआन की दो आयतों का हवाला देना ही पर्याप्त होगा। दूसरे अध्याय की 187वीं आयत में पति-पत्नि के आपसी सम्बन्ध के सिलसिले में अल्लाह फ़रमाता है कि ‘‘वह तुम्हारी लिबास हैं और तुम उनके लिबास हो।’’ इन थोड़े से शब्दों में बहुत कुछ कह दिया गया है। अर्थात जिस प्रकार लिबास शरीर की सुरक्षा करता है, उसी प्रकार पति-पत्नि एक दूसरे की सुरक्षा करें। और शरीर के लिए जिस प्रकार से लिबास सौन्दर्य का साधन होता है, उसी प्रकार से पति-पत्नि भी एक दूसरे की ज़ीनत बनकर रहें तथा जिस प्रकार जिस्म और लिबास के बीच कोई पर्दा नहीं होता, उसी प्रकार पति-पत्नि के बीच कोई पर्दा नहीं होता। यदि महिलाओं को ग़ुलाम समझा गया होता तो क्या उनमें परस्पर जिस्म और लिबास का सम्बन्ध क़ायम करने की बात कही जा सकती थी। इसी प्रकार पवित्र क़ुरआन के अध्याय चार की 34वीं आयत में अल्लाह फ़रमाता है कि मर्द औरतों पर क़व्वाम हैं, इस बिना पर कि अल्लाह ने उनमें से एक को दूसरे पर फ़ज़ीलत दी है।’’ जैसा कि सभी जानते हैं कि शारीरिक दृष्टि से तथा धैर्यवान होने आदि अनेक बातों में मर्द औरत की तुलना में बेहतर और मज़बूत होता है इसीलिए अल्लाह ने मर्द को औरत का क़व्वाम बनाकर ज़्यादा ज़िम्म्मेदारी सौप दी क्योंकि क़व्वाम कहते हैं सुरक्षा करने वाला तथा खाने पहनने व दूसरी हर प्रकार के हितों की देखभाल करने वाला और ज़रूरतों को पूरा करने वाला। इसका साफ़ मतलब यह है कि महिलाओं को हर प्रकार के टेन्शन से आज़ाद कर दिया। इस कथन में तो मर्द ग़ुलामों वाले काम करता हुआ प्रतीत होता है न कि औरत परन्तु तसलीमा नसरीन ने पता नहीं किस तरह से औरतों को मर्दों का ग़ुलाम समझे जाने का मतलब निकाल लिया।
इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए हमको चाहिए कि किसी भी धर्म के पवित्र ग्रन्थों की अपने तौर से ग़लत व्याख्या करने का प्रयास करने के बजाय उनमें दी गई शिक्षाओं से लोगों को अवगत कराने कोशिश करके आपसी भाईचारे को बढ़ाने में मददगार साबित हों।

Wednesday, July 14, 2010

parivartan तन्त्र का परिवर्तन वर्तमान की आवश्यकता sharif khan

भारतीय मूल के एक सज्जन, जोकि ब्रिटिश नागरिक हैं, का एक संस्मरण उन्हीं के शब्दों में सुनिए।
मैं और मेरी पत्नि लन्दन में रात को लगभग 2 बजे अपनी कार द्वारा अपने घर लौट रहे थे। हमारी गाड़ी की पीछे वाली लाइट टूटी हुई थी जिसको गश्ती पुलिस के एक सिपाही ने देख लिया और मोटरसाइकिल द्वारा हमारा पीछा करने लगा। घर चूँकि अधिक दूर नहीं रह गया था अतः घर के मेन गेट से हमारे अन्दर घुसते ही वह पुलिसमैन भी पहुंच गया। गाड़ी चँूकि मेरी पत्नि चला रही थीं अतः उन्हीं को सम्बोधित करते हुए उसने पहले तो ‘‘गुड मॉर्निंग मैडम’’ कहा और उसके बाद उसने कहा,‘‘मैडम, शायद आपको पता नहीं है कि आपकी गाड़ी की बैक लाइट टूटी हुई है। इसकी वजह से दूसरों के साथ आपको भी नुकसान पहुंच सकता है इसलिए गाड़ी चलाने से पहले आप इसको ठीक करा लीजिए।’’ इतना कहकर वह वापस चला गया।
यह बात सुनाकर वह सज्जन कहने लगे कि एक ऐसे देश का नागरिक होने पर हमें क्यों गर्व न हो जहाँ पुलिस विभाग से सम्बन्धित लोग तक इतना अच्छा व्यवहार करते हों और देश के नागरिकों का सम्मान करना अपना कर्तव्य तथा उस कर्तव्य का पालन करना अपना धर्म समझते हों।
इस मामूली सी घटना के बारे में पढ़कर सम्भव है आप इसकी तुलना हमारे देश की पुलिस के नागरिकों के प्रति व्यवहार से करें बल्कि दुव्र्यवहार कहना ज़्यादा उचित है क्योंकि सद्व्यवहार की तो पुलिस से आशा करना एक स्वप्न मात्र है। और ब्रिटेन के लोगों से ईष्र्या की भावना पैदा होने लगे। हमारे देश में पुलिस का नागरिकों के प्रति जो व्यवहार है उसको विस्तार में बताने की आवश्यकता इसलिए नहीं है कि आप दो घटनाओं का वर्णन करेंगे तो सुनने वाला उससे भी ज़्यादा दर्दनाक चार घटनाओं की जानकारी दे देगा। ऐसा नहीं है कि आम नागरिकों का पुलिस के द्वारा सताया जाना और उस ज़ुल्म को होते हुए खामोशी से देखना और चाहते हुए भी मज़लूमों की कोई मदद न कर सकना ही अफ़सोसनाक हो बल्कि उससे भी ज़्यादा दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि इस सबको हम अपनी नियति समझकर ख़ामोश रहें। इसका हल तलाश करने के लिए हमको पुलिस के इतिहास पर नज़र डालनी पड़ेगी।
1857 की क्रांति की विफलता के बाद अंग्रेज़ों ने जब दोबारा भारत में शासन की बागडोर संभाली तब शासन को मज़बूती प्रदान करने के लिए सरकार को एक ऐसे तन्त्र की ज़रूरत पेश आई जिस का जनता में भय व्याप्त हो। इसी नीति के तहत अंगे्रज़ी सरकार ने पुलिस तन्त्र कायम किया जिसका मक़सद केवल जनता के दिल में ख़ौफ़ पैदा करके हुकूमत करना था और इसको कार्यरूप देते हुए जिस प्रकार की पुलिस अंग्रेज़ों ने बनाई उसका अन्दाज़ा इस बात से लगा सकते हैं कि अंग्रेजी सरकार की पुलिस के एक मामूली सिपाही का किसी गांव में आ जाना ही ग्रामवासियों को भयभीत करने के लिए काफी होता था। सरकार की यह योजना कामयाब भी रही परन्तु पुलिस को सरकार ने निरंकुश होकर जनता पर अत्याचार करने की छूट फिर भी नहीं दी। जिसके नतीजे में न तो उस ज़माने की पुलिस माया त्यागी कांड की तरह से किसी बेबस महिला को नंगा करके घुमाती थी, न फ़र्ज़ी मुठभेड़ में बेक़सूर लोगों को मारकर अपनी बहादुरी का सिक्का जमाती थी और न ही मुल्ज़िमों को प्यास लगने पर अपना मूत्र पिला कर अपनी राक्षसी प्रवृति का सबूत देती थी। आज की पुलिस के कारनामों की जानकारी समाचार-पत्रों, टी.वी. चैनलों तथा फिल्मों के द्वारा सभी लोगों को होती रहती है।
देश को आज़ादी मिलने के समय से वर्तमान समय तक के अन्तराल को हम नैतिक मूल्यों के आधार पर तीन भागों में बांट सकते हैं। देश को आज़ाद कराने में जिन लोगों ने जान और माल की कुर्बानी दी सही अर्थों में आज़ादी की कद्र वही लोग जानते थे। जब तक शासन की बागडोर ऐसे नेताओं के हाथों में रही तब तक प्रशासन भ्रष्ट नहीं हो सका और पुलिस पर भी शासक वर्ग का अंकुश रहा।
दूसरे चरण में शासन की बागडोर जिन लोगों के हाथों में आई उनमें देश के प्रति तो बेशक प्रेम, लगाव और सेवा भावना थी परन्तु सत्ता प्राप्त करने के लिए उन लोगों नें गुण्डों, बदमाशों और विभिé प्रकार के अपराधी तत्वों का सहारा लेना प्रारम्भ कर दिया। इस प्रकार से अपराधी वर्ग के लोग किंग-मेकर की हैसियत से समाज के प्रतिष्ठित लोगों में सम्मिलित होने लगे और यहीं से नैतिक पतन आरम्भ हो गया। इसके साथ ही सरकार बनाने में सहायक रहे उन अपराधी वर्ग के लोगों को नाजाइज फायदे पहुंचाकर सन्तुष्ट करना शासक वर्ग की मजबूरी हो गई तथा इस प्रकार से शासक वर्ग द्वारा निर्देशित प्रशासन में भ्रष्टाचार पनपना शुरू हो गया। पुलिस विभाग में अपराधियों की बैठ-उठ शुरू होने से नैतिक मूल्यों में गिरावट लाजमी थी।
तीसरे चरण में देश की राजनैतिक व्यवस्था पर पूर्ण रूप से उन लोगों का क़ब्ज़ा हो गया जो दूसरे चरण में किंग-मेकर थे। इस प्रकार से अराजकता, भ्रष्टाचार और चरित्रहीनता हमारे देश की राष्ट्रीय पहचान बन गईं।
वर्तमान भारतवासियों का और विशेष रूप से देश के युवा वर्ग का नायक कैसा हो इसके लिए जो मापदण्ड अपनाया गया उसको देखकर सर शर्म से स्वतः ही झुक जाता है। अब स्थिति यह है कि एक नाचने गाने वाले व्यक्ति को पूरे देश ने अपना हीरो स्वीकार कर लिया है। एक ईसाई पादरी को उसके दो मासूम बच्चों के साथ ज़िन्दा जला देने वाला अपराधी अपने क्षेत्र का नायक बन गया। गुजरात प्रदेश से जो नायक उभरकर आया उसके मानवता को कलंकित करने वाले कारनामे याद करके शायद ही कोई भावुक व्यक्ति स्वंय को व्यथित होने से रोक पाए। एक धर्मस्थल को गिराने का इरादा करके पूरे देश के धर्म विशेष के नागरिकों को आतंकित करके अपने इरादे को पूरा करने वाले बदनाम शख्स को भावी प्रधानमन्त्री के तौर पर पेश किया जाना भारतीय संस्कृति और सभ्यता को बदनाम करने के लिए पर्याप्त है। उपरोक्त धर्मस्थल को गिराने में मुख्य भूमिका निभाने वाले उस व्यक्ति का ज़िक्र करना भी आवश्यक है जिसने इस घिनौने कार्य को करने के बाद कहा था कि हमें गर्व है कि हमने देश से इस कलंक को मिटा दिया। आज वही व्यक्ति एक ऐसी राजनैतिक पार्टी के लीडर की आंखों का तारा बना हुआ है जो उस धर्मस्थल को बचाने का दम भरता था। कहने का तात्पर्य यह है कि अच्छाई और बुराई का पैमाना बदलने से देश के भविष्य के प्रति आशंका पैदा होना लाज़िम है।
देश के राजनैतिक स्वरूप को इतना विकृत करने के लिए देश की जनता ही ज़िम्मेदार है क्योंकि चुनाव लड़ने वाले व्यक्ति का कोई भी ऐब जनता से छिपा हुआ नहीं रहता यहांतक कि उस व्यक्ति द्वारा किए गए ऐसे अपराधों से भी जनता वाक़िफ़ रहती है जिनकी रिपोर्ट पुलिस द्वारा न लिखी गई हो। यदि देश के राजनैतिक ढांचे को चरित्रहीन लोगों के वजूद से पाक न किया गया तो विदेशों में ऋषियों और मुनियों का यह देश कहीं ग़ुण्डों, बदमाशों, बलात्कारियों, क़ातिलों, रिश्वतख़ोरों और आतंकवादियों का देश न कहलाने लगे और यथा राजा तथा प्रजा की उक्ति चरितार्थ न हो जाए।
इन तथ्यों का अवलोकन करने के बाद यह निष्कर्ष निकलता है कि देश जिस भयावह स्थिति की ओर जा रहा है यदि अब भी इसको बदलने की कोशिश न की गई तो आने वाली नस्लें हमें कभी माफ़ न करेंगी।
इस सबके बावजूद मायूस होने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि संसार में कोई भी समस्या ऐसी नहीं है जिसका हल मौजूद न हो और यह समस्या तो जनता ही की पैदा की हुई है क्योंकि देश को चलाने वाले नेता लोगों का चुनाव करना देश की जनता के ही हाथ में है चाहे वह स्वतन्त्रता के प्रथम दौर सरीखे मुल्क का दर्द रखने वाले चरित्रवान नेता हों या फिर मौजूदा दौर के जातिवाद को हवा देकर जोड़ तोड़ की राजनीति करने वाले सिद्धांतहीन लोग हों। इस समस्या के समाधान के लिए देश की जनता को प्रायश्चित् के तौर पर मानवता को कलंकित करने वाले राजनीतज्ञों के वजूद से देश को पाक करना पड़ेगा। इसके लिए जनता को चाहिए कि जब भी मौक़ा मिले साफ़ छवि के लोगों को चुनकर देश की बागडोर सम्भालने का अवसर दे। इसके पश्चात् नवनिर्वाचित सरकार प्राथमिकता के तौर पर यदि निरंकुश हो चुकी पुलिस को सुधार पाई तो हमारे देश के नागरिक भी स्वंय को अपमानित सा महसूस न करके सम्मान से जीवन व्यतीत करने के सुख से परिचित हो सकेंगे।

Monday, July 12, 2010

janta ka dosh दोषी सरकार के निर्वाचक निर्दोष नहीं sharif khan

किसी वन में एक साधु तपस्या किया करता था। उसका एक शिष्य था जो अपने गुरु की सेवा करना ही अपना धर्म समझता था। साधु प्रायः ईश्वर से प्रार्थना किया करता था कि हे ईश्वर यदि तू मुझे इस देश का राजा बना दे तो मैं जनता भलाई के कामों में अपना शेष जीवन अर्पित कर दूंगा। भयमुक्त समाज का निर्माण करूंगा। जितने भी नेक और भले लोग हैं उनका उनकी नेकी व भलाई के अनुसार आदर सत्कार करूंगा तथा ज्ञानी जनों को अच्छे पदों पर सुशोभित करूंगा। आदि। साधु द्वारा की जाने वाली प्रार्थना का ज्ञान उसके शिष्य को भी था और शिष्य को ऐसा विश्वास था कि एक न एक दिन गुरु की प्रार्थना रंग लाएगी और वह अवश्य ही राजा बन जाएंगे। अतः राजा बनने पर मेरी सेवा के बदले में मन्त्रीपद मुझे भी मिल जाएगा। इसी प्रकार से काफ़ी समय व्यतीत हो गया और साधु बूढ़ा होने लगा तथा शिष्य का विश्वास डगमगाने लगा।
इसके नतीजे में शिष्य ने विचार किया कि हो सकता है कि ईश्वर को मेरे गुरू की इच्छा के अनुरूप राजा बनाना मन्ज़ूर न हो इसलिए शिष्य गुरु की प्रार्थना के विपरीत स्वयं इस प्रकार से प्रार्थना करने लगा कि हे ईश्वर यदि तू मुझे इस देश का राजा बना दे तो मैं ऐसा अराजकता का माहौल बना दूंगा कि लोग त्राहि त्राहि करने लगेंगे। जितने अपराधी हैं वह देश की नाक कहलाएंगे। भले और नेक लोगों को मुंह छिपाने की जगह मिलना सम्भव न रहेगा तथा उनको जेलों में डाल दिया जाएगा। आदि। अक्सर जोश में आकर शिष्य आवाज़ के साथ प्रार्थना करता था जिससे गुरु अप्रसन्न हो जाते थे परन्तु कुछ कह न पाते थे।
इसी प्रकार दिन बीतते गए और एक दिन ऐसा हुआ कि उस देश के राजा की मृत्यु हो गई। नए राजा के चुनाव के लिये वहां की जनता ने तय किया कि जो व्यक्ति सुबह को सबसे पहले नगर में प्रवेश करेगा उसी को राजा बना दिया जाएगा। साधु का शिष्य सुबह सवेरे भीख मांगने के लिये जाता ही था अतः नगर में प्रवेश करने वाला पहला व्यक्ति होने के कारण उसको सर्व सम्मति से देश का राजा बना दिया गया।
जिन वादों के साथ वह राजगद्दी तक पहुंचा था उनके अनुसार कार्य करते हुए उसने जेलों के द्वार खुलवा दिये और ‘जितना बड़ा अपराधी उतना बड़ा पद‘ के फ़ार्मूले पर अमल करते हुए देश की शासन व्यवस्था क़ायम की। कमज़ोर व बूढ़ों को जेलों में डाल दिया गया और शिक्षित, सज्जन व अच्छी पारिवारिक पृष्ठभूमि वाले नौजवान या तो देश से पलायन करने पर मजबूर हो गए या फिर पुलिस हिरासत में मारे जाने लगे अथवा फ़र्ज़ी मुठभेड़ में उनको जीवित रहने के हक़ से वन्चित किया जाने लगा। जब पानी सर से गुज़रने लगा तो कुछ बुज़ुर्ग लोगों ने देश को इस लानत से बचाने के लिये एक योजना बनाई जिसके अनुसार यह पता लगाया गया कि नया राजा कहां से आया है और पता लगाते हुए वह लोग उस साधु के पास पहुंचे। साधु सारी बातें सुनने के बाद अपने शिष्य को समझाने के लिये राजदरबार में पहुंचा और राजा से उसने सही रास्ते पर चलने का अनुरोध किया जिसके जवाब में शिष्य ने कहा, ‘‘महाराज, आप मेरे गुरु हैं और मैंने इतने दिन आपकी सेवा की है अतः इन बातों का ध्यान रखते हुए तो मैं आपकी जान बख्शता हूं वरना अच्छी सलाह देकर आपने जो जुर्म किया है वह माफ़ी के क़ाबिल नहीं है।
इसके बाद राजा ने दरबार में मौजूद लोगों की ओर इशारा करते हुए कहा कि, ‘‘इन बदनसीबों ने मुझमें कौन सी ख़ूबी देखी जो मुझे अपना राजा बना लिया। जिस देश की जनता राजा का चुनाव करने का अधिकार प्राप्त होने के बावजूद बिना सोचे समझे अपना राजा चुनकर जो पाप करती है, ईश्वर उस देश की जनता के सर पर उसके द्वारा किये गए इस पाप की सज़ा के तौर पर मुझ जैसा स्वार्थी, निकम्मा व मानवता को कलंकित करने वाला चरित्रहीन व्यक्ति राजा के रूप में थोप देता है। लिहाज़ा मुझ पर दोष न देकर इन पापियों को अपने किये की सज़ा भुगतने दीजिए।‘‘

Saturday, July 10, 2010

hum hain na हम से बढ़कर कौन sharif khan

‘‘बढ़ते अपराधों पर क़ाबू पाने को गुजरात पुलिस का अनौखा तरीक़ा‘‘ इस विषय के अन्तर्गत हिन्दी के एक दैनिक समाचार पत्र में छपी एक ख़बर आपके अवलोकनार्थ प्रतुत हैं ‘‘गुजरात में अपराधों के बढ़ते ग्राफ़ को घटाने और अपराधियों के काम करने के ढंग को जानने के लिए राज्य सरकार ने अनोखा तरीक़ा निकाला है। उसने पुलिस से अपराधियों की चालें सीखने को कहा है ताकि उसका उपयोग आज़ाद घूम रहे अपराधियों को पकड़ने और अपराधिक मामलों को सुलझाने में किया जा सके। अतः गुजरात पुलिस को अब ट्रेनिंग के बजाय जेल में क़ैदियों के पास भेजा जाएगा ताकि वे अपराध के ‘वास्तविक विशेषज्ञों‘ से तरकीबें सीखें। गृह विभाग द्वारा तैयार योजना के मुताबिक़ पुलिसकर्मी ज़िला जेलों में अपराधों की सज़ा काटने वाले क़ैदियों से युक्तियां सीखेंगे। विभाग ने डी.एस.पी. और पुलिस कमिश्नर को इस योजना को ग्रामीण और शहरी इलाक़ों में लागू करने को कहा है।‘‘
उपरोक्त समाचार को पढ़कर निकाले गए निष्कर्ष को आपकी राय जानने हेतु सूत्रवार प्रस्तुत किया जा रहा हैः
1. यह कि, शासन द्वारा जेलें अपराधियों को सुधारने के लिए क़ायम की गई हैं न कि अपराधों की बारीकियों को समझने और अपराधों का प्रशिक्षण देने के लिए।
2. यह कि, अपराधियों को सुधरने के लिए प्रायश्चित् करना आवश्यक है जो कि किये गए अपराध पर शर्मिन्दा होकर उसे भुलाये बिना सम्भव नहीं हो सकता।
3. यह कि, अपराध करने से ज़्यादा उसको छिपाना कठिन होता है तथा जो अपराधी योजनाबद्ध तरीक़े से कार्य करते हैं, उनके पकड़े जाने की सम्भावना कम ही रहती है लिहाज़ा फूलप्रूफ़ योजना पुलिस के साथ मिलकर अधिक आसानी से तैयार की जा सकती है। इस योजना का लाभ अपराधी तो जेल में बन्द रहने के कारण मुश्किल ही से उठा पाएंगे परन्तु पुलिस को अपराध करने में आसानी हो जाएगी और चूंकि पकड़े जाने की सम्भावना कम होगी इसलिए पुलिस की किरकिरी भी न होगी कयोंकि अब तो कोई पुलिसकर्मी यदि अपाराध करते हुए न चाहते हुए भी पुलिस को पकड़ना पड़ जाता है तो आला अधिकारियों को उसको बेदाग़ घोषित करके कभी न कभी शर्मिन्दा होना पड़ ही जाता है। जेल से छूटने के बाद कोई अपराधी यदि अपनी शिष्य पुलिस के साथ मिलकर बनाई गई योजना के अनुसार अपराध करने की केाशिश करेगा तो उसका फ़र्जी एन्काउण्टर करके पुलिस अपराध जगत में भी अपना एकछत्र राज क़ायम कर लेगी।
निष्कर्ष के तौर पर यह कहा जा सकता है कि, सुपारी लेकर क़त्ल करने, अपराधियों के साथ साठगांठ रखने, डकैती और दूसरे विभिन्न प्रकार के अपराधों से पुलिस का दामन पहले ही दाग़दार है। इस योजना के अन्तर्गत अपराध का सरकारीकरण करके प्राइवेट सैक्टर के अपराधियों सफ़ाया करने की जो बेहतरीन योजना गुजरात सरकार ने बनाई है वह तारीफ़ के काबिल है।

Tuesday, July 6, 2010

vandematram मुसलमानों पर वन्देमातरम गीत थोपना अपराध sharif khan

पवित्र क़ुरआन में अल्लाह फ़रमाता है,‘‘ला इकराहा फ़िद्दीन’’ अर्थात् दीन के मामले में कोई ज़बरदस्ती नहीं। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि इस्लाम किसी पर थोपा नहीं जा सकता परन्तु यदि इस्लाम धर्म का पालन करने में कोई कठिनाई या अड़चन पैदा की जाती है अथवा धर्म की शिक्षाओं के प्रचार की राह में बाधा उत्पन्न की जाती है या इस्लाम की शिक्षा के खि़लाफ़ कोई भी बात यदि मुसलमानों पर थोपी जाती है तो इन सब कठिनाइयों, अड़चनों और बाधाओं आदि के खि़लाफ़ आवाज़ उठाना हर मुसलमान का कर्तव्य (फ़र्ज़) हो जाता है। सारी ज़मीन अल्लाह ही की है। प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य है कि वह एक ऐसे समाज के निर्माण में योगदान करे कि धरती पर कहीं भी फ़साद न फैले, सबको सम्मान से जीने का अधिकार प्राप्त हो, किसी भी व्यक्ति की बेवजह हत्या न हो तथा व्याभिचार, बलात्कार, सूदखोरी आदि बुराइयों से लोगों को बचाया जाए।
‘‘अल्लाह के एक और केवल एक होने पर विश्वास रखना, अल्लाह के समकक्ष किसी को न समझना तथा केवल उसी की इबादत (वन्दना या पूजा) करना‘‘ इस्लाम धर्म की बुनियाद है। इस प्रकार जब अल्लाह के अलावा किसी की इबादत जाइज़ ही नहीं है और इस्लाम धर्म की मूल भावना के ही विरुद्ध है तो इसका सीधा सा अर्थ यह है कि एक मुसलमान तभी तक मुसलमान है जब तक वह अल्लाह के अलावा किसी और की इबादत नहीं करता चाहे मां(जननी) हो, वतन हो, पवित्र किताब हो या फिर कुछ और हो। जहां तक मातृभूमि की पूजा का सवाल है, तो इस बारे में केवल इतना ही कहना काफ़ी है कि पूजा तो अपनी मां की भी नहीं की जा सकती जो हमारी वास्तविक जननी है। सम्मान में सर्वोच्च स्थान मां का अवश्य है परन्तु पूजनीय नहीं है। अतः मुसलमानों पर उनकी की आस्था और विश्वास के खिलाफ़ वन्दे मातरम् गीत को थोपकर क्या हिन्दू-मुस्लिम भाईचारे को चोट नहीं पहुंचाई जा रही है ? अतः देश के बुद्धिजीवी वर्ग से हमारी अपील है कि वह संविधान का अध्ययन करके देखे कि वन्दे मातरम् गीत को थोपकर मुसलमानों को इस्लाम धर्म की मूल भावना के विरुद्ध कार्य करने के लिये मजबूर करना क्या संविधान के अनुसार अपराधिक कार्य है ? और यदि संविधान इसको अपराधिक कार्य मानता हो तो ऐसे लोगों के खिलाफ़ कानूनी कार्यवाही करके देश में पनप रहे नफरत के माहौल से देश को बचाने में योगदान करें।
इसके साथ ही यह बात समझना भी आवश्यक है कि इबादत हुकुम मानने को कहते हैं न कि सर झुकाने को लिहाजा जब यह कहा जाता है कि केवल अल्लाह ही की इबादत करो तो इसका सीधा सा अर्थ होता है कि सिर्फ़ अल्लाह ही का हुकुम मानो। अब चूंकि अल्लाह ने अपने अलावा किसी के आगे सर झुकाने की इजाज़त नहीं दी इसलिए वन्देमातरम कहकर इसके खि़लाफ़ अमल करके गुनाहगार नहीं बना जा सकता। इस चर्चा का निष्कर्ष यह निकला कि अल्लाह ने चूंकि देश से ग़द्दारी की भी छूट नहीं दी है लिहाज़ा वन्देमातरम न कहते हुए देश के प्रति वफ़ादार रहना तो अल्लाह के हुकुम के मुताबिक़ हर मुसलमान की मजबूरी है।

Monday, July 5, 2010

देश की मुख्यधारा क़ुरान की रोशनी में

अल्लाह सुबहाना व तआला पवित्र क़ुरआन के चैथे अध्याय की 135वीं आयत में फ़रमाता है, अनुवाद,‘‘ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, इन्साफ़ का झण्डा उठाओ और ख़ुदा वास्ते के गवाह बनो चाहे तुम्हारे इन्साफ़ और तुम्हारी गवाही की चपेट में तुम स्वयं या तुम्हारे मां बाप और रिश्तेदार ही क्यों न आते हों। प्रभावित व्यक्ति (जिसके ख़िलाफ़ तुम्हें गवाही देनी पड़े) चाहे मालदार हो या ग़रीब, अल्लाह तुमसे ज़्यादा उनका भला चाहने वाला है। अतः तुम अपनी इच्छा के अनुपालन में इन्साफ़ से न हटो। और अगर तुमने लगी लिपटी बात कही या सच्चाई से हटे तो जान रखो कि, जो कुछ तुम करते हो, अल्लाह को उसकी ख़बर है।‘‘
उपरोक्त आदेश उन लोगों के लिए है जो ईमान वाले हैं। ईमान वाले वह लोग होते हैं जो अल्लाह का हुकुम मानने वाले हों। अतः इस आयत में दिये गए आदेश के अनुसार अमल करके हम समाज में फैली हुई बहुत सी बुराइयों को दूर करने में सहायक हो सकते हैं। आजकल खाने पीने की चीज़ों और दवाइयों आदि में मिलावट करके जो लोग इन्सानों की ज़िन्दगियों से खिलवाड़ कर रहे हैं उनकी ओर से नज़र बचाने के बजाय हमको चाहिए कि ऐसे घिनौने काम करने वाले समाज दुश्मन तत्वों की जानकारी यदि हम रखते हों तो इस बात की सूचना हम सम्बन्धित सरकारी विभागों को दें चाहे इससे हमारा कोई निजी नुकसान होता हो या हमारा कोई सगा सम्बन्धी ही क्यों न प्रभावित हो रहा हो।
इस काम के करने में हो सकता है कुछ ऐसी अड़चनें आएं जिनकी आपने कल्पना भी न की हो। उदाहरण के तौर पर जब आप इस बिगड़े हुए समाज में सुधार की बात करेंगे तो हो सकता है कि आपके कुछ ऐसे मित्र व सम्बन्धी आपके खि़लाफ़ हो जाएं जिनके उन मिलावटखोरों से मधुर सम्बनध हों जिनके खि़लाफ़ आप कार्रवाई करने जा रहे हैं। दूसरी दिक्क़त आपको सम्बन्धित सरकारी विभागों व पुलिस के उन भ्रष्ट कर्मचारियों से पेश आ सकती है जिनकी सरपरस्ती में यह धन्धा फलफूल रहा है। तीसरी दिक्क़त उन राजनैतिक नेताओं से आ सकती है जिनकी परवरिश इसी गन्दगी में हुई है और अब सफ़ेदपोश लोगों में शामिल होकर चोरी छिपे इन अपराधों में सहायता कर रहे हैं।
इस कार्य को अकेले करने के बजाय यदि संस्थागत (इजतेमाई) तौर से किया जाए और देश की मुख्यधारा में शामिल कर लिया जाए तो मुख्यधारा का ढिंढोरा पीटने वालों में शामिल मिलावटखोरों को प्रायश्चित् करने का अवसर भी मिल जाएगा।

Friday, July 2, 2010

आनर किलिंग एक समस्या और उसका समाधान

विश्व की प्राचीनतम सभ्यताओं में मैसोपोटामिया (इराक़), भारत व चीन के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। भारत की सभ्यता व संस्कृति का एक गौरवमयी इतिहास रहा है जिसको किसी भी प्रकार से नज़रअन्दाज़ नहीं किया जा सकता। सभ्यता का वजूद क़ायम रहे, इसके लिए आवश्यक है आदर्श समाज का निर्माण। भारत में समय समय पर जन्म लेने वाले महापुरुषों का आदर्श समाज के निर्माण में जो योगदान रहा है उसके महत्त्व को भुलाया नहीं जा सकता। परिवार समाज की इकाई होता है। एक परिवार में जो स्त्री-पुरुष होते हैं उनमें परस्पर बाप-बेटी, मां-बेटा तथा बहन-भाई के सम्बन्ध तो जन्म के आधार पर होते हैं परन्तु पति-पत्नि का सम्बन्ध समाज के द्वारा मान्यता दिये जाने पर ही वैध होता है जिसको हम विवाह कहते हैं। समाज निर्माण के लिये जो परम्पराएं बनाई गईं, जिन बातों को निषिद्ध किया गया तथा जिन बातों का समावेश करके मान्यता दी गई इसी को हम संस्कृति कहते हैं। अपनी संस्कृति से लगाव होना मानव प्रकृति का अंग है।

अंग्रेज़ों के चंगुल से देश तो आज़ाद हो गया लेकिन मानसिक रूप से भारत की जनता और विशेष रूप से संविधान निर्माता उनकी ग़ुलामी से आज़ाद न हो सके और उसके बाद शासन की बागडोर सम्भालने वाले नेता भी किसी न किसी रूप में उसी मानसिकता से दबावग्रस्त रहे जिसके नतीजे में आज का सामाजिक ढांचा बिगाड़ के कगार खड़ा है। संविधान निर्माताओं ने विशेष रूप से इंगलैंड, अमेरिका, फ्रांस व इटली के संविधानों की मदद से अपने देश का संविधान बनाया। मानसिक ग़ुलामी का इससे बढ़कर और क्या सबूत हो सकता है कि जिन गोरी चमड़ी वालों से देश को आज़ाद कराया था, उन्ही के संवैधानिक ढांचे के अनुसार निर्मित संविधान देश पर थोप दिया गया। ‘‘कौवा चला हंस की चाल, अपनी चाल भी भूल गया।‘‘ इस कहावत में कौवे का प्रगतिशील होना तो कम से कम दिखाई दे रहा है क्योंकि उसने अपने से बेहतर की नकल करने की कोशिश की लेकिन हमारे देश के नेताओं ने तो इस कहावत ही को पलट दिया। सभ्यता व संस्कृति के नाम पर शून्य अमेरिका जैसे भौतिकवादी देश का महान सभ्यता व संस्कृति वाला महान भारत देश यदि अनुसरण करता है तो फिर कहावत ऐसे होगी, ‘‘हंस चला कौवे की चाल, अपनी चाल भी बरबाद कर दी।‘‘

आज़ादी मिलने के बाद देश में लोकतान्त्रिक ढांचे की रूपरेखा बनाई गई। लोकतन्त्र की परिभाषानुसार सरकार ऐसी होनी चाहिए जो जनता की हो, जनता द्वारा निर्वाचित हो तथा जनता के लिए हो। लिहाज़ा जनता के हितों को दृष्टि में रखते हुए जनता की इच्छा व आवश्यकतानुसार क़ानून बनाये जाएं तथा आवश्यकता पड़ने पर संविधान में संशोधन का भी प्रावधान रखा गया। विधायिका का कार्य आवश्यकतानुसार संविधान में संशोधन करना तथा न्यायपालिका का कार्य उसकी व्याख्या करना है। अब हम सूत्रवार अपनी बात को स्पष्ट करने का प्रयत्न करते हैं

1- यह कि, देश की जनता ने जब समलैंगिकता को जायज़ क़रार दिये जाने की कभी मांग नहीं की तो फिर मानवता को कलंकित करने वाले ऐसे घिनौने कृत्य को क्यों क़ानूनी सुरक्षा प्रदान करने का प्रावधान किया जा रहा है ?

2- यह कि, देश की जनता ने जब वयस्क लड़के-लड़कियों को बिना विवाह किये साथ रहने की कभी मांग नहीं की तो फिर विवाह के द्वारा बनाए गए सामाजिक ढांचे को छिé भिé करने के लिए ‘लिव इन रिलेशनशिप‘ का क़ानून में प्रावधान करने की क्यों कोशिश की जा रही है ?

3- यह कि, देश की जनता अपनी सांस्कृतिक परम्पराओं को बचाने के लिए जब अपने जिगर के टुकड़ों तक की बलि देने को तैयार है तो फिर मां, बाप और समाज को ठेंगा दिखाकर घर से भागकर ब्याह रचाने वाले कम उम्र युवक युवतियों को विशिष्टता प्रदान करके क्यों सामाजिक ढांचे को छिé भिé करने की कोशिश की जा रही है ?

विधायिका, न्यायपालिका, कार्यपालिका तथा मीडिया लोकतन्त्र के यह चार स्तम्भ हैं। इनको संचालित करने वालेे लोग कहीं दूसरे देश से न आकर इसी सामाजिक परिवेश का अंग हैं परन्तु उपरोक्त तीन सूत्रों में दर्शाई गई बातों पर यदि ग़ौर करें तो क्या ऐसा प्रतीत नहीं होता जैसे सबने मिलकर देश की संस्कृति का जनाज़ा निकालने की एकसूत्रीय कार्ययोजना तैयार की हुई है ?

ऐसी विकट परिस्थिति में, बजाय मायूस होने या देश के वातावरण को दूषित होते देख शर्म से गर्दन झुकाकर बैठे रहने के, बुद्धिजीवी वर्ग को चाहिए कि इस समस्या पर बहस करके समाधान खेजने की कोशिश करें वरना भारत जैसे महान देश में भी निकट भविष्य में अमेरिका जैसा मानवता को कलंकित करने वाला माहौल बनते देर नहीं लगेगी और फिर बच्चे पैदा होने के बाद विवाह के बारे में विचार किया जाया करेगा। उचित मार्गदर्शन करने वाले बुजुर्गों को तो वृद्धाश्रम में भेजकर पीछा छुड़ाने चलन बनने लगा है ही।

उपरोक्त सूत्रवार कही गई बातों को समस्या का जो रूप दे दिया गया है उसके समाधान के लिये सुझाव के तौर पर हम यह कह सकते हें कि सूत्र नं. 1 व 2 वाले कृत्य को वैधानिक संरक्षण देने के बजाय अपराध घोषित किया जाए तथा नं. 3 के अंतर्गत किये गए विवाह को मान्यता देने के लिये नियमों को कड़ा करने की आवश्यकता पर बल दिया जाए। जैसे कि ऐसे विवाह की मान्यता के लिये आयु 25 वर्ष या अधिक रखी जाए क्योंकि कम उम्र में प्रेम न होकर वासना ही होती है तथा 25 साल की उम्र के बाद प्रेम और वासना के अन्तर को समझने की क्षमता पैदा हो जाती है। ध्यान रहे, ऐसे विवाह प्रायः 25 वर्ष से कम उम्र के अपरिपक्व मस्तिष्क के युगल ही करते हैं। सामाजिक मान्यताओं के ख़िलाफ़ किये गए विवाह के द्वारा अपने समाज के बुज़ुर्गों की मान मर्यादा का उल्लंघन करके रचाए गए विवाह को क़ानून चाहे संरक्षण दे परन्तु ऐसे प्रेमी युगलों को शारीरिक यातना देने के बजाय सामाजिक बहिष्कार के तौर पर दण्डित तो किया ही जा सकता है। इस प्रक्रिया के फलस्वरूप आनर किलिंग के नाम पर की जाने वाली हत्याओं में काफ़ी हद तक कमी आ सकती है।