अल्लाह सुबहाना व तआला पवित्र क़ुरआन के 7 वें अध्याय की 175 व 176 वीं आयतों में फ़रमाता है, अनुवाद, ‘‘और उनसे उस व्यक्ति का हाल बयान करो जिसे हमने अपनी आयतों का इल्म प्रदान किया था किन्तु वह उनकी पाबन्दी से निकल भागा। आख़िरकार शैतान उसके पीछे लग गया यहां तक कि वह गुमराह लोगों में शामिल हो गया। यदि हम चाहते तो इन आयतों के द्वारा उसे उच्चता प्रदान करते किन्तु वह तो ज़मीन ही की ओर झुक कर रह गया और अपनी इच्छा के पीछे चला। अतः उसकी मिसाल कुत्ते जैसी है कि यदि तुम उस पर हमला करो तब भी वह ज़बान लटकाए हांपता रहे या तुम उसे छोड़ दो तब भी वह ज़बान लटकाए ही रहे। यही मिसाल उन लोगों की है, जिन्होंने हमारी आयतों को झुठलाया हैं तो तुम वृत्तान्त उनको सुनाते रहो, शायद कि वह सोच विचार कर सकें।‘‘
जिस व्यक्ति की यहां मिसाल दी गई है उसको अल्लाह की आयतों का ज्ञान था अर्थात् सत्य को पहचानता था और यदि वह उसी के अनुसार अपने जीवन को ढाल लेता तो अल्लाह उसको इन्सानियत का ऊंचा स्थान प्रदान करता लेकिन ऐसा न करके वह दुनिया के लाभ, लज़्ज़तों तथा ऐशो आराम में पड़ गया। बुराई को अपनाकर उसने उन सब बातों से किनारा कर लिया जो इल्म हासिल होने की वजह से उस पर लाज़िम थीं। शैतान, जो कि ऐसे लोगों की घात में रहता है, उसके पीछे लग गया और उसे निम्न से निम्नतर की ओर ले जाते हुए गुमराहों में शामिल कर दिया।
इसके बाद अल्लाह तआला उस व्यक्ति की स्थिति की कुत्ते से उपमा देता है जिसकी हमेशा लटकती हुई ज़बान और उससे टपकती हुई राल एक न बुझने वाली प्यास को ज़ाहिर करती है। कुत्ते की ख़ास तौर से यह आदत होती है कि वह मुंह लटकाए हुए हर वस्तु को इस आशा में सूंघता हुआ चलता है कि शायद कुछ खाने की चीज़ हाथ लग जाए। उसको डांटो तब भी भौंकता है और यदि उसके हाल पर छोड़ दो तब भी भौंकता है और इसी आशा में ज़बान लटकाए हुए देखता रहता है कि शायद कुछ खाने को मिल जाए चाहे भूखा हो या न हो। उसको यदि कोई चीज़ फैंक कर मारी जाती है तो उसको भी इस आशा मे लपकता है कि शायद हड्डी या कोई दूसरी खाने की वस्तु हो। कहीं पर बहुत सा खाने को हो तो दूसरे कुत्तों के साथ बांट कर खाने के बजाए अकेला हड़पना चाहता है। इसके अतिरिक्त दूसरी चीज़ जिसको पाने के लिए भटकता रहता है वह है सैक्स। ऐसा लगता है कि जैसे खाना तथा यौनेच्छा पूर्ति ही उसके जीवन का लक्ष्य हो। अपने व दूसरे साथी के सिर्फ़ जननांग से ही सबसे ज़्यादा दिलचस्पी रखता है मुलाक़ात होने पर केवल उसी स्थान को सूंघता व चाटता है। ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे कुत्ता भूख और सैक्स का पर्याय हो।
कहने का तात्पर्य यह है कि दुनिया परस्त व्यक्ति जब इल्म और ईमान की बन्दिशों से आज़ाद होकर भागता है और नफ़्स (इच्छाओं) का ग़ुलाम बन जाता है तो उसकी हालत कुत्ते की हालत जैसी हो जाती है। हमको चाहिए कि अपने ऊपर नज़र डाल कर अपनी स्थिति का अवलोकन करते रहा करें और यदि स्वंय को ऐसी राह पर पाएं जो कुत्ते वाली स्थिति की ओर ले जाने वाली हो तो राह बदल कर जीवन को बर्बाद होने से बचा लें।
Tuesday, August 31, 2010
Sunday, August 29, 2010
Straight Path सीधा रास्ता sharif khan
अल्लाह ने तो ‘कुछनहीं‘ से सब कुछ बनाया है। इन्सान को इतना ज्ञान दिया है कि वह उसका प्रयोग करके बहुत कुछ करने में सक्षम है जिसके उदाहरण के तौर पर साइन्स में की गई उन्नति को पेश किया जा सकता है। इसके बावजूद यदि ज़रूरत की सारी चीज़ें उपलब्ध करा दी जाएं तो हवाई जहाज़ आदि मशीनी चीज़ें तो वह बेशक बना सकता है परन्तु जानदार चीज़ों में एक मक्खी तक नहीं बना सकता। कुछ भी उपलब्ध न होने की स्थिति में वह कुछ भी नहीं बना सकता लिहाज़ा सक्षम होने के बावजूद कितना अक्षम है। और हवाई जहाज़ भी इन्सान तो बेशक बना सकता है परन्तु अल्लाह के अलावा जिनकी उपासना की जाती है यदि उनका कोई वजूद है तब भी वह सब मिलकर इतना भी नहीं बना सकते जितना इन्सान बना लेता है। हैं न इन्सान से भी ज़्यादा कमज़ोर! अपने से कमज़ोर की उपासना का औचित्य समझ से बाहर है। इस बात को आलोचना न समझ कर कसौटी के रूप में लेकर देखें ताकि सही व ग़लत के निर्णय में सुविधा हो सके।
इसी संदर्भ में अल्लाह सुबहाना व तआला पवित्र क़ुरान के 22 वें अध्याय की 73 वीं आयत में फ़रमाता है, अनुवाद, ‘‘ऐ लोगो! एक मिसाल पेश की जाती है। उसे ध्यान से सुनो, अल्लाह से हटकर तुम जिन्हें पुकारते हो वह सब मिलकर एक मक्खी भी पैदा करना चाहें तो नहीं कर सकते और अगर मक्खी उनसे कोई चीज़ छीन कर ले जाए तो उससे वह उसको छुड़ा भी नहीं सकते। मदद चाहने वाले भी कमज़ोर और जिनसे मदद चाही जाती है वह भी कमज़ोर।‘‘
पवित्र क़ुरआन एक दुआ से आरम्भ होता है और जब नमाज पढ़ी जाती है तो वह भी उस दुआ के बग़ैर पूरी नहीं होती। उस दुआ में अल्लाह रब्बुल आलमीन से सीधा रास्ता (सिराते मुस्तक़ीम) दिखाए जाने की प्रार्थना की जाती है ताकि ग़लत रास्ते पर चल कर कहीं गुमराही के अंधेरों में न भटकते फिरें।
इसी संदर्भ में अल्लाह सुबहाना व तआला पवित्र क़ुरान के 22 वें अध्याय की 73 वीं आयत में फ़रमाता है, अनुवाद, ‘‘ऐ लोगो! एक मिसाल पेश की जाती है। उसे ध्यान से सुनो, अल्लाह से हटकर तुम जिन्हें पुकारते हो वह सब मिलकर एक मक्खी भी पैदा करना चाहें तो नहीं कर सकते और अगर मक्खी उनसे कोई चीज़ छीन कर ले जाए तो उससे वह उसको छुड़ा भी नहीं सकते। मदद चाहने वाले भी कमज़ोर और जिनसे मदद चाही जाती है वह भी कमज़ोर।‘‘
पवित्र क़ुरआन एक दुआ से आरम्भ होता है और जब नमाज पढ़ी जाती है तो वह भी उस दुआ के बग़ैर पूरी नहीं होती। उस दुआ में अल्लाह रब्बुल आलमीन से सीधा रास्ता (सिराते मुस्तक़ीम) दिखाए जाने की प्रार्थना की जाती है ताकि ग़लत रास्ते पर चल कर कहीं गुमराही के अंधेरों में न भटकते फिरें।
Thursday, August 12, 2010
Independence day भारत का स्वतन्त्रता दिवस sharif khan
मानव की प्रकृति स्वतन्त्र रहने की रही है। किसी की ग़ुलामी में रहना सबसे ज़्यादा पीड़ाजनक होता है। ग़ुलामी के जीवन की भयावहता को गुलाम ही जान सकता है। ग़ुलाम एक व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति का भी हो सकता है और एक देश किसी दूसरे देश का भी हो सकता है। हमारे देश ने भी काफ़ी समय तक अंगरेज़ों की ग़ुलामी का दंश झेला है। देशभक्ति की भावना देशवासियों में जब जागृत हुई तो अपनी जान की परवाह न करते हुए अंगरेज़ों के ख़िलाफ़ आन्दोलन शुरू कर दिया और जैसे जैसे उस आन्दोलन को दबाने के लिए अंगरेज़ों के अत्याचार बढ़ते गए, आन्दोलनकारियों के हौसले भी उतने बुलन्द होते चले गए। इस प्रकार से बहुत सी क़ीमती जानों की क़ुर्बानी देने के बाद हमारा प्यारा देश 15 अगस्त 1947 को अंगरेज़ों के वजूद से पाक होकर स्वतन्त्र हो गया। अतः इस दिन को हम हर वर्ष स्वतन्त्रता दिवस के रूप में मनाते हैं।
देश को दो भागों में बांटकर स्वतन्त्र किया गया और इस प्रकार से पाकिस्तान वजूद में आया। भारत के इतिहास में इससे ज़्यादा ख़ुशी का दिन शायद ही कोई रहा हो। हालांकि पाकिस्तान विशेष रूप से मुसलमानों के लिये भारत में से काटकर बनाया गया था परन्तु भारत में रह रहे मुसलमानों को इस बात की आज़ादी दी गई थी कि जो स्वेच्छा से पाकिस्तान जाना चाहे वह चला जाए और जो भारत में रहना चाहे वह यहीं रहे परन्तु बहुत से मुसलमानों को एक तरफ़ तो साम्प्रदायिक तत्वों द्वारा पलायन करने पर मजबूर किया गया तथा दूसरी तरफ़ रास्ते में अराजक तत्वों से उनकी सुरक्षा का कोई प्रबन्ध नहीं किया गया जिसके नतीजे में लाखों की तादाद में मुसलमानों को अपनी जानें गंवानी पड़ीं। इस प्रकार से आज़ादी की ख़ुशी और स्वजनों की मौत के ग़म के साथ पहला स्वतन्त्रता दिवस मनाया गया। इसी तरह वर्ष पर वर्ष गुज़रते गए और 15 अगस्त 2010 को देश की स्वतन्त्रता का 64वां पर्व आ गया जिसको धूमधाम से मनाने की तैयारियां चल रही हैं। जैसी कि परम्परा रही है उसी के अनुसार इस पर्व पर देश के प्रधानमन्त्री का भाषण होगा जिसमें वह बीते वर्ष की उपलब्धियां गिनवाएंगे और भविष्य की योजनाओं से अवगत कराएंगे।
इन 63 वर्ष के अन्तराल में देश ने क्या खोया और क्या पाया ? इस प्रश्न के उत्तर पर चर्चा करें तो हम आसानी से इस नतीेजे पर पहुंच सकते हैं कि देश की आज़ादी हासिल करने में जिन लोगों ने क़ुर्बानियां दी थीं और पुलिस की बदसलूकी के अलावा जेलों में दिये गए कष्ट झेले थे, वह लोग जब तक सत्ता में रहे तब तक देश का भविष्य उज्जवल होने के लक्षण नज़र आते रहे। उसके बाद के अन्तराल को हम नैतिक मूल्यों के आधार पर दो चरणों में बांट सकते हैं।
पहले चरण में शासन की बागडोर जिन लोगों के हाथों में आई उनमें देश के प्रति तो बेशक प्रेम, लगाव और सेवा भावना थी परन्तु सत्ता प्राप्त करने के लिए उन लोगों नें गुण्डों, बदमाशों और विभिé प्रकार के अपराधी तत्वों का सहारा लेना प्रारम्भ कर दिया था। इस प्रकार से अपराधी वर्ग के लोग किंग-मेकर की हैसियत से समाज के प्रतिष्ठित लोगों में सम्मिलित होने लगे और यहीं से नैतिक पतन आरम्भ हो गया। इसके साथ ही सरकार बनाने में सहायक रहे उन अपराधी वर्ग के लोगों को नाजाइज फायदे पहुंचाकर सन्तुष्ट करना शासक वर्ग की मजबूरी हो गई तथा इस प्रकार से शासक वर्ग द्वारा निर्देशित प्रशासन में भ्रष्टाचार पनपना शुरू हो गया। पुलिस विभाग में अपराधियों की बैठ-उठ शुरू होने से नैतिक मूल्यों में गिरावट लाजमी थी।
दूसरे चरण में देश की राजनैतिक व्यवस्था पर पूर्ण रूप से उन लोगों का क़ब्ज़ा हो गया जो पहले चरण में किंग-मेकर थे। इस प्रकार से अराजकता, भ्रष्टाचार और चरित्रहीनता हमारे देश की राष्ट्रीय पहचान बन गईं। इस समय हमारा देश इसी नाज़ुक दौर से गुज़र रहा है।
ऐसे हालात में भी मायूस होने के बजाय कुछ उपाय करना आवश्यक हो गया है। जिस प्रकार से देश के जागरूक नागरिकों ने देश पर राज करने वाले विदेशियों के पन्जे से देश को आज़ाद करा लिया था उसी प्रकार ऐसे लोगों की एक बार फिर परीक्षा की घड़ी आ गई है जोकि पहले से आसान है।
करना केवल यह है कि जनता में इस बात की जागृति पैदा की जाए कि वह अपने वोट का सही प्रयोग करना सीख ले और भ्रष्ट नेताओं के चंगुल से देश को आज़ाद कराने में सहयोग करे तभी सही आर्थों में स्वतन्त्रता दिवस का पर्व मनाने में एक अजीब क़िस्म के आनन्द की अनुभूति होगी।
देश को दो भागों में बांटकर स्वतन्त्र किया गया और इस प्रकार से पाकिस्तान वजूद में आया। भारत के इतिहास में इससे ज़्यादा ख़ुशी का दिन शायद ही कोई रहा हो। हालांकि पाकिस्तान विशेष रूप से मुसलमानों के लिये भारत में से काटकर बनाया गया था परन्तु भारत में रह रहे मुसलमानों को इस बात की आज़ादी दी गई थी कि जो स्वेच्छा से पाकिस्तान जाना चाहे वह चला जाए और जो भारत में रहना चाहे वह यहीं रहे परन्तु बहुत से मुसलमानों को एक तरफ़ तो साम्प्रदायिक तत्वों द्वारा पलायन करने पर मजबूर किया गया तथा दूसरी तरफ़ रास्ते में अराजक तत्वों से उनकी सुरक्षा का कोई प्रबन्ध नहीं किया गया जिसके नतीजे में लाखों की तादाद में मुसलमानों को अपनी जानें गंवानी पड़ीं। इस प्रकार से आज़ादी की ख़ुशी और स्वजनों की मौत के ग़म के साथ पहला स्वतन्त्रता दिवस मनाया गया। इसी तरह वर्ष पर वर्ष गुज़रते गए और 15 अगस्त 2010 को देश की स्वतन्त्रता का 64वां पर्व आ गया जिसको धूमधाम से मनाने की तैयारियां चल रही हैं। जैसी कि परम्परा रही है उसी के अनुसार इस पर्व पर देश के प्रधानमन्त्री का भाषण होगा जिसमें वह बीते वर्ष की उपलब्धियां गिनवाएंगे और भविष्य की योजनाओं से अवगत कराएंगे।
इन 63 वर्ष के अन्तराल में देश ने क्या खोया और क्या पाया ? इस प्रश्न के उत्तर पर चर्चा करें तो हम आसानी से इस नतीेजे पर पहुंच सकते हैं कि देश की आज़ादी हासिल करने में जिन लोगों ने क़ुर्बानियां दी थीं और पुलिस की बदसलूकी के अलावा जेलों में दिये गए कष्ट झेले थे, वह लोग जब तक सत्ता में रहे तब तक देश का भविष्य उज्जवल होने के लक्षण नज़र आते रहे। उसके बाद के अन्तराल को हम नैतिक मूल्यों के आधार पर दो चरणों में बांट सकते हैं।
पहले चरण में शासन की बागडोर जिन लोगों के हाथों में आई उनमें देश के प्रति तो बेशक प्रेम, लगाव और सेवा भावना थी परन्तु सत्ता प्राप्त करने के लिए उन लोगों नें गुण्डों, बदमाशों और विभिé प्रकार के अपराधी तत्वों का सहारा लेना प्रारम्भ कर दिया था। इस प्रकार से अपराधी वर्ग के लोग किंग-मेकर की हैसियत से समाज के प्रतिष्ठित लोगों में सम्मिलित होने लगे और यहीं से नैतिक पतन आरम्भ हो गया। इसके साथ ही सरकार बनाने में सहायक रहे उन अपराधी वर्ग के लोगों को नाजाइज फायदे पहुंचाकर सन्तुष्ट करना शासक वर्ग की मजबूरी हो गई तथा इस प्रकार से शासक वर्ग द्वारा निर्देशित प्रशासन में भ्रष्टाचार पनपना शुरू हो गया। पुलिस विभाग में अपराधियों की बैठ-उठ शुरू होने से नैतिक मूल्यों में गिरावट लाजमी थी।
दूसरे चरण में देश की राजनैतिक व्यवस्था पर पूर्ण रूप से उन लोगों का क़ब्ज़ा हो गया जो पहले चरण में किंग-मेकर थे। इस प्रकार से अराजकता, भ्रष्टाचार और चरित्रहीनता हमारे देश की राष्ट्रीय पहचान बन गईं। इस समय हमारा देश इसी नाज़ुक दौर से गुज़र रहा है।
ऐसे हालात में भी मायूस होने के बजाय कुछ उपाय करना आवश्यक हो गया है। जिस प्रकार से देश के जागरूक नागरिकों ने देश पर राज करने वाले विदेशियों के पन्जे से देश को आज़ाद करा लिया था उसी प्रकार ऐसे लोगों की एक बार फिर परीक्षा की घड़ी आ गई है जोकि पहले से आसान है।
करना केवल यह है कि जनता में इस बात की जागृति पैदा की जाए कि वह अपने वोट का सही प्रयोग करना सीख ले और भ्रष्ट नेताओं के चंगुल से देश को आज़ाद कराने में सहयोग करे तभी सही आर्थों में स्वतन्त्रता दिवस का पर्व मनाने में एक अजीब क़िस्म के आनन्द की अनुभूति होगी।
Wednesday, August 11, 2010
shaitani chaal शैतानी चंगुल में फंसता समाज sharif khan
पैग़म्बर हज़रत मौहम्मद सल्ल० की शान में गुस्ताख़ी के तौर पर डेनमार्क के एक समाचार पत्र में कार्टून छापने जैसा दुस्साहसिक कार्य अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर मुसलमानों के खिलाफ़ चल रहे विभ्न्नि प्रकार के षडयन्त्रों की श्रंखला की एक कड़ी है। अन्तर्राष्ट्रीय क़ानून के मुताबिक़ जिस देश में कोई जुर्म होता है उसी देश के क़ानून के अनुसार अभियुक्त के खि़लाफ़ कार्यवाही होती है। चूंकि डेनमार्क की सरकार ने इस हरकत को ‘विचारों की अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता‘ का नाम देकर साफ़ तौर पर कह दिया है कि प्रत्येक व्यक्ति को स्वतन्त्र रूप से अपने विचार व्यक्त करने का अघिकार है इसलिये सरकार इसके खि़लाफ़ कोई कार्यवाही नहीं कर सकती। इन परिस्थितियों में ‘विचारों की अभिव्क्ति की स्वतन्त्रता’ की अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर व्याख्या की आवश्यकता है।
बारूद के ढेर पर बैठे हुए संसार की बरबादी के लिये विकृत मनोवृत्ति के व्यक्ति के द्वारा किया गया कोई एक कार्य ही चिंगारी साबित हो सकता है। चाहे वह कार्य किताब के रूप में हो या कार्टून के रूप में हो अथवा किसी धर्मग्रंथ में दिये गए आदेशों, निर्देशों में परिवर्तन की मांग के रूप में हो या फिर किसी समाज की आस्था का ध्यान न रखते हुए उसके द्वारा पूजनीय देवी-देवताओं के अश्लील चित्रों के रूप में हो। इसके साथ एक बात और भी आवश्यक है कि ऐसे समाज दुश्मन लोगों अथवा संस्थाओं के समर्थन में लामबन्द होने वाले लोग भी इस कार्य में बराबर के भागीदार माने जाने चाहिएं और उन पर भी अंकुश लगाने की आवश्यकता है।
अल्लाह के क़ानून के अनुसार इस्लामी हुकूमत में पैग़म्बर सल्ल० की शान में गुस्ताख़ी करने वाले की सज़ा मौत है। सारे भेदभाव भुला कर बुद्धिजीवी वर्ग को चाहिए कि सब मिलकर यू०एन०ओ० जैसी अन्तर्राष्ट्रीय संस्था पर इस बात के लिये दबाव बनाएं कि वह इस बात को सुनिश्चित करे कि किसी भी देश को इस बात की छूट न दी जाए कि वहां का कोई भी नागरिक संविधान का सहारा लेकर ऐसी हरकत कर बैठे जिसके नतीजे में लोगों की भावनाओं, आस्था और विश्वास को ठेस पहुंचे तथा इसके कारण ऐसे हालात पैदा न हो जाएं जिनके नतीजे में लोगों को क़ानून अपने हाथ मे लेने के लिए मजबूर होना पड़े।
हमारे देश में दूसरे क़िस्म की शैतानी चाल चली जा रही है जिसके चंगुल में फंसकर एक बहुत बड़े समाज की आस्थाओं को चोट पहुंचाई जा रही है। उस चाल के अनुसार उस समाज के द्वारा पूजे जाने वाले देवी, देवताओं व अवतारों के चरित्र पर अश्लील टिप्पणियां उसी समाज के किसी व्यक्ति के द्वारा करवा कर परस्पर वैमनस्य के बीज बोए जा रहे हैं। चूंकि टिप्पणी करने वाला व्यक्ति उसी समाज से सम्बन्धित होता है अतः उसके विरोध में कोई आवाज़ नहीं उठती जिसके नतीजे में उन सब अनर्गल बातों को विरोध के अभाव में मान्यता प्राप्त समझ लिया जाता है और फिर यह सब बातें दुष्प्रचार में सहयोगी साबित होती हैं।
बारूद के ढेर पर बैठे हुए संसार की बरबादी के लिये विकृत मनोवृत्ति के व्यक्ति के द्वारा किया गया कोई एक कार्य ही चिंगारी साबित हो सकता है। चाहे वह कार्य किताब के रूप में हो या कार्टून के रूप में हो अथवा किसी धर्मग्रंथ में दिये गए आदेशों, निर्देशों में परिवर्तन की मांग के रूप में हो या फिर किसी समाज की आस्था का ध्यान न रखते हुए उसके द्वारा पूजनीय देवी-देवताओं के अश्लील चित्रों के रूप में हो। इसके साथ एक बात और भी आवश्यक है कि ऐसे समाज दुश्मन लोगों अथवा संस्थाओं के समर्थन में लामबन्द होने वाले लोग भी इस कार्य में बराबर के भागीदार माने जाने चाहिएं और उन पर भी अंकुश लगाने की आवश्यकता है।
अल्लाह के क़ानून के अनुसार इस्लामी हुकूमत में पैग़म्बर सल्ल० की शान में गुस्ताख़ी करने वाले की सज़ा मौत है। सारे भेदभाव भुला कर बुद्धिजीवी वर्ग को चाहिए कि सब मिलकर यू०एन०ओ० जैसी अन्तर्राष्ट्रीय संस्था पर इस बात के लिये दबाव बनाएं कि वह इस बात को सुनिश्चित करे कि किसी भी देश को इस बात की छूट न दी जाए कि वहां का कोई भी नागरिक संविधान का सहारा लेकर ऐसी हरकत कर बैठे जिसके नतीजे में लोगों की भावनाओं, आस्था और विश्वास को ठेस पहुंचे तथा इसके कारण ऐसे हालात पैदा न हो जाएं जिनके नतीजे में लोगों को क़ानून अपने हाथ मे लेने के लिए मजबूर होना पड़े।
हमारे देश में दूसरे क़िस्म की शैतानी चाल चली जा रही है जिसके चंगुल में फंसकर एक बहुत बड़े समाज की आस्थाओं को चोट पहुंचाई जा रही है। उस चाल के अनुसार उस समाज के द्वारा पूजे जाने वाले देवी, देवताओं व अवतारों के चरित्र पर अश्लील टिप्पणियां उसी समाज के किसी व्यक्ति के द्वारा करवा कर परस्पर वैमनस्य के बीज बोए जा रहे हैं। चूंकि टिप्पणी करने वाला व्यक्ति उसी समाज से सम्बन्धित होता है अतः उसके विरोध में कोई आवाज़ नहीं उठती जिसके नतीजे में उन सब अनर्गल बातों को विरोध के अभाव में मान्यता प्राप्त समझ लिया जाता है और फिर यह सब बातें दुष्प्रचार में सहयोगी साबित होती हैं।
Sunday, August 8, 2010
terrorism and its solution दहशतगर्दी और उसका हल sharif khan
मुहज़्जब दुनिया में जंगी क़ायदे के मुताबिक़ आबादी पर हमलाआवर होने को किसी भी क़ौम और मज़हब में उस वक्त तक जायज़ नहीं माना गया है जबतक कि उस आबादी में कोई ख़तरनाक साज़िश तैयार न की जा रही हो लेकिन इन सब क़ायदे क़ानून को बालाए ताक़ रखते हुए दूसरी जंग-ए-अज़ीम में अमेरिका ने जापान के टोकियो शहर पर जो बमबारी की उसके नतीजे में एक रात में 80,000 लोग मारे गए और इसके बाद 6 अगस्त 1945 को अमेरिका ने जापान के एक शहर हिरोशीमा पर एटम बम गिराकर अपनी सफ़्फ़ाकी और दहशतगर्दी का खुला सबूत पेश किया। चन्द सेकिण्डों में एक हंसते खेलते शहर का नामो निशान मिट गया। अब अगर यह कहा जाए कि अमेरिकी ज़ालिमों को एटम बम के नुक़सान का यह अन्दाज़ा नहीं था कि इसके इस्तेमाल से पूरा शहर फ़ना हो जाएगा और अगर पहले से इसके नुक़सान का अन्दाज़ा होता तो शायद वह ऐसी घिनौनी हरकत न करते तो यह कहने की गुन्जाइश अमेरिका के इस अमल से ख़त्म हो जाती है कि इस ज़लील हरकत के तीन रोज़ बाद यानि 9 अगस्त 1945 को जापान के दूसरे शहर नागासाकी पर एक और बम डालकर अमेरिका ने यह साबित कर दिया कि उसके पास सबकुछ है लेकिन इंसानियत नहीं है। यह बात अमेरिकी सद्र फ्रेंकलिन डी. रूज़वेल्ट की मौत के बाद 12 अप्रैल 1945 को अमेरिका के 33वें सद्र के तौर पर कुर्सी सम्भालने वाले हैरी ट्रूमैन के बेशर्मी से लबरेज़ उस बयान से साबित हो जाती है जोकि उसने उन दो शहरों को तबाह करने के बाद दिया था। हैरी ट्रूमैन ने कहा था, ‘‘बम गिराने का यह सिलसिला तब तक जारी रहेगा जब तक जापान जंग से अलग नहीं होता।’’ इसी के साथ यह जान लेना भी ज़रूरी है कि ’’कू क्लक्स क्लेन’’ नाम की दहशतगर्द तन्ज़ीम का हैरी ट्रूमैन सरगर्म कारकुन रहा था। इस तन्ज़ीम का मक़सद काले लोगों को दहशतज़दा करके अमेरिका में वोट देने के हक़ से महरूम करना था। एक साबितशुदा दहशतगर्द को अपने मुल्क के सदर की कुर्सी सौंपकर अमेरिकी अवाम ने भी दहशतगर्दी से अपने लगाव का बखूबी इज़हार कर दिया और इतना ही नहीं बल्कि लाखों लोगों की मौत के ज़िम्मेदार उस शख़्स को 1948 के इन्तख़ाबात में दोबारा सद्र मुन्तख़ब करके खूनी खेल जारी रखे जाने की मुस्तक़बिल की पॉलिसी को अवाम ने हरी झण्डी दिखा दी। इस तरह से अमेरिका के सदर बदल जातेे रहे लेकिन ज़ुल्म व तशद्दुद की पॉलिसी में कोई फ़र्क़ नहीं आया। और इस तरह से सारी दुनिया देखती रही और दुनिया का सबसे बड़ा साबितशुदा दहशतगर्द मुल्क अम्न के नाम पर मुल्क के मुल्क तबाह करता चला गया। मौजूदा सदर बराक ओबामा ने इस पॉलिसी पर अमल करते हुए अमेरिकी फ़ौज को 25 और मुल्कों में भेजने का फ़ैसला किया है और इस तरह से 75 मुल्कों में अमेरिकी फ़ौज की तईनाती हो जाएगी। इससे भी ज़्यादा अफ़सोसनाक बात यह है कि ऐसे इन्सानियत के दुश्मन मुल्क की हिमायत करने वाले ग़ुलाम ज़हनियत के लोगों की भी दुनिया में कमी नहीं है।
इस बात को मद्देनज़र रखते हुए कुछ हक़ायक़ (तथ्यों) पर ग़ौर करना ज़रूरी है।
एटमी हथियार इस्तेमाल करने वाला दुनिया का वाहिद मुल्क अमेरिका है लिहाज़ा मुस्तक़बिल में इनके इस्तेमाल का सबसे ज़्यादा अन्देशा अमेरिका से ही हो सकता है। इसके बावजूद अमेरिका को यह हक़ किसने दे दिया कि वह इस बात को तय करे कि कौन इन हथियारों को बना सकता है और कौन नहीं बना सकता।
कोरिया और वियतनाम में जंग के नाम पर किये गए बेक़ुसूर लोगों के क़त्ले आम के बाद इराक़ और अफ़ग़ानिस्तान की बरबादी और वहां किये जा रहे मज़ालिम का हाल सभी जानते हैं। आप तसव्वुर करके देखिये कि आप घर में बैठे हुए हैं और बग़ैर पाइलैट वाला ड्रोन नाम का जहाज़ आपके घर पर बम डालकर चला जाता है और उसके बाद उस हमले के शिकार होने वाले आप और आपके साथ आपके अहले ख़ाना के मुताल्लिक़ अख़बारात में ख़बर छपती है कि ड्रोन हमले में इतने दहशतगर्द मारे गए।
बात को मुख्तसर करते हुए अगर हम इन सब बातों का तजज़िया करें तो नतीजे के तौर पर कह सकते हैं कि एक साबितशुदा दहशतगर्द मुल्क ‘अमेरिका‘ और उसकी हिमायत में बयान देने वाले दीगर मुमालिक जिन अफ़राद को, तन्ज़ीमों को और क़ौमों (मुमालिक) को दहशतगर्द कहते हैं, वह कुछ भी हों लेकिन दहशतगर्द नहीं हो सकते। सच बात तो यह है कि अमेरिका और उसके गिरोह में शामिल मुमालिक के मज़ालिम का शिकार लोगों को दहशतगर्द कहकर इन्सानियत का मज़ाक़ उड़ाया जा रहा है।
लिहाज़ा दुनिया से दहशतगर्दी का अगर ख़ात्मा करना चाहते हैं तो सबसे पहले दहशतगर्द को दहशतगर्द कहने की हिम्मत जुटाएं वरना इन्सानियत का दावा करना तर्क कर दें।
इस बात को मद्देनज़र रखते हुए कुछ हक़ायक़ (तथ्यों) पर ग़ौर करना ज़रूरी है।
एटमी हथियार इस्तेमाल करने वाला दुनिया का वाहिद मुल्क अमेरिका है लिहाज़ा मुस्तक़बिल में इनके इस्तेमाल का सबसे ज़्यादा अन्देशा अमेरिका से ही हो सकता है। इसके बावजूद अमेरिका को यह हक़ किसने दे दिया कि वह इस बात को तय करे कि कौन इन हथियारों को बना सकता है और कौन नहीं बना सकता।
कोरिया और वियतनाम में जंग के नाम पर किये गए बेक़ुसूर लोगों के क़त्ले आम के बाद इराक़ और अफ़ग़ानिस्तान की बरबादी और वहां किये जा रहे मज़ालिम का हाल सभी जानते हैं। आप तसव्वुर करके देखिये कि आप घर में बैठे हुए हैं और बग़ैर पाइलैट वाला ड्रोन नाम का जहाज़ आपके घर पर बम डालकर चला जाता है और उसके बाद उस हमले के शिकार होने वाले आप और आपके साथ आपके अहले ख़ाना के मुताल्लिक़ अख़बारात में ख़बर छपती है कि ड्रोन हमले में इतने दहशतगर्द मारे गए।
बात को मुख्तसर करते हुए अगर हम इन सब बातों का तजज़िया करें तो नतीजे के तौर पर कह सकते हैं कि एक साबितशुदा दहशतगर्द मुल्क ‘अमेरिका‘ और उसकी हिमायत में बयान देने वाले दीगर मुमालिक जिन अफ़राद को, तन्ज़ीमों को और क़ौमों (मुमालिक) को दहशतगर्द कहते हैं, वह कुछ भी हों लेकिन दहशतगर्द नहीं हो सकते। सच बात तो यह है कि अमेरिका और उसके गिरोह में शामिल मुमालिक के मज़ालिम का शिकार लोगों को दहशतगर्द कहकर इन्सानियत का मज़ाक़ उड़ाया जा रहा है।
लिहाज़ा दुनिया से दहशतगर्दी का अगर ख़ात्मा करना चाहते हैं तो सबसे पहले दहशतगर्द को दहशतगर्द कहने की हिम्मत जुटाएं वरना इन्सानियत का दावा करना तर्क कर दें।
Friday, August 6, 2010
babri masjid last part बाबरी मस्जिद तथ्यों के प्रकाश में अन्तिम भाग sharif khan
इन तथ्यों का अवलोकन करने का कष्ट करें-
सत्तरहवीं शताब्दी में मुम्बई पर पुर्तगालियों का शासन था। 1662 ई० में जब पुर्तगाल की राजकुमारी केथरीन का विवाह इंग्लैण्ड के राजा चालर्स द्वितीय के साथ हुआ तो मुम्बई पुर्तगालियों के द्वारा अंगरेज़ों को दहेज़ में दे दी गई तथा 1668 में 10 पाउण्ड सोना वार्षिक पर ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने अंगरेज़ सरकार से लीज़ पर ले ली।
30 मार्च 1867 को रूस ने 586000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल का अलास्का प्रदेश अमेरिका को 72 लाख डालर में बेचा था।
इसी प्रकार से हांकांग शहर अंगरेज़ों को 9 जून 1898 को चीन द्वारा 99 वर्ष के लिए लीज़ पर दिया गया था।
यह सब बयान करने का मक़सद इतिहास पढ़ना नहीं है बल्कि यह बतलाना है कि राजशाही में राज्य की समस्त भूमि का मालिक राजा होता था तथा उसको इस बात का पूरा अधिकार होता था कि वह जितना क्षेत्र जब चाहे और जिसको चाहे दे सकता था। मुम्बई की तरह दहेज़ मे दे सकता था, अलास्का की तरह बेच सकता था तथा हांगकांग की तरह पट्टे पर दे रकता था। यह क़ानूनन अगर नाजाइज़ होता तो मुबई को पुर्तगाली वापस ले लेते, अलास्का पर रूस दावेदार होता और हांगकांग 99 वर्ष पूरे होने पर चीन को वापस न मिलता।
हमारे देश में मुग़लों के शासन काल में भूमि से सम्बन्धित जो भी फ़ैसले लिये गए उनको बदलने का औचित्य समझ में नहीं आता। मुग़ल बादशाहों ने मन्दिर भी बनवाए, मन्दिरों के रख रखाव के लिए जायदादें भी दीं, जिनके आज भी मन्दिर मालिक हैं। बाबरी मस्जिद भी मन्दिरों की तरह से, उन धर्मस्थलों में से एक है, जिनका निर्माण मुग़लों के द्वारा कराया गया था।
इन सारे तथ्यों के आधार पर बाबरी मस्जिद को अवैध कहना अन्याय के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। इसके अलावा एक बात यह भी है कि मस्जिद बनाने के लिए भूमि का जाइज़ होना आवश्यक है अतः मस्जिद के लिए भूमि की उपलब्धता इतनी आसान नहीं होती जितनी कि मन्दिर के लिए। क्योंकि मन्दिर तो कहीं भी बनाया जाना सम्भव है चाहे वह पुलिस थाना हो या सार्वजनिक पार्क अथवा किसी से छीनी गई गई भूमि हो।
सत्तरहवीं शताब्दी में मुम्बई पर पुर्तगालियों का शासन था। 1662 ई० में जब पुर्तगाल की राजकुमारी केथरीन का विवाह इंग्लैण्ड के राजा चालर्स द्वितीय के साथ हुआ तो मुम्बई पुर्तगालियों के द्वारा अंगरेज़ों को दहेज़ में दे दी गई तथा 1668 में 10 पाउण्ड सोना वार्षिक पर ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने अंगरेज़ सरकार से लीज़ पर ले ली।
30 मार्च 1867 को रूस ने 586000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल का अलास्का प्रदेश अमेरिका को 72 लाख डालर में बेचा था।
इसी प्रकार से हांकांग शहर अंगरेज़ों को 9 जून 1898 को चीन द्वारा 99 वर्ष के लिए लीज़ पर दिया गया था।
यह सब बयान करने का मक़सद इतिहास पढ़ना नहीं है बल्कि यह बतलाना है कि राजशाही में राज्य की समस्त भूमि का मालिक राजा होता था तथा उसको इस बात का पूरा अधिकार होता था कि वह जितना क्षेत्र जब चाहे और जिसको चाहे दे सकता था। मुम्बई की तरह दहेज़ मे दे सकता था, अलास्का की तरह बेच सकता था तथा हांगकांग की तरह पट्टे पर दे रकता था। यह क़ानूनन अगर नाजाइज़ होता तो मुबई को पुर्तगाली वापस ले लेते, अलास्का पर रूस दावेदार होता और हांगकांग 99 वर्ष पूरे होने पर चीन को वापस न मिलता।
हमारे देश में मुग़लों के शासन काल में भूमि से सम्बन्धित जो भी फ़ैसले लिये गए उनको बदलने का औचित्य समझ में नहीं आता। मुग़ल बादशाहों ने मन्दिर भी बनवाए, मन्दिरों के रख रखाव के लिए जायदादें भी दीं, जिनके आज भी मन्दिर मालिक हैं। बाबरी मस्जिद भी मन्दिरों की तरह से, उन धर्मस्थलों में से एक है, जिनका निर्माण मुग़लों के द्वारा कराया गया था।
इन सारे तथ्यों के आधार पर बाबरी मस्जिद को अवैध कहना अन्याय के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। इसके अलावा एक बात यह भी है कि मस्जिद बनाने के लिए भूमि का जाइज़ होना आवश्यक है अतः मस्जिद के लिए भूमि की उपलब्धता इतनी आसान नहीं होती जितनी कि मन्दिर के लिए। क्योंकि मन्दिर तो कहीं भी बनाया जाना सम्भव है चाहे वह पुलिस थाना हो या सार्वजनिक पार्क अथवा किसी से छीनी गई गई भूमि हो।
Wednesday, August 4, 2010
BABRI MASJID-2 बाबरी मस्जिद तथ्यों के प्रकाश में-2 sharif khan
जागरूक बन्धुओं के अवलोकनार्थ कुछ तथ्य प्रतुत किये जा रहे हैं।
1. कक्षा सात में पढ़ने वाली मेरी बेटी ने जिज्ञासावश मुझसे एक सवाल किया कि क्या कारण है कि इतिहास में जब अकबर, शाहजहां, बहादुर शाह आदि किसी मुस्लिम राजा से सम्बन्धित कोई बात कहनी होती है तो इस प्रकार से कही जाती है कि अमुक राजा ऐसा था, ऐसे काम करता था आदि। और यदि शिवाजी, महाराणा प्रताप आदि हिन्दू राजाओं से सम्बन्धित कोई बात होती है तो सम्मानित भाषा का प्रयोग करते हुए इस प्रकार से लिखा जाता है कि वह ऐसे थे, ऐसे कार्य करते थे आदि। मैं बच्ची को जवाब से सन्तुष्ट नहीं कर सका क्योंकि मैं कैसे बतलाता कि लिखने के ढंग से ही जहां पक्षपात की गंध आ रही हो वहां सही तथ्यों पर आधारित इतिहास हमारे समक्ष प्रस्तुत किया गया होगा ऐसा नहीं प्रतीत होता।
2. न्यायपालिका की व्यवस्थानुसार किसी अदालत के द्वारा दिये गए फ़ैसले के ख़िलाफ़ उससे बड़ी अदालत में अपील करने हक़ दिया जाना इस बात को साबित करने के लिए काफ़ी है कि अदालत के फ़ैसले को स्वीकार न करना कोई जुर्म नहीं है। हो सकता है कि यह व्यवस्था जनता को अन्याय से बचाने के लिए रखी गई हो क्योंकि अक्सर ज़िले स्तर की अदालत के फ़ैसले को उच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालय द्वारा दिये गए फ़ैसले को सर्वोच्च न्यायालय बदल देता है। यदि संविधान निर्माताओं ने इससे ऊपर भी अपील की गुन्जाइश रखी होती तो बहुत सम्भव है कि सर्वोच्च न्यायालय के फ़ैसलों में से बहुत से फ़ैसले बदल दिये जाते।
3. न्यायालय प्रस्तुत किये गए साक्ष्यों के आधार पर फ़ैसले देता है लिहाज़ा न्याय, जुटाए गए साक्ष्यों पर, निर्भर होता है। इसका सीधा सा अर्थ यह हुआ कि न्याय साक्ष्य जुटाने वाले विभाग की क्षमता और निष्पक्षता पर आधारित हुआ। उदाहरणार्थ मई 2010 में मुज़फ्फ़रनगर में अजीत व अन्शु नामक प्रेमी-प्रेमिका घर से फ़रार हो गए। इसके बाद पुलिस ने अजीत के घरवालों से ज़बरदस्ती एक लाश की अजीत के रूप में शनाख़्त करा दी और प्रेमी युगल के क़त्ल के जुर्म में प्रेमिका के भाई अनुज को हिरासत में लेकर जुर्म स्वीकार करा लिया। क़त्ल का जुर्म स्वीकार कराने के बाद अनुज को जेल भेजे जाने की कार्रवाई चल ही रही थी कि प्रेमी युगल ज़िन्दा वापस आ गया अतः अनुज को रिहा करना पड़ा। सोचने की बात यह है कि यदि प्रेमी युगल ज़िन्दा वापस न आया होता तो अनुज को जुर्म स्वीकार करने के कारण क़त्ल के अपराध में सज़ा दिया जाना निश्चित था। यदि ऐसा हो गया होता तो अदालत के द्वारा साक्ष्यों के आधार पर सही न्याय किये जाने के बावजूद अन्याय हो जाता तथा इसके नतीजे में फांसी पर चढ़ाए गए बेक़सूर अनुज के सम्बन्धियों का क्या न्याययिक व्यवस्था पर भरोसा क़ायम रह सकता था?
4. फ़र्जी मुठभेड़ में पुलिस के द्वारा किसी को भी मार दिया जाना आजकल सामान्य सी घटना मात्र होकर रह गई है। ऐसे तथ्य भी प्रकाश में आए हैं कि किसी बेक़सूर को मारने के बाद उसको अपराधी साबित करने की प्रक्रिया शुरू होती है।
उपरोक्त तथ्यों के प्रकाश में बाबरी मस्जिद प्रकरण पर निष्पक्षता से ग़ौर करके देखें।
नं. 4 की तरह से क्या मस्जिद को गिराने के बाद उसकी वैधता के साक्ष्य जुटाया जाना हास्यास्पद सा प्रतीत नहीं होता है? चूंकि हमारे देश में प्राचीन काल से मूर्तिपूजा का चलन रहा है अतः किसी भी पुरानी आबादी वाले क्षेत्र में यदि खुदाई करके देखा जाए तो वहां बर्तन आदि आम इस्तेमाल की वस्तुओं के साथ मूर्तियों का निकलना अप्रत्याशित नहीं है।
नं. 1 के अनुसार इतिहास का पक्षपातपूर्ण होना भी कोई ताज्जुब की बात नहीं है।
नं. 3 की तरह से हमारे देश की कार्यपालिका असम्भव को सम्भव बना सकने में कितनी सक्षम है यह बात किसी से भी छिपी हुई नहीं है।
पिछली पोस्ट पर इस लेख के पहले भाग में जो बात कही गई थी उसका रुख़ मोड़कर साम्प्रदायिकता की ओर पहुंचा दिया गया तथा मुख्य भाव से हटकर नए सवालों में उलझा दिया गया। अतः बात को समाप्त करते हुए अन्त में बिना किसी भेदभाव के गौर करने हेतु कुछ बातें प्रस्तुत की जा रही हैं-
22@23 दिसम्बर 1949 की रात को मस्जिद में कुछ अराजक तत्वों के द्वारा चोरों की तरह से प्रशासन की छत्रछाया में मूर्ति रख दी गई।
29 दिसम्बर 1949 को मूर्ति बाहर निकालकर मस्जिद पाक करने के बजाय मस्जिद कुर्क कर ली गई और 5 जनवरी
1950 को मस्जिद की इमारत विवादित बनाकर रिसीवर को सौंप दी गई।
16 जनवरी 1950 को अयोध्यावासी गोपाल सिंह विशारद नामक व्यक्ति के अनुरोध पर सिविल कोर्ट ने नाजाइज़ तरीक़े से रखी गई मूर्ति की पूजा करने की अनुमति देकर न्याय का झण्डा बुलन्द कर दिया।
18 दिसम्बर 1961 को मुस्लिम पक्ष की तरफ़ से मस्जिद का क़ब्ज़ा दिलाए जाने का दावा दाख़िल किया गया।
6 दिसम्बर 1992 को ग़ुण्डागर्दी की इन्तेहा हो गई और मस्जिद को शहीद करके महान देश भारत का सर पूरी दुनिया के सामने शर्म से झुका दिया गया।
7 जनवरी 1993 को एक आर्डीनेन्स के द्वारा उच्च न्यायालय में चल रहे सभी मुक़दमों को निरस्त करके राष्ट्रपति की ओर से उच्चतम न्यायालय से इस सवाल का जवाब मांगा गया कि विवादित भवन के स्थान पर कोई दूसरा धार्मिक निर्माण था या नहीं।
दिसम्बर 1949 से लेकर अब तक के वाकै़आत पर निष्पक्षता से नज़र डालकर देखें तो भारत जैसे धर्मनिरपेक्ष देश में मुसलमानों की स्थिति का सही अन्दाज़ा हो जाएगा।
1. कक्षा सात में पढ़ने वाली मेरी बेटी ने जिज्ञासावश मुझसे एक सवाल किया कि क्या कारण है कि इतिहास में जब अकबर, शाहजहां, बहादुर शाह आदि किसी मुस्लिम राजा से सम्बन्धित कोई बात कहनी होती है तो इस प्रकार से कही जाती है कि अमुक राजा ऐसा था, ऐसे काम करता था आदि। और यदि शिवाजी, महाराणा प्रताप आदि हिन्दू राजाओं से सम्बन्धित कोई बात होती है तो सम्मानित भाषा का प्रयोग करते हुए इस प्रकार से लिखा जाता है कि वह ऐसे थे, ऐसे कार्य करते थे आदि। मैं बच्ची को जवाब से सन्तुष्ट नहीं कर सका क्योंकि मैं कैसे बतलाता कि लिखने के ढंग से ही जहां पक्षपात की गंध आ रही हो वहां सही तथ्यों पर आधारित इतिहास हमारे समक्ष प्रस्तुत किया गया होगा ऐसा नहीं प्रतीत होता।
2. न्यायपालिका की व्यवस्थानुसार किसी अदालत के द्वारा दिये गए फ़ैसले के ख़िलाफ़ उससे बड़ी अदालत में अपील करने हक़ दिया जाना इस बात को साबित करने के लिए काफ़ी है कि अदालत के फ़ैसले को स्वीकार न करना कोई जुर्म नहीं है। हो सकता है कि यह व्यवस्था जनता को अन्याय से बचाने के लिए रखी गई हो क्योंकि अक्सर ज़िले स्तर की अदालत के फ़ैसले को उच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालय द्वारा दिये गए फ़ैसले को सर्वोच्च न्यायालय बदल देता है। यदि संविधान निर्माताओं ने इससे ऊपर भी अपील की गुन्जाइश रखी होती तो बहुत सम्भव है कि सर्वोच्च न्यायालय के फ़ैसलों में से बहुत से फ़ैसले बदल दिये जाते।
3. न्यायालय प्रस्तुत किये गए साक्ष्यों के आधार पर फ़ैसले देता है लिहाज़ा न्याय, जुटाए गए साक्ष्यों पर, निर्भर होता है। इसका सीधा सा अर्थ यह हुआ कि न्याय साक्ष्य जुटाने वाले विभाग की क्षमता और निष्पक्षता पर आधारित हुआ। उदाहरणार्थ मई 2010 में मुज़फ्फ़रनगर में अजीत व अन्शु नामक प्रेमी-प्रेमिका घर से फ़रार हो गए। इसके बाद पुलिस ने अजीत के घरवालों से ज़बरदस्ती एक लाश की अजीत के रूप में शनाख़्त करा दी और प्रेमी युगल के क़त्ल के जुर्म में प्रेमिका के भाई अनुज को हिरासत में लेकर जुर्म स्वीकार करा लिया। क़त्ल का जुर्म स्वीकार कराने के बाद अनुज को जेल भेजे जाने की कार्रवाई चल ही रही थी कि प्रेमी युगल ज़िन्दा वापस आ गया अतः अनुज को रिहा करना पड़ा। सोचने की बात यह है कि यदि प्रेमी युगल ज़िन्दा वापस न आया होता तो अनुज को जुर्म स्वीकार करने के कारण क़त्ल के अपराध में सज़ा दिया जाना निश्चित था। यदि ऐसा हो गया होता तो अदालत के द्वारा साक्ष्यों के आधार पर सही न्याय किये जाने के बावजूद अन्याय हो जाता तथा इसके नतीजे में फांसी पर चढ़ाए गए बेक़सूर अनुज के सम्बन्धियों का क्या न्याययिक व्यवस्था पर भरोसा क़ायम रह सकता था?
4. फ़र्जी मुठभेड़ में पुलिस के द्वारा किसी को भी मार दिया जाना आजकल सामान्य सी घटना मात्र होकर रह गई है। ऐसे तथ्य भी प्रकाश में आए हैं कि किसी बेक़सूर को मारने के बाद उसको अपराधी साबित करने की प्रक्रिया शुरू होती है।
उपरोक्त तथ्यों के प्रकाश में बाबरी मस्जिद प्रकरण पर निष्पक्षता से ग़ौर करके देखें।
नं. 4 की तरह से क्या मस्जिद को गिराने के बाद उसकी वैधता के साक्ष्य जुटाया जाना हास्यास्पद सा प्रतीत नहीं होता है? चूंकि हमारे देश में प्राचीन काल से मूर्तिपूजा का चलन रहा है अतः किसी भी पुरानी आबादी वाले क्षेत्र में यदि खुदाई करके देखा जाए तो वहां बर्तन आदि आम इस्तेमाल की वस्तुओं के साथ मूर्तियों का निकलना अप्रत्याशित नहीं है।
नं. 1 के अनुसार इतिहास का पक्षपातपूर्ण होना भी कोई ताज्जुब की बात नहीं है।
नं. 3 की तरह से हमारे देश की कार्यपालिका असम्भव को सम्भव बना सकने में कितनी सक्षम है यह बात किसी से भी छिपी हुई नहीं है।
पिछली पोस्ट पर इस लेख के पहले भाग में जो बात कही गई थी उसका रुख़ मोड़कर साम्प्रदायिकता की ओर पहुंचा दिया गया तथा मुख्य भाव से हटकर नए सवालों में उलझा दिया गया। अतः बात को समाप्त करते हुए अन्त में बिना किसी भेदभाव के गौर करने हेतु कुछ बातें प्रस्तुत की जा रही हैं-
22@23 दिसम्बर 1949 की रात को मस्जिद में कुछ अराजक तत्वों के द्वारा चोरों की तरह से प्रशासन की छत्रछाया में मूर्ति रख दी गई।
29 दिसम्बर 1949 को मूर्ति बाहर निकालकर मस्जिद पाक करने के बजाय मस्जिद कुर्क कर ली गई और 5 जनवरी
1950 को मस्जिद की इमारत विवादित बनाकर रिसीवर को सौंप दी गई।
16 जनवरी 1950 को अयोध्यावासी गोपाल सिंह विशारद नामक व्यक्ति के अनुरोध पर सिविल कोर्ट ने नाजाइज़ तरीक़े से रखी गई मूर्ति की पूजा करने की अनुमति देकर न्याय का झण्डा बुलन्द कर दिया।
18 दिसम्बर 1961 को मुस्लिम पक्ष की तरफ़ से मस्जिद का क़ब्ज़ा दिलाए जाने का दावा दाख़िल किया गया।
6 दिसम्बर 1992 को ग़ुण्डागर्दी की इन्तेहा हो गई और मस्जिद को शहीद करके महान देश भारत का सर पूरी दुनिया के सामने शर्म से झुका दिया गया।
7 जनवरी 1993 को एक आर्डीनेन्स के द्वारा उच्च न्यायालय में चल रहे सभी मुक़दमों को निरस्त करके राष्ट्रपति की ओर से उच्चतम न्यायालय से इस सवाल का जवाब मांगा गया कि विवादित भवन के स्थान पर कोई दूसरा धार्मिक निर्माण था या नहीं।
दिसम्बर 1949 से लेकर अब तक के वाकै़आत पर निष्पक्षता से नज़र डालकर देखें तो भारत जैसे धर्मनिरपेक्ष देश में मुसलमानों की स्थिति का सही अन्दाज़ा हो जाएगा।
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