Saturday, October 23, 2010

akhandta ke naam par desh khandit अखण्डता के नाम पर देश खण्डित sharif khan

संसार के सबसे बड़े लोकतान्त्रिक देश भारत में बाबरी मस्जिद के नाम से पहचानी जाने वाली मस्जिद, जिसमें ख़ालिक़े काएनात (सृष्टि के रचियता) की उपासना सदियों से हो रही थी, को एक सोची समझी साज़िश के तहत विवादित बनाकर उच्च न्यायालय में विवाद को सुलझाने के लिए भेज दिया गया। विवाद को क़ानून के अनुसार सुलझाने में अदालत को अन्देशा था कि सही हक़दार को उसका हक़ दिये जाने से 1992 में मस्जिद विध्वंस के ज़िम्मेदार, मन्दिर पक्ष के आतंकवादी, देश की शान्ति को भंग करने में कोई कसर न छोड़ेंगे। लिहाज़ा क़ानून के घर में क़ानून के बजाय आस्था का सहारा लेकर फ़ैसला दिया गया। राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद में अपना फ़ैसला सुनाते हुए न्यायमूर्ति एस यू ख़ान का यह कहना कि, ‘‘यदि छः दिसम्बर 1992 की घटना दोहराई जाती है तो देश दोबारा खड़ा नहीं हो पाएगा।‘‘ इस बात को साबित करने के लिए पर्याप्त है।

आस्थानुसार ही राम के जन्म के स्थान पर निशान लगा दिया गया। अब कुछ प्रश्न जो किसी भी निष्पक्ष व्यक्ति के ज़हन में उठ सकते हैं तथा जिनका तय होना नितान्त आवश्यक है, इस प्रकार हैं -

1- यह कि, क्या किसी बच्चे की पैदाइश के स्थान पर उस बच्चे का मालिकाना हक़ हो जाता है ? और यदि यह कहा जाए कि भगवान इस बन्दिश से अलग है, तो क्या राम का जन्म एक राजकुमार के रूप में न होकर भगवान के रूप में हुआ था ?

चूंकि भगवान के रूप में राम का जन्म होना सिद्ध नहीं है इसलिए अस्पतालों और अपने घर के अलावा दूसरे स्थानों पर पैदा होने वाले बच्चों को उनके जन्म स्थान वाली भूमि पर मालिकाना हक दिलाए जाने के लिए क्या उच्च न्यायालय का यह फ़ैसला नज़ीर (रूलिंग) बन सकता है ? और यदि यह कहा जाए कि राम का जन्म तो किसी दूसरे की जगह में न होकर उनके अपने घर (महल) में हुआ था, तो क्या भारत पर लगभग 800 साल हुकूमत करने वाले मुसलमान बादशाहों के शहज़ादों के जन्मस्थानों वाली भूमि पर उनके वारिस मालिकाना हक़ का क्लेम कर सकते हैं।

2- यह कि, किसी महिला को बच्चा जनने के लिए कितनी भूमि की आवश्यकता होती है ? क्या उसके लिए 1 मीटर चैड़ी और 2 मीटर लम्बी चारपाई अर्थात् 2 वर्ग मीटर स्थान पर्याप्त नहीं है ?

यदि यह बात सही है तो 2 वर्ग मीटर भूमि के बजाय सैकड़ों वर्ग मीटर भूमि देने का क्या औचित्य है? यदि फ़ैसले में इस दो मीटर ज़मीन पर एक ऊंचा सा स्तम्भ बनवाकर कथित रामभक्तों को देने का प्रावधान किया जाना उच्च न्यायालय सुनिश्चित करता तो फ़ैसले में से न्याय की गन्ध अवश्य आ रही होती हालांकि वह भी मस्जिद की जगह का अतिक्रमण ही होता। इस छूट के नतीजे में 67 एकड़ भूमि पर दावा करना कहां तक उचित है।

राम जन्म भूमि आन्दोलन से जुड़े कुख्यात नेता तोगड़िया जी ने वात्सल्य ग्राम में हुए समागम में फ़रमाया है कि मातृभूमि का विभाजन हो चुका है, राम जन्म भूमि का विभाजन किसी क़ीमत पर भी नहीं होने दिया जाएगा। जो लोग ज़मीन को देश की संज्ञा देते हैं उनकी सोच इसी प्रकार की होती है। देश बनता है देशवासियों से और उनके बीच भाईचारे से। यदि पाकिस्तान के रूप में ज़मीन का बटवारा होने के बावजूद भी हिन्दू-मुस्लिम भाईचारा क़ायम करने की कोशिशें की गई होतीं और पाकिस्तान को तोड़ कर बंगलादेश बनवाने में फौजी सहयोग देने की भूल न की गई होती तो हो सकता है कि दिलों के मेल से जिस प्रकार से जर्मनी बटने के बाद फिर से एक हो गए उसी प्रकार भारत और पाकिस्तान को भी मिलाने की कोशिश चल रही होती। लेकिन देश की अखण्डता का नारा देने वाले सरफिरों ने मस्जिद गिरा कर जो हमेशा के लिए हिन्दू-मुस्लिम भाईचारे को चोट पहुंचाई है सही अर्थों में यही देश का खण्डित होना है। पहले भूमि के रूप में देश खण्डित हुआ था और अब दिलों में दूरी बनाकर देश को खण्डित किया जा रहा है जोकि नाक़ाबिले माफ़ी है।

Thursday, October 21, 2010

a solution of the problem of masjid-mandir मस्जिद और मन्दिर की समस्या का समाधान sharif khan

भारत विभिन्न धर्म और संस्कृतियों के देश के रूप में प्राचीन काल से ही जाना जाता रहा है। यदि अलग अलग धर्म और संस्कृतियों के लोग परस्पर सहयोग व भाईचारे के साथ रहें तो यही देश एक महकता हुआ गुलदस्ता बन सकता है और यदि इसके विपरीत आचरण किया गया तो यही देश जहन्नुम बन जाएगा। परस्पर प्रेम व भाईचारा क़ायम करने के लिए कहीं से कोई विशेष ट्रेनिंग लेने की आवश्यकता नहीं है अपितु केवल इतना ध्यान रखें कि हम जो कुछ भी करें उससे किसी दूसरे को शारीरिक व मानसिक कष्ट न पहुंचे तथा इसके साथ इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि यह देश प्रत्येक देशवासी का है और संविधान ने सबको बराबर के अधिकार दिये हैं। अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ लड़ी गई आज़ादी की जंग में हिन्दू-मुस्लिम एकता और आपसी भाईचारे ने सामाजिक तौर पर एक महकते हुए गुलदस्ते की मिसाल क़ायम की थी जिसके नतीजे में भारत एक धर्मनिर्पेक्ष राष्ट्र के रूप में संसार के मानचित्र दुनिया के सबसे बड़े लोकतन्त्र के तौर पर उभरा।

उ० प्र० सरकार में उपमन्त्री रहे स्व० शमीम आलम ने एक बार अपने पिता मौलवी अलीमुद्दीन साहब के संस्मरण सुनाते हुए कहा कि अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ हो रहे आन्दोलन से सम्बन्धित कांग्रेसियों की सभा अक्सर मन्दिर में कर लिया करते थे और यदि उसी दौरान नमाज़ का समय हो जाता तो मौलवी साहब के मस्जिद में जाने से सभा की कार्रवाई काफ़ी देर के लिए रुक जाती थी। इसके समाधान के तौर पर यह तय पाया कि नमाज़ मन्दिर ही में पढ़ ली जाए परन्तु चूंकि मूर्तियों की मौजूदगी में नमाज़ नहीं पढ़ी जा सकती इसलिए मन्दिर के चबूतरे पर मौलवी साहब के नमाज़ पढ़ने का प्रबन्ध किये जाने में किसी को भी ऐतराज़ नहीं होता था। इसके बाद देश के आज़ाद होने पर स्थिति यह हो गई है कि नमाज़ पढ़ने के लिए बनी हुई मस्जिद का वजूद भी आर एस एस द्वारा परिभाषित हिन्दुत्ववादी तत्वों को बरदाश्त नहीं रहा। मुसलमानों को विभिन्न प्रकार से आतंकित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी जाती। कौन नहीं जानता कि इस्लाम में अल्लाह के अलावा किसी की वन्दना करना जाइज़ नहीं है और ऐसा अमल इस्लाम धर्म की मूल भावना के ही विरुद्ध है तो इसका सीधा सा अर्थ यह है कि एक मुसलमान तभी तक मुसलमान है जब तक वह अल्लाह के अलावा किसी और की इबादत (वन्दना) नहीं करता चाहे मां(जननी) हो, वतन हो, पवित्र किताब हो या फिर कुछ और हो। इसके बावजूद मुसलमानों से वन्देमातरम् कहलवाने पर क्यों ज़ोर दिया जाता है और ग़ुण्डों की भाषा इस्तेमाल करते हुए यह नारा क्यों लगाया जाता है कि, ‘‘भारत में रहना है तो वन्देमातरम् कहना होगा‘‘ जबकि सारा संसार इस बात का गवाह है कि ‘‘वन्दे मातरम्‘‘ न कहने वाले लोगों ने ज़रूरत पड़ने पर इस देश के लिए हज़ारों जानें क़ुर्बान करने में तनिक भी संकोच नहीं किया। देश के प्रधानमन्त्री की कुर्सी हासिल करने का स्वप्न देखने वाले अडवानी साहब तो संसद में भारत को भारत या हिन्दुस्तान न कहकर ‘‘हिन्दुस्थान‘‘ (हिन्दू + स्थान) कहते हैं जिससे उनकी मानसिकता का पता चलता है

शायर द्वारा कहे गए यह शब्द भारत के मुसलमानों के दिल से निकली हुई आवाज़ मालूम पड़ते हैं

एक दो ज़ख्म नहीं सारा बदन है छलनी। दर्द बेचारा परीशां है कहां से उठे।।

देश को इस दूषित वातावरण से मुक्ति देकर एक महकते हुए गुलदस्ते में परिवर्तित करने के लिए हमको इस प्रदूषण की जड़ को तलाश करना पड़ेगा जिससे कोई भी अनभिज्ञ नहीं है। 22-23 दिसम्बर 1949 की रात में बाबरी मस्जिद में नमाज़ के बाद किसी समय मूर्ति का रखा जाना प्रारम्भ था इस प्रदूषण का और इसको हवा देने वालों को भी पूरा देश जानता है। यदि इन लोगों को जनता की भावनाओं को भड़काने का मौक़ा न दिया जाए तो तादाद के लिहाज़ से यह बहुत ज़्यादा नहीं हैं। लिहाज़ा करना केवल इतना है कि 22-23 दिसम्बर 1949 से लेकर आज तक के अन्तराल में जो कुछ हुआ उसको एक दुःस्वप्न की तरह से भुलाकर देश के ऐतिहासिक रिकार्ड में से इन 61 वर्षों की कटुतापूर्ण बातों को निकाल दिया जाए और किसी भी दिन सुबह से नमाज़ के लिए मस्जिद को मुक्त कर दिया जाए।

यदि मुसलमानों से कोई भूल हुई है तो बहुसंख्यक समाज पर क्षमा की ज़िम्मेदारी बनती है कयोंकि:

‘‘छमा बड़ेन को चाहिए छोटन को उत्पात‘‘

Monday, October 18, 2010

definition of terrorism आतंकवाद की परिभाषा sharif khan

दशहरे के अवसर पर नागपुर के रेशम बाग़ मैदान में एक रैली को सम्बोधित करते हुए आर एस एस प्रमुख मोहन भागवत ने कहा कि आतंकवाद और हिन्दुत्व विपरीत धारा है और कभी भी इन्हें एक दूसरे से नहीं जोड़ा जा सकता। उन्होंने यह भी कहा कि आमतौर पर हिन्दू आतंकवादी गतिविधियों में शामिल नहीं होते।
उपरोक्त कथन में उनका यह कहना कि, ‘‘आमतौर पर हिन्दू आतंकवादी गतिविधियों में शामिल नहीं होते‘‘ काफ़ी हद तक सत्य के क़रीब है क्योंकि, जहां पर संगठित रूप से योजना बनाकर आतंक फैलाया जाता हो, वहां यही कहना हक़ीक़त पसंदी है। आमतौर पर आतंकवादी गतिविधियों में शामिल होना तो तब माना जाता है जब कोई पीड़ित व्यक्ति इन्साफ़ न मिलने की प्रतिक्रिया में कोई वारदात कर बैठता है।
संगठित आतंकवाद का नमूना सारा संसार 1992 में बाबरी मस्जिद के विध्वंस के रूप में देख ही चुका है। इसके साथ ही राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद में अपना फ़ैसला सुनाते हुए न्यायमूर्ति एस यू ख़ान का यह कहना कि, ‘‘यदि छः दिसम्बर 1992 की घटना दोहराई जाती है तो देश दोबारा खड़ा नहीं हो पाएगा।‘‘ एक प्रकार से हिन्दू आतंकवाद पर अपनी मोहर लगा देने के समान है।
देश में योजनाबद्ध तरीक़े से पनपाए गए इस आतंकवादी संगठन के हौसले कितने बुलन्द हैं इसका प्रमाण इस संगठन के एक नेता द्वारा समझौते की पेशकश के तौर पर कहे गए इन शब्दों को पेश करना ही काफ़ी है कि यदि मुसलमान बाबरी मस्जिद पर से अपना दावा छोड़ दें तो काशी और बनारस की मस्जिदों पर से हम अपना दावा छोड़ देंगे। क्या यह ब्लैकमेलरों और अपहरणकर्ताओं द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली भाषा नहीं है?
अन्त में आप कल्पना करके देखिये कि यदि क़ानून को ताक़ पर रख कर फ़ैसला न किया गया होता और सही इन्साफ़ करते हुए मस्जिद अराजकता के भंवर से निकाल दी गई होती, तो क्या देश इस वक्त छः दिसम्बर 1992 के आतंकवादियों द्वारा न जलाया जा रहा होता। मुस्लिम समाज ने अपने साथ किये गए ज़ुल्म की प्रतिक्रिया में जिस प्रकार से सब्र और धैर्य से काम लेकर सभ्यता, देशहित और अमनपसंदी का सबूत पेश किया है वह क़ाबिले तारीफ़ है।
इन बातों को ध्यान में रखते हुए आर एस एस प्रमुख मोहन भागवत के आतंकवाद से सम्बन्धित बयान से ऐसा लगता है कि आदरणीय आतंकवाद को जिस प्रकार से परिभाषित करना चाहते हैं उसको समझने में निम्नलिखित उदाहरण शायद सहायक हो सके।
एक बार चंगेज़ ख़ान घोड़े पर सवार कहीं जा रहा था कि रास्ते में उसको किसी महिला के रोने की आवाज़ सुनाई दी जिसको सुनकर वह रुका और आवाज़ की ओर चला। वहां उसने देखा कि एक औरत का बच्चा एक गड्ढे में गिरा हुआ था जिसको वह बाहर निकालने में असमर्थ होने के कारण रो रही थी। अपने जीवन में शायद पहली बार चंगेज़ ख़ान को दया आई अतः उसने उस बच्चे को गड्ढे में से निकाल कर उसकी मां के सुपुर्द कर दिया यह बात दूसरी है कि गड्ढे में से बच्चे को बाहर निकालने का तरीक़ा कुछ अलग सा था क्योंकि चंगेज़ ख़ान ने अपने भाले की नोक से बच्चे को इस तरह उठाकर उसकी मां के सुपुर्द किया जिस तरह से कांटे से खरबूज़े आदि के टुकड़े उठाकर खाए जाते हैं। अतः चंगेज़ ख़ान से आतंकवाद की परिभाषा यदि पूछी जाती तो वह जैसी होती उसका उदाहरण हमारे देश में देखा जा सकता है।