Sunday, December 26, 2010

Shanti ka Sandesh शान्ति का संदेश Sharif Khan

‘‘शान्ति का सन्देश‘‘ कहने और सुनने में बहुत अच्छा लगता है। शान्ति की अपील हमेशा कमज़ोर लोग किया करते हैं जबकि ताक़तवर लोग हुकुम दिया करते हैं। ताक़त अगर चरित्रवान, दयालु और न्यायप्रिय लोगों के पास होती है तब तो उनके हुकुम के मुताबिक़ शान्ति क़ायम होने की सम्भवना रहती है परन्तु यदि चरित्रहीन, ज़ालिम और अन्यायी लोग ताक़त हासिल करके शान्ति की अपील करते हैं तो अस्थाई तौर पर ख़ामोशी भले ही स्थापित हो जाए परन्तु स्थाई रूप में शान्ति क़ायम हो सके, इस बात ही कल्पना करना स्वंय को धोखा देने के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। चूंकि शान्ति स्थापित करने के इस तरीक़े में हठधर्मी, अन्याय और ज़ुल्म का समावेश होता है इसलिए इसकी प्रतिक्रिया के तौर पर किसी दूसरे रूप में जो अशान्ति फैलती है उसके नतीजे में भयानक बरबादी का होना निश्चित होता है जिसका जीता जागता उदाहरण हम मौजूदा दौर के देश और विदेश के हालात से दे सकते हैं।
आज के अशान्ति और आतंक के माहौल का विश्लेषण यदि हम निष्पक्षता से करें तो सरलता से इस नतीजे पर पहुंच सकते हैं कि 1945 से आज तक लगातार किसी न किसी देश से युद्ध करने और करोड़ों लोगों का ख़ून बहाने वाले देश अमेरिका का वजूद इसका ज़िम्मेदार है। फ्रेंकलिन डी. रूज़वेल्ट की मौत के बाद 12 अप्रैल 1945 को अमेरिका के 33वें राष्ट्रपति के तौर पर कुर्सी सम्भालने वाला हैरी ट्रूमैन ’’कू क्लक्स क्लेन’’ नाम के आतंकवादी संगठन का सक्रिय कार्यकर्ता रहा था। इस संगठन का मक़सद काले लोगों को आतंकित करके अमेरिका में वोट देने के हक़ से महरूम करना था। एक आतंकवादी को अपने देश का राष्ट्रपति पद सौंपकर अमेरिकी जनता ने भी आतंकवाद से अपने लगाव का परिचय दिया और इतना ही नहीं बल्कि लाखों लोगों की मौत के ज़िम्मेदार उस व्यक्ति को 1948 के चुनाव में दोबारा राष्ट्रपति चुनकर खूनी खेल जारी रखे जाने की भविष्य की पॉलिसी को वहां की जनता ने हरी झण्डी दिखा दी। उसके बाद से आज तक शान्ति क़ायम करने के नाम पर अमेरिका लगातार इन्सानों का ख़ून बहा रहा है। इसकी वजह यह है कि ताक़त चरित्रहीन, ज़ालिम और अन्यायी लोगों के हाथों में आ गई है। कोरिया, वियतनाम, इराक़, अफ़ग़ानिस्तान आदि देशों की बरबादी इस बात को साबित कर रही है कि शैतान के क़दम जहां पड़ जाते हैं बरबादी वहां का मुक़द्दर बन जाती है। अफ़सोस की बात यह है कि ऐसे शैतानों को समर्थक भी मिल जाते हैं।
सभ्य समाज के अजूबों का ज़िक्र करना यहां ज़रूरी है। तलवार हो या बन्दूक़ इसी प्रकार एटमी हथियार हों या रसायनिक सबका काम मारना है। इनमें तलवार या बन्दूक़ से तो केवल उसी का क़त्ल होता है जिसको मारना होता है परन्तु एटमी या रसायनिक हथियार तो उस क्षेत्र के सभी लोगों को एक साथ मौत के घाट उतार देते हैं। अमेरिका का इराक़ पर रसायनिक हथियार रखने के इल्ज़ाम में हमला करना कैसे जायज़ हो गया जबकि वह ख़ुद तो एटम बम का भी इस्तेमाल कर चुका है। ड्रोन के द्वारा किये जा रहे हमले किस श्रेणी में आते हैं इस पर भी विचार करने की आवश्यकता है। परमाणु हथियारों के बारे में अमेरिका का यह कहना कि यह ग़लत हाथों में नहीं पहुंचने चाहिएं जबकि अमेरिका के अलावा किसी भी देश में इन हथियारों का ग़लत इस्तेमाल होने की सम्भावना बहुत कम है क्योंकि अभी तक केवल अमेरिका ने ही इन हथियारों का इस्तेमाल किया है।
जिन लोगों से अफ़ग़ानिस्तान छीनकर अपने ग़ुलामों को सौंपा है यदि उन्हीं लोगों को वापस लौटा दिया जाए और एटमी हथियार उनको उपलब्ध करा दिये जाएं तो इस प्रकार से जो शक्ति सन्तुलन होगा वह अमेरिका की हैवानियत पर शायद लगाम लगा सके। कभी अवसर मिला तो अपने देश के बारे में चर्चा करेंगे।

Sunday, December 12, 2010

Muslim Society & New Year मुस्लिम समाज और नववर्ष Sharif Khan

किसी भी मशहूर घटना की याद क़ायम रखने के लिए आवश्यक है कि उस घटना को घटित हुए जितना समय गुज़रा हो उसकी गणना होती रहे। इसको यादगार बनाने का सबसे अच्छा उपाय यह है कि उस समय से सन् प्रारम्भ कर दिया जाए। यह बात अधिकतर धर्म व संस्कृतियों में देखी जा सकती है जैसे विक्रमी संवत्, ईसवी सन्, हिजरी सन् आदि। इनमें हिजरी सन् के अलावा जितने भी सन् शुरू हुए हैं वह प्रथम माह से शुरू हुए हैं परन्तु हिजरी सन् प्रथम माह से शुरू न होकर तीसरे माह से प्रारम्भ होता है। यह सन् पैग़म्बर हज़रत मौहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के मक्का से मदीना हिजरत करने के समय से शुरू होता है और पैग़म्बर सल्ल० ने तीसरे माह (रबीउल अव्वल) की पहली तारीख़ को मक्का छोड़ा था तथा 8 तारीख़ को मदीने से कुछ किलोमीटर पहले क़ुबा के मुक़ाम पर पहुंचे तथा इसके बाद 12 तारीख़ को मदीना में प्रवेश किया था। इस प्रकार से यदि मक्का छोड़ने के समय को हिजरत मानी जाए तो रबीउल अव्वल की पहली तारीख़ तथा यदि मदीने में प्रवेश करने के समय को हिजरत मानी जाए तो रबीउल अव्वल की 12 तारीख़ से हिजरी सन की शुरूआत होती है। जिस प्रकार से यात्रा आरम्भ करने के साथ ही कोई व्यक्ति यात्री कहलाने लगता है उसी तरह हिजरत के लिए घर छोड़ने के समय को हिजरत करना कहते हैं अतः रबीउल अव्वल की पहली तारीख़ से हिजरी सन् का आरम्भ हुआ।
इस बात की जानकारी होना भी आवश्यक है कि अरब में समय की गणना सूर्य से न होकर चन्द्रमा से होती रही है और प्राचीन काल से समय की गणना के लिए जो पद्धति अपनाई हुई थी उस में किसी भी प्रकार का रद्दो बदल न करके उसी को अपना लिया गया यहां तक कि महीनों के नाम भी वही क़ायम रहे जो पहले से चले आ रहे थे जोकि इस प्रकार हैं - (1) मुहर्रम (2) सफ़र (3) रबीउल अव्वल (4) रबीउस्सानी (5) जमादिउल अव्वल (6) जमादिउस्सानी (7) रजब (8) शाबान (9) रमज़ान (10) शव्वाल (11) ज़ीक़ाद (12) ज़िलहिज्ज।
इस प्रकार से हिजरी सन् का पहला महीना मुहर्रम का बेशक है परन्तु हिजरत की घटना चूंकि तीसरे माह की पहली तारीख़ को घटित़ हुई थी इसलिये नया साल मुहर्रम के महीने से आरम्भ होने का कोई औचित्य ही नहीं है। जनवरी की पहली तारीख़ को नववर्ष के तौर पर मनाने का चलन है और 31 दिसम्बर व 1 जनवरी के बीच की मध्यरात्रि को समारोह आयोजित किये जाते हैं।
साम्प्रदायिकता वादी ईस्वी सन् को ईसाई धर्म से जोड़ कर इस दिन को नववर्ष के रूप में मान्यता देने से बचते हैं और सम्वत् के अनुसार हिन्दी नववर्ष के रूप में चैत्र मास की पहली तारीख़ को मान्यता देने का संकल्प लिये हुए हैं परन्तु सफल नहीं हो पा रहे। मुस्लिम समाज यदि मुहर्रम के महीने से वर्ष की शुरुआत माने तो इस माह के पहले दस दिन मानव सभ्यता के इतिहास में सबसे ज़्यादा शर्मनाक और मानवता को कलंकित करने वाले जु़ल्म की कहानी कह रहे होते हैं अतः इसको समारोह का रूप नहीं दिया जा सकता। रबीउल अव्वल माह की पहली तारीख़ हिजरत वाला दिन है इसको ऐतिहासिक तथ्य के रूप में मान्यता तो दी जा सकती है परन्तु समारोह के तौर पर मनाया जाना इसलिए अनुचित है क्योंकि शरीअत में किसी भी घटना की वर्षगांठ मनाया जाना साबित नहीं हैं। अतः मुसलमानों को चाहिए कि नया साल, किसी का जन्म दिन, बरसी आदि हर प्रकार के आयोजनों से स्वंय दूर रखें। आवश्यकता इस बात की है कि इस्लाम धर्म के आलिम हज़रात इन तथ्यों की रोशनी में दिशा निर्देश दें ताकि मुस्लिम समाज भटकने से बचा रहे।