1 अप्रैल सन 2006 को उ.प्र. में सहारनपुर जिले के दग्डोली गांव निवासी चन्द्रपाल के पुत्र कल्लू के अपहरण में नामज़द उसी गांव के निवासी जसवीर तथा पास के गांव खजूरवाला निवासी गुलज़ार अहमद को पुलिस ने गिरफ़्तार कर लिया। और फिर अपहरण व हत्या के जुर्म में पुलिस ने ऐसे पुख्ता सबूत जुटाए जिनके आधार पर 30 जनवरी 2009 को अदालत ने दोनो आरोपियों को अपराधी मानते हुए आजीवन कारावास की सज़ा सुना दी। सज़ा के 9 माह बाद कल्लू के सही सलामत घर लौट आने पर 10 अक्टूबर 2009 को पुलिस के समक्ष दिये गए बयान के मुताबिक़ वह अपनी मर्जी से अपनी रिश्तेदारी में चला गया था तथा उसका किसी ने अपहरण नहीं किया था।
यदि कल्लू घर न पहुंचकर पहले पुलिस के हत्थे चढ़ गया होता तो हो सकता है कि पुलिस उसको ज़िन्दा रहने के जुर्म में मार देती। क्योंकि जिस व्यक्ति का कत्ल होना पुलिस ने स्वीकार कर लिया हो और उसके कत्ल के जुर्म में कातिलों (बिना कत्ल किये) को सज़ा दिलवा चुकी हो, उसका ज़िन्दा रहना स्वंय में एक अपराध है।
इस घटना का दर्दनाक और मानवता को कलंकित करने वाला पहलू यह है कि एक समाचार पत्र में इस घटना के 14 माह बाद दिसम्बर 2010 में यह ख़बर इस तरह से छपी कि बिना कोई जुर्म किये सज़ा काट रहे दोनों बेक़सूर लोग अभी तक भी जेल से रिहा नहीं किये गए हैं।
दूसरा उदाहरण इस प्रकार है-
मई 2010 में मुज़फ्फ़रनगर में अजीत व अन्शु नामक प्रेमी-प्रेमिका घर से फ़रार हो गए। इसके बाद पुलिस ने अजीत के घरवालों से ज़बरदस्ती एक लाश की अजीत के रूप में शनाख्त करा दी और प्रेमी युगल के क़त्ल के जुर्म में प्रेमिका के भाई अनुज को हिरासत में लेकर जुर्म स्वीकार करा लिया। क़त्ल का जुर्म स्वीकार कराने के बाद अनुज को जेल भेजे जाने की कार्रवाई चल ही रही थी कि प्रेमी युगल ज़िन्दा वापस आ गया अतः अनुज को रिहा करना पड़ा। सोचने की बात यह है कि यदि प्रेमी युगल ज़िन्दा वापस न आया होता तो अनुज को जुर्म स्वीकार करने के कारण क़त्ल के अपराध में सज़ा दिया जाना निश्चित था।
एक और ताज़ा उदाहरण देखिए-
बुलन्दशहर ज़िले के सलेमपुर थाना क्षेत्र में रहने वाले जागन पुत्र सूरज का विवाह लगभग 6 वर्ष पहले इसी ज़िले के गांव तेजगढ़ी निवासी प्रियंका उर्फ़ लाली से हुआ था। 9 जनवरी 2011 को अचानक प्रियंका ग़ायब हो गई और 14 जनवरी को बेटी से मिलने के लिए उसकी मां जब उसकी सुसराल पहुंची और बेटी को मौजूद न पाया और इत्तफ़ाक़ से इसी दिन सलेमपुर के पास के गांव मांगलौर में एक युवती के जले हुए शव के बरामद होने पर लड़की की मां ने उसके पति जागन के ख़िलाफ़ दहेज हत्या की रिपोर्ट दर्ज करा दी तथा जोड़तोड़ में माहिर पुलिस ने उसके तार जली हुई महिला की लाश से जोड़ते हुए ग़ायब हुई प्रियंका के पति जागन को पत्नी की हत्या के जुर्म में गिरफ़्तार करके जेल भेज दिया और जली हुई लाश के अवशेष को डी.एन.ए. की जांच के लिए भेज दिया। प्रियंका के अपने ही पड़ौस के गांव से ज़िन्दा बरामद होने पर दाग़दार पुलिस की कार्यशैली का मानवता को कलंकित करने वाली साबित होती है।
सबूत जुटाने के लिए पुलिस की कार्यपद्धति जो भी हो अथवा किसी अपराधी द्वारा किये गए अपराध को किसी बेक़सूर व्यक्ति के सर थोप कर उससे उस अपराध को स्वीकार करा लेना अपने आप में एक ऐसा कारनामा है जिसके बल पर एक ओर तो पुलिस अपने निकम्मेपन पर परदा डालने में सफल हो जाती है तथा दूसरी ओर सरकार की भी बहुत सी समस्याएं हल हो जाती हैं। आरुषि का जब क़त्ल हुआ और पुलिस ने नौकर को ग़ायब पाया तो नौकर द्वारा ‘क़त्ल करके नेपाल को फ़रार हो जाने‘ का केस बना कर हल किया जाना लगभग सुनिश्चित था परन्तु सीढ़ियों पर ख़ून के धब्बे किसी के द्वारा देख लिये जाने पर पुलिस को ऊपर जाने का कष्ट करना पड़ा और वहां मिली नौकर की लाश ने मामला गड़बड़ कर दिया। इसके बाद केस सी.बी.आई के सुपुर्द करके सरकार ने उलझा दिया वरना अब तक तो उपरोक्त उदाहरणों की तरह से पुलिस कभी का इस केस को भी हल करके किसी बेगुनाह को फांसी के तख्ते तक पहुंचा चुकी होती। ध्यान रहे कि पुलिस के सिपाही हों या विवेचना अधिकारी या बड़े अधिकारी सब जिस समाज से आते हैं जज भी उसी समाज का उसी प्रकार से अंग हैं जिस प्रकार हम और आप हैं अतः अकेले पुलिस को दोषी ठहरा कर व्यवस्था के दूसरे अंगों के दोषी होने को नज़र अन्दाज़ नहीं किया जा सकता।
Thursday, February 24, 2011
Friday, February 4, 2011
Mosques are not safe in independent India आज़ाद हिन्दोस्तान में मस्जिदों का वजूद ख़तरे में Sharif Khan
6 दिसम्बर 1992 को विशिष्ट आतंकवादियों ने, हिन्दुत्व के नाम पर, धार्मिक जुनून में आकर सरकार की सरपरस्ती में बाबरी मस्जिद को शहीद करके जिस अराजकता का परिचय दिया था और इलाहाबाद हाईकोर्ट ने जिस बेबाकी से मस्जिद के ख़िलाफ़ फ़ैसला देकर, इन्साफ़ का जनाज़ा निकाल कर मुसलमानों के दिलों को छलनी किया था, अभी उसकी तकलीफ़ से हिन्दोस्तान का मुसलमान तड़प ही रहा था कि दिल्ली के जंगपुरा इलाक़े में स्थित नूर मस्जिद को डी.डी.ए. की शकल में सरकारी ग़ुण्डों ने अर्धसैनिक बलों की मदद से शहीद कर दिया। पहले सुबह सवेरे पूरे इलाक़े को छावनी के रूप में बदल दिया गया और फिर मस्जिद को इस अन्दाज़ में तेज़ी से शहीद करके हाथों हाथ उसका मलबा साफ़ कर दिया गया मानों वह मस्जिद मस्जिद न होकर कोई बम का गोला हो और यदि कुछ अरसे तक यह क़ायम रह गई तो देश की सुरक्षा ख़तरे में न पड़ जाए।
ग़ौर करने की बात यह है कि आजकल हर शहर और हर इलाक़े में मन्दिरों की बाढ़ सी आई हुई है। उनके बनाने पर हमको कोई ऐतराज़ नहीं है और न ही हमारा मक़सद इस बात की खोज करना है कि यह मन्दिर जायज़ जगह पर बने हैं अथवा नाजायज़ पर परन्तु जब नाजायज़ हरकत शासन और प्रशासन की निगरानी में खुलेआम की जा रही हो और निर्भीकता व निष्पक्षता का दम भरने वाली मीडिया भी उधर से दृष्टि फेर ले तो एक अनजानी सी टीस हर भावुक व्यक्ति के दिल में होना लाज़मी है। उदाहरण के तौर पर पुलिस स्टेशनों में, सार्वजनिक पार्कों में तथा सरकारी विभागों में जो मन्दिर बनाए गए हैं और बनाए जा रहे हैं उनका क्या औचित्य है? इस प्रकार से बनाए गए मन्दिरों के नाजायज होने में जब शक की कोई गुन्जाइश ही नहीं है तो फिर इनको हटाने और भविष्य में ऐसी हरकत की रोकथाम करने की क्यों कोई योजना नहीं बनाई जाती?
'मस्जिद तोड़ो अभियान‘ के समर्थकों को इस बात की ओर भी ध्यान देने की आवश्यकता है कि यदि किसी मस्जिद में अज्ञानता वश चोरी की बिजली इस्तेमाल करने की कोशिश की जाती है तो उस मस्जिद में नमाज़ पढ़ने से शरीयत के जानकार लोग एतराज़ कर देते हैं और उस ग़लती का सुधार करा दिया जाता है। इसी प्रकार से बिना इजाज़त लिये किसी के पेड़ से काटी गई लकड़ियों से गर्म किया हुआ पानी भी मस्जिद में प्रयोग के लायक़ नहीं होता। मुसलमानों में जो लोग शराब बनाने या बेचने आदि का रोज़गार करते हैं अथवा खुलेआम ऐसा धंधा करते हैं जो इस्लामी शरीअत में हराम है तो उन लोगों के द्वारा दिया गया धन मस्जिद के किसी काम में भी लगाये जाने के लिए स्वीकार नहीं किया जाता। सोचने की बात यह है कि नाजायज़ साधनों के इस्तेमाल तक की भी जहां इजाज़त न हो तो यह कल्पना करना मूर्खता है कि मस्जिद किसी नाजायज भूमि पर बनाई गई होगी।
मन्दिर बनाए जाने के बारे में सनातन धर्म में क्या निर्देश हैं, इस बात की जानकारी चूंकि मुझे नहीं है अतः इस बारे में कुछ भी कहना अनुचित होगा परन्तु धर्म के जानकार लोगों से इस बात का आह्वान करने में कोई हर्ज नहीं है कि वह यह देखें कि अनुचित भूमि पर अथवा अनुचित साधनों को प्रयोग में लाकर बनाए गए मन्दिरों में क्या पूजा आदि कार्य सम्पन्न किये जा सकते हैं और यदि ऐसा नहीं हो सकता तो फिर किस प्रकार की कार्य योजना बनाई जाए यह एक गम्भीर विचारणीय विषय है और इस पर हिन्दू धर्माचार्यों को अवश्य ध्यान देना चाहिए।
ग़ौर करने की बात यह है कि आजकल हर शहर और हर इलाक़े में मन्दिरों की बाढ़ सी आई हुई है। उनके बनाने पर हमको कोई ऐतराज़ नहीं है और न ही हमारा मक़सद इस बात की खोज करना है कि यह मन्दिर जायज़ जगह पर बने हैं अथवा नाजायज़ पर परन्तु जब नाजायज़ हरकत शासन और प्रशासन की निगरानी में खुलेआम की जा रही हो और निर्भीकता व निष्पक्षता का दम भरने वाली मीडिया भी उधर से दृष्टि फेर ले तो एक अनजानी सी टीस हर भावुक व्यक्ति के दिल में होना लाज़मी है। उदाहरण के तौर पर पुलिस स्टेशनों में, सार्वजनिक पार्कों में तथा सरकारी विभागों में जो मन्दिर बनाए गए हैं और बनाए जा रहे हैं उनका क्या औचित्य है? इस प्रकार से बनाए गए मन्दिरों के नाजायज होने में जब शक की कोई गुन्जाइश ही नहीं है तो फिर इनको हटाने और भविष्य में ऐसी हरकत की रोकथाम करने की क्यों कोई योजना नहीं बनाई जाती?
'मस्जिद तोड़ो अभियान‘ के समर्थकों को इस बात की ओर भी ध्यान देने की आवश्यकता है कि यदि किसी मस्जिद में अज्ञानता वश चोरी की बिजली इस्तेमाल करने की कोशिश की जाती है तो उस मस्जिद में नमाज़ पढ़ने से शरीयत के जानकार लोग एतराज़ कर देते हैं और उस ग़लती का सुधार करा दिया जाता है। इसी प्रकार से बिना इजाज़त लिये किसी के पेड़ से काटी गई लकड़ियों से गर्म किया हुआ पानी भी मस्जिद में प्रयोग के लायक़ नहीं होता। मुसलमानों में जो लोग शराब बनाने या बेचने आदि का रोज़गार करते हैं अथवा खुलेआम ऐसा धंधा करते हैं जो इस्लामी शरीअत में हराम है तो उन लोगों के द्वारा दिया गया धन मस्जिद के किसी काम में भी लगाये जाने के लिए स्वीकार नहीं किया जाता। सोचने की बात यह है कि नाजायज़ साधनों के इस्तेमाल तक की भी जहां इजाज़त न हो तो यह कल्पना करना मूर्खता है कि मस्जिद किसी नाजायज भूमि पर बनाई गई होगी।
मन्दिर बनाए जाने के बारे में सनातन धर्म में क्या निर्देश हैं, इस बात की जानकारी चूंकि मुझे नहीं है अतः इस बारे में कुछ भी कहना अनुचित होगा परन्तु धर्म के जानकार लोगों से इस बात का आह्वान करने में कोई हर्ज नहीं है कि वह यह देखें कि अनुचित भूमि पर अथवा अनुचित साधनों को प्रयोग में लाकर बनाए गए मन्दिरों में क्या पूजा आदि कार्य सम्पन्न किये जा सकते हैं और यदि ऐसा नहीं हो सकता तो फिर किस प्रकार की कार्य योजना बनाई जाए यह एक गम्भीर विचारणीय विषय है और इस पर हिन्दू धर्माचार्यों को अवश्य ध्यान देना चाहिए।
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