Friday, April 22, 2011

वैश्यावृत्ति सभ्य समाज का दुर्भाग्य by Sharif Khan

ईश्वर ने इंसान को एक मर्द और एक औरत से पैदा किया इस प्रकार से सभी लोग आपस में भाई के रिश्ते से जुड़ गए। सभ्य समाज में प्रत्येक व्यक्ति के लिए स्त्रियां ‘‘मां, बहन, बेटी या पत्नि‘‘ इन चार रूपों में जानी जाती हैं। स्त्री और पुरुष के बीच शारीरिक संरचना और क्षमता का जो भेद है उसके अनुरूप क़ायम की गई सामाजिक व्यवस्था में दिये गए अधिकार और कर्तव्यों के अनुसार महिलाओं की सुरक्षा के साथ उनकी आवश्यकताओ की पूर्ति की ज़िम्मेदारी पुरुषों के ऊपर डाल दी गई। किसी मजबूरी वश यदि महिलाओं को जीविकोपार्जन की आवश्यकता पड़ती है तो पूरे समाज को चाहिए कि उनके अनुरूप जीविका के साधन उपलब्ध करा दिए जाएं। ईश्वर ने नारी को सतीत्व एक धरोहर के रूप में प्रदान किया है जिसकी रक्षा करने में प्रायः वह अपना जीवन तक दांव पर लगा देती है। जिस प्रकार से पुरुषों के लिए स्त्री ‘‘मां, बहन, बेटी या पत्नि‘‘ का रूप होती है उसी प्रकार से एक स्त्री के लिए पुरुष ‘‘पुत्र, भाई, पिता या पति‘‘ के रूप में होता है। यदि हम संजीदगी से विचार करें तो पुत्र, भाई, पिता या पति के होते हुए क्या किसी मां, बहन, बेटी या पत्नि के सतीत्व पर आंच आ सकती है? इस सब के बावजूद पूरी सामाजिक व्यवस्था में वैश्यावृत्ति को एक पेशे के रूप में मान्यता दिया जाना समाज के ठेकेदारों के दोग़लेपन को साबित करने के लिए काफ़ी है। जो लोग धन के बदले में किसी स्त्री के साथ व्याभिचार करते हैं और उस अबला के सतीत्व (अस्मत) से खेलते हैं वही लोग उस बदनसीब औरत को वैश्या के रूप में केवल इसलिए मान्यता देते हैं ताकि आइन्दा भी उनकी यौनेच्छा की पूर्ति का साधन उपलब्ध रहे। वैश्यावृत्ति को सबसे पुराना पेशा कहकर वैश्यागामी पूर्वजों के ‘‘कमीनेपन‘‘ पर क्या कभी सभ्य कहलाने वाले लोगों को शर्मिन्दगी का एहसास नहीं होता? ध्यान रहे कि एक स्त्री तब तक वैश्या नहीं बन सकती जब तक कि कोई पुरुष उससे सम्बन्ध न बनाए इसलिए स्त्री से ज़्यादा पुरुष इस पापकर्म का ज़िम्मेदार हुआ। अब पतन की ओर जा रहे समाज के उत्थान के लिए चरित्र निर्माण का उपाय करने के बजाय वैश्यावृत्ति के रूप में फैल रही गन्दगी को सैक्स वर्कर के नाम से मान्यता देकर क्या देश की संस्कृति का जनाज़ा निकालने की तैयारी नहीं की जा रही है।

देश में सरकारी आंकड़े के अनुसार लगभग 10 लाख बदनसीब महिलाएं इस घिनौने पेशे में पड़ी हुई हैं। क्या वह देश की बेटियां नहीं हैं? राजा के लिए प्रजा संतान की तरह होती है, तो क्या देश को चलाने वाले राजनेता अपनी इन बदनसीब बेटियों को इस प्रकार के नारकीय जीवन व्यतीत करने से मुक्ति दिलाने के बजाय उनके लिए सैक्स वर्कर का नाम देकर लाइसेंस की व्यवस्था करके अपनी राक्षसी प्रवृत्ति का इज़हार नहीं कर रहे हैं? सरकार को चाहिए कि उनके पुनर्वास के लिए बनाई गई योजना में उन महिलाओं के लिए योग्यतानुसार नौकरी, यदि वह चाहें तो विवाह और समाज में उनके लिए सम्मानित जीवन जीने का आधार उपलब्ध कराए जाने का प्रावधान किया जाए। तथा उनके पुनर्वास के लिए बनाई गई योजना को विस्तार पूर्वक समझाकर यह पूछा जाए कि क्या वह इस पेशे को छोड़ना चाहती हैं और यदि जवाब हां में हो तो उनके लिए सम्मानित जीवन जिये जाने लायक़ साधन उपलब्ध कराए जाने का प्रबन्ध कराया जाए। ध्यान रहे समाज के द्वारा धुतकारी हुई देश की इन बदनसीब बेटियों में काफ़ी संख्या उन भले घरों की लड़कियों की भी है जिनको बचपन में अपहृत करके ले जाकर, कभी वापस न लौटने के लिए, वहां पहुंचा दिया गया था।

आम जनता की राय जानने के लिए किये गए सर्वे में तो केवल इतना ही प्रश्न करना पर्याप्त होगा कि क्या वैश्यावृत्ति का पेशा समाप्त होना चाहिए और यदि नहीं तो आप ‘‘मां, बहन, बेटी या पत्नि‘‘ वाले रिश्ते में से किसके पास अपनी कामपिपासा को शान्त करने के लिए जाना चाहेंगे अथवा ‘‘मां, बहन, बेटी या पत्नि‘‘ में से किसको इस पेशे में भेजकर सहयोग करना चाहेंगे।

शराफ़त के चोले में छिपे हुए समाज के ठेकेदारों का चरित्र चित्रण करते हुए किसी शायर ने कहा हैः
ख़िलाफ़े शरअ तो शेख़ जी थूकते भी नहीं।
मगर अंधेरे उजाले यह चूकते भी नहीं।।
इस पापकर्म में ऐसे शरीफ़ लोगों की भागीदारी से भी इंकार नहीं किया जा सकता।

Friday, April 15, 2011

बिगड़ा हुआ समाज Sharif Khan

ईश्वर ने हर चीज़ को नर और मादा के जोड़ों में पैदा किया है तथा दोनों के मिलन से सन्तानोत्पत्ति होती है और नस्ल चलती है। बच्चे चूंकि मादा जनती है इसीलिए शायद उसके आकर्षण के लिए नर को मादा के मुक़ाबले में ज़्यादा सुन्दर बनाया गया है। उदाहरण के तौर पर देखें कि मोर मोरनी के मुक़ाबले में अधिक सुन्दर होता है। इसी प्रकार कबूतर कबूतरी से, शेर शेरनी से, नाग नागिन से आदि प्रत्येक जानदार में नर हमेशा मादा के मुक़ाबले में अधिक सुन्दर होता है। इंसानों पर भी यह बात लागू होना अनिवार्य है। इस तथ्य की रोशनी में यदि विचार किया जाए तो निष्कर्ष यह निकलता है कि मर्द को औरत के मुक़ाबले में अधिक सुन्दर बनाया गया है। यह बात इस तथ्य से भी साबित हो जाती है कि हमेशा औरतें ही सजनें संवरने की ओर ध्यान देती हैं, मर्द नहीं, क्योंकि सुन्दर चीज़ को सजाने संवारने की आवश्यकता ही नहीं है मर्दों को रिझाने के लिए सजने, संवरने के अलावा नाचने गाने का कार्य भी औरतें ही करती आई हैं ताकि दोनों ओर परस्पर आकर्षण बना रहे। औरतों में जो चीज़ मर्दों से बेहतर और उनको उच्चता प्रदान करने वाली है वह है करुणा, दया और ममता की भावना। सेवा, सत्कार और त्याग की भावना। क्षमा, बलिदान और संतोष की भावना। इन्हीं भावनाओं का अक्स जब चेहरे पर आता है तो वही उनके चेहरे का तेज तथा शर्म और हया उनका गहना बन जाता है। औरतों और मर्दों के बीच शारीरिक संरचना और क्षमता का जो भेद है उसके अनुरूप क़ायम की गई सामाजिक व्यवस्था में दिये गए अधिकार और कर्तव्यों के अनुसारं औरतों की सुरक्षा के साथ उनकी आवश्यकताओ की पूर्ति की ज़िम्मेदारी मर्दों के ऊपर डाल दी गई इससे बड़े सम्मान की कल्पना नहीं की जा सकती हालांकि उसके बदले में औरतें घरों की देखभाल और बच्चों की परवरिश की ज़िम्मेदारी को निभाती हैं जोकि उनकी शारीरिक संरचना और क्षमता के अनुकूल है। इस व्यवस्था के विपरीत जब औरतों ने घरों से बाहर निकल कर मर्दों के काम सम्भालने शुरू कर दिये और मर्दों ने ब्यूटी पार्लर जाकर सजना संवरना शुरू कर दिया तो समाज का ढांचा ही बिगड़ गया। इस प्रकार से पतन के रास्ते पर चलते हुए गिरावट की हद यह हो गई कि नर्तकियां जिस प्रकार से नाच गाना करके मर्दों का दिल बहलाने के साधन उपलब्ध कराती थीं (हालांकि यह भी शर्म की बात थी), उसी प्रकार से अब पतित समाज में मर्दों को नचाया जाने लगा। और जिस प्रकार से राज नर्तकियां हुआ करती थीं उसी प्रकार से अब राज नर्तक होने लगे और देश में सर्वोच्च सम्मान से नवाज़े जाने लगे। इस बात में अफ़सोस का पहलू यह है कि हमारे देश के नौजवानों का आदर्श ऐसे ही नाचने गाने वाले लोग हो गए जिन में स्टेज पर श्वसुर को बहू के साथ नाचने में कोई ऐतराज़ नहीं होता और न ही भाभी को देवर के साथ नाचने में लेशमात्र भी आपत्ति होती है बल्कि आपत्ति हो भी क्यों, किसी भी बुराई को बुराई में बुराई नज़र नहीं आया करती। अब आवश्यकता इस बात की है कि समाज के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी को समझते हुए बुद्धिजीवी वर्ग इस ओर ध्यान देकर पतन की राह पर चल पड़े समाज को सही राह पर लाने की रूपरेखा बनाएं ताकि अच्छे संस्कार से युक्त नई पीढ़ी जन्म लेकर देश को नई दिशा में ले जाने में सक्षम हो।