Tuesday, May 31, 2011

वकील का पेशा और न्याय - Sharif Khan

सभ्यता के इस युग में न्याय प्राप्त करना प्रत्येक नागरिक का अधिकार होना चहिए तथा सरकार की ज़िम्मेदारी होनी चाहिए कि ऐसी व्यवस्था क़ायम करे जिस से देश का कोई भी नागरिक न्याय से वन्चित न रहे और इसके साथ ही यह भी सुनिश्चित करना आवश्यक है कि न्याय आसानी से तथा बिना कुछ खर्च किये हासिल हो यदि न्याय प्राप्ति के लिए धन की आवश्यकता पड़ती हो तो वह न्याय ख़रीदने के समान है जोकि सभ्यता के नाम पर कलंक जैसा है।

हमारे देश की न्यायायिक व्यवस्था में न्याय प्राप्त करने की प्रक्रिया इतनी जटिल और ख़र्चीली बना दी गई है कि न्याय आम आदमी की पहुंच से बाहर हो गया है। इसीलिये कहा जाता है कि ‘‘जब दो पक्षों में मुक़दमा चलता है तो हारने वाला तो हारता ही है परन्तु जीतने वाला भी फैसला आने तक इतना बरबाद हो चुका होता है कि वह भी हारने जैसा ही होता है।‘‘

एक छोटे से उदाहरण से बात आसानी से समझाई जा सकती है। एक कमज़ोर व्यक्ति के मकान पर कोई व्यक्ति यदि क़ब्जा कर ले तो पीड़ित को अदालत से न्याय पाने के लिए कोर्ट फीस के नाम पर अच्छी ख़ासी रक़म जमा करनी होती है, जोकि मकान की कीमत के अनुसार निश्चित होती है और यदि पीड़ित व्यक्ति किन्हीं कारणों से कम धन जमा करता है तो मुक़दमा दायर होने के बाद विपक्षी ऐतराज़ लगाता है कि कोर्ट फ़ीस कम जमा होने के कारण यह न्याय पाने का अधिकारी नहीं है। जबकि यह तो सरकार का कर्तव्य होना चाहिए कि पीड़ित को उसकी सम्पत्ति बिना किसी ख़र्चे के वापस दिलाए। इसी कारण प्रायः पीड़ित व्यक्ति धनाभाव के कारण सब्र करके बैठ रहता है जिसके नतीजे में अराजकता को बढ़ावा मिलता है।

न्याय प्राप्त करने के लिए चूंकि वकील की सेवाएं लेना अनिवार्य है अतः पूरी न्यायायिक प्रक्रिया में वकील की भूमिका विशेष महत्व रखती है। वकील का काम पीड़ित को न्याय दिलाना होना चाहिए परन्तु वकील अपने मुवक्किल से मिले हुए मेहनताने के बदले में उसको मुक़दमा जिताना ही अपना एकमात्र लक्ष्य मान लेता है चाहे वह दूसरे का हक़ ही क्यों न छीन रहा हो अथवा अपने द्वारा किए गए अपराध की सज़ा से बचने की कोशिश में हो। इसके नतीजे में मुक़दमे का फ़ैसला प्रायः न्याय पर आधारित न होकर वकील की क़ाबलियत पर निर्भर करता है। अक्सर यह भी देखा गया है कि सही हक़दार आमतौर पर न्यायालय पर भरोसा करते हुए मध्यम दर्जे के वकील की सेवाएं ले लेता है जबकि दूसरा पक्ष बड़े वकील की सेवाएं लेकर उसकी शातिराना चालों से मुक़दमा जीत जाता है। न्ययालय तो वकीलों की बहस के आधार पर ही फ़ैसला देता है लिहाज़ा सही फ़ैसला देने की नियत होने के बावजूद वकीलों की बहस के आधार पर न्यायधीश द्वारा ग़लत फ़ैसला हो जाता है। इसका अफ़सोसनाक पहलू यह है कि झूठी दलीलों पर आधारित मुक़दमा जीतने वाला वकील गर्व के साथ कहता है कि मैंने अमुक मुक़दमा झूठा होने के बावजूद जितवा दिया अथवा सरेआम क़त्ल करने वाले अपराधी को सज़ा होने से बचवा दिया या बलात्कारी को सज़ा से बचवाकर उल्टे पीड़िता के भाई को जेल की हवा खिलवा दी। आदि। इस से भी बुरी बात यह है कि झूठे मुक़दमे को जिताने वाले वकील की इज़्ज़त भी समाज में बढ़ जाती है यहां तक कि न्यायधीशों को भी अक्सर झूठा केस जिताने वासे वकीलों की तारीफ़ करते हुए देखा गया है। ध्यान रहे वकीलों में से ही जज भी बनाए जाते हैं।

बैरिस्ट्री पास करने के बाद गांधीजी ने जब राजकोट में वकालत शुरु की तो उनके पास कोई केस नहीं आया क्योंकि झूठा केस वह लेते नहीं थे और उनकी फ़ीस अधिक होने के कारण सच्चे केस के लिए कोई उनकी सेवाएं लेना नहीं चाहता था।

ध्यान रहे इस्लामी शासन व्यवस्था में वकील की कोई भूमिका नहीं होती क्योंकि दोनों पक्ष अदालत में पेश होकर अपनी बात कहते हैं जिसके आधार पर फ़ैसला दे दिया जाता है। तथा न्याय प्रप्त करने के लिए कोई ख़र्चा भी नहीं होता क्योंकि क़ानून व्यवस्था क़ायम करने के साथ न्याय भी मुफ़्त दिलाना सरकार का दायित्व है।

इंसान का ज़मीर ग़लत कार्य पर उसको टोकता है परन्तु आवेश में आकर ज़मीर की आवाज़ को नज़रअन्दाज़ करते हुए वह अपराध कर बैठता है। ऐसी भी मिसालें हैं किसी व्यक्ति द्वारा किये गए क़त्ल के जुर्म में किसी बेक़सूर को फांसी के तख्ते तक पहुंचने पर ज़मीर के धिक्कारने से अपराधी ने स्वयं हाज़िर होकर जुर्म कु़बूल कर लिया और बेक़सूर को अपने गुनाह के बदले में मिलने जा रही सज़ा से बचवा दिया। परन्तु इसमें मुख्य भूमिका निभाने वाले वकील के ज़मीर ने उसको कभी नहीं धिक्कारा। क्या इसलिए कि उसका ज़मीर मुर्दा हो चुका था।

Wednesday, May 25, 2011

भट्टा पारसौल में एक महिला मुख्यमन्त्री के काल में महिलाएं असुरक्षित - Sharif Khan

चंगेज़ ख़ान ने जब बग़दाद फ़तह किया तो उसने हैवानियत की सारी हदों को पार करते हुए वहां की जनता का क़त्ले आम कराना शुरु कर दिया। ऐसी स्थिति में लोग भयभीत होकर तहखानों आदि में छिप गए और हालात सामान्य होने का इन्तज़ार करने लगे। चंगेज़ खान को लोगों के छिपे होने का तो आभास था परन्तु छिपने के स्थान का पता नहीं था। किसी ने जब उसको यह बताया कि मस्जिदों में अज़ान होती है जिसको सुनकर मुसलमान नमाज़ पढ़ने के लिए वहां जाते हैं। इस मालूमात के बाद उसने मस्जिदों में अज़ान दिलवाई ताकि लोग नमाज़ पढ़ने के लिए बाहर निकलें और ऐसा ही हुआ। अज़ान की आवाज़ सुनकर लोगों ने समझा कि स्थिति सामान्य हो गई है लिहाज़ा वह नमाज़ पढ़ने व दूसरी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए अपनी पनाहगाहों से बाहर निकले और इस प्रकार से वह भी चंगेज़ खान के ज़ुल्म का शिकार हुए।

भट्टा पारसौल गांव में दो सिपाहियों की मौत ने उत्तर प्रदेश की पुलिस को क्या चंगेज़ ख़ान की फौज नहीं बना दिया है? दिन में ऐलान किया जाता है कि पुलिसिया ज़ुल्म के कारण घरों से पलायन करने वाले लोग बिना किसी डर के लौट आएं और रात को डरे सहमे लोग जो हाथ आ जाते हैं उनको चंगेज़ी नीति के अनुसार पुलिस का कोपभाजन बनना पड़ता है। हालांकि एक फ़र्क़ अब भी है। वह यह कि, चंगेज़ ख़ान की फ़ौज के ख़िलाफ़ महिलाओं से दुर्व्यवहार की शिकायत नहीं थी परन्तु यहां शायद ऐसी शिकायतें महिला मुख्यमन्त्री होने के कारण हैं, क्योंकि आमतौर से महिलाएं पुरुषों के मुक़ाबले में महिलाओं के द्वारा अधिक सताई जाती हैं।

ध्यान रहे कि मुख्यमन्त्री ने जब बुलन्दशहर से चुनाव लड़ा था तब पुलिस के द्वारा उनके साथ किये गए दुर्व्यवहार को वहां की जनता आज भी नहीं भूली है परन्तु उन्होंने उसको पता नहीं क्यों भुला दिया है वरना एक भुक्तभोगी होने के नाते कम से कम उनके मुख्यमन्त्रित्व काल में तो महिलाओं के सम्मान की रक्षा होनी ही चाहिए थी।

अपनी भूमि का न्यायोचित मुआवज़ा मांगने के जुर्म में इस हद तक हालात बिगड़े और जनता को पुलिस का असली रूप देखने के लिए मजबूर होना पड़ा। जबकि मुआवज़ा अब भी बढ़ाना पड़ेगा।

यदि सरकार वहां के हालात ठीक करना चाहे तो आम माफ़ी के ऐलान के साथ वहां के लोगों के ख़िलाफ़ क़ायम किये गए मुक़दमें वापस लेकर वहां से पुलिस और पी.ए.सी. को हटा ले। और इसके साथ ही पुलिस के द्वारा किए गए अमानवीय व्यवहार की जांच कराके दोषियों को कड़ी से कड़ी सज़ा दिये जाने का प्रबन्ध सुनिश्चित करा दे। शायद एक ही दिन में समस्या का समाधान हो जाए।

Sunday, May 22, 2011

भारत में लोकतन्त्र अलपसंख्यकों के लिए अभिशाप - Sharif Khan

जिस देश में विभिन्न धर्मों और संस्कृतियों के लोग रहते हों और जहां धर्मों और जातियों के आधार पर वर्गीकरण करके समाज को बांटा गया हो वहां लोकतन्त्र भीड़तन्त्र बन जाता है और बहुसंख्यक समाज निरंकुश होकर अल्पसंख्यकों के हितों की अनदेखी करके उनके अधिकारों का हनन करने लगता है और इस प्रकार से लोकतन्त्र अल्पसंख्यकों के लिए अभिशाप बन जाता है। किसी शायर के द्वारा कहे गए यह शब्द अल्पसंख्यकों और बहुसंख्यकों के बीच सम्बन्धों का इज़हार करने के लिए पर्याप्त हैं -

हम आह भी करते हैं तो हो जाते हें बदनाम।
वो क़त्ल भी करते हैं तो चर्चा नहीं होता।।

हिन्दोस्तान में दुनिया के सबसे बड़े कहलाए जाने वाले लोकतन्त्र की भयावह तस्वीर दिखाने के लिए निम्नलिखित उदाहरण प्रस्तुत हैं -

1 - 1965 में भारत पाकिस्तान युद्ध के समय पाकिस्तान रेडियो से समाचार सुनने पर रोक लगा दी गई थी जिसके नतीजे में पुलिस अपनी आदत के अनुसार किसी भी मुसलमान को केवल यह आक्षेप लगाकर प्रताड़ित करने से नहीं चूकती थी कि वह रेडियो पाकिस्तान से समाचार सुन रहा था चाहे वह दिल्ली से गाने ही सुन रहा हो जबकि हिन्दुओं को अक्सर रेडियो पाकिस्तान से सुने हुए समाचारों पर चर्चा करते हुए देखा जा सकता था।

2 - सन् 1984 में तत्कालीन प्रधानमन्त्री श्रीमति इन्दिरा गांधी का क़त्ल हुआ और चूंकि क़ातिल सिख (जोकि एक अल्पसंख्यक समुदाय है) थे इसलिए उसकी प्रतिक्रिया का बहाना बनाकर हज़ारों बेक़सूर सिखों का क़त्ले आम कराया गया। ध्यान रहे क़त्ले आम में औरतों, बच्चों और बूढ़ों को भी नहीं बख़्शा जाता। जबकि राष्ट्रपिता गांधी जी के क़त्ल की प्रतिक्रिया इस प्रकार की न हुई क्योंकि उस घटना में अपराधी बहुसंख्यक समाज से सन्बन्धित था।

श्रीमति इन्दिरा गांधी के क़त्ल से सम्बन्धित पूरे घटनाक्रम में अफ़सोसनाक पहलू यह है कि उनके क़त्ल के आरोपियों के ख़िलाफ़ अपराध सिद्ध होने पर अदालत द्वारा सज़ा भी सुना दी गई और सज़ा दे भी दी गई जबकि उसी दौरान किये गए सिखों के क़त्ले आम के ज़िम्मेदार अपराधियों को अभी तक चैथाई सदी गुज़रने पर भी सज़ा नहीं मिली है। क्या यह इसलिए है कि यह अपराधी बहुसंख्यक समाज से सम्बन्धित हैं जबकि इनके द्वारा पीड़ित अल्पसंख्यक थे।

3 - उड़ीसा के एक गांव में रात को अपनी गाड़ी में सो रहे फ़ादर ग्राह्म स्टेन्स नामक एक पादरी को उनके दो मासूम बच्चों के साथ ज़िन्दा जला दिये जाने की दिल दहला देने वाली घटना को सभी जानते हैं। इस घटना को अंजाम देने वाला दारा सिंह नाम का एक व्यक्ति ईसाई समाज के ख़िलाफ़ कार्यरत एक संस्था का संचालक था। भा.ज.पा. और बजरंग दल के नेताओं ने दारा सिंह को क्लीन चिट देकर ईसाईयों के प्रति नफ़रत और अपराधियों से लगाव की भावना को ज़ाहिर कर दिया। उच्च न्यायालय द्वारा दारा सिंह को सुनाई गई फांसी की सज़ा के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय में की गई अपील में फैसला सुनाते हुए माननीय न्यायधीश ने अपने विवेकाधिकार का प्रयोग करते हुए फांसी की सज़ा को आजीवन कारावास में बदल दिया क्योंकि न्यायधीश महोदय ने इस अपराध को दुर्लभ से दुर्लभतम श्रेणी का नहीं पाया। इस घटना में भी पिता के साथ ज़िन्दा जला दिये गए दो मासूम बच्चे अल्प संख्यक समाज से सम्बन्धित थे। यदि ज़िन्दा जलाए जाने वाले अल्प संख्यक समाज से न होकर बहुसंख्यक समाज से सम्बन्धित होते और जलाने वाले अपराधी बहुसंख्यक समाज से न होकर अल्पसंख्यक समाज से सम्बन्धित होते तो क्या तब भी यह अपराध दुर्लभ से दुर्लभतम श्रेणी से बाहर ही होता?

4 - किसी शायर के द्वारा कही गई दो पंक्तियां देश के सबसे बड़े अल्पसंख्यक समाज की स्थिति का आईना हैं -

एक दो ज़ख्म नहीं सारा बदन है छलनी।
दर्द बेचारा परेशां है किस कल उठे।।

बहुसंख्यक समाज, चाहे वह प्रशासन से सम्बन्धित हो अथवा राजनीति से या किसी भी क्षेत्र से हो, के द्वारा बाबरी मस्जिद को मन्दिर में पविर्तित करने की घिनौनी साज़िश पर अमल करके हमेशा के लिए मानसिक यातना का जो ज़ख्म मुसलमानों को दिया गया गया है वह तब तक रिसता रहेगा जब तक मस्जिद उसी स्थान पर दोबारा नहीं बना दी जाती चाहे सदियां क्यों न गुज़र जाएं। यह बात मज़लूमों की मानसिकता के अनुरूप है।

गुजरात में महीनों तक होने वाले मुसलमानों के क़त्लेआम और उसके ज़िम्मेदार व्यक्ति को नायक के रूप में महिमामण्डित किया जाना लोकतन्त्र की ही तो देन है। इसीलिए भारत में लोकतन्त्र अल्पसंख्यकों के लिए अभिशाप है।

Tuesday, May 17, 2011

समाज को खोखला कर रही सूदख़ोरी - Sharif Khan

ईश्वर ने हर चीज़ का जोड़ा बनाया है जैसे मर्द-औरत, दिन-रात, अन्धेरा-उजाला, सत्य-असत्य, ऊंचा-नीचा आदि। इसी प्रकार से इन्सान में जहां उच्च आदर्श रखे हैं वहीं नीचतापूर्ण कार्य करने की क्षमता भी प्रदान की है ताकि उसकी परीक्षा हो सके और उसके कर्मों के अनुसार उसको सज़ा या इनाम से नवाज़ा जा सके। समाज में सभी प्रकार के लोग रहते हैं और विभिन्न प्रकार के काम धंधे करके जीविकोपार्जन करते हैं तथा अपनी सामरथ्य के अनुसार समाज सेवा के कार्य भी अन्जाम देते हैं परन्तु एक तबक़ा ऐसा भी है जो सदैव यह कामना करता है कि समाज से ख़ुशहाली समाप्त हो जाए और लोग परेशानहाल रहें तथा कभी स्वावलम्बी न होकर सदैव ज़रूरतमन्द बने रहें। जिन लोगों के कारोबार की बुनियाद दूसरों के ऊपर आई हुई विपत्ति पर रखी गई हो और समाज में आने वाली ख़ुशहाली जिनके कारोबार में मन्दी लाने का कारण बनती हो, समाज को दीमक की तरह से खोखला करने वाले उस तबक़े के लोगों को हम सूदख़ोर के नाम से जानते हैं।

सूदख़ोर के चरित्र पर विचार करके देखें कि यदि किसी व्यक्ति का दरिद्रतावश बीमारी में इलाज नहीं हो पा रहा हो और सहायता के लिए की गई अपील के बदले में उसको सूद पर धन उपलब्ध करा दिया जाए तो उस समय चाहे उसकी ज़रूरत पूरी हो गई हो परन्तु उसके मन में एक नफ़रत की भावना पैदा होना भी स्वाभाविक है कि ऐसी विकट परिस्थिति में भी उसकी सहायता न करके उसको सूदख़ोर के चंगुल में फांस दिया गया। इसी प्रकार से धन के अभाव में यदि किसी की बेटी का विवाह नहीं हो पा रहा हो अथवा किसी का घर आग में भस्म हो गया हो या किसी दूसरी मुसीबत में फंसने के कारण धन की आवश्यकता पड़ गई हो तो सूदख़ोर उस समय उसका काम तो बेशक निकाल देता है परन्तु बदले में आसानी से समाप्त न होने वाला सूद का सिलसिला शुरू हो जाता है। यदि सूदख़ोर का अस्तित्व न रहा होता तब भी लोगों के काम चलते, यह बात दूसरी है कि थोड़ी मुश्किल पेश आती परन्तु लोगों में परस्पर सहायता करने की भावना अवश्य पैदा हो जाती। सूदख़ोरी का एक साइड इफ़ैक्ट यह है कि दूसरों की सहायता करने की भावना रखने वाले सज्जन किसी ज़रूरतमन्द व्यक्ति की अपने पास से सहायता करने के बजाय उसको सूद पर धन उपलब्ध कराने में सहायक होकर अपना कर्तव्य पालन समझकर सन्तुष्ट हो जाते हैं। यदि विकल्प के तौर पर सूदख़ोर का अस्तित्व न रहा होता तो समाज में धन ख़र्च करके परस्पर सहायता करने की भावना प्रबल हो जाती तथा बिना किसी लालच के धन उधार देकर किसी ज़रूरतमन्द का कार्य सिद्ध होने से काफ़ी धन सूदख़ोर के पास जाने से बच जाता।

सूद पर धन लेने वाले प्रायः तीन प्रकार के लोग होते हैं। पहली क़िस्म उन लोगों की होती है जो अपना व्यवसाय बढ़ाने के लिए धन लेते हैं। दूसरी क़िस्म में वह लोग आते हैं जो गाड़ी, मकान या दूसरी ऐश की चीज़ों के लिए लिए क़र्ज़ लेते हैं। ऐसे लोग ज़्यादातर बैंकों से क़र्ज़ लेकर अपना काम चलाते हैं।

तीसरी क़िस्म उन लोगों की होती है जो परिस्थितियों वश क़र्ज़ लेने के लिए मजबूर होते हैं। इनमें कोई अपने परिवार को फ़ाक़ों से बचाने के लिए क़र्ज़ लेता है तो किसी को बीमारी के इलाज के लिए धन की आवश्यकता होती है। बेटी की शादी, बच्चों की शिक्षा तथा अचानक आई किसी विपत्ति से निपटने के लिए धन की आवश्यकता पड़ने पर सूदख़ोर के चंगुल में फंसने वाले व्यक्ति वास्तव में दया के पात्र हैं। इस श्रेणी के लोग प्रायः अपने किसी प्रियजन की मौत होने पर उसके कफ़न आदि के लिए कहीं से सहायता या बिना सूद के धन उपलब्ध न होने पर सूदख़ोर से क़र्ज़ लेने पर मजबूर होते हैं।

सरकारी बैंकों से से कर्ज़ हासिल करने की प्रक्रिया इतनी जटिल और देर लगाने वाली है कि ज़रूरतमन्द व्यक्ति को मजबूरन प्राइवेट सूदख़ोरों के चंगुल में फंसने के लिए मजबूर होना पड़ता है और कभी कभी तो बैंक के मुक़ाबले में 5 गुना तक सूद देना पड़ता है। और फिर सूदख़ोर से ख़ून चुसवाने का सिलसिला बड़ी कठिनता से समाप्त हो पाता है। इस बुराई को किसी भी धर्म में भी अच्छी नज़र से नहीं देखा गया।

मनुस्मृति में ‘‘विष्ठा वार्धुषिकस्यान्न्ं‘‘ अर्थात् सूद खाने वाले का अन्न ब्राह्मण के लिए विष्ठा समान कहा गया है।

इस्लाम धर्म की बात करें तो एक हदीस में तो यहां तक फ़रमाया गया है कि सूद इतना बड़ा गुनाह है कि यदि उसके सत्तर भाग किये जाएं तो उनमें से सबसे हल्का भाग भी ऐसा है कि जैसे कोई व्यक्ति अपनी मां के साथ दुराचार करे।

दीमक की तरह से खोखला कर रहे सूदख़ोरों के चंगुल से समाज को बचाने के लिए आवश्यक है कि कुछ ऐसी संस्थाएं बनें जो छोटे और ग़रीब ज़रूरतमन्दों को बिना सूद के धन उपलब्ध कराने का प्रबन्ध करें ताकि एक अच्छे समाज का निर्माण हो।

Thursday, May 12, 2011

देश में फैल रहे भ्रष्टाचार की ज़िम्मेदार जनता - Sharif Khan

आज हमारा महान देश भ्रष्टाचार के पन्जे में इस हद तक जकड़ा हुआ है कि सभ्य कहते हुए भी शर्म आती है। इस बात को विस्तारपूर्वक समझने के लिए निम्नलिखित बिन्दुओं पर विचार करना आवश्यक हैः

1- यह कि, ऊपर से नीचे तक भ्रष्टाचार में डूबे हुए हमारे देश में जनता को सरकार के निर्वाचन का अधिकार मिले होने के बावजूद यदि चरित्रहीन ग़ुण्डे और भ्रष्ट लोग चुने जाते हैं तो उसकी ज़िम्मेदार सिर्फ़ और सिर्फ़ जनता ही है।

2- यह कि, किसी राजनैतिक दल के द्वारा चुनाव के मैदान में उतारे गए प्रत्याशी द्वारा उपलब्ध कराए गए साक्ष्यों के आधार पर चुनाव आयोग द्वारा दी गई चुनाव लड़ने की इजाज़त उसके चरित्रवान और अच्छा इन्सान होने का मापदण्ड नहीं है अपितु सही मापदण्ड तो वह है जो जनता उसके बारे में जानकारी रखती है। धोखाधड़ी, डकैती, ग़ुण्डागर्दी, बलात्कार, क़त्ल और अपहरण आदि अपराधों में लिप्त किसी व्यक्ति ने चाहे रसूख़, दबंगई और रिश्वत के बल पर अपने गुनाहों पर परदा डलवा रखा हो परन्तु उस समाज के लोग तो उसके करतूतों से भली भांति परिचित होते हैं। इसके बावजूद भी ऐसे घिनौने चरित्र के लोगों का चुनाव में सफल होना उनके वोटरों के दुष्चरित्र होने का प्रमाण है।

3- राजनीति में भ्रष्टाचार का रोना रोने वाले लोगों को इस बात पर विचार करना चाहिए कि सरकार बनाने के लिए जनता द्वारा चुने गए राजनेता चुने जाने के बाद भ्रष्ट और चरित्रहीन नहीं हो जाते अपितु वह भ्रष्ट और चरित्रहीनता वाली पृष्ठभूमि से ही आए हुए होते हैं और उनके गन्दे आचरण ने ही उनको इस मुक़ाम पर पहुंचाया होता है। अतः जनता द्वारा ऐसे गिरे हुए लोगों का चुना जाना जनता की गन्दी मानसिकता को उजागर करने के लिए पर्याप्त है।

4- यह कि, जनता ने चुनाव के लिए जो आधार बनाए हुए हैं वह पूरी तरह से दोषपूर्ण हैं। कहीं जाति के आधार पर वोट दी जाती है तो कहीं धर्म के आधार पर। कहीं पार्टी के नाम पर वोट दी जाती है तो कहीं लालच में आकर वोट देते हैं। कुछ लोग तो गुण्डे और बदमाशों को यह कहकर वोट देते हें कि दूसरी पार्टी के गुण्डों से यही व्यक्ति टक्कर ले सकता है। इन्हीं कारणों से साफ़ सुथरी छवि के लोगों का चुना जाना लगभग असम्भव बन चुका है।

5- यह कि, किसी प्रत्याशी का चरित्रवान होना, उसमें समाज सेवा की भावना का होना तथा बिना किसी भेदभाव के कार्य करने में सक्षम होना ही उसको वोट देने का मापदण्ड होना चाहिए।

6- यह कि, एक समय ऐसा था कि किसी राजनैतिक पार्टी में यदि कोई दाग़ी चरित्र वाला नेता होता था तो उसके अस्तित्व से पार्टी की छवि ख़राब होने का अन्देशा रहता था और ऐसे व्यक्ति के गुनाहों पर परदा डालने की कोशिश की जाती थी परन्तु अब बड़ी बेशर्मी से यह कह दिया जाता है कि दूसरी पार्टियों के ग़ुण्डों से निपटने के लिए ऐसे लोगों का होना आवश्यक है या यह कह दिया जाता है कि दूसरी पर्टियों में तो इससे भी ज़्यादा बदमाश मौजूद हैं।

7- यह कि, चूंकि कोई भी राजनैतिक पार्टी ऐसी मौजूद नहीं है कि जिसमें ग़ुण्डे और बदमाशों का अस्तित्व न हो इसलिए जनता को चाहिए कि पार्टी को वोट न देकर प्रत्याशी को वोट दें चाहे वह निर्दलीय ही क्यों न हो। यदि ऐसा हो गया तो राजनैतिक पार्टियां भ्रष्ट और चरित्रहीन लोगों को सर आंखों पर बिठाने के बजाय बाहर का रास्ता दिखाने के लिए मजबूर हो जाएंगी।

अन्त में यही कहा जा सकता है कि यदि घर की रखवाली की ज़िम्मेदारी किसी चोर को सौंपी जाती है तो क़सूरवार घरवाले होंगे न कि चोर। अतः पूरे देश में फैल रहे भ्रष्टाचार की ज़िम्मेदार गन्दे और दाग़दार लोगों को चुनकर भेजने वाली जनता है न कि चुने हुए नेता।