Saturday, August 6, 2011

इस्लाम धर्म ही क्यों आवश्यक - Sharif Khan

धर्म ऐसी चीज़ नहीं है कि उस से बचा जाए। धर्म तो जीवन पद्धति सिखाने का साधन है जिसके बिना आदर्श समाज का निर्माण सम्भव नहीं है। उदाहरणार्थ वैवाहिक व्यवस्था आदर्श समाज की नींव के समान है इसीलिए महिला-पुरुष का बिना विवाह के साथ रहना व्याभिचार कहलाता है, जोकि धर्मविरुद्ध है। माता-पिता के संतान के प्रति और संतान के माता-पिता के प्रति अधिकार और कर्तव्य, पड़ौसी का हक़, विधवाओं तथा अनाथों की समाज पर ज़िम्मेदारी आदि का बोध धर्म के बिना सम्भव नहीं है। सम्पूर्ण सृष्टि के रचियता (अल्लाह सुबहाना व तआला) का किस प्रकार आभार प्रकट किया जाए तथा इस सब के बारे में प्राप्त होने वाले ज्ञान के स्रोत ईशदूत के प्रति श्रद्धा व सम्मान धर्म के भाग हैं। इसके साथ ही इस सम्पूर्ण व्यवस्था को लागू करने के लिए एक साफ़-सुथरी और निष्पक्ष शासन व्यवस्था का क़ायम होना आवश्यक है जिसके बिना अल्लाह के बताए हुए मार्ग पर चलना सम्भव नहीं है। धर्म के विषय में बात करते हुए जब हम दूसरे धर्मों की आलोचना करना अपना मक़सद बना लेते हैं तो उसके नतीजे में बजाय भाईचारे के नफ़रत पैदा होने का अन्देशा रहता है लिहाज़ा किसी की आलोचना से बचते हुए धर्म के विषय में जानकारी देने के कर्तव्य का निर्वाह करना चाहिए।

खाना, पीना और सांस लेना जिस प्रकार से ज़िन्दा रहने के लिए आवश्यक हैं इसी प्रकार कामेच्छा की पूर्ति तन और मन दोनों की सन्तुष्टि के लिए आवश्यक है। जिस प्रकार भूख से व्याकुल व्यक्ति अपनी क्षुधापूर्ति के लिए ग़लत कार्य करने पर आमादा हो जाता है उसी प्रकार कामेच्छा का दमन व्याभिचार को जन्म देता है। इस्लाम ने विधवा विवाह के द्वारा विधवाओं के भटकने और भटकाई जाने का मार्ग ही बन्द कर दिया। पति-पत्नि के बीच सम्बन्ध में दरार, सन्तान सुख से वन्चित होना या किसी दूसरे कारणवश यदि कोई व्यक्ति दूसरा विवाह करना चाहे तो पहली पत्नि के रहते हुए उसको दूसरी पत्नि, तीसरी और चैथी पत्नि तक रखने का इस शर्त के साथ इस्लाम अधिकार देता है कि सब पत्नियों के साथ बराबर का इन्साफ़ किया जाएगा। यहां इस बात को ध्यान में रखना आवश्यक है कि यदि समाज में पुरुषों की तुलना में महिलाओं की संख्या अधिक होगी तभी एक से अधिक पत्नियां रखना सम्भव होगा और अगर इस प्रकार की व्यवस्था न की गई होती तो पुरुषों की तुलना में अधिक महिलाएं होने पर विवाह से वन्चित रह जाने वाली महिलाओं के पास अपनी यौनेच्छापूर्ति के लिए किसी व्यक्ति के संथ नाजायज़ सम्बन्ध बनाकर उसका घर बरबाद करने या फिर वैश्यावृत्ति की राह पर चल कर पूरे समाज को गन्दा करने के अलावा कोई विकल्प न रहता। जो लोग किसी व्यक्ति के दूसरा विवाह करने पर आने वाली स्त्री (सौत) को पहली पत्नि के अधिकारों के हनन के रूप में देखते हैं, वह इस हक़ीक़त को भूल जाते हैं कि अपनी पत्नि से किसी भी रूप में सन्तुष्ट न होने की स्थिति में यदि वह व्यक्ति दूसरी स्त्री को पत्नि के रूप में न लाता तो फिर इस बात के अन्देशे से इंकार नहीं किया जा सकता कि वह उस से अनैतिक सम्बन्ध क़ायम करता जोकि पूरे समाज के लिए घातक सिद्ध होता।

माता पिता का सन्तान के प्रति कर्तव्य है उसको अच्छे संस्कार देना तथा अच्छी शिक्षा के साथ एक अच्छा नागरिक बनाना। इस्लाम का मक़सद इन्सान को इन्सान की ग़ुलामी से आंज़ादी दिलाना है। चूंकि हक़ीक़ी (वास्तविक) मालिक और हाकिम तो अल्लाह है लिहाज़ा अल्लाह ही को वास्तविक मालिक और हाकिम मानते हुए उसके प्रतिनिधि के तौर पर हुकूमत करने वाला व्यक्ति यदि कोई अपराध करता है तो उसको भी वही सज़ा मिलेगी जो आम इन्सान को मिलती है।

अब चूंकि इस्लाम ही एकमात्र ऐसा धर्म है जिसमें जीवन के प्रत्येक क्षेत्र से सम्बन्धितं दिशा निर्देश मौजूद हैं और इस्लामी शासन व्यवस्था में ग़ैरमुस्लिमों के अधिकारों की सुरक्षा को सुनिश्चित किये जाने का प्रावधान भी मौजूद है लिहाज़ा इस्लाम धर्म को पूर्ण रूप से अपनाना और उसके अनुसार सामाजिक आर्थिक व राजनैतिक व्यवस्था क़ायम करना ही आदर्श समाज के निर्माण का एकमात्र उपाय है।