इन्सान की फ़ितरत (प्रकृति) में जहां बहुत सी बातें जन्मजात होती हैं। उनमें से शर्म, संकोच और हया भी पैदाइशी तौर पर ही होती हैं। यह बात सभ्यता से दूर आबाद जंगली जातियों के रहन सहन को देखने से साबित भी हो जाती है कि वह लोग नंगे रहने के बावजूद भी अपने यौनांगों (शर्मगाहों) को ढकने के प्रति सजग रहते हैं चाहे साधनों के अभाव में पेड़ों के पत्तों का ही प्रयोग करना पड़े। अपने गुप्तांगों को छिपाने का भाव पुरुषों की तुलना में महिलाओं में अधिक होता है और उनकी इस आदत को पुरुष समाज में भी सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है क्योंकि जो महिलाएं स्वेच्छा से या धर्म और समाज के नियमों वश शरीर को ढके रखने वाला पहनावा पहनती हैं उनको गन्दी नज़र से देखने को प्रायः गन्दे लोग भी पसन्द नहीं करते। पूर्ण रूप से शरीर को ढकने वाली पर्दानशीन मुस्लिम महिलाएं, ईसाई राहिबाएं (नन) और हिन्दू साध्वियों का जिस प्रकार समाज आदर करता है वह उदाहरण के लिए पर्याप्त है। जिस प्रकार खुली मिठाई पर ही मक्खियां आती हैं उसी प्रकार गन्दी नज़रें उन्ही औरतों का पीछा करती हैं जो अपने शरीर की नुमाइश करते हुए स्वयं को नज़ारे के लिए प्रस्तुत करती हों। बेपर्दगी का फ़ितरत के ख़िलाफ़ होना इस बात से भी ज़ाहिर होता है कि कोई भी महिला यह नहीं चाहती कि मरने के बाद उसकी लाश को बेपर्दा किया जाए चाहे उसकी ज़िन्दगी कैसी ही गुज़री हो। समाज के ज़ुल्मों का शिकार होने के बावजूद इन्साफ़ न मिलने के कारण डकैत बनने वाली मशहूर महिला फूलन देवी कथनानुसार उसके आत्म समर्पण करने के पीछे दूसरे कारणों के अलावा एक वजह यह डर भी था कि मारी जाने के बाद कहीं पुलिस उसकी लाश को नंगा करके जनता के सामने मुमाइश न करे।
धार्मिक दृष्टिकोण से यदि देखा जाए तो जीवित महिलाओं के पर्दे का जिस तरह से आदेश है वही मरने के बाद भी है फ़र्क़ सिर्फ़ इतना है कि जीवित रहते हुए मनुष्य स्वयं अपने शरीर को ढकने या न ढकने का ज़िम्मेदार होता है जबकि मरने के बाद यह उत्तरदायित्व उसके वारिसों पर आ जाता है। इसीलिये किसी व्यक्ति का जीवन चाहे किसी भी प्रकार से गुज़रा हो परन्तु मरने के बाद उसके वारिस उसके शव को वही सम्मान देते हैं जैसा कि उसका अधिकार है। इस्लामी शरीअत के अनुसार किसी महिला का जिन लोगों से जीवन में पर्दा करना लाज़िम है, मरने के बाद भी उसके शव को उन लोगों के सामने बेपर्दा नहीं किया जा सकता। आज के युग में यदि किसी व्यक्ति की अकाल मृत्यु हो जाती है तो मौत के कारण का पता लगाने के लिये उसके शव का पोस्ट मॉर्टम किया जाता है। पोस्ट मॉर्टम लाश को नंगा किये बिना करना सम्भव नहीं है बल्कि शरीर पर किसी चोट, ज़हरीली सुई आदि के निशान का पता लगाने के लिए ज़रूरी है कि डाक्टर उसके प्रत्येक अंग का बारीकी से अवलोकन करे। यदि लाश किसी स्त्री की है तो डाक्टर के लिए यह पता लगाना ज़रूरी होता है कि मृतिका के साथ सम्भोग तो नहीं किया गया है जिसके लिए उसके शरीर में किसी भी औज़ार के दाख़िल कराए जाने की ज़रूरत को नज़र अन्दाज़ नहीं किया जा सकता। जीवित रहते हुए जिस महिला को अपराधी होने के बावजूद भी पुरुष पुलिस के द्वारा पकड़े जाने तक को बरदाश्त नहीं किया जाता और सरकार द्वारा भी महिला पुलिस उपलब्ध कराई जाती है तो फिर मरने के बाद पोस्ट मॉर्टम की आवश्यकता पड़ने पर महिला डाक्टर की सेवा क्यों नहीं ली जाती और पुरुष डाक्टर के सामने उसको बेपर्दा करने के लिये छोड़े जाने का क्या औचित्य है?
इसके अतिरिक्त एक बात यह है कि अन्तिम संस्कार के लिए मुर्दे को यदि दूसरे सामान की तरह ले जाया जाय तो उसको न तो चोट लगने का डर होगा और न ही टूट फूट का अन्देशा परन्तु ऐसा न करके उसको कन्धों पर उठा कर सम्मान पूर्वक ले जाए जाने की परम्परा का होना मुर्दे के प्रति आदर भाव को प्रदर्शित करता है। परन्तु पोस्ट मॉर्टम की प्रक्रिया में शव की जिस प्रकार से दुर्गति होती है उसके कारण अक्सर लोग शव का पोस्ट मॉर्टम कराने से बचते हैं चाहे मौत की गुत्थी अन सुलझी ही क्यों न रह जाए।
बुद्धिजीवी वर्ग को चाहिए कि प्रत्येक व्यक्ति अपनी क्षमतानुसार व्यक्गित अथवा संस्थागत रूप से सरकार को इस बात के लिए आमादा करने की कोशिश करे कि पोस्ट मॉर्टम किये जाने वाले शवों की दुर्गति न की जाए और महिलाओं के शवों का पोस्ट मॉर्टम केवल महिला डाक्टर के द्वारा कराया जाना सुनिश्चित किया जाए।
धार्मिक दृष्टिकोण से यदि देखा जाए तो जीवित महिलाओं के पर्दे का जिस तरह से आदेश है वही मरने के बाद भी है फ़र्क़ सिर्फ़ इतना है कि जीवित रहते हुए मनुष्य स्वयं अपने शरीर को ढकने या न ढकने का ज़िम्मेदार होता है जबकि मरने के बाद यह उत्तरदायित्व उसके वारिसों पर आ जाता है। इसीलिये किसी व्यक्ति का जीवन चाहे किसी भी प्रकार से गुज़रा हो परन्तु मरने के बाद उसके वारिस उसके शव को वही सम्मान देते हैं जैसा कि उसका अधिकार है। इस्लामी शरीअत के अनुसार किसी महिला का जिन लोगों से जीवन में पर्दा करना लाज़िम है, मरने के बाद भी उसके शव को उन लोगों के सामने बेपर्दा नहीं किया जा सकता। आज के युग में यदि किसी व्यक्ति की अकाल मृत्यु हो जाती है तो मौत के कारण का पता लगाने के लिये उसके शव का पोस्ट मॉर्टम किया जाता है। पोस्ट मॉर्टम लाश को नंगा किये बिना करना सम्भव नहीं है बल्कि शरीर पर किसी चोट, ज़हरीली सुई आदि के निशान का पता लगाने के लिए ज़रूरी है कि डाक्टर उसके प्रत्येक अंग का बारीकी से अवलोकन करे। यदि लाश किसी स्त्री की है तो डाक्टर के लिए यह पता लगाना ज़रूरी होता है कि मृतिका के साथ सम्भोग तो नहीं किया गया है जिसके लिए उसके शरीर में किसी भी औज़ार के दाख़िल कराए जाने की ज़रूरत को नज़र अन्दाज़ नहीं किया जा सकता। जीवित रहते हुए जिस महिला को अपराधी होने के बावजूद भी पुरुष पुलिस के द्वारा पकड़े जाने तक को बरदाश्त नहीं किया जाता और सरकार द्वारा भी महिला पुलिस उपलब्ध कराई जाती है तो फिर मरने के बाद पोस्ट मॉर्टम की आवश्यकता पड़ने पर महिला डाक्टर की सेवा क्यों नहीं ली जाती और पुरुष डाक्टर के सामने उसको बेपर्दा करने के लिये छोड़े जाने का क्या औचित्य है?
इसके अतिरिक्त एक बात यह है कि अन्तिम संस्कार के लिए मुर्दे को यदि दूसरे सामान की तरह ले जाया जाय तो उसको न तो चोट लगने का डर होगा और न ही टूट फूट का अन्देशा परन्तु ऐसा न करके उसको कन्धों पर उठा कर सम्मान पूर्वक ले जाए जाने की परम्परा का होना मुर्दे के प्रति आदर भाव को प्रदर्शित करता है। परन्तु पोस्ट मॉर्टम की प्रक्रिया में शव की जिस प्रकार से दुर्गति होती है उसके कारण अक्सर लोग शव का पोस्ट मॉर्टम कराने से बचते हैं चाहे मौत की गुत्थी अन सुलझी ही क्यों न रह जाए।
बुद्धिजीवी वर्ग को चाहिए कि प्रत्येक व्यक्ति अपनी क्षमतानुसार व्यक्गित अथवा संस्थागत रूप से सरकार को इस बात के लिए आमादा करने की कोशिश करे कि पोस्ट मॉर्टम किये जाने वाले शवों की दुर्गति न की जाए और महिलाओं के शवों का पोस्ट मॉर्टम केवल महिला डाक्टर के द्वारा कराया जाना सुनिश्चित किया जाए।
8 comments:
bilkul sahi kaha aapne.
Sahmat hoon.... Kisi mahila ka post-mortam purusho'n ke dwara hona behad sharmnaak hai... Is par turant rok lagai jaani chahiye.
this means that if a woman dies in a remote village where there is no female doctor the postmortem should not be done ??
lets talk sensibily and not bring such things on blog for discussion because they have no meaning or depth
रचना जी, यह तो सरकार की ज़िम्मेदारी है कि वह महिला डाक्टर का प्रबंध करे चाहे कितने ही ग्रामीण क्षेत्र का मामला क्यों न हो. इसके अतिरिक्त जहाँ महिला डाक्टर उपलब्ध न हो तो क्या वहां बाहर से किसी महिला डाक्टर को बुलाया नहीं जा सकता. गांधीजी के क़त्ल के बाद उनकी लाश का पोस्टमार्टम इसलिए नहीं किया गया क्योंकि देश की जनता के दिलों में उनके प्रति जो सम्मान था उसके अंतर्गत वह अपने चहीते नेता के शरीर की मरने के बाद भी पोस्टमार्टम के द्वारा दुर्गति को बर्दाश्त करने के लिए तैयार नहीं हो सकती थी. क्या उससे कहीं अधिक एक बेटे के दिल में उसकी मां, एक भाई के दिल में उसकी बहन, एक बाप के दिल में उसकी बेटी और एक पति के दिल में उसकी पत्नी के शरीर के प्रति सम्मान और आदर का भाव नहीं होता? होना यह चाहिए की इस मुद्दे को प्रत्येक मंच से उठाया जाए और सरकार को विवश किया जाये कि महिलाओं के पोस्टमार्टम के लिए महिला डाक्टरों की उपलब्धि को सुनिश्चित करे.
रचना जी ने सच कहा है
रचना जी ने सच कहा है
डिलेवरी के लिये ही महिला डाक्टर नही है
जी आपने डिलीवरी के लिए महिला डॉक्टरों की कमी की तरफ़ इशारा करके अपनी ज़िम्मेदारियों के प्रति सरकार की उदासीनता को प्रकट किया है। सरकारी तन्त्र में जो लग हैं वह धन का दुरुपयोग तो कर सकते हैं लेकिन ऐसी महत्त्वपूर्ण अवश्यकताओं को नज़रअन्दाज़ कर देते हैं।
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