इस्लामी शरीयत में हर बात क़ुरआन और हदीस के ज़रीये स्पष्ट रूप से समझा दी गई है और यह चूँकि अल्लाह की तरफ़ से भेजी गई है लिहाज़ा इसकी बुनियादी बातों में किसी भी प्रकार के संशोधन की गुंजायश नहीं है। अगर आंशिक रूप से कोई समस्या पैदा होती है तो उसका समाधान उलेमा के ज़रीये क़ुरआन व हदीस की रौशनी में किये जाने का प्रावधान है। इस प्रकार शरीयत की सीमाओं में रहते हुए नए नए वैज्ञानिक अविष्कारों का प्रयोग किस तरह किया जाए इस बात के लिये उलेमा की राय ही अन्तिम फ़ैसले की हैसियत रखती है। मिसाल के तौर पर बन्दूक़ की ईजाद होने के बाद उससे मारे गए शिकार के हलाल होने का मसअला बुनियादी न होकर आंशिक (जुज़वी) था लिहाज़ा अल्लाह का नाम लेकर चलाई गई गोली से अगर शिकार मर जाता है तो उसको हलाल मान लिया गया क्योंकि बुनियादी बात तो अल्लाह का नाम लेना और उस जानवर का खून बहा देना है। इस बात को अल्लाह के रसूल स अ व ने एक हदीस में इस तरह फ़रमाया है कि, "खून बहा दो जिस चीज़ से चाहो और अल्लाह का नाम लो।" इसी प्रकार तलाक़ के मामले में बुनियादी बात तो तीन मर्तबा तलाक़ के अलफ़ाज़ का दोहराना है जिसके लिये सही तरीक़ा अपनाने के लिए एक एक महीने के अन्तराल का निर्देश दिया गया है लेकिन अगर एक साथ ही तीन तलाक़ दे दिये जाते हैं तो तलाक़ तो हो जाता है लेकिन ऐसे व्यक्ति को सज़ा का भी प्रावधान है। चूँकि इस तरह तलाक़ मान्य होना हदीस से साबित है लिहाज़ा इसके ख़िलाफ़ कुछ भी कहना गुनाह होता है। पिछली चौदह सदियों से यही व्यवस्था चली आ रही है क्योंकि इसको मुस्लिम औरतों और मर्दों ने शरीयत के अन्तर्गत होने के कारण समान रूप से स्वीकार किया हुआ है। यह भी हक़ीक़त है कि मुस्लिम विवाह और तलाक़ के विवादों को हल करने का अधिकार किसी भी ग़ैरमुस्लिम संस्था को न होकर केवल मुस्लिम उलेमा को है। इस प्रकार चूँकि तीन तलाक़ कहने से तलाक़ हो जाता है और ऐसी स्थिति में वह व्यक्ति उस तलाक़शुदा औरत के लिये ग़ैर महरम हो जाता है लिहाज़ा उन दोनों के दरमियान पति पत्नी के सम्बन्ध बनाना ज़िनाकारी है लिहाज़ा किसी कोर्ट से या सरकार से पति पत्नी के रूप में सम्बन्ध बहाल किये जाने की अपील करना बलात्कार कराने की इजाज़त मांगने जैसा है जिसके ख़िलाफ़ मुस्लिम समाज को एकजुट होकर विरोध करना चाहिए।
अल्लाह ने इंसान के खाने के लिये बहुत सी नेअमतें पैदा की हैं जिनमें गाय, भैंस, बकरी आदि जानवर भी हैं। जानवरों को खाने के लिये जब काटा जाता है तो उसके लिये भी कुछ नियम हैं जैसे उसको भूखा प्यासा न रखो तथा तेज़ छुरी से इस प्रकार काटो कि उसको कम से कम कष्ट हो क्योंकि उसको सज़ा देने के लिये नहीं काटा जाता है बल्कि उससे भोजन प्राप्त करना मक़सद होता है। भारत में गौरक्षकों के रूप में कुछ लोगों का दल वजूद में आया है जो गौलुटेरे हैं। चूँकि यह गौलुटेरे भाजपा द्वारा वजूद में लाए गए हैं लिहाज़ा जिन प्रदेशों में भाजपा की सरकार है और गाय काटने को क़ानून द्वारा प्रतिबन्धित किया हुआ है वहां गाय के द्वारा मुसलमानों को प्रताड़ित करके साम्प्रदायिकतवादी हिन्दुओं का ध्रुवीकरण करना भी इनकी ज़िम्मेदारी में आता है। राजस्थान के गृहमन्त्री गुलाब चन्द कटारिया ने बयान दिया है कि यदि गो तस्करी की सूचना या आशंका होती है तो गोरक्षक वाहनों को रोक सकते हैं लेकिन उन्हें किसी के साथ मारपीट नहीं करनी चाहिए। इन गौलुटेरों के सरकारी संरक्षण में परवरिश पाने के सबूत के लिये एक मन्त्री द्वारा अपने गिरोह के कार्यकर्ताओं को दिए जाने वाले निर्देश के रूप में यह बयान ही काफ़ी है। यह लुटेरे मुसलमानों की गायों को लूट कर ले जाते हैं और किसी गौशाला में उनको दाख़िल करा देते हैं। गौशाला में गायों के चारे के नाम से प्राप्त होने वाला धन सब लोग मिलबांट कर खा जाते हैं और मौक़ा मिलने पर कुछ गायों को भी क़साई के हाथों बेच कर अपनी जेब गरम कर लेते हैं। मुसलमानों से छीन कर और आवारा घूमने वाली गायों को पकड़ कर गौशालाओं में दाखिल की गई बेज़बान गायों को भूख से तड़पा कर जिस तरह दर्दनाक मौत मारा जाता है उसको देख कर दिल कांप जाता है। क्या यह गौ हत्या नहीं है? सच तो यह है कि केवल यही गौहत्या है क्योंकि काटी जाने वाली गाय के पीछे तो भोजन प्राप्त करना एक मक़सद होता है लेकिन गौशाला में भूख व प्यास से गायों को मारने का क्या औचित्य है? गुजरात में गाय काटने को अपराध मानते हुए ऐसा करने वालों के लिये मौत की सज़ा तजवीज़ की गई है जबकि भूख प्यास से मारने वालों को कोई भी सज़ा देने का प्रावधान नहीं है। क्या यह इसलिये है कि भूख से मारने वाले सरकारी संरक्षण प्राप्त गौलुटेरे हिन्दू हैं? ऐसे हालात में देशवासियों को चाहिए कि गाय के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी को समझते हुए मुसलमानों पर से गाय खाने पर प्रतिबन्ध हटवाने का आह्वान करें और गौशालाओं में गायों को भूख से तड़पा कर मारने वाले अपराधियों को मौत की सज़ा दिलवाएं चाहे ऐसे अपराधी कोई मन्त्री हों या गोरक्षक दल चलाने वाले हिन्दू नेता हों या कोई भी हों।
पशु प्रेम बुरी बात नहीं है लेकिन अगर कोई शख़्स प्रेम दर्शाने के लिये किसी पशु से अपना रिश्ता क़ायम करते हुए उसको मां बना ले तो उससे उस पशु पर तो कोई प्रभाव नहीं पड़ता बल्कि जन्म देने वाली मां का निरादर अवश्य होता है लेकिन यह चूँकि उनका व्यक्तिगत मामला है लिहाज़ा किसी को इस पर ऐतराज़ करने का हक़ नहीं है। इससे यह अनुमान लगाने में आसानी हो जाती है कि ऐसे लोगों का उस पशु के साथ व्यवहार किस प्रकार का होगा। मिसाल के तौर पर जो हिन्दू गाय को मां मानते हैं उन्हीं के यहां वृद्धावस्था में मां बाप को वृद्धाश्रम भेजने की परम्परा है। इसी प्रकार यह गोभक्त गाय से लाभ तो प्राप्त करना चाहते हैं लेकिन जब वह दूध देना बन्द कर देती है तो उसको क़साई के हाथ बेच देते हैं ताकि वह उसको काट कर उसकी हड्डियां, गोश्त और खाल निकाल कर मुनाफ़ा वसूल कर सके। इनमें से जो लोग किसी कारण से ऐसा नहीं करते तो उनके यहां जिस तरह अशक्त मां बाप को वृद्धाश्रम भेजा जाता है उसी तरह गाय को भूख से तड़प कर अपनी जान देने के लिये गौशाला भेज देते हैं जहां अगर उसके भाग्य में अच्छी मौत लिखी होती है तो गौशाला वाले उसको क़साई के हाथ बेच कर उससे छुट्टी पा लेते हैं वरना वह भूखी प्यासी मर जाती है। गाय को मां कहने वाले उपरोक्त गोभक्तों और गो रक्षकों के विपरीत यदि कथित गो भक्षकों (मुसलमानों) के गाय के प्रति व्यवहार पर विचार करें तो जो मुसलमान गाय पालते हैं तो वह कभी उसको घर से बाहर लावारिस की तरह नहीं निकालते हैं और उसके चारे का बेहतरीन प्रबन्ध करते हैं यहांतक कि दूध देना बन्द कर देने के बाद भी उसकी उचित देखभाल करते हैं क्योंकि ऐसी स्थिति आने पर उससे अच्छा मांस प्राप्त होता है। इस प्रकार आख़री सांस तक मुसलमान के घर पलने वाली गाय न तो भूखी रहती है और न ही कूढ़े के ढेर में अपनी ख़ुराक तलाश करने के लिये बाहर निकाली जाती है। पवित्र क़ुरआन की सूरह यासीन की 71, 72 व 73 वीं आयतों में फ़रमाया गया है, अनुवाद, "क्या यह लोग देखते नहीं हैं कि हमने अपने हाथों की बनाई हुई चीज़ों में से इनके लिये मवेशी पैदा किये और अब यह उनके मालिक हैं। हमने उन्हें इस तरह इनके बस में कर दिया है कि उनमें से किसी पर यह सवार होते हैं, किसी का यह गोश्त खाते हैं और उनके अन्दर इनके लिये तरह तरह के फ़ायदे और पेय पदार्थ हैं।" इस प्रकार दूसरे चौपायों के साथ गाय भी चूँकि अल्लाह ने जायज़ बताई है लिहाज़ा क़ुरआन की इस आयत के अनुसार गाय के बछड़ों से बोझ ढोने का काम लेते हैं, गाय का दूध पीते हैं और इस क़ाबिल न रहने पर उसका मांस खाते हैं। इस प्रकार यदि कथित गो रक्षकों और कथित गो भक्षकों के यहां पलने वाली गायों के साथ होने वाले व्यवहार की तुलना करें तो नतीजे के तौर पर यही हक़ीक़त सामने आती है कि गाय मुसलमानों के संरक्षण में ही सुरक्षित है।
मक्का शहर में जब पैग़म्बर स अ व ने लोगों को केवल अल्लाह ही की इबादत करने और अल्लाह के सिवा किसी को भी इबादत के लायक़ न समझने का पैग़ाम दिया तो पूरे इलाक़े में तहलका मच गया और लोगों ने इसका विरोध शुरू कर दिया। उस समय अरब में गुमराह लोगों ने लात, मनात और उज़्ज़ा नामक देवियों के अलावा सैकड़ों ख़ुदा बना रखे थे और उनकी मूर्तियों की पूजा करते थे। पैग़म्बर स अ व की बातों से प्रभावित होकर जो लोग इस्लाम में दाख़िल हो जाते थे उनके विरोध में तमाम इस्लाम विरोधियों के एकजुट हो जाने के बावजूद भी मुसलमानों की तादाद बढ़ती जा रही थी। ऐसी स्थिति में जब उन्होंने इस हक़ीक़त को समझ लिया कि इस्लाम ही सच्चाई का मार्ग है और यह निकट भविष्य में पूरे अरब में फैल जाएगा तो वह मुसलमानों के साथ मारपीट और उनके ख़िलाफ़ विभिन्न प्रकार के दुष्प्रचार तो करते ही थे लेकिन इसके साथ ही पैग़म्बर स अ व से समझौते की बातचीत की भी कोशिश करते रहते थे। जिस प्रकार जाली नोट चलाने के लिये असली नोटों का सहारा लिया जाता है और असली नोटों में उनको मिलाकर चलाने से जाली नोटों का वजूद ख़त्म होने से बचा रहता है उसी तरह इस्लाम विरोधी लोग पैग़म्बर स अ व के सामने तरह तरह की पेशकश रखते थे। कभी वह कहते थे कि आप हमारे खुदाओं को और देवी देवताओं की पूजा करो तो हम भी आपके अल्लाह की इबादत करेंगे और कभी कहते थे कि कुछ दिन आप हमारे खुदाओं को पूज लिया करो तो कुछ दिन हम आपके अल्लाह की उपासना कर लिया करेंगे। इस प्रकार वह चाहते थे कि कोई बीच का रास्ता निकल आए ताकि इस्लाम के सच्चाई के मार्ग के सहारे उनकी गुमराही का वजूद भी बना रहे। इन सब बातों के जवाब में अल्लाह ने पैग़म्बर स अ व को जो आदेश दिया वह इस प्रकार है। क़ुरआन पाक की सूरह अलकाफ़िरून की 1,2,3 व 6 वीं आयतों में फ़रमाया गया है, अनुवाद, "कह दो कि ऐ काफ़िरो, मैं उनकी इबादत नहीं करता जिनकी इबादत तुम करते हो और न तुम उसकी इबादत करने वाले हो जिसकी इबादत मैं करता हूँ। तुम्हारे लिये तुम्हारा दीन है और मेरे लिये मेरा दीन।" इस प्रकार बिना किसी लाग लपेट के जिस अन्दाज़ में दो टूक बात कही गई है वह मुसलमानों को राह दिखाने के लिये काफ़ी है जिसके अन्तर्गत जहां भी दीन के मामले में किसी तरह की भी मिलावट की झलक मिले उसको फौरन नकार देना चाहिए चाहे वह सूर्य नमस्कार को नमाज़ से जोड़ने की चाल हो या फिर वन्देमातरम का ग़ैरइस्लामी तसव्वुर हो। इस प्रकार 'तुम्हारा दीन तुम्हारे साथ और मेरा दीन मेरे साथ' वाला नजरिया ही आपसी भाईचारे को मज़बूत बना सकता है।