‘यह देश हमारा है’ यह सोचना एक अच्छी बात है जो बुरी बात में बदल जाती है जब इसके साथ यह भी जोड़ दिया जाय कि हमारे अलावा यह देश किसी का भी नहीं है। आर. एस. एस. जनित हिन्दू मानसिकता द्वारा इस प्रकार की भावना की उत्पत्ति ने देश में अल्पसंख्यकों पर ज़ुल्म और ज़्यादती का रास्ता खोल दिया है। यदि कुछ बातों पर निष्पक्षता से विचार किया जाए तो देश को बरबादी की राह से हटा कर उन्नति की ओर ले जाया जा सकता है।
1- यह कि, हिन्दू मन्दिरों में पूजा अर्चना की पद्धति में घण्टा बजाना, आरती गाना व भजन कीर्तन आदि में माइक व दूसरे ध्वनि उत्पादक यन्त्रों का प्रयोग आनिवार्य है। इसके विपरीत मस्जिदों में दिन में पांच बार अज़ान इस प्रकार देने का नियम है कि दूर के रहने वालों को इसकी आवाज़ पहुंच जाए क्योंकि यह इस बात की पुकार है कि नमाज़ का समय हो गया है लिहाज़ा लोग मस्जिद में आ जाएं इसलिये अज़ान के लिये माइक का प्रयोग आवश्यक है इस कार्य में 2-3 मिनट से अधिक समय नहीं लगता है इसके अलावा नमाज़ पढ़ने के समय इमाम की आवाज़ मस्जिद में मौजूद सभी लोगों तक पहुंच जाए इसलिये माइक प्रयोग करते हैं परन्तु इसकी आवाज़ मस्जिद के अन्दर तक ही सीमित रहती है जिससे किसी को भी परेशानी नहीं होती।
साम्प्रदायिकता का ज़हर घुलने के बाद 2-3 मिनट की अज़ान की आवाज़ उन्ही लोगों के कानों में चुभने लगी जो जागरण और अखण्ड पाठ जैसे धार्मिक कार्यों में कान फाड़ने वाली ध्वनि के प्रयोग को भगवान की भक्ति समझते हैं।
2- यह कि, जब हिन्दू मुस्लिम भाईचारा क़ायम था और परस्पर वैर भाव के बीज नहीं बोए गए थे तब सुबह सूरज निकलने से पहले पढ़ी जाने वाली नमाज़ की समाप्ति के बाद ही मन्दिरों में पूजा अर्चना का चलन था और किसी भी धार्मिक जलूस आदि के नमाज़ के समय मस्जिद के आगे से होकर गुज़रते हुए स्वयं ही ध्वनि उत्पादक यन्त्रों की आवाज़ को कम कर लिया जाता था ताकि नमाज़ पढ़ने वालों की एकाग्रता भंग न हो। इस प्रकार से हिन्दुओं के प्रति मुसलमानों के दिलों में श्रद्धा भाव पैदा होना लाज़मी था।
अब स्थिति यह है कि अदूरदर्शी संम्प्रदायिक तत्वों द्वारा निकाले जाने वाले धार्मिक जलूसों को, यदि नमाज़ पढ़ी जा रही हो तो, जानबूझकर मस्जिद के सामने रोक कर नमाज़ में ख़लल डालने की कोशिश की जाती है।
3- यह कि, जिन मस्जिदों के पीछे सड़क या ख़ाली जगह होती है तो रमज़ान के महीने में होने वाली जुमे की नमाज़ों में जगह की कमी के कारण मस्जिद से बाहर नमाज़ पढ़ लेते हैं जिससे किसी को कोई हानि नहीं होती और इसमें आधा घण्टे से अधिक समय भी नहीं लगता।
मुसलमानों से बेमतलब का बैर रखने वाले सान्प्रदायिक हिन्दू इस प्रकार सड़क पर पढ़ी जाने वाली नमाज में अड़चन डालने की भरसक कोशिश करते हैं जबकि, भगवती जागरण आदि के आयोजनों को आमतौर से पूरी सड़क को बन्द करके किये जाने की प्रथा सी बना दी गई है चाहे उसमें 50 से अधिक लोग भी इकट्ठे न हो पाते हों। इससे मुसलमानों में हिन्दुओं के प्रति प्रेम भाव को ठेस पहुंचना लाज़मी है।
4- यह कि, होली दहन आमतौर से सड़क पर लकड़ियां जमा करके किया जाने की परम्परा सी बन गइै है जिससे आस पास के मकानों को क्षति पहुंचने के साथ जन स्वास्थ्य को भी हानि होने का अन्देशा रहता है। यदि यह कार्य किसी मैदान में या खेत में किया जाए तो सभ्यता का परिचायक होने के साथ साथ किसी के अधिकारों के हनन का थी अन्देशा नहीं रहता।
प्रायः देखने में आता है कि बज़ाहिर यह छोटी दिखाई पड़ने वाली बातें धीरे धीरे परस्पर स्थाई नफ़रत को जन्म देती हैं जिसका लाभ साम्प्रदायिक प्रवृत्ति के लोग और स्वार्थी तत्व आसानी से उठा लेते हैं। यदि दोनों सम्प्रदाय एक दूसरे की भावनाओं का आदर करें और एक दूसरे को कष्ट पहुंचाकर प्रसन्नता का इज़हार करने की प्रवृत्ति को छोड़ दें तो यही बात हिन्दू मुस्लिम भाईचारे की कुन्जी साबित होगी।
1- यह कि, हिन्दू मन्दिरों में पूजा अर्चना की पद्धति में घण्टा बजाना, आरती गाना व भजन कीर्तन आदि में माइक व दूसरे ध्वनि उत्पादक यन्त्रों का प्रयोग आनिवार्य है। इसके विपरीत मस्जिदों में दिन में पांच बार अज़ान इस प्रकार देने का नियम है कि दूर के रहने वालों को इसकी आवाज़ पहुंच जाए क्योंकि यह इस बात की पुकार है कि नमाज़ का समय हो गया है लिहाज़ा लोग मस्जिद में आ जाएं इसलिये अज़ान के लिये माइक का प्रयोग आवश्यक है इस कार्य में 2-3 मिनट से अधिक समय नहीं लगता है इसके अलावा नमाज़ पढ़ने के समय इमाम की आवाज़ मस्जिद में मौजूद सभी लोगों तक पहुंच जाए इसलिये माइक प्रयोग करते हैं परन्तु इसकी आवाज़ मस्जिद के अन्दर तक ही सीमित रहती है जिससे किसी को भी परेशानी नहीं होती।
साम्प्रदायिकता का ज़हर घुलने के बाद 2-3 मिनट की अज़ान की आवाज़ उन्ही लोगों के कानों में चुभने लगी जो जागरण और अखण्ड पाठ जैसे धार्मिक कार्यों में कान फाड़ने वाली ध्वनि के प्रयोग को भगवान की भक्ति समझते हैं।
2- यह कि, जब हिन्दू मुस्लिम भाईचारा क़ायम था और परस्पर वैर भाव के बीज नहीं बोए गए थे तब सुबह सूरज निकलने से पहले पढ़ी जाने वाली नमाज़ की समाप्ति के बाद ही मन्दिरों में पूजा अर्चना का चलन था और किसी भी धार्मिक जलूस आदि के नमाज़ के समय मस्जिद के आगे से होकर गुज़रते हुए स्वयं ही ध्वनि उत्पादक यन्त्रों की आवाज़ को कम कर लिया जाता था ताकि नमाज़ पढ़ने वालों की एकाग्रता भंग न हो। इस प्रकार से हिन्दुओं के प्रति मुसलमानों के दिलों में श्रद्धा भाव पैदा होना लाज़मी था।
अब स्थिति यह है कि अदूरदर्शी संम्प्रदायिक तत्वों द्वारा निकाले जाने वाले धार्मिक जलूसों को, यदि नमाज़ पढ़ी जा रही हो तो, जानबूझकर मस्जिद के सामने रोक कर नमाज़ में ख़लल डालने की कोशिश की जाती है।
3- यह कि, जिन मस्जिदों के पीछे सड़क या ख़ाली जगह होती है तो रमज़ान के महीने में होने वाली जुमे की नमाज़ों में जगह की कमी के कारण मस्जिद से बाहर नमाज़ पढ़ लेते हैं जिससे किसी को कोई हानि नहीं होती और इसमें आधा घण्टे से अधिक समय भी नहीं लगता।
मुसलमानों से बेमतलब का बैर रखने वाले सान्प्रदायिक हिन्दू इस प्रकार सड़क पर पढ़ी जाने वाली नमाज में अड़चन डालने की भरसक कोशिश करते हैं जबकि, भगवती जागरण आदि के आयोजनों को आमतौर से पूरी सड़क को बन्द करके किये जाने की प्रथा सी बना दी गई है चाहे उसमें 50 से अधिक लोग भी इकट्ठे न हो पाते हों। इससे मुसलमानों में हिन्दुओं के प्रति प्रेम भाव को ठेस पहुंचना लाज़मी है।
4- यह कि, होली दहन आमतौर से सड़क पर लकड़ियां जमा करके किया जाने की परम्परा सी बन गइै है जिससे आस पास के मकानों को क्षति पहुंचने के साथ जन स्वास्थ्य को भी हानि होने का अन्देशा रहता है। यदि यह कार्य किसी मैदान में या खेत में किया जाए तो सभ्यता का परिचायक होने के साथ साथ किसी के अधिकारों के हनन का थी अन्देशा नहीं रहता।
प्रायः देखने में आता है कि बज़ाहिर यह छोटी दिखाई पड़ने वाली बातें धीरे धीरे परस्पर स्थाई नफ़रत को जन्म देती हैं जिसका लाभ साम्प्रदायिक प्रवृत्ति के लोग और स्वार्थी तत्व आसानी से उठा लेते हैं। यदि दोनों सम्प्रदाय एक दूसरे की भावनाओं का आदर करें और एक दूसरे को कष्ट पहुंचाकर प्रसन्नता का इज़हार करने की प्रवृत्ति को छोड़ दें तो यही बात हिन्दू मुस्लिम भाईचारे की कुन्जी साबित होगी।
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