सारी मानवजाति एक परिवार है . उसका पैदा करने वाला भी एक है और उसके माता पिता भी एक ही हैं . ऊंच नीच का आधार रंग नस्ल भाषा और देश नहीं बल्कि तक़वा है. जो इन्सान जितना ज्यादा
ईश्वरीय अनुशासन का पाबंद है और लोकहितकारी है वो उतना ही ऊंचा है और जो इसके जितना ज़्यादा खिलाफ अमल
करता है वो उतना ही ज़्यादा नीच है . सारे इंसानों को उसी एक रब की इबादत करनी चाहिए .
2 comments:
ये बेहतरीन लाइनें है जिसमें कोई कमी नहीं , काश हम अपने परिवार में रहने वाले कम से कम इसलिए लड़ना बंद कर दें कि हमारी आस्था और मान्यताएं अलग अलग हैं ! अगर हम दूसरे भाइयों के धर्मों का उनकी मान्यताओं का आदर करना न सीख सकें तो कम से कम उनका अपमान तो न करें ! "सिर्फ हम और हमारा धर्म सबसे अच्छा है बाकी सब ख़राब हैं" पर विद्वानों का क्या कहना है !?
एक बात और
अगर हमारी आस्था और मान्यताएं वाकई अच्छी हैं तो दूसरे अपने आप खिंचे चले आयेंगे , हमारी आस्था का सम्मान सब करें इसके लिए बेचैनी क्यों ?
काश हम परिवार में रहना सीख सकें !
आप अच्छा लिखते हैं, शुभकामनायें
@ जनाब सतीश सक्सेना जी! बेचैनी इस बात की नहीं है कि लोग मेरी मान्यताओं का सम्मान करने लगें बल्कि बेचैनी इस बात की है कि लोग अम्न व अमान से जीना सीख लें। जब किसी घर में एक बन्दा दूसरे बन्दे का हक़ मार लेता है तो उस घर में झगड़ा खड़ा होने का कारण पैदा हो जाता है। ऐसे ही जब एक वर्ग दूसरे वर्गों को उनका वाजिब हक़ नहीं देता तो समाज में संघर्ष और हिंसा का बीज पड़ जाता है। किस का हक़ क्या है ?
औरत का मर्द पर, मर्द का औरत पर, ग़रीब का पंूजीपति पर , पूंजीपति का निर्धन पर, मां-बाप का औलाद पर, औलाद का मां-बाप पर, नागरिकों का हाकिम पर, हाकिम का नागरिकों पर, अनाथों विधवाओं मुसाफ़िरों और अपाहिजों का समाज पर। इसी के साथ यह कि नैतिक नियम क्या हैं और उनका पालन कैसे और क्यों किया जाये ?
इन बातों के निर्धारण का हक़ केवल उस पैदा करने वाले को है । उसे छोड़कर जब भी कोई दार्शनिक यह नियम और सीमाएं तय करने की कोशिश करेगा तो लाज़िमन वह एक ऐसा काम करने की कोशिश करेगा जिसका न तो उसे अधिकार है न ही उसके अन्दर उसकी योग्यता है।
आज सारा समाज दुखी और परेशान है। उसकी परेशानियों का हल सच्चे मालिक के नियमों को जानने मानने में निहित है। लोग दुखी हों और उन्हें देखकर वह आदमी बेचैन न हो जिसके पास उनकी समस्याओं का समाधान है , यह कैसे संभव है ?
इस्लाम मात्र पूजा-पाठ, और माला जपने वाले संप्रदाय का नाम नहीं है। यह लोगों की समस्याओं के हल का नाम है।
समस्या चाहे कन्या के जन्म की हो या दहेज की हो। तिल तिल कर घुट घुट कर जीने वाली औरत की हो या फिर विधवा की । सूद - ब्याज की चक्की में पिस रही जनता की हो या फिर ग़रीबों में पनप रहे आक्रोश से डरने वाले धनवानों की। नशे से जर्जर हो रहे समाज की हो या फिर धन के लिये तन बेचने वाली तवायफ़ों की, हरेक के लिये इज़्ज़तदार तरीके़ से समुचित हल केवल इस्लाम में है। यह कोई दावा नहीं है बल्कि एक हक़ीक़त है। घर में दवा मौजूद हो और लोग मर रहे हों , यह देखकर बेचैन होना तो स्वाभाविक है।
http://vedquran.blogspot.com/2010/06/what-is-best.html
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