ईश्वर ने हर चीज़ इन्सान के फ़ायदे के लिए बनाई है उनमें से ही पशु भी हैं जो विभिन्न प्रकार से लाभकारी होते हैं। यह सवारी करने, माल ढोने, दूध पीने व मांस खाने आदि के काम आते हैं। गाय भी उन्हीं में से एक पशु है। भारत में हिन्दुओं द्वारा गाय को विशेष सम्मान देते हुए मां के दर्जे में रखा जाने के कारण उसको लाभ के बजाय हानि ही हुई है क्योंकि जो लोग अपनी उस मां, जिसने उन्हें जना हो, को घर के काम काज के लायक़ न रहने पर वृद्धाश्रम का रास्ता दिखाने में ज़रा भी शर्म मेहसूस न करते हों उनसे दूध देना बन्द हो जाने पर एक जानवर की सेवा किया जाना कैसे अपेक्षित है। उत्तर प्रदेश में गाय आमतौर से हिन्दू ही अधिक पालते हैं और जब उसका पालना लाभकारी नहीं रहता तो उसको बेच देते हैं जोकि क़साई के अलावा किसी के काम की नहीं होती। इस प्रकार से गाय को बेचने वाले हिन्दू क्या उस क़साई से यह अपेक्षा रखते हैं कि वह उसकी केवल इसलिये सेवा करेगा क्योंकि उसको बेचने वाले उसे माता मानते हैं। यहां तक तो सब कुछ सामान्य है। इसके बाद जो खेल शुरू होता है वह इन्सानियत को शर्मसार करने के लिये काफ़ी है।
सरकार ने हिन्दुओं की भावनाओं को ध्यान में रखते हुए गोकुशी पर तो पाबन्दी लगा दी है परन्तु लाभदायक न रहने के बाद बेकार हो जाने वाली गायों की उचित देखभल न करने वाले गोपालक और गोभक्तों का कोई उत्तरदायित्व नहीं रखा है जिसके नतीजे में गायों का क़साई के हाथों बेचा जाना तय है। ऐसी गायों को ख़रीदने के बाद एक दो गायों को इधर से उधर ले जाने के लिये तो हिन्दू मज़दूरों की सेवाएं ले ली जाती हैं और जब एक जगह माल इकट्ठा हो जाता है तो फिर उसको ट्रक में लाद कर सुरक्षित स्थान पर पहुंचाया जाता है। इन गायों के व्यापारी रिस्क फैक्टर को कम करने के लिये एक ही ट्रक में इतनी गायें ठूंस कर भर लेते हैं कि उनकी हालत देखकर पत्थर दिल व्यक्ति की भी आंखों में आंसू आ जाएंगे। इस ज़ुल्म का अन्दाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि प्रायः मन्ज़िल पर पहुंचने तक उस ट्रक में कई गायें तो दम घुटने से मर जाती हैं। इस मामले में पुलिस की भूमिका भी अपेक्षानुसार ही होती है क्योंकि पहले से तयशुदा धनराशि के चश्मे से उसको हर नाजायज़ काम जायज़ नज़र आने लगता है। इसके बाद गोभक्तों के रूप में घूमने वाले अराजक तत्वों की जब ऐसे वाहन पर नज़र पड़ती है तो वह उस क्षेत्र के हिन्दुओं की भावनाओं को भड़का कर दबाव बनाकर उस माल को छीन लेते हैं और पुलिस की निगरानी में गौ माता के रूप में हाथ आये हुए उस माल को गोशाला में पहुंचा देते हैं ताकि फिर उसको दोबारा क़साई के हाथ बेचकर इनको भी कुछ धन हाथ आ जाए। इस बात की शिकायत इसलिये नहीं होती कि गोशाला में उन बेज़बान जानवरों के खाने और इलाज का उचित प्रबन्ध न होने के कारण वहां के ज़िम्मेदार लोग उनसे छुटकारा पाना ही बेहतर समझते हैं। यदि बचकर यह माल अपनी मन्ज़िल तक पहुंच जाता है तो फिर उन गायों का मांस एक्सपोर्ट कर दिया जाता है। इस पूरी कार्यवाही में मुसलमानों का रोल केवल गाय ख़रीद कर फ़ैक्ट्री तक पहुंचाना होता है बाक़ी गाय के पालने से लेकर एक्सपोर्ट तक का कार्य प्रायः हिन्दुओं के द्वारा ही अन्जाम दिया जाता है। यदि दबिश की वजह से उन गायों को मन्ज़िल तक पहुंचने से पहले ही ठिकाने लगाना पड़े तो रात के अंधेरे में किसी वीरान जगह या किसी खेत में उनको काट लेते हैं और इस करतूत की भनक लगने पर पुलिस को भी अलग से बोनस के तौर पर कुछ धन की प्राप्ति हो जाती है क्योंकि वह क़साइयों से तो रिश्वत लेककर उनको आगे काम जारी रखने के लिये फरार कर देती है और जिस खेत में वह गायें काटी गई थीं उस खेत के मालिक को गोकुशी के आरोप में जेल भेज देती है। वहां उस बेचारे ग़रीब की क़ानून लाक़ानूनियत से ज़िन्दगी बरबाद कर देता है।
यह बातें कपोल कल्पित न होकर तथ्यों पर आधारित हैं और इनको लिखने का मक़सद किसी के प्रति द्वेष भावना नहीं है बल्कि कुछ बातों पर ग़ौर करने की आवश्यकता पर ज़ोर देना है। जैसे दूध न देने वाली गायों को स्वयं पालने की स्थिति में न होने पर क़साई के हाथ न बेचकर गौशालाओं में भेजने की व्यवस्था की जाये जहां उनके चारे आदि के लिये धन उपलब्ध कराया जाना सुनिश्चित हो। इसके अलावा गोकुशी पर लगी हुई पाबन्दी को यदि हटा लिया जाये तो क़साई के द्वारा यातायात में किये जाने वाले जु़ल्म से गायें सुरक्षित हो जाएंगी और यदि फिर भी बाज़ न आयें तो उनको सख़्त सज़ा का प्रावधान रखा जाये। ईदुज़्ज़ुहा के मौक़े पर जिन जानवरों की क़ुर्बानी की जाती है उनको इतने अच्छे ढंग से रखा जाता है कभी कभी तो उनकी की जाने वाली सेवा से इन्सान भी ईर्ष्या करने लगता है यदि गाय भी क़ुर्बानी के जानवरों में शामिल कर ली जाए तो निश्चित रूप से हिन्दुओं से बेहतर मुसलमान गाय की सेवा करेगा। विदेशों में गायें केवल मांस के लिये भी पाली जाती हैं और वहां हिन्दू भी रहते हैं लेकिन उनको कोई ऐतराज़ नहीं होता। लिहाज़ा जब तक भारत में धर्मनिर्पेक्षता लागू है तब तक गोकुशी पर पाबन्दी लगाकर गोमांस खाने वाले लोगों के अधिकारों का हनन करने का कोई औचित्य नहीं है। यदि संविधान को बदलकर हिन्दू राष्ट्र बना दिया जाय तो फिर उसी के अनुसार क़ानून बनाकर गोकुशी पर पाबन्दी लगाने पर विचार किया जाने को तर्कसम्मत कहा जा सकता है।
सरकार ने हिन्दुओं की भावनाओं को ध्यान में रखते हुए गोकुशी पर तो पाबन्दी लगा दी है परन्तु लाभदायक न रहने के बाद बेकार हो जाने वाली गायों की उचित देखभल न करने वाले गोपालक और गोभक्तों का कोई उत्तरदायित्व नहीं रखा है जिसके नतीजे में गायों का क़साई के हाथों बेचा जाना तय है। ऐसी गायों को ख़रीदने के बाद एक दो गायों को इधर से उधर ले जाने के लिये तो हिन्दू मज़दूरों की सेवाएं ले ली जाती हैं और जब एक जगह माल इकट्ठा हो जाता है तो फिर उसको ट्रक में लाद कर सुरक्षित स्थान पर पहुंचाया जाता है। इन गायों के व्यापारी रिस्क फैक्टर को कम करने के लिये एक ही ट्रक में इतनी गायें ठूंस कर भर लेते हैं कि उनकी हालत देखकर पत्थर दिल व्यक्ति की भी आंखों में आंसू आ जाएंगे। इस ज़ुल्म का अन्दाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि प्रायः मन्ज़िल पर पहुंचने तक उस ट्रक में कई गायें तो दम घुटने से मर जाती हैं। इस मामले में पुलिस की भूमिका भी अपेक्षानुसार ही होती है क्योंकि पहले से तयशुदा धनराशि के चश्मे से उसको हर नाजायज़ काम जायज़ नज़र आने लगता है। इसके बाद गोभक्तों के रूप में घूमने वाले अराजक तत्वों की जब ऐसे वाहन पर नज़र पड़ती है तो वह उस क्षेत्र के हिन्दुओं की भावनाओं को भड़का कर दबाव बनाकर उस माल को छीन लेते हैं और पुलिस की निगरानी में गौ माता के रूप में हाथ आये हुए उस माल को गोशाला में पहुंचा देते हैं ताकि फिर उसको दोबारा क़साई के हाथ बेचकर इनको भी कुछ धन हाथ आ जाए। इस बात की शिकायत इसलिये नहीं होती कि गोशाला में उन बेज़बान जानवरों के खाने और इलाज का उचित प्रबन्ध न होने के कारण वहां के ज़िम्मेदार लोग उनसे छुटकारा पाना ही बेहतर समझते हैं। यदि बचकर यह माल अपनी मन्ज़िल तक पहुंच जाता है तो फिर उन गायों का मांस एक्सपोर्ट कर दिया जाता है। इस पूरी कार्यवाही में मुसलमानों का रोल केवल गाय ख़रीद कर फ़ैक्ट्री तक पहुंचाना होता है बाक़ी गाय के पालने से लेकर एक्सपोर्ट तक का कार्य प्रायः हिन्दुओं के द्वारा ही अन्जाम दिया जाता है। यदि दबिश की वजह से उन गायों को मन्ज़िल तक पहुंचने से पहले ही ठिकाने लगाना पड़े तो रात के अंधेरे में किसी वीरान जगह या किसी खेत में उनको काट लेते हैं और इस करतूत की भनक लगने पर पुलिस को भी अलग से बोनस के तौर पर कुछ धन की प्राप्ति हो जाती है क्योंकि वह क़साइयों से तो रिश्वत लेककर उनको आगे काम जारी रखने के लिये फरार कर देती है और जिस खेत में वह गायें काटी गई थीं उस खेत के मालिक को गोकुशी के आरोप में जेल भेज देती है। वहां उस बेचारे ग़रीब की क़ानून लाक़ानूनियत से ज़िन्दगी बरबाद कर देता है।
यह बातें कपोल कल्पित न होकर तथ्यों पर आधारित हैं और इनको लिखने का मक़सद किसी के प्रति द्वेष भावना नहीं है बल्कि कुछ बातों पर ग़ौर करने की आवश्यकता पर ज़ोर देना है। जैसे दूध न देने वाली गायों को स्वयं पालने की स्थिति में न होने पर क़साई के हाथ न बेचकर गौशालाओं में भेजने की व्यवस्था की जाये जहां उनके चारे आदि के लिये धन उपलब्ध कराया जाना सुनिश्चित हो। इसके अलावा गोकुशी पर लगी हुई पाबन्दी को यदि हटा लिया जाये तो क़साई के द्वारा यातायात में किये जाने वाले जु़ल्म से गायें सुरक्षित हो जाएंगी और यदि फिर भी बाज़ न आयें तो उनको सख़्त सज़ा का प्रावधान रखा जाये। ईदुज़्ज़ुहा के मौक़े पर जिन जानवरों की क़ुर्बानी की जाती है उनको इतने अच्छे ढंग से रखा जाता है कभी कभी तो उनकी की जाने वाली सेवा से इन्सान भी ईर्ष्या करने लगता है यदि गाय भी क़ुर्बानी के जानवरों में शामिल कर ली जाए तो निश्चित रूप से हिन्दुओं से बेहतर मुसलमान गाय की सेवा करेगा। विदेशों में गायें केवल मांस के लिये भी पाली जाती हैं और वहां हिन्दू भी रहते हैं लेकिन उनको कोई ऐतराज़ नहीं होता। लिहाज़ा जब तक भारत में धर्मनिर्पेक्षता लागू है तब तक गोकुशी पर पाबन्दी लगाकर गोमांस खाने वाले लोगों के अधिकारों का हनन करने का कोई औचित्य नहीं है। यदि संविधान को बदलकर हिन्दू राष्ट्र बना दिया जाय तो फिर उसी के अनुसार क़ानून बनाकर गोकुशी पर पाबन्दी लगाने पर विचार किया जाने को तर्कसम्मत कहा जा सकता है।
3 comments:
अच्छी प्रस्तुति बहुत बहुत धन्यवाद
निश्चित रूप से हिन्दुओं से बेहतर मुसलमान गाय की सेवा करेगा।
Nice post.
Kehtaa Bhi Deewana Suntaa Bhi Deewana.
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