Thursday, May 12, 2011

देश में फैल रहे भ्रष्टाचार की ज़िम्मेदार जनता - Sharif Khan

आज हमारा महान देश भ्रष्टाचार के पन्जे में इस हद तक जकड़ा हुआ है कि सभ्य कहते हुए भी शर्म आती है। इस बात को विस्तारपूर्वक समझने के लिए निम्नलिखित बिन्दुओं पर विचार करना आवश्यक हैः

1- यह कि, ऊपर से नीचे तक भ्रष्टाचार में डूबे हुए हमारे देश में जनता को सरकार के निर्वाचन का अधिकार मिले होने के बावजूद यदि चरित्रहीन ग़ुण्डे और भ्रष्ट लोग चुने जाते हैं तो उसकी ज़िम्मेदार सिर्फ़ और सिर्फ़ जनता ही है।

2- यह कि, किसी राजनैतिक दल के द्वारा चुनाव के मैदान में उतारे गए प्रत्याशी द्वारा उपलब्ध कराए गए साक्ष्यों के आधार पर चुनाव आयोग द्वारा दी गई चुनाव लड़ने की इजाज़त उसके चरित्रवान और अच्छा इन्सान होने का मापदण्ड नहीं है अपितु सही मापदण्ड तो वह है जो जनता उसके बारे में जानकारी रखती है। धोखाधड़ी, डकैती, ग़ुण्डागर्दी, बलात्कार, क़त्ल और अपहरण आदि अपराधों में लिप्त किसी व्यक्ति ने चाहे रसूख़, दबंगई और रिश्वत के बल पर अपने गुनाहों पर परदा डलवा रखा हो परन्तु उस समाज के लोग तो उसके करतूतों से भली भांति परिचित होते हैं। इसके बावजूद भी ऐसे घिनौने चरित्र के लोगों का चुनाव में सफल होना उनके वोटरों के दुष्चरित्र होने का प्रमाण है।

3- राजनीति में भ्रष्टाचार का रोना रोने वाले लोगों को इस बात पर विचार करना चाहिए कि सरकार बनाने के लिए जनता द्वारा चुने गए राजनेता चुने जाने के बाद भ्रष्ट और चरित्रहीन नहीं हो जाते अपितु वह भ्रष्ट और चरित्रहीनता वाली पृष्ठभूमि से ही आए हुए होते हैं और उनके गन्दे आचरण ने ही उनको इस मुक़ाम पर पहुंचाया होता है। अतः जनता द्वारा ऐसे गिरे हुए लोगों का चुना जाना जनता की गन्दी मानसिकता को उजागर करने के लिए पर्याप्त है।

4- यह कि, जनता ने चुनाव के लिए जो आधार बनाए हुए हैं वह पूरी तरह से दोषपूर्ण हैं। कहीं जाति के आधार पर वोट दी जाती है तो कहीं धर्म के आधार पर। कहीं पार्टी के नाम पर वोट दी जाती है तो कहीं लालच में आकर वोट देते हैं। कुछ लोग तो गुण्डे और बदमाशों को यह कहकर वोट देते हें कि दूसरी पार्टी के गुण्डों से यही व्यक्ति टक्कर ले सकता है। इन्हीं कारणों से साफ़ सुथरी छवि के लोगों का चुना जाना लगभग असम्भव बन चुका है।

5- यह कि, किसी प्रत्याशी का चरित्रवान होना, उसमें समाज सेवा की भावना का होना तथा बिना किसी भेदभाव के कार्य करने में सक्षम होना ही उसको वोट देने का मापदण्ड होना चाहिए।

6- यह कि, एक समय ऐसा था कि किसी राजनैतिक पार्टी में यदि कोई दाग़ी चरित्र वाला नेता होता था तो उसके अस्तित्व से पार्टी की छवि ख़राब होने का अन्देशा रहता था और ऐसे व्यक्ति के गुनाहों पर परदा डालने की कोशिश की जाती थी परन्तु अब बड़ी बेशर्मी से यह कह दिया जाता है कि दूसरी पार्टियों के ग़ुण्डों से निपटने के लिए ऐसे लोगों का होना आवश्यक है या यह कह दिया जाता है कि दूसरी पर्टियों में तो इससे भी ज़्यादा बदमाश मौजूद हैं।

7- यह कि, चूंकि कोई भी राजनैतिक पार्टी ऐसी मौजूद नहीं है कि जिसमें ग़ुण्डे और बदमाशों का अस्तित्व न हो इसलिए जनता को चाहिए कि पार्टी को वोट न देकर प्रत्याशी को वोट दें चाहे वह निर्दलीय ही क्यों न हो। यदि ऐसा हो गया तो राजनैतिक पार्टियां भ्रष्ट और चरित्रहीन लोगों को सर आंखों पर बिठाने के बजाय बाहर का रास्ता दिखाने के लिए मजबूर हो जाएंगी।

अन्त में यही कहा जा सकता है कि यदि घर की रखवाली की ज़िम्मेदारी किसी चोर को सौंपी जाती है तो क़सूरवार घरवाले होंगे न कि चोर। अतः पूरे देश में फैल रहे भ्रष्टाचार की ज़िम्मेदार गन्दे और दाग़दार लोगों को चुनकर भेजने वाली जनता है न कि चुने हुए नेता।

Friday, April 22, 2011

वैश्यावृत्ति सभ्य समाज का दुर्भाग्य by Sharif Khan

ईश्वर ने इंसान को एक मर्द और एक औरत से पैदा किया इस प्रकार से सभी लोग आपस में भाई के रिश्ते से जुड़ गए। सभ्य समाज में प्रत्येक व्यक्ति के लिए स्त्रियां ‘‘मां, बहन, बेटी या पत्नि‘‘ इन चार रूपों में जानी जाती हैं। स्त्री और पुरुष के बीच शारीरिक संरचना और क्षमता का जो भेद है उसके अनुरूप क़ायम की गई सामाजिक व्यवस्था में दिये गए अधिकार और कर्तव्यों के अनुसार महिलाओं की सुरक्षा के साथ उनकी आवश्यकताओ की पूर्ति की ज़िम्मेदारी पुरुषों के ऊपर डाल दी गई। किसी मजबूरी वश यदि महिलाओं को जीविकोपार्जन की आवश्यकता पड़ती है तो पूरे समाज को चाहिए कि उनके अनुरूप जीविका के साधन उपलब्ध करा दिए जाएं। ईश्वर ने नारी को सतीत्व एक धरोहर के रूप में प्रदान किया है जिसकी रक्षा करने में प्रायः वह अपना जीवन तक दांव पर लगा देती है। जिस प्रकार से पुरुषों के लिए स्त्री ‘‘मां, बहन, बेटी या पत्नि‘‘ का रूप होती है उसी प्रकार से एक स्त्री के लिए पुरुष ‘‘पुत्र, भाई, पिता या पति‘‘ के रूप में होता है। यदि हम संजीदगी से विचार करें तो पुत्र, भाई, पिता या पति के होते हुए क्या किसी मां, बहन, बेटी या पत्नि के सतीत्व पर आंच आ सकती है? इस सब के बावजूद पूरी सामाजिक व्यवस्था में वैश्यावृत्ति को एक पेशे के रूप में मान्यता दिया जाना समाज के ठेकेदारों के दोग़लेपन को साबित करने के लिए काफ़ी है। जो लोग धन के बदले में किसी स्त्री के साथ व्याभिचार करते हैं और उस अबला के सतीत्व (अस्मत) से खेलते हैं वही लोग उस बदनसीब औरत को वैश्या के रूप में केवल इसलिए मान्यता देते हैं ताकि आइन्दा भी उनकी यौनेच्छा की पूर्ति का साधन उपलब्ध रहे। वैश्यावृत्ति को सबसे पुराना पेशा कहकर वैश्यागामी पूर्वजों के ‘‘कमीनेपन‘‘ पर क्या कभी सभ्य कहलाने वाले लोगों को शर्मिन्दगी का एहसास नहीं होता? ध्यान रहे कि एक स्त्री तब तक वैश्या नहीं बन सकती जब तक कि कोई पुरुष उससे सम्बन्ध न बनाए इसलिए स्त्री से ज़्यादा पुरुष इस पापकर्म का ज़िम्मेदार हुआ। अब पतन की ओर जा रहे समाज के उत्थान के लिए चरित्र निर्माण का उपाय करने के बजाय वैश्यावृत्ति के रूप में फैल रही गन्दगी को सैक्स वर्कर के नाम से मान्यता देकर क्या देश की संस्कृति का जनाज़ा निकालने की तैयारी नहीं की जा रही है।

देश में सरकारी आंकड़े के अनुसार लगभग 10 लाख बदनसीब महिलाएं इस घिनौने पेशे में पड़ी हुई हैं। क्या वह देश की बेटियां नहीं हैं? राजा के लिए प्रजा संतान की तरह होती है, तो क्या देश को चलाने वाले राजनेता अपनी इन बदनसीब बेटियों को इस प्रकार के नारकीय जीवन व्यतीत करने से मुक्ति दिलाने के बजाय उनके लिए सैक्स वर्कर का नाम देकर लाइसेंस की व्यवस्था करके अपनी राक्षसी प्रवृत्ति का इज़हार नहीं कर रहे हैं? सरकार को चाहिए कि उनके पुनर्वास के लिए बनाई गई योजना में उन महिलाओं के लिए योग्यतानुसार नौकरी, यदि वह चाहें तो विवाह और समाज में उनके लिए सम्मानित जीवन जीने का आधार उपलब्ध कराए जाने का प्रावधान किया जाए। तथा उनके पुनर्वास के लिए बनाई गई योजना को विस्तार पूर्वक समझाकर यह पूछा जाए कि क्या वह इस पेशे को छोड़ना चाहती हैं और यदि जवाब हां में हो तो उनके लिए सम्मानित जीवन जिये जाने लायक़ साधन उपलब्ध कराए जाने का प्रबन्ध कराया जाए। ध्यान रहे समाज के द्वारा धुतकारी हुई देश की इन बदनसीब बेटियों में काफ़ी संख्या उन भले घरों की लड़कियों की भी है जिनको बचपन में अपहृत करके ले जाकर, कभी वापस न लौटने के लिए, वहां पहुंचा दिया गया था।

आम जनता की राय जानने के लिए किये गए सर्वे में तो केवल इतना ही प्रश्न करना पर्याप्त होगा कि क्या वैश्यावृत्ति का पेशा समाप्त होना चाहिए और यदि नहीं तो आप ‘‘मां, बहन, बेटी या पत्नि‘‘ वाले रिश्ते में से किसके पास अपनी कामपिपासा को शान्त करने के लिए जाना चाहेंगे अथवा ‘‘मां, बहन, बेटी या पत्नि‘‘ में से किसको इस पेशे में भेजकर सहयोग करना चाहेंगे।

शराफ़त के चोले में छिपे हुए समाज के ठेकेदारों का चरित्र चित्रण करते हुए किसी शायर ने कहा हैः
ख़िलाफ़े शरअ तो शेख़ जी थूकते भी नहीं।
मगर अंधेरे उजाले यह चूकते भी नहीं।।
इस पापकर्म में ऐसे शरीफ़ लोगों की भागीदारी से भी इंकार नहीं किया जा सकता।

Friday, April 15, 2011

बिगड़ा हुआ समाज Sharif Khan

ईश्वर ने हर चीज़ को नर और मादा के जोड़ों में पैदा किया है तथा दोनों के मिलन से सन्तानोत्पत्ति होती है और नस्ल चलती है। बच्चे चूंकि मादा जनती है इसीलिए शायद उसके आकर्षण के लिए नर को मादा के मुक़ाबले में ज़्यादा सुन्दर बनाया गया है। उदाहरण के तौर पर देखें कि मोर मोरनी के मुक़ाबले में अधिक सुन्दर होता है। इसी प्रकार कबूतर कबूतरी से, शेर शेरनी से, नाग नागिन से आदि प्रत्येक जानदार में नर हमेशा मादा के मुक़ाबले में अधिक सुन्दर होता है। इंसानों पर भी यह बात लागू होना अनिवार्य है। इस तथ्य की रोशनी में यदि विचार किया जाए तो निष्कर्ष यह निकलता है कि मर्द को औरत के मुक़ाबले में अधिक सुन्दर बनाया गया है। यह बात इस तथ्य से भी साबित हो जाती है कि हमेशा औरतें ही सजनें संवरने की ओर ध्यान देती हैं, मर्द नहीं, क्योंकि सुन्दर चीज़ को सजाने संवारने की आवश्यकता ही नहीं है मर्दों को रिझाने के लिए सजने, संवरने के अलावा नाचने गाने का कार्य भी औरतें ही करती आई हैं ताकि दोनों ओर परस्पर आकर्षण बना रहे। औरतों में जो चीज़ मर्दों से बेहतर और उनको उच्चता प्रदान करने वाली है वह है करुणा, दया और ममता की भावना। सेवा, सत्कार और त्याग की भावना। क्षमा, बलिदान और संतोष की भावना। इन्हीं भावनाओं का अक्स जब चेहरे पर आता है तो वही उनके चेहरे का तेज तथा शर्म और हया उनका गहना बन जाता है। औरतों और मर्दों के बीच शारीरिक संरचना और क्षमता का जो भेद है उसके अनुरूप क़ायम की गई सामाजिक व्यवस्था में दिये गए अधिकार और कर्तव्यों के अनुसारं औरतों की सुरक्षा के साथ उनकी आवश्यकताओ की पूर्ति की ज़िम्मेदारी मर्दों के ऊपर डाल दी गई इससे बड़े सम्मान की कल्पना नहीं की जा सकती हालांकि उसके बदले में औरतें घरों की देखभाल और बच्चों की परवरिश की ज़िम्मेदारी को निभाती हैं जोकि उनकी शारीरिक संरचना और क्षमता के अनुकूल है। इस व्यवस्था के विपरीत जब औरतों ने घरों से बाहर निकल कर मर्दों के काम सम्भालने शुरू कर दिये और मर्दों ने ब्यूटी पार्लर जाकर सजना संवरना शुरू कर दिया तो समाज का ढांचा ही बिगड़ गया। इस प्रकार से पतन के रास्ते पर चलते हुए गिरावट की हद यह हो गई कि नर्तकियां जिस प्रकार से नाच गाना करके मर्दों का दिल बहलाने के साधन उपलब्ध कराती थीं (हालांकि यह भी शर्म की बात थी), उसी प्रकार से अब पतित समाज में मर्दों को नचाया जाने लगा। और जिस प्रकार से राज नर्तकियां हुआ करती थीं उसी प्रकार से अब राज नर्तक होने लगे और देश में सर्वोच्च सम्मान से नवाज़े जाने लगे। इस बात में अफ़सोस का पहलू यह है कि हमारे देश के नौजवानों का आदर्श ऐसे ही नाचने गाने वाले लोग हो गए जिन में स्टेज पर श्वसुर को बहू के साथ नाचने में कोई ऐतराज़ नहीं होता और न ही भाभी को देवर के साथ नाचने में लेशमात्र भी आपत्ति होती है बल्कि आपत्ति हो भी क्यों, किसी भी बुराई को बुराई में बुराई नज़र नहीं आया करती। अब आवश्यकता इस बात की है कि समाज के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी को समझते हुए बुद्धिजीवी वर्ग इस ओर ध्यान देकर पतन की राह पर चल पड़े समाज को सही राह पर लाने की रूपरेखा बनाएं ताकि अच्छे संस्कार से युक्त नई पीढ़ी जन्म लेकर देश को नई दिशा में ले जाने में सक्षम हो।

Wednesday, March 16, 2011

भारत में हिन्दू-मुस्लिम भाईचारे की कुन्जी Sharif Khan

लोकतन्त्र का सबसे बड़ा अभिशाप यह है कि जिस देश में यह क़ायम होता है अल्पसंख्यकों के अधिकारों का हनन होना वहां की व्यवस्था का अंग बन जाता है बहुसंख्यक समाज की संस्कृति धीरे धीरे पूरे देश में छा जाती है और भीड़ तन्त्र क़ायम हो जाता है। भारतवर्ष उपरोक्त का जीता जागता नमूना है जहां धर्मनिर्पेक्षता के नाम पर हिन्दू धर्मपक्षता क़ा बोलबाला है। आमतौर से विजित क़ौम विजेता क़ौम की संस्कृति व रीति रिवाज को अपना लेती है अथवा अपनाना पड़ता है परन्तु भारत में हिन्दू-मुस्लिम के बीच विजित और विजेता का सम्बन्ध न होते हुए भी केवल बहुसंख्यक और अलपसंख्यक होने के आघार पर ही हिन्दू संस्कृति को थोपा जा रहा है जोकि संविधान के विरुद्ध है और इसमें अफ़सोसनाक पहलू यह है कि इस्लाम की मूल शिक्षाओं को न समझने वाले मुस्लिम इसको स्वीकार करके इस्लाम की छवि को बिगाड़ने में सहयोग कर रहे हैं।

उपरोक्त कथन के संदर्भ में कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं।

1- यह कि, जब संविधान ने धर्मनिर्पेक्षता का सिद्धान्त लागू किया है तो किसी पुल के शिलान्यास में, सड़क के उद्घाटन में अथवा बिजलीघर आदि किसी भी सरकारी योजना के शुभारम्भ के अवसर पर नारियल तोड़ना, हवन का आयोजन अथवा इसी प्रकार के किसी भी धार्मिक अनुष्ठान किये जाने का क्या औचित्य है?

2- यह कि, विद्यालयों के समारोहों और सरकारी संस्थानों में आयोजित कराए जाने वाले सांस्कृतिक कार्यक्रमों में सरस्वती वन्दना, मूर्ति या तस्वीर पर माल्यार्पण अथवा इसी प्रकार के धर्माधारित कार्य कराए जाने का क्या औचित्य है।

3- यह कि, किसी सरकारी विभाग द्वारा आयोजित प्रतियोगिताओं में ‘नटराज‘ आदि किसी देवी देवता की मूर्ति इनाम के रूप में दिये जाने का क्या औचित्य है।

इसके अलावा एक बात यह भी ग़ौर करने योग्य है कि, उपरोक्त उदाहरणों के द्वारा प्रस्तुत किये गए आयोजनों में मुख्य अतिथि यदि मुसलमान हो तो उसका इस प्रकार के इस्लामविरुद्ध कार्य करने से इंकार देशद्रोह के रूप में देखा जाता है। हो सकता है कि इस्लाम की मूल शिक्षाओं का ज्ञान न रखने वाले कुछ मुसलमान भाई भी हमारी बातों से सहमत न हों जोकि हक़ीक़त को झुठलाने जैसा होगा।

इन तथ्यों पर आधारित बात कहने का मक़सद किसी की भावनाओं को ठेस पहुंचाना न होकर केवल यह बताना है कि इस प्रकार से मुसलमानों को धर्मविरुद्ध कार्य करने के लिए मजबूर किया जाना एक अजीब सी नफ़रत को जन्म देने वाला साबित होता है। यदि धर्मनिर्पेक्षता का ढिंढोरा पीटने वाली सरकार उपरोक्त आयोजनों में किसी भी धर्म पर आधारित कार्यों पर रोक लगाकर इसको अपराध घोषित कर दे और मुसलमानों के द्वारा धर्मविरुद्ध कार्य किये जाने को देशभक्ति का मापदण्ड न बनाए और मुसलमानों को मुसलमान ही रहने दे तो यही छोटी सी दिखाई देने वाली बात लाज़मी तौर से हिन्दू-मुस्लिम भाईचारा क़ायम करने की कुन्जी साबित होगी।

Saturday, March 5, 2011

गुरु शिष्य सम्बन्ध Sharif Khan

जिस प्रकार से कुम्हार अपनी कार्यकुशलता और क्षमता के अनुसार साधारण सी मिट्टी को ‘एक बहतरीन बर्तन का रूप देकर उपयोगी बनाता है ठीक उसी प्रकार गुरु भी अपने शिष्य को एक साधारण से इन्सान से महान व्यक्तित्व में परिवर्तित करने की ज़िम्मेदारी निभाता है। मिट्टी को बर्तन का रूप देने से पहले उसमें लचीलापन पैदा करने के लिए कुम्हार जिस प्रकार से उसे भिगोकर, दबाकर व कुचलकर तैयार करता है ठीक उसी प्रकार स्कूल में शिक्षा ग्रहण करने वाले बच्चों को आवश्यकता व बच्चों की सहनशक्ति के अनुसार यदि सज़ा दी जाती है तो इसमें बुराई की कोई बात नहीं है। एक समय ऐसा था जब बच्चे को स्कूल में दाख़िल करते समय अभिभावक यह कहते थे कि, ‘‘मास्टरजी बच्चा आपके हवाले है इसकी हड्डी हमारी और मांस आपका।‘‘ उस दौर में स्कूल में बच्चों की पिटाई भी ख़ूब होती थी परन्तु शिकायत न पिटने वाले बच्चों को होती थी और न ही अभिभावकों को। शिक्षा ग्रहण करके वह बच्चे अच्छे संस्कार हासिल करके स्कूल से निकल कर देश के आदर्श नागरिक साबित होते थे और अपनी ज़िम्मेदारी को ईमानदारी से निभाने का प्रयास करते थे। यदि राजनेता होने का सौभग्य मिलता था तो कोई भी ऐसा प्रस्ताव रखने की कल्पना तक नहीं करते थे जिस से कि चरित्रहीनता को बढ़ावा मिलने का अन्देशा हो। यदि न्यायपालिका में प्रवेश मिलता था तो पूरी कोशिश होती थी कि अपराधी को सज़ा मिले और निरपराध व्यक्ति किसी प्रकार से भी प्रताड़ित न हो। प्रशासन में सेवा का अवसर मिलने पर मानवता को दाग़दार करने वाले कार्य अंजाम देने की कल्पना तक नहीं करते थे। मीडिया को निर्भीक और निष्पक्ष बनाने की बुनियाद भी उन्हीं लोगों की डाली हुई है।

मौजूदा दौर में जब से गुरु जी को एक अच्छी पगार लेने वाले नौकर के रूप में देखा जाने लगा है, तब से गुरु के द्वारा उद्दण्ड छात्र को डांटना तक एक नौकर का मालिक को बेइज्ज़त करने के रूप में देखा जाने लगा है और उसकी प्रतिक्रिया के तौर पर पहले तो अभिभावक स्वयं वहशीपन का सबूत देते हैं तदुपरान्त मास्टरजी पर ग़ैर शाइस्ता इल्ज़ामात लगाकर उनको पुलिस के हवाले कर दिया जाता है और यदि मास्टरजी के दुर्भाग्य से छात्र अनुसूचित जाति का हुआ तो उन पर एस.सी.एस.टी. एक्ट के अन्तर्गत कार्यवाही किया जाना सुनिश्चित हो जाता है।

एक कहावत है, ‘‘बे अदब बे नसीब, बा अदब बा नसीब‘‘। इस कहावत के अनुसार समाज में सर्वोच्च स्थान पाने के हक़दार गुरुओं को बेइज़्ज़त किये जाने के कारण पूरा देश बदनसीबी की आग़ोश में आ चुका है जिसके नतीजे में चरित्र पतन का यह हाल है कि समलैंगिकता जैसे घिनौने कार्य को क़ानूनी संरक्षण दिया जा रहा है। वैवाहिक व्यवस्था आदर्श समाज के निर्माण की बुनियाद है परन्तु लिव इन रिलेशनशिप को मान्यता देने वाले गन्दे क़ानून के द्वारा बिना विवाह किये औरतों मर्दों को एक साथ रहने की छूट देकर सामाजिक ढांचे को छिन्न भिन्न किया जा रहा है। एक ईसाई पादरी को उसके दो मासूम बच्चों के साथ साम्प्रदायिकता के जुनून में आकर ज़िन्दा जला देने वाले अपराधियों की दुर्लभ से दुर्लभतम की श्रेणी का अपराध न मानते हुए विवेकाधिकार का प्रयोग करके उच्चतम न्यायालय द्वारा फांसी की सजा को उम्र क़ैद में बदल दिये जाने का मामला सब जानते ही हैं। इसके बाद भी क्या देश में न्याय प्राप्त होने की आशा की जा सकती है। पुलिस और प्रशासन में भी ज़्यादातर ऐसे ही लोगों की भरमार है जिनका गुरुओं के सम्मान से कोई लेना देना नहीं रहा इसीलिए शिक्षकों के किसी प्रदर्शन पर लाठी चार्ज तक कर देना आम सी बात हो गई है।

इन सब बातों का दर्दनाक पहलू यह है कि ऐसे ही संस्कारहीन छात्र शिक्षित होकर शिक्षक बनने लगे हैं। लिहाज़ा यह एक ऐसी समस्या बन गई है जिसका समाधान बहुत कठिन है।

Thursday, February 24, 2011

पुलिस के साथ पूरी व्यवस्था का दागदार Sharif Khan

1 अप्रैल सन 2006 को उ.प्र. में सहारनपुर जिले के दग्डोली गांव निवासी चन्द्रपाल के पुत्र कल्लू के अपहरण में नामज़द उसी गांव के निवासी जसवीर तथा पास के गांव खजूरवाला निवासी गुलज़ार अहमद को पुलिस ने गिरफ़्तार कर लिया। और फिर अपहरण व हत्या के जुर्म में पुलिस ने ऐसे पुख्ता सबूत जुटाए जिनके आधार पर 30 जनवरी 2009 को अदालत ने दोनो आरोपियों को अपराधी मानते हुए आजीवन कारावास की सज़ा सुना दी। सज़ा के 9 माह बाद कल्लू के सही सलामत घर लौट आने पर 10 अक्टूबर 2009 को पुलिस के समक्ष दिये गए बयान के मुताबिक़ वह अपनी मर्जी से अपनी रिश्तेदारी में चला गया था तथा उसका किसी ने अपहरण नहीं किया था।

यदि कल्लू घर न पहुंचकर पहले पुलिस के हत्थे चढ़ गया होता तो हो सकता है कि पुलिस उसको ज़िन्दा रहने के जुर्म में मार देती। क्योंकि जिस व्यक्ति का कत्ल होना पुलिस ने स्वीकार कर लिया हो और उसके कत्ल के जुर्म में कातिलों (बिना कत्ल किये) को सज़ा दिलवा चुकी हो, उसका ज़िन्दा रहना स्वंय में एक अपराध है।

इस घटना का दर्दनाक और मानवता को कलंकित करने वाला पहलू यह है कि एक समाचार पत्र में इस घटना के 14 माह बाद दिसम्बर 2010 में यह ख़बर इस तरह से छपी कि बिना कोई जुर्म किये सज़ा काट रहे दोनों बेक़सूर लोग अभी तक भी जेल से रिहा नहीं किये गए हैं।

दूसरा उदाहरण इस प्रकार है-
मई 2010 में मुज़फ्फ़रनगर में अजीत व अन्शु नामक प्रेमी-प्रेमिका घर से फ़रार हो गए। इसके बाद पुलिस ने अजीत के घरवालों से ज़बरदस्ती एक लाश की अजीत के रूप में शनाख्त करा दी और प्रेमी युगल के क़त्ल के जुर्म में प्रेमिका के भाई अनुज को हिरासत में लेकर जुर्म स्वीकार करा लिया। क़त्ल का जुर्म स्वीकार कराने के बाद अनुज को जेल भेजे जाने की कार्रवाई चल ही रही थी कि प्रेमी युगल ज़िन्दा वापस आ गया अतः अनुज को रिहा करना पड़ा। सोचने की बात यह है कि यदि प्रेमी युगल ज़िन्दा वापस न आया होता तो अनुज को जुर्म स्वीकार करने के कारण क़त्ल के अपराध में सज़ा दिया जाना निश्चित था।

एक और ताज़ा उदाहरण देखिए-
बुलन्दशहर ज़िले के सलेमपुर थाना क्षेत्र में रहने वाले जागन पुत्र सूरज का विवाह लगभग 6 वर्ष पहले इसी ज़िले के गांव तेजगढ़ी निवासी प्रियंका उर्फ़ लाली से हुआ था। 9 जनवरी 2011 को अचानक प्रियंका ग़ायब हो गई और 14 जनवरी को बेटी से मिलने के लिए उसकी मां जब उसकी सुसराल पहुंची और बेटी को मौजूद न पाया और इत्तफ़ाक़ से इसी दिन सलेमपुर के पास के गांव मांगलौर में एक युवती के जले हुए शव के बरामद होने पर लड़की की मां ने उसके पति जागन के ख़िलाफ़ दहेज हत्या की रिपोर्ट दर्ज करा दी तथा जोड़तोड़ में माहिर पुलिस ने उसके तार जली हुई महिला की लाश से जोड़ते हुए ग़ायब हुई प्रियंका के पति जागन को पत्नी की हत्या के जुर्म में गिरफ़्तार करके जेल भेज दिया और जली हुई लाश के अवशेष को डी.एन.ए. की जांच के लिए भेज दिया। प्रियंका के अपने ही पड़ौस के गांव से ज़िन्दा बरामद होने पर दाग़दार पुलिस की कार्यशैली का मानवता को कलंकित करने वाली साबित होती है।

सबूत जुटाने के लिए पुलिस की कार्यपद्धति जो भी हो अथवा किसी अपराधी द्वारा किये गए अपराध को किसी बेक़सूर व्यक्ति के सर थोप कर उससे उस अपराध को स्वीकार करा लेना अपने आप में एक ऐसा कारनामा है जिसके बल पर एक ओर तो पुलिस अपने निकम्मेपन पर परदा डालने में सफल हो जाती है तथा दूसरी ओर सरकार की भी बहुत सी समस्याएं हल हो जाती हैं। आरुषि का जब क़त्ल हुआ और पुलिस ने नौकर को ग़ायब पाया तो नौकर द्वारा ‘क़त्ल करके नेपाल को फ़रार हो जाने‘ का केस बना कर हल किया जाना लगभग सुनिश्चित था परन्तु सीढ़ियों पर ख़ून के धब्बे किसी के द्वारा देख लिये जाने पर पुलिस को ऊपर जाने का कष्ट करना पड़ा और वहां मिली नौकर की लाश ने मामला गड़बड़ कर दिया। इसके बाद केस सी.बी.आई के सुपुर्द करके सरकार ने उलझा दिया वरना अब तक तो उपरोक्त उदाहरणों की तरह से पुलिस कभी का इस केस को भी हल करके किसी बेगुनाह को फांसी के तख्ते तक पहुंचा चुकी होती। ध्यान रहे कि पुलिस के सिपाही हों या विवेचना अधिकारी या बड़े अधिकारी सब जिस समाज से आते हैं जज भी उसी समाज का उसी प्रकार से अंग हैं जिस प्रकार हम और आप हैं अतः अकेले पुलिस को दोषी ठहरा कर व्यवस्था के दूसरे अंगों के दोषी होने को नज़र अन्दाज़ नहीं किया जा सकता।

Friday, February 4, 2011

Mosques are not safe in independent India आज़ाद हिन्दोस्तान में मस्जिदों का वजूद ख़तरे में Sharif Khan

6 दिसम्बर 1992 को विशिष्ट आतंकवादियों ने, हिन्दुत्व के नाम पर, धार्मिक जुनून में आकर सरकार की सरपरस्ती में बाबरी मस्जिद को शहीद करके जिस अराजकता का परिचय दिया था और इलाहाबाद हाईकोर्ट ने जिस बेबाकी से मस्जिद के ख़िलाफ़ फ़ैसला देकर, इन्साफ़ का जनाज़ा निकाल कर मुसलमानों के दिलों को छलनी किया था, अभी उसकी तकलीफ़ से हिन्दोस्तान का मुसलमान तड़प ही रहा था कि दिल्ली के जंगपुरा इलाक़े में स्थित नूर मस्जिद को डी.डी.ए. की शकल में सरकारी ग़ुण्डों ने अर्धसैनिक बलों की मदद से शहीद कर दिया। पहले सुबह सवेरे पूरे इलाक़े को छावनी के रूप में बदल दिया गया और फिर मस्जिद को इस अन्दाज़ में तेज़ी से शहीद करके हाथों हाथ उसका मलबा साफ़ कर दिया गया मानों वह मस्जिद मस्जिद न होकर कोई बम का गोला हो और यदि कुछ अरसे तक यह क़ायम रह गई तो देश की सुरक्षा ख़तरे में न पड़ जाए।

ग़ौर करने की बात यह है कि आजकल हर शहर और हर इलाक़े में मन्दिरों की बाढ़ सी आई हुई है। उनके बनाने पर हमको कोई ऐतराज़ नहीं है और न ही हमारा मक़सद इस बात की खोज करना है कि यह मन्दिर जायज़ जगह पर बने हैं अथवा नाजायज़ पर परन्तु जब नाजायज़ हरकत शासन और प्रशासन की निगरानी में खुलेआम की जा रही हो और निर्भीकता व निष्पक्षता का दम भरने वाली मीडिया भी उधर से दृष्टि फेर ले तो एक अनजानी सी टीस हर भावुक व्यक्ति के दिल में होना लाज़मी है। उदाहरण के तौर पर पुलिस स्टेशनों में, सार्वजनिक पार्कों में तथा सरकारी विभागों में जो मन्दिर बनाए गए हैं और बनाए जा रहे हैं उनका क्या औचित्य है? इस प्रकार से बनाए गए मन्दिरों के नाजायज होने में जब शक की कोई गुन्जाइश ही नहीं है तो फिर इनको हटाने और भविष्य में ऐसी हरकत की रोकथाम करने की क्यों कोई योजना नहीं बनाई जाती?

'मस्जिद तोड़ो अभियान‘ के समर्थकों को इस बात की ओर भी ध्यान देने की आवश्यकता है कि यदि किसी मस्जिद में अज्ञानता वश चोरी की बिजली इस्तेमाल करने की कोशिश की जाती है तो उस मस्जिद में नमाज़ पढ़ने से शरीयत के जानकार लोग एतराज़ कर देते हैं और उस ग़लती का सुधार करा दिया जाता है। इसी प्रकार से बिना इजाज़त लिये किसी के पेड़ से काटी गई लकड़ियों से गर्म किया हुआ पानी भी मस्जिद में प्रयोग के लायक़ नहीं होता। मुसलमानों में जो लोग शराब बनाने या बेचने आदि का रोज़गार करते हैं अथवा खुलेआम ऐसा धंधा करते हैं जो इस्लामी शरीअत में हराम है तो उन लोगों के द्वारा दिया गया धन मस्जिद के किसी काम में भी लगाये जाने के लिए स्वीकार नहीं किया जाता। सोचने की बात यह है कि नाजायज़ साधनों के इस्तेमाल तक की भी जहां इजाज़त न हो तो यह कल्पना करना मूर्खता है कि मस्जिद किसी नाजायज भूमि पर बनाई गई होगी।

मन्दिर बनाए जाने के बारे में सनातन धर्म में क्या निर्देश हैं, इस बात की जानकारी चूंकि मुझे नहीं है अतः इस बारे में कुछ भी कहना अनुचित होगा परन्तु धर्म के जानकार लोगों से इस बात का आह्वान करने में कोई हर्ज नहीं है कि वह यह देखें कि अनुचित भूमि पर अथवा अनुचित साधनों को प्रयोग में लाकर बनाए गए मन्दिरों में क्या पूजा आदि कार्य सम्पन्न किये जा सकते हैं और यदि ऐसा नहीं हो सकता तो फिर किस प्रकार की कार्य योजना बनाई जाए यह एक गम्भीर विचारणीय विषय है और इस पर हिन्दू धर्माचार्यों को अवश्य ध्यान देना चाहिए।