Sunday, December 26, 2010

Shanti ka Sandesh शान्ति का संदेश Sharif Khan

‘‘शान्ति का सन्देश‘‘ कहने और सुनने में बहुत अच्छा लगता है। शान्ति की अपील हमेशा कमज़ोर लोग किया करते हैं जबकि ताक़तवर लोग हुकुम दिया करते हैं। ताक़त अगर चरित्रवान, दयालु और न्यायप्रिय लोगों के पास होती है तब तो उनके हुकुम के मुताबिक़ शान्ति क़ायम होने की सम्भवना रहती है परन्तु यदि चरित्रहीन, ज़ालिम और अन्यायी लोग ताक़त हासिल करके शान्ति की अपील करते हैं तो अस्थाई तौर पर ख़ामोशी भले ही स्थापित हो जाए परन्तु स्थाई रूप में शान्ति क़ायम हो सके, इस बात ही कल्पना करना स्वंय को धोखा देने के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। चूंकि शान्ति स्थापित करने के इस तरीक़े में हठधर्मी, अन्याय और ज़ुल्म का समावेश होता है इसलिए इसकी प्रतिक्रिया के तौर पर किसी दूसरे रूप में जो अशान्ति फैलती है उसके नतीजे में भयानक बरबादी का होना निश्चित होता है जिसका जीता जागता उदाहरण हम मौजूदा दौर के देश और विदेश के हालात से दे सकते हैं।
आज के अशान्ति और आतंक के माहौल का विश्लेषण यदि हम निष्पक्षता से करें तो सरलता से इस नतीजे पर पहुंच सकते हैं कि 1945 से आज तक लगातार किसी न किसी देश से युद्ध करने और करोड़ों लोगों का ख़ून बहाने वाले देश अमेरिका का वजूद इसका ज़िम्मेदार है। फ्रेंकलिन डी. रूज़वेल्ट की मौत के बाद 12 अप्रैल 1945 को अमेरिका के 33वें राष्ट्रपति के तौर पर कुर्सी सम्भालने वाला हैरी ट्रूमैन ’’कू क्लक्स क्लेन’’ नाम के आतंकवादी संगठन का सक्रिय कार्यकर्ता रहा था। इस संगठन का मक़सद काले लोगों को आतंकित करके अमेरिका में वोट देने के हक़ से महरूम करना था। एक आतंकवादी को अपने देश का राष्ट्रपति पद सौंपकर अमेरिकी जनता ने भी आतंकवाद से अपने लगाव का परिचय दिया और इतना ही नहीं बल्कि लाखों लोगों की मौत के ज़िम्मेदार उस व्यक्ति को 1948 के चुनाव में दोबारा राष्ट्रपति चुनकर खूनी खेल जारी रखे जाने की भविष्य की पॉलिसी को वहां की जनता ने हरी झण्डी दिखा दी। उसके बाद से आज तक शान्ति क़ायम करने के नाम पर अमेरिका लगातार इन्सानों का ख़ून बहा रहा है। इसकी वजह यह है कि ताक़त चरित्रहीन, ज़ालिम और अन्यायी लोगों के हाथों में आ गई है। कोरिया, वियतनाम, इराक़, अफ़ग़ानिस्तान आदि देशों की बरबादी इस बात को साबित कर रही है कि शैतान के क़दम जहां पड़ जाते हैं बरबादी वहां का मुक़द्दर बन जाती है। अफ़सोस की बात यह है कि ऐसे शैतानों को समर्थक भी मिल जाते हैं।
सभ्य समाज के अजूबों का ज़िक्र करना यहां ज़रूरी है। तलवार हो या बन्दूक़ इसी प्रकार एटमी हथियार हों या रसायनिक सबका काम मारना है। इनमें तलवार या बन्दूक़ से तो केवल उसी का क़त्ल होता है जिसको मारना होता है परन्तु एटमी या रसायनिक हथियार तो उस क्षेत्र के सभी लोगों को एक साथ मौत के घाट उतार देते हैं। अमेरिका का इराक़ पर रसायनिक हथियार रखने के इल्ज़ाम में हमला करना कैसे जायज़ हो गया जबकि वह ख़ुद तो एटम बम का भी इस्तेमाल कर चुका है। ड्रोन के द्वारा किये जा रहे हमले किस श्रेणी में आते हैं इस पर भी विचार करने की आवश्यकता है। परमाणु हथियारों के बारे में अमेरिका का यह कहना कि यह ग़लत हाथों में नहीं पहुंचने चाहिएं जबकि अमेरिका के अलावा किसी भी देश में इन हथियारों का ग़लत इस्तेमाल होने की सम्भावना बहुत कम है क्योंकि अभी तक केवल अमेरिका ने ही इन हथियारों का इस्तेमाल किया है।
जिन लोगों से अफ़ग़ानिस्तान छीनकर अपने ग़ुलामों को सौंपा है यदि उन्हीं लोगों को वापस लौटा दिया जाए और एटमी हथियार उनको उपलब्ध करा दिये जाएं तो इस प्रकार से जो शक्ति सन्तुलन होगा वह अमेरिका की हैवानियत पर शायद लगाम लगा सके। कभी अवसर मिला तो अपने देश के बारे में चर्चा करेंगे।

Sunday, December 12, 2010

Muslim Society & New Year मुस्लिम समाज और नववर्ष Sharif Khan

किसी भी मशहूर घटना की याद क़ायम रखने के लिए आवश्यक है कि उस घटना को घटित हुए जितना समय गुज़रा हो उसकी गणना होती रहे। इसको यादगार बनाने का सबसे अच्छा उपाय यह है कि उस समय से सन् प्रारम्भ कर दिया जाए। यह बात अधिकतर धर्म व संस्कृतियों में देखी जा सकती है जैसे विक्रमी संवत्, ईसवी सन्, हिजरी सन् आदि। इनमें हिजरी सन् के अलावा जितने भी सन् शुरू हुए हैं वह प्रथम माह से शुरू हुए हैं परन्तु हिजरी सन् प्रथम माह से शुरू न होकर तीसरे माह से प्रारम्भ होता है। यह सन् पैग़म्बर हज़रत मौहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के मक्का से मदीना हिजरत करने के समय से शुरू होता है और पैग़म्बर सल्ल० ने तीसरे माह (रबीउल अव्वल) की पहली तारीख़ को मक्का छोड़ा था तथा 8 तारीख़ को मदीने से कुछ किलोमीटर पहले क़ुबा के मुक़ाम पर पहुंचे तथा इसके बाद 12 तारीख़ को मदीना में प्रवेश किया था। इस प्रकार से यदि मक्का छोड़ने के समय को हिजरत मानी जाए तो रबीउल अव्वल की पहली तारीख़ तथा यदि मदीने में प्रवेश करने के समय को हिजरत मानी जाए तो रबीउल अव्वल की 12 तारीख़ से हिजरी सन की शुरूआत होती है। जिस प्रकार से यात्रा आरम्भ करने के साथ ही कोई व्यक्ति यात्री कहलाने लगता है उसी तरह हिजरत के लिए घर छोड़ने के समय को हिजरत करना कहते हैं अतः रबीउल अव्वल की पहली तारीख़ से हिजरी सन् का आरम्भ हुआ।
इस बात की जानकारी होना भी आवश्यक है कि अरब में समय की गणना सूर्य से न होकर चन्द्रमा से होती रही है और प्राचीन काल से समय की गणना के लिए जो पद्धति अपनाई हुई थी उस में किसी भी प्रकार का रद्दो बदल न करके उसी को अपना लिया गया यहां तक कि महीनों के नाम भी वही क़ायम रहे जो पहले से चले आ रहे थे जोकि इस प्रकार हैं - (1) मुहर्रम (2) सफ़र (3) रबीउल अव्वल (4) रबीउस्सानी (5) जमादिउल अव्वल (6) जमादिउस्सानी (7) रजब (8) शाबान (9) रमज़ान (10) शव्वाल (11) ज़ीक़ाद (12) ज़िलहिज्ज।
इस प्रकार से हिजरी सन् का पहला महीना मुहर्रम का बेशक है परन्तु हिजरत की घटना चूंकि तीसरे माह की पहली तारीख़ को घटित़ हुई थी इसलिये नया साल मुहर्रम के महीने से आरम्भ होने का कोई औचित्य ही नहीं है। जनवरी की पहली तारीख़ को नववर्ष के तौर पर मनाने का चलन है और 31 दिसम्बर व 1 जनवरी के बीच की मध्यरात्रि को समारोह आयोजित किये जाते हैं।
साम्प्रदायिकता वादी ईस्वी सन् को ईसाई धर्म से जोड़ कर इस दिन को नववर्ष के रूप में मान्यता देने से बचते हैं और सम्वत् के अनुसार हिन्दी नववर्ष के रूप में चैत्र मास की पहली तारीख़ को मान्यता देने का संकल्प लिये हुए हैं परन्तु सफल नहीं हो पा रहे। मुस्लिम समाज यदि मुहर्रम के महीने से वर्ष की शुरुआत माने तो इस माह के पहले दस दिन मानव सभ्यता के इतिहास में सबसे ज़्यादा शर्मनाक और मानवता को कलंकित करने वाले जु़ल्म की कहानी कह रहे होते हैं अतः इसको समारोह का रूप नहीं दिया जा सकता। रबीउल अव्वल माह की पहली तारीख़ हिजरत वाला दिन है इसको ऐतिहासिक तथ्य के रूप में मान्यता तो दी जा सकती है परन्तु समारोह के तौर पर मनाया जाना इसलिए अनुचित है क्योंकि शरीअत में किसी भी घटना की वर्षगांठ मनाया जाना साबित नहीं हैं। अतः मुसलमानों को चाहिए कि नया साल, किसी का जन्म दिन, बरसी आदि हर प्रकार के आयोजनों से स्वंय दूर रखें। आवश्यकता इस बात की है कि इस्लाम धर्म के आलिम हज़रात इन तथ्यों की रोशनी में दिशा निर्देश दें ताकि मुस्लिम समाज भटकने से बचा रहे।

Saturday, October 23, 2010

akhandta ke naam par desh khandit अखण्डता के नाम पर देश खण्डित sharif khan

संसार के सबसे बड़े लोकतान्त्रिक देश भारत में बाबरी मस्जिद के नाम से पहचानी जाने वाली मस्जिद, जिसमें ख़ालिक़े काएनात (सृष्टि के रचियता) की उपासना सदियों से हो रही थी, को एक सोची समझी साज़िश के तहत विवादित बनाकर उच्च न्यायालय में विवाद को सुलझाने के लिए भेज दिया गया। विवाद को क़ानून के अनुसार सुलझाने में अदालत को अन्देशा था कि सही हक़दार को उसका हक़ दिये जाने से 1992 में मस्जिद विध्वंस के ज़िम्मेदार, मन्दिर पक्ष के आतंकवादी, देश की शान्ति को भंग करने में कोई कसर न छोड़ेंगे। लिहाज़ा क़ानून के घर में क़ानून के बजाय आस्था का सहारा लेकर फ़ैसला दिया गया। राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद में अपना फ़ैसला सुनाते हुए न्यायमूर्ति एस यू ख़ान का यह कहना कि, ‘‘यदि छः दिसम्बर 1992 की घटना दोहराई जाती है तो देश दोबारा खड़ा नहीं हो पाएगा।‘‘ इस बात को साबित करने के लिए पर्याप्त है।

आस्थानुसार ही राम के जन्म के स्थान पर निशान लगा दिया गया। अब कुछ प्रश्न जो किसी भी निष्पक्ष व्यक्ति के ज़हन में उठ सकते हैं तथा जिनका तय होना नितान्त आवश्यक है, इस प्रकार हैं -

1- यह कि, क्या किसी बच्चे की पैदाइश के स्थान पर उस बच्चे का मालिकाना हक़ हो जाता है ? और यदि यह कहा जाए कि भगवान इस बन्दिश से अलग है, तो क्या राम का जन्म एक राजकुमार के रूप में न होकर भगवान के रूप में हुआ था ?

चूंकि भगवान के रूप में राम का जन्म होना सिद्ध नहीं है इसलिए अस्पतालों और अपने घर के अलावा दूसरे स्थानों पर पैदा होने वाले बच्चों को उनके जन्म स्थान वाली भूमि पर मालिकाना हक दिलाए जाने के लिए क्या उच्च न्यायालय का यह फ़ैसला नज़ीर (रूलिंग) बन सकता है ? और यदि यह कहा जाए कि राम का जन्म तो किसी दूसरे की जगह में न होकर उनके अपने घर (महल) में हुआ था, तो क्या भारत पर लगभग 800 साल हुकूमत करने वाले मुसलमान बादशाहों के शहज़ादों के जन्मस्थानों वाली भूमि पर उनके वारिस मालिकाना हक़ का क्लेम कर सकते हैं।

2- यह कि, किसी महिला को बच्चा जनने के लिए कितनी भूमि की आवश्यकता होती है ? क्या उसके लिए 1 मीटर चैड़ी और 2 मीटर लम्बी चारपाई अर्थात् 2 वर्ग मीटर स्थान पर्याप्त नहीं है ?

यदि यह बात सही है तो 2 वर्ग मीटर भूमि के बजाय सैकड़ों वर्ग मीटर भूमि देने का क्या औचित्य है? यदि फ़ैसले में इस दो मीटर ज़मीन पर एक ऊंचा सा स्तम्भ बनवाकर कथित रामभक्तों को देने का प्रावधान किया जाना उच्च न्यायालय सुनिश्चित करता तो फ़ैसले में से न्याय की गन्ध अवश्य आ रही होती हालांकि वह भी मस्जिद की जगह का अतिक्रमण ही होता। इस छूट के नतीजे में 67 एकड़ भूमि पर दावा करना कहां तक उचित है।

राम जन्म भूमि आन्दोलन से जुड़े कुख्यात नेता तोगड़िया जी ने वात्सल्य ग्राम में हुए समागम में फ़रमाया है कि मातृभूमि का विभाजन हो चुका है, राम जन्म भूमि का विभाजन किसी क़ीमत पर भी नहीं होने दिया जाएगा। जो लोग ज़मीन को देश की संज्ञा देते हैं उनकी सोच इसी प्रकार की होती है। देश बनता है देशवासियों से और उनके बीच भाईचारे से। यदि पाकिस्तान के रूप में ज़मीन का बटवारा होने के बावजूद भी हिन्दू-मुस्लिम भाईचारा क़ायम करने की कोशिशें की गई होतीं और पाकिस्तान को तोड़ कर बंगलादेश बनवाने में फौजी सहयोग देने की भूल न की गई होती तो हो सकता है कि दिलों के मेल से जिस प्रकार से जर्मनी बटने के बाद फिर से एक हो गए उसी प्रकार भारत और पाकिस्तान को भी मिलाने की कोशिश चल रही होती। लेकिन देश की अखण्डता का नारा देने वाले सरफिरों ने मस्जिद गिरा कर जो हमेशा के लिए हिन्दू-मुस्लिम भाईचारे को चोट पहुंचाई है सही अर्थों में यही देश का खण्डित होना है। पहले भूमि के रूप में देश खण्डित हुआ था और अब दिलों में दूरी बनाकर देश को खण्डित किया जा रहा है जोकि नाक़ाबिले माफ़ी है।

Thursday, October 21, 2010

a solution of the problem of masjid-mandir मस्जिद और मन्दिर की समस्या का समाधान sharif khan

भारत विभिन्न धर्म और संस्कृतियों के देश के रूप में प्राचीन काल से ही जाना जाता रहा है। यदि अलग अलग धर्म और संस्कृतियों के लोग परस्पर सहयोग व भाईचारे के साथ रहें तो यही देश एक महकता हुआ गुलदस्ता बन सकता है और यदि इसके विपरीत आचरण किया गया तो यही देश जहन्नुम बन जाएगा। परस्पर प्रेम व भाईचारा क़ायम करने के लिए कहीं से कोई विशेष ट्रेनिंग लेने की आवश्यकता नहीं है अपितु केवल इतना ध्यान रखें कि हम जो कुछ भी करें उससे किसी दूसरे को शारीरिक व मानसिक कष्ट न पहुंचे तथा इसके साथ इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि यह देश प्रत्येक देशवासी का है और संविधान ने सबको बराबर के अधिकार दिये हैं। अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ लड़ी गई आज़ादी की जंग में हिन्दू-मुस्लिम एकता और आपसी भाईचारे ने सामाजिक तौर पर एक महकते हुए गुलदस्ते की मिसाल क़ायम की थी जिसके नतीजे में भारत एक धर्मनिर्पेक्ष राष्ट्र के रूप में संसार के मानचित्र दुनिया के सबसे बड़े लोकतन्त्र के तौर पर उभरा।

उ० प्र० सरकार में उपमन्त्री रहे स्व० शमीम आलम ने एक बार अपने पिता मौलवी अलीमुद्दीन साहब के संस्मरण सुनाते हुए कहा कि अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ हो रहे आन्दोलन से सम्बन्धित कांग्रेसियों की सभा अक्सर मन्दिर में कर लिया करते थे और यदि उसी दौरान नमाज़ का समय हो जाता तो मौलवी साहब के मस्जिद में जाने से सभा की कार्रवाई काफ़ी देर के लिए रुक जाती थी। इसके समाधान के तौर पर यह तय पाया कि नमाज़ मन्दिर ही में पढ़ ली जाए परन्तु चूंकि मूर्तियों की मौजूदगी में नमाज़ नहीं पढ़ी जा सकती इसलिए मन्दिर के चबूतरे पर मौलवी साहब के नमाज़ पढ़ने का प्रबन्ध किये जाने में किसी को भी ऐतराज़ नहीं होता था। इसके बाद देश के आज़ाद होने पर स्थिति यह हो गई है कि नमाज़ पढ़ने के लिए बनी हुई मस्जिद का वजूद भी आर एस एस द्वारा परिभाषित हिन्दुत्ववादी तत्वों को बरदाश्त नहीं रहा। मुसलमानों को विभिन्न प्रकार से आतंकित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी जाती। कौन नहीं जानता कि इस्लाम में अल्लाह के अलावा किसी की वन्दना करना जाइज़ नहीं है और ऐसा अमल इस्लाम धर्म की मूल भावना के ही विरुद्ध है तो इसका सीधा सा अर्थ यह है कि एक मुसलमान तभी तक मुसलमान है जब तक वह अल्लाह के अलावा किसी और की इबादत (वन्दना) नहीं करता चाहे मां(जननी) हो, वतन हो, पवित्र किताब हो या फिर कुछ और हो। इसके बावजूद मुसलमानों से वन्देमातरम् कहलवाने पर क्यों ज़ोर दिया जाता है और ग़ुण्डों की भाषा इस्तेमाल करते हुए यह नारा क्यों लगाया जाता है कि, ‘‘भारत में रहना है तो वन्देमातरम् कहना होगा‘‘ जबकि सारा संसार इस बात का गवाह है कि ‘‘वन्दे मातरम्‘‘ न कहने वाले लोगों ने ज़रूरत पड़ने पर इस देश के लिए हज़ारों जानें क़ुर्बान करने में तनिक भी संकोच नहीं किया। देश के प्रधानमन्त्री की कुर्सी हासिल करने का स्वप्न देखने वाले अडवानी साहब तो संसद में भारत को भारत या हिन्दुस्तान न कहकर ‘‘हिन्दुस्थान‘‘ (हिन्दू + स्थान) कहते हैं जिससे उनकी मानसिकता का पता चलता है

शायर द्वारा कहे गए यह शब्द भारत के मुसलमानों के दिल से निकली हुई आवाज़ मालूम पड़ते हैं

एक दो ज़ख्म नहीं सारा बदन है छलनी। दर्द बेचारा परीशां है कहां से उठे।।

देश को इस दूषित वातावरण से मुक्ति देकर एक महकते हुए गुलदस्ते में परिवर्तित करने के लिए हमको इस प्रदूषण की जड़ को तलाश करना पड़ेगा जिससे कोई भी अनभिज्ञ नहीं है। 22-23 दिसम्बर 1949 की रात में बाबरी मस्जिद में नमाज़ के बाद किसी समय मूर्ति का रखा जाना प्रारम्भ था इस प्रदूषण का और इसको हवा देने वालों को भी पूरा देश जानता है। यदि इन लोगों को जनता की भावनाओं को भड़काने का मौक़ा न दिया जाए तो तादाद के लिहाज़ से यह बहुत ज़्यादा नहीं हैं। लिहाज़ा करना केवल इतना है कि 22-23 दिसम्बर 1949 से लेकर आज तक के अन्तराल में जो कुछ हुआ उसको एक दुःस्वप्न की तरह से भुलाकर देश के ऐतिहासिक रिकार्ड में से इन 61 वर्षों की कटुतापूर्ण बातों को निकाल दिया जाए और किसी भी दिन सुबह से नमाज़ के लिए मस्जिद को मुक्त कर दिया जाए।

यदि मुसलमानों से कोई भूल हुई है तो बहुसंख्यक समाज पर क्षमा की ज़िम्मेदारी बनती है कयोंकि:

‘‘छमा बड़ेन को चाहिए छोटन को उत्पात‘‘

Monday, October 18, 2010

definition of terrorism आतंकवाद की परिभाषा sharif khan

दशहरे के अवसर पर नागपुर के रेशम बाग़ मैदान में एक रैली को सम्बोधित करते हुए आर एस एस प्रमुख मोहन भागवत ने कहा कि आतंकवाद और हिन्दुत्व विपरीत धारा है और कभी भी इन्हें एक दूसरे से नहीं जोड़ा जा सकता। उन्होंने यह भी कहा कि आमतौर पर हिन्दू आतंकवादी गतिविधियों में शामिल नहीं होते।
उपरोक्त कथन में उनका यह कहना कि, ‘‘आमतौर पर हिन्दू आतंकवादी गतिविधियों में शामिल नहीं होते‘‘ काफ़ी हद तक सत्य के क़रीब है क्योंकि, जहां पर संगठित रूप से योजना बनाकर आतंक फैलाया जाता हो, वहां यही कहना हक़ीक़त पसंदी है। आमतौर पर आतंकवादी गतिविधियों में शामिल होना तो तब माना जाता है जब कोई पीड़ित व्यक्ति इन्साफ़ न मिलने की प्रतिक्रिया में कोई वारदात कर बैठता है।
संगठित आतंकवाद का नमूना सारा संसार 1992 में बाबरी मस्जिद के विध्वंस के रूप में देख ही चुका है। इसके साथ ही राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद में अपना फ़ैसला सुनाते हुए न्यायमूर्ति एस यू ख़ान का यह कहना कि, ‘‘यदि छः दिसम्बर 1992 की घटना दोहराई जाती है तो देश दोबारा खड़ा नहीं हो पाएगा।‘‘ एक प्रकार से हिन्दू आतंकवाद पर अपनी मोहर लगा देने के समान है।
देश में योजनाबद्ध तरीक़े से पनपाए गए इस आतंकवादी संगठन के हौसले कितने बुलन्द हैं इसका प्रमाण इस संगठन के एक नेता द्वारा समझौते की पेशकश के तौर पर कहे गए इन शब्दों को पेश करना ही काफ़ी है कि यदि मुसलमान बाबरी मस्जिद पर से अपना दावा छोड़ दें तो काशी और बनारस की मस्जिदों पर से हम अपना दावा छोड़ देंगे। क्या यह ब्लैकमेलरों और अपहरणकर्ताओं द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली भाषा नहीं है?
अन्त में आप कल्पना करके देखिये कि यदि क़ानून को ताक़ पर रख कर फ़ैसला न किया गया होता और सही इन्साफ़ करते हुए मस्जिद अराजकता के भंवर से निकाल दी गई होती, तो क्या देश इस वक्त छः दिसम्बर 1992 के आतंकवादियों द्वारा न जलाया जा रहा होता। मुस्लिम समाज ने अपने साथ किये गए ज़ुल्म की प्रतिक्रिया में जिस प्रकार से सब्र और धैर्य से काम लेकर सभ्यता, देशहित और अमनपसंदी का सबूत पेश किया है वह क़ाबिले तारीफ़ है।
इन बातों को ध्यान में रखते हुए आर एस एस प्रमुख मोहन भागवत के आतंकवाद से सम्बन्धित बयान से ऐसा लगता है कि आदरणीय आतंकवाद को जिस प्रकार से परिभाषित करना चाहते हैं उसको समझने में निम्नलिखित उदाहरण शायद सहायक हो सके।
एक बार चंगेज़ ख़ान घोड़े पर सवार कहीं जा रहा था कि रास्ते में उसको किसी महिला के रोने की आवाज़ सुनाई दी जिसको सुनकर वह रुका और आवाज़ की ओर चला। वहां उसने देखा कि एक औरत का बच्चा एक गड्ढे में गिरा हुआ था जिसको वह बाहर निकालने में असमर्थ होने के कारण रो रही थी। अपने जीवन में शायद पहली बार चंगेज़ ख़ान को दया आई अतः उसने उस बच्चे को गड्ढे में से निकाल कर उसकी मां के सुपुर्द कर दिया यह बात दूसरी है कि गड्ढे में से बच्चे को बाहर निकालने का तरीक़ा कुछ अलग सा था क्योंकि चंगेज़ ख़ान ने अपने भाले की नोक से बच्चे को इस तरह उठाकर उसकी मां के सुपुर्द किया जिस तरह से कांटे से खरबूज़े आदि के टुकड़े उठाकर खाए जाते हैं। अतः चंगेज़ ख़ान से आतंकवाद की परिभाषा यदि पूछी जाती तो वह जैसी होती उसका उदाहरण हमारे देश में देखा जा सकता है।

Thursday, September 30, 2010

social values and materialism सामाजिक मूल्य और भौतिकवाद sharif khan

भौतिकवाद सभ्य समाज के लिए एक ऐसा अभिशाप है जिसने सामाजिक मूल्यों को समाप्त कर दिया है। आज के युग में प्रेम, ममता, आस्था और श्रद्धा का मापदण्ड पैसा समझ लिया गया है।
भावनात्मक दृष्टि से देखें तो अनाथालय और वृद्धाश्रम सभ्य समाज पर कलंक के समान हैं। आज कुत्ते पालने के शौक़ीन लोग एक कुत्ते पर जो धन ख़र्च करते हैं उससे कम से कम 2 अनाथ बच्चों का पालन पोषण बहुत अच्छे ढंगसे हो सकता है। सुबह को कुत्ते वाले लोग जब अपने प्यारे कुत्ते के साथ टहलने निकलते हैं तो ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे कुत्ता उनको टहलाने निकला है क्योंकि जब ज़मीन सूंघते हुए कुत्ता रुक जाता है तो वह भी रुक जाते हैं और जब कुत्ता चल देता है तो उनको भी उसके पीछे चलना पड़ता है। यदि कुत्ते के बजाय किसी इन्सान के बच्चे को पालने की भावना पैदा हो जाए तो शायद अनाथालय में नारकीय जीवन जी रहे बदनसीब बच्चे भी मानव होने के सुख से परिचित हो सकें। मेरे साथ जूनियर हाई स्कूल में अनाथालय का एक छात्र पढ़ता था। एक दिन उसने ज़हर खा लिया परन्तु समय पर उपचार मिलने से उसकी जान बच गई। सोचने वाली बात यह है कि उस बच्चे के साथ क्या परिस्थितियां रही होंगी कि उसको यह क़दम उठाने के लिए मजबूर होना पडा़। केवल यह अकेली घटना ही अनाथालयों के अन्दर की स्थिति की पोल खोलने के लिए पर्याप्त है।
एक व्यक्ति सन्तान प्राप्ति के बाद उसके उज्ज्वल भविष्य के लिए अपना जीवन समर्पित करके एक अजीब सा सन्तोष और इतमीनान महसूस करता है। वही सन्तान जब उसको वृद्धाश्रम का रास्ता दिखाती है तब उसको ऐसा महसूस होता है कि जैसे जीवनभर की कमाई डकैत ले गए हों। हालांकि वृद्ध माता-पिता को सन्तान की आंखों में अपने प्रति केवल प्रेम और मौहब्बत से भरी दृष्टि की ही चाह होती है।
माता-पिता और सन्तान के दरम्यान जो प्रेम भावना होती है उसको शब्दों में बयान करना सम्भव नहीं है। यह तो ‘‘गूंगे को ज्यों मीठा फल अन्तर ही अन्तर भावै‘‘ वाला भाव है। काफ़ी समय पहले की एक घटना है कि अदालत में एक बृज पाल नाम के एक जज साहब मुक़दमे की बहस सुन रहे थे कि इसी बीच उनकी माता जी के देहान्त का टेलीग्राम आ गया जिसको पढ़कर वह अपनी भावनाओं को नहीं रोक पाए और रोने लगे तथा मुक़दमे की बहस को रोक दिया गया। अदालत में मौजूद वकीलों ने सान्त्वना दी जिसके जवाब में जज साहब ने केवल इतना कहा कि ‘‘मुझे सबसे बड़ा ग़म इस बात को याद करके हुआ है कि अब मुझे ‘‘बिरजू‘‘ कहने वाला कोई नहीं रहा।
कलयुगी पुत्र की कथा के बिना बात अधूरी न रह जाए अतः उसका बयान करना भी ज़रूरी सा प्रतीत होता है। एक युवक अपने वृद्ध पिता को तरह तरह से प्रताड़ित करता था, बुरा भला कहना तथा बात बात में धुतकारना उसकी दिनचर्या में शामिल था। एक दिन अपने बूढ़े पिता से छुटकारा पाने का इरादा करके उस युवक ने एक चादर में पिता को बांधा और सर पर रख कर जंगल की ओर चल दिया। रास्ते में उसको एक कुआं दिखाई दिया। उस कुएं में अपने पिता को फैंकने के इरादे से उसने सर से गठरी उतारी और चादर की गांठ खोली ताकि चादर वापस ले जाए। उसके पिता ने चारों ओर देखकर सारा माजरा समझते हुए अपने पुत्र से कहा कि ‘‘बेटा! मैं समझ रहा हूं कि तू मुझे कुएं में फैंकने के इरादे से लाया है और मैं कुछ कर भी नहीं सकता। यह जानते हुए भी कि तूने मेरी कभी कोई बात नहीं मानी, मैं केवल यह चाहता हूं कि तू मेरी अंतिम इच्छा समझकर मेरी एक बात मान ले। उसके पुत्र द्वारा पिता की अन्तिम इच्छा पूछे जाने पर पिता ने कहा कि तू मुझे इस कुएं में न डालकर किसी दूसरे कुएं में डाल दे। पुत्र ने जब इसका कारण जानना चाहा तो उसके पिता ने कहा कि इस कुएं में मैंने अपने पिता को डाला था। इस कथा को ध्यान में रखते हुए अपने बुज़ुर्गों से दुवर्यवहार करने वाले इतना ध्यान में रखें कि ऐसी परिस्थिति उनके सामने भी आ सकती है।
कहने तात्पर्य यह है कि अल्लाह ने पूरी सृष्टि में सबसे अच्छा इन्सान को बनाया है। इन्सान और जानवरों में ख़ास फ़र्क़ यह है कि इन्सानों में सोचने समझने की शक्ति होती है, भावनाएं होती हैं तथा एक दूसरे के प्रति ज़िम्मेदारी का भाव होता है जोकि जानवरों में नहीं होता। अतः हमको चाहिए कि अपनी ज़िम्मेदारियों को समझें और मानवता को कलंकित करने वाले कार्यों से दूर रहें।

Monday, September 27, 2010

student's future in india either safe or not क्या देश में छात्रों का भविष्य सुरक्षित है ? sharif khan

कई वर्ष पुरानी बात है कि मेरी एक लेक्चरर मित्र ने मुझसे बी ए की ऐसे विषय की कापियां जांचने का अनुरोध किया जिसका मैंने कभी अध्ययन नहीं किया था अतः मैंने असमर्थता प्रकट कर दी जिसके जवाब में उन्होंने कहा कि आपको पढ़ना कुछ नहीं है और क्या लिखा गया है उससे भी आपका कोई सरोकार नहीं है बल्कि छात्र द्वारा कितना लिखा गया है उसके अनुसार अंक देने हैं। अब लगभग 30 वर्ष के बाद एक समाचार पढ़ कर उस घटना की याद ताज़ा हो गई।
एक समाचार के अनुसार यू पी बोर्ड के द्वारा सम्पन्न कराई गई परीक्षाओं में परीक्षकों ने साइंस, अंग्रेज़ी तथा सामाजिक विज्ञान की 1 लाख 98 हज़ार कापियों पर बिना जांचे सेकिण्ड डिवीज़न के अंक दे दिये। 70 प्रतिशत और उस से अधिक अंक लाने वाले कुछ मेधावी छात्रों के द्वारा की गई आपत्तियों को ख़ारिज किये जाने पर जब न्यायालय में जाने की धमकी दी गई तब जाकर सुनवाई हुई और जांच में 411 परीक्षकों को दोषी पाया गया जिनके ख़िलाफ़ कार्रवाई किये जाने की प्रक्रिया चल रही है। इन अपराधियों को सज़ा, मिल पाएगी या नहीं अथवा मिलेगी तो कितनी मिलेगी, यह बात इस पर आधारित है कि सज़ा देने वाले अधिकारी भ्रष्ट हैं या नहीं और यदि भ्रष्ट हैं तो किस हद तक हैं।
इस से पहले चै. चरणसिंह विश्वविद्यालय द्वारा आयोजित परीक्षाओं की उत्तर पुस्तिकाओं के आंकलन सम्बन्धी अनियमितताओं के प्रति सरकार का उदासीनतापूर्ण व्यवहार उसके चरित्र और कर्तव्यबोध की सही तस्वीर पेश कर ही चुका है। जिन अध्यापकों को इम्तेहान की कापियां जांचने का कार्य सौंपा गया था, उनके द्वारा यह कार्य खुद न करके अपने नौकरों और छठी सातवीं क्लास में पढ़ने वाले बच्चों से करवाया गया। इस अपराध का पता चलते ही सरकार को सख्ती के साथ इन अपराधियों के खिलाफ़ कार्यवाही करनी चाहिए थी परन्तु ऐसा न होकर छात्रों को सरकार से अपने कर्तव्य का पालन करवाने के लिये धरना और प्रदर्शन का सहारा लेना पड़ा। यह कैसी विडम्बना है कि अपराध कितना संगीन है, यह इस बात से नापा जाता है कि अपराधियों के खिलाफ़ कार्यवाही करवाये जाने के लिये कितने बड़े स्तर पर प्रदर्शन हुए और कितनी जान माल की क्षति हुई।
यदि कापियां इसी प्रकार से जांची जाती हैं तो परीक्षओं का कोई औचित्य ही नहीं रह जाता है। इन हालात में सरकार को चाहिये कि अपराधियों के खिलाफ सख्त से सख्त कदम उठाने के लिये प्रशासन पर जोर डाले तथा प्रायश्चित् के तौर पर गत वर्षों में घटित उन मामलों की भी छानबीन कराये जिनमें परीक्षाओं में फेल होने के कारण छात्रों को आत्महत्या करने पर मजबूर होना पड़ा था। इस प्रकार से यदि गलत ढंग से कापियां जांची जाने के कारण फेल होने वाले किसी छात्र द्वारा की गई आत्महत्या का कोई मामला सामने आये तो इसके जिम्मेदार अध्यापकों के खिलाफ मुकदमा चलाकर सजा दिलवाई जाये।