Monday, May 31, 2010
इस्लाम के नाम पर सूदख़ोरी
इस्लाम धर्म में आस्था रखने वालों को ब्याज लेने और देने के लिए सख्ती के साथ मना किया गया है। एक हदीस में तो यहां तक फ़रमाया गया है कि ब्याज इतना बड़ा गुनाह है कि यदि उसके सत्तर भाग किये जाएं तो उनमें से सबसे हल्का भाग भी ऐसा है कि जैसे कोई व्यक्ति अपनी मां के साथ दुराचार करे। सामाजिक दृष्टिकोण से यदि देखा जाए तो ब्याज एक ऐसी लानत है जिसको अपनाने पर समाज में बहुत सी बुराइयां जन्म ले लेती हैं। जैसे कि ब्याज लेने वाले व्यक्ति को पैसे से इतना लगाव और लालच हो जाता है कि उसको यदि किसी की मदद करनी पड़ जाए तो वह यह सोचने लगता है कि इस धन को किसी को मदद में देने के बजाय अगर ब्याज पर उठा दिया जाए तो इसमें कुछ न कुछ इज़ाफ़ा ही होगा। दूसरी बात यह है कि अगर कोई व्यक्ति तंगहाली के दौर से गुज़र रहा हो और अपने बच्चों को फ़ाक़ों से बचाने के लिए भीख मांगने के बजाय कुछ रुपये उधार लेना चाहता है अथवा किसी व्यक्ति के घर में मौत हो जाए और यदि कफ़न दफ़न के लिए उसे धन की आवश्यकता हो तो ऐसी परिस्थिति में भी उधार दिये गए धन पर सूदख़ोर ज़ालिम सूद लेने से बाज़ नहीं आता। इस सब के नतीजे में एक ऐसे समाज का निर्माण होने लगता है कि जिसमें ग़रीब और ज़रूरतमंद लोगों को देखकर उनसे हमदर्दी का जज़्बा पैदा होने के बजाय सूदखोरों के चेहरों पर बिल्कुल इस प्रकार से चमक आ जाती है कि जैसे पैथोलोजिकल टैस्ट में से कमीशन खाने वाले डाक्टर के चेहरे पर मरीज़ को देखकर आती है अथवा किसी बेक़सूर व्यक्ति को अपराधी कहकर लॉकअप में डालने वाले रिश्वतखोर पुलिस मैन के चेहरे पर आती है या फिर भूकम्प आदि प्राकृतिक आपदा आने के बाद सरकारी सहायता को देखकर उन भ्रष्ट अधिकारियों के चेहरों पर आती है जिनको उस सहायता राशि को पीड़ितों तक पहुंचाने की ज़िम्मेदारी सौंपी जाती है। इसके साथ ही एक ख़ास बात और ध्यान देने योग्य यह है कि सूदख़ोर व्यक्ति छोटा महाजन है तथा बैंक बड़ा महाजन। और यदि दोनों का तुलनात्मक अध्ययन किया जाए तो आप देखेंगे कि महाजन तो कभी न कभी समाज के कुछ असरदार लोगों के कहने से परेशानहाल कर्जदार का ब्याज माफ़ भी कर देता है परन्तु बैंक के यहां माफी का कोई ख़ाना नहीं होता बल्कि जिस प्रकार से सामन्ती युग में ज़मींदार के लठैत ग़रीब किसान से लगान वसूल करके लाते थे उसी प्रकार से सरकार बैंकों को वसूलयाबी के साधन उपलब्ध करा देती है तथा ज़मींदार तो केवल अपना बक़ाया धन ही वसूल करता था और धन वसूलने में लठैतों पर किया गया ख़र्चा ख़ुद वहन करता था परन्तु सरकार वसूल करने का खर्चा भी बैंक से न लेकर ग़रीब कर्जदार से ही हासिल करती है चाहे उसके लिए उस व्यक्ति का वजूद ही खतरे में क्यो न पड़ जाए। इस्लामी व्यवस्था के अनुसार सूद, चाहे बैंक से लिया गया हो और चाहे किसी दूसरे साधन से, पूर्ण रूप से हराम है तथा सूद के लेने वाले और देने वाले दोनों बराबर के ज़िम्मेदार हैं। अफ़सोस की बात यह है कि मुसलमान सूद के दलदल में इस बुरी तरह से फंस गया है कि उससे बाहर निकलना मुश्किल नज़र आ रहा है। इससे भी ज़्यादा परेशानकुन बात यह है कि मुसलमान इस दलदल से निकलने की तदबीर करने के बजाय इस कोशिश में रहने लगा है कि सूद पर आधारित इस व्यवस्था को किसी न किसी प्रकार से शरीअत तसलीम कर ले। इसी लिए कभी सूद को मुनाफ़ा कहने की साज़िश करते हैं तो कभी बैंक के सूद को सूद की परिभाषा से अलग रखने की दलील तलाश करते नज़र आते हैं। सूद के बारे में कोई संदेह न रहे इसलिए स्पष्ट रूप से बता दिया गया है कि उधार दिये गए धन पर बढ़ा कर दिया गया ऐसा धन जिसका रेट पहले से तय कर दिया गया हो वह सूद कहलाता है। इसी प्रकार से क़र्ज़ के रूप में दिये गए धन में यदि वक़्त गुज़रने के साथ इज़ाफ़ा होता रहे तो वह सूद की श्रेणी में आता है। इसी के साथ एक बात और स्पष्ट रूप से समझ लेनी चाहिए कि जो लोग किसी के व्यवसाय में रुपया लगाकर केवल लाभ में हिस्सेदार बन कर मुनाफ़ा लेते हैं वह तब तक जायज़ नहीं माना जा सकता जब तक कि नुक़सान में भी हिस्सेदार न हों। उपरोक्त सभी बातों को ध्यान में रखते हुए जनता को सूदखोरों के चंगुल से सुरक्षित रखने के लिए कुछ मुस्लिम विद्वानों ने मुस्लिम फ़ण्ड के नाम से कुछ संस्थाओं का गठन किया था। इनकी कार्यशैली इस प्रकार से बनाई्र गई थी कि जो लोग सूद से बचना चाहें वह अपना रुपया इन संस्थाओं के द्वारा स्थापित बैंकों में जमा करें और अपनी जमा की गई रक़म में से जब और जितना चाहें धन निकाल लें। इस प्रकार से जो रक़म इनके पास जमा रहे उसमें से ज़रूरतमन्दों को उचित ज़मानत लेकर बिना किसी सूद के क़र्ज दे दें। इस तरह से ज़रूरतमन्दों की ज़रूरत पूरी हो जाएगी तथा रक़म भी सुरक्षित रहेगी। इस सबके बावजूद ऐसा प्रतीत होता है कि कुछ शैतानी प्रवृत्ति के लोगों ने अपने जीवन का उद्देश्य ही यह बनाया हुआ है कि हर उस गंदगी को किसी न किसी प्रकार से समाज में क़ायम रखेंगे जिसको इस्लामी शरीअत हराम क़रार देती है। अतः इन ’’शरीफ़ लोगों’’ नें इन संस्थाओं का दुरुपयोग करते हुए पूर्ण रूप से राह से भटका दिया है। और इस समय हालत यह है कि सरकारी बैंकों की कार्य प्रणाली जिस प्रकार सूद पर आधारित है उसी प्रकार से इन संस्थाओं के द्वारा क़ायमशुदा बैंकों को चलाया जा रहा है बस फ़र्क़ केवल इतना है कि सरकारी बैंक प्रत्यक्ष रूप से सूद का कारोबार करते हैं और यह बैंक इस्लाम के नाम पर सूद का कारोबार कर रहे हैं। सरकारी बैंकों और उपरोक्त मुस्लिम बैंकों में एक ख़ास फ़र्क यह भी है कि सरकारी बैंकों में जमा किये गए धन पर सूद दिया जाता है और उसको ज़रूरतमंदों को क़र्ज़ के रूप देकर उनसे सूद लिया जाता है परन्तु इन मुस्लिम बैंकों में जो धन जमा किया जाता है वह ज़्यादातर उन लोगों का होता है जो अपने माल को सूद की गंदगी से बचाना चाहते हैं अतः उनके इस जज़्बे के अन्तर्गत बग़ैर किसी सूद के जो धन जमा होता है उसका दुरुपयोग देखकर ऐसा प्रतीत होता है जैसे उस धन को जमा करने वालों से यह कहा जा रहा हो कि सूद जैसी हराम चीज़ को खाने वाले जब हम लोग मौजूद हैं तो फिर किसी और की क्या आवश्यकता है अतः तुम्हारे इस माल पर हम सूद खाएंगे और तुमको तुम्हारा रुपया जब चाहोगे वापस कर दिया जाएगा। उपरोक्त इदारों के द्वारा चलाए जा रहे बैंकों में जमा धन को क़र्ज़ के रूप में जब दिया जाता है तो प्रति सैकड़ा प्रति माह की दर से स्टाफ़ के खर्च के नाम पर सूद वसूल किया जाता है तथा बाक़ी धन को सरकारी बैंकों में जमा करके उस पर सूद हासिल किया जाता है। अब ग़ौर करने की बात यह है कि इस्लाम के नाम का सहारा लेकर सूद का धन्धा करना क्या ऐसा नहीं है कि जैसे हलाल गोश्त की दुकान पर सूअर का गोश्त बेचा जा रहा हो। अतः मुस्लिम धर्मगुरुओं को चाहिए कि इस मामले पर ग़ौर करें और अगर इन मुस्लिम इदारों के कारोबार को नाजायज़ पाएं तो इनको इस बात के लिए पाबन्द करें कि या तो इन इदारों के नाम में से मुस्लिम शब्द हटाएं या फिर सूद के काम को बन्द
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5 comments:
अच्छी पोस्ट
aapka prayas bahut hi achchha laga, aise hi likhte rahiye. kabhi hamare blog par visit kariye.
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MASHA ALLAH ! BAHUT KHOOB !! KHOOB SE KHOOB TAR KARE AAPKEE TAHREEL MAULAA !! AAMEEN !
MAUQA MILE TO HAMAAREE DEEN-DUNYA BHI DEKH AAYEN,
धर्म तो बहुत कुछ कहता है मित्र लेकिन आज कोई भई अपने धर्म का पालन नही कर रहा है । चाहे वह हिंदु हो या मुस्लिम चाहे इसाई कोई भी अपने धर्म पर नही चल रहा है । आज कई इमाम अपना पैसा ब्याज पर चला रहे है (मैं गलत नही हूँ) आपने भी कभी ना कभी लोन लिये होगे तो क्या ब्याज देना हराम नही है जनाब । है .. सब कुछ जायज है अगर हमारा दिल साफ हो और दुसरों के लिये मन में रहम हो ।
जिन्दा लोगों की तलाश! मर्जी आपकी, आग्रह हमारा!!
काले अंग्रेजों के विरुद्ध जारी संघर्ष को आगे बढाने के लिये, यह टिप्पणी प्रदर्शित होती रहे, आपका इतना सहयोग मिल सके तो भी कम नहीं होगा।
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उक्त शीर्षक पढकर अटपटा जरूर लग रहा होगा, लेकिन सच में इस देश को कुछ जिन्दा लोगों की तलाश है। सागर की तलाश में हम सिर्फ सिर्फ बूंद मात्र हैं, लेकिन सागर बूंद को नकार नहीं सकता। बूंद के बिना सागर को कोई फर्क नहीं पडता हो, लेकिन बूंद का सागर के बिना कोई अस्तित्व नहीं है।
आग्रह है कि बूंद से सागर में मिलन की दुरूह राह में आप सहित प्रत्येक संवेदनशील व्यक्ति का सहयोग जरूरी है। यदि यह टिप्पणी प्रदर्शित होगी तो निश्चय ही विचार की यात्रा में आप भी सारथी बन जायेंगे।
हम ऐसे कुछ जिन्दा लोगों की तलाश में हैं, जिनके दिल में भगत सिंह जैसा जज्बा तो हो, लेकिन इस जज्बे की आग से अपने आपको जलने से बचाने की समझ भी हो, क्योंकि जोश में भगत सिंह ने यही नासमझी की थी। जिसका दुःख आने वाली पीढियों को सदैव सताता रहेगा। गौरे अंग्रेजों के खिलाफ भगत सिंह, सुभाष चन्द्र बोस, असफाकउल्लाह खाँ, चन्द्र शेखर आजाद जैसे असंख्य आजादी के दीवानों की भांति अलख जगाने वाले समर्पित और जिन्दादिल लोगों की आज के काले अंग्रेजों के आतंक के खिलाफ बुद्धिमतापूर्ण तरीके से लडने हेतु तलाश है।
इस देश में कानून का संरक्षण प्राप्त गुण्डों का राज कायम हो चुका है। सरकार द्वारा देश का विकास एवं उत्थान करने व जवाबदेह प्रशासनिक ढांचा खडा करने के लिये, हमसे हजारों तरीकों से टेक्स वूसला जाता है, लेकिन राजनेताओं के साथ-साथ अफसरशाही ने इस देश को खोखला और लोकतन्त्र को पंगु बना दिया गया है।
अफसर, जिन्हें संविधान में लोक सेवक (जनता के नौकर) कहा गया है, हकीकत में जनता के स्वामी बन बैठे हैं। सरकारी धन को डकारना और जनता पर अत्याचार करना इन्होंने कानूनी अधिकार समझ लिया है। कुछ स्वार्थी लोग इनका साथ देकर देश की अस्सी प्रतिशत जनता का कदम-कदम पर शोषण एवं तिरस्कार कर रहे हैं।
अतः हमें समझना होगा कि आज देश में भूख, चोरी, डकैती, मिलावट, जासूसी, नक्सलवाद, कालाबाजारी, मंहगाई आदि जो कुछ भी गैर-कानूनी ताण्डव हो रहा है, उसका सबसे बडा कारण है, भ्रष्ट एवं बेलगाम अफसरशाही द्वारा सत्ता का मनमाना दुरुपयोग करके भी कानून के शिकंजे बच निकलना।
शहीद-ए-आजम भगत सिंह के आदर्शों को सामने रखकर 1993 में स्थापित-भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (बास)-के 17 राज्यों में सेवारत 4300 से अधिक रजिस्टर्ड आजीवन सदस्यों की ओर से दूसरा सवाल-
सरकारी कुर्सी पर बैठकर, भेदभाव, मनमानी, भ्रष्टाचार, अत्याचार, शोषण और गैर-कानूनी काम करने वाले लोक सेवकों को भारतीय दण्ड विधानों के तहत कठोर सजा नहीं मिलने के कारण आम व्यक्ति की प्रगति में रुकावट एवं देश की एकता, शान्ति, सम्प्रभुता और धर्म-निरपेक्षता को लगातार खतरा पैदा हो रहा है! हम हमारे इन नौकरों (लोक सेवकों) को यों हीं कब तक सहते रहेंगे?
जो भी व्यक्ति स्वेच्छा से इस जनान्दोलन से जुडना चाहें, उसका स्वागत है और निःशुल्क सदस्यता फार्म प्राप्ति हेतु लिखें :-
डॉ. पुरुषोत्तम मीणा, राष्ट्रीय अध्यक्ष
भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (बास)
राष्ट्रीय अध्यक्ष का कार्यालय
7, तँवर कॉलोनी, खातीपुरा रोड, जयपुर-302006 (राजस्थान)
फोन : 0141-2222225 (सायं : 7 से 8) मो. 098285-02666
E-mail : dr.purushottammeena@yahoo.in
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