1857 की क्रांति की विफलता के बाद अंग्रेज़ों ने जब दोबारा भारत में शासन की बागडोर संभाली तब शासन को मज़बूती प्रदान करने के लिए सरकार को एक ऐसे तन्त्र की ज़रूरत पेश आई जिस का जनता में भय व्याप्त हो। इसी नीति के तहत अंगे्रज़ी सरकार ने पुलिस तन्त्र कायम किया जिसका मक़सद केवल जनता के दिल में ख़ौफ़ पैदा करके हुकूमत करना था। सरकार की यह योजना कामयाब भी रही परन्तु पुलिस को सरकार ने निरंकुश होकर जनता पर अत्याचार करने की छूट फिर भी नहीं दी। जिसके नतीजे में न तो उस ज़माने की पुलिस कीे हिरासत में बेक़सूरों की मौत होती थीं, न फ़र्जी मुठभेड़ दिखाकर खुलेआम क़त्ल होते थे और न ही पुलिस थानों में महिलाओं से बलात्कार की घटनाएं होती थीं। आज 21वीं सदी में सभ्यता का ढिंढोरा पीटने वाली डांवाडोल सरकारों को इतनी फुर्सत ही नहीं है कि पुलिस द्वारा जनता पर किये जा रहे जु़ल्मों की ओर ध्यान दे सके। एक छोटा सा सुझाव यदि मान लिया जाये तो हो सकता है कि इसका शीघ्र ही अच्छा नतीजा सामने आये। सुझाव इस प्रकार है कि हर शहर और गांव में जनता की सेवा के लिए प्याऊ लगाई जाये जिसका प्रबन्ध केवल पुलिस विभाग करे तथा इसके नाम पर जनता से उगाही न हो यह सुनिश्चित कर लिया जाये। साथ ही ऐसा चक्र बनाया जाये कि माह में कम से कम एक बार प्रत्येक अधिकारी व कर्मचारी को जनता को पानी पिलाने की इस सेवा का सुअवसर प्राप्त हो सके। इस प्रकार के कार्यक्रम से सबसे बड़ा लाभ यह होगा कि पुलिस में सेवा भावना पैदा होगी, अहंकार पर अंकुश लगेगा तथा और भी यदि कुछ न हुआ तो कम से कम इसी बहाने कुछ पापों का तो प्रायश्चित हो ही जायेगा।
5 comments:
अच्छा मशवरा है पित्ता मारने वाला.
kabuleek@yahoo.com
आपको मशवरा पसंद आया धन्यवाद्.
अच्छा मशवरा है...
सहसपुरिया जी!
पुलिस के लोग हालांकि आम नागरिक ही होते हैं परन्तु पता नहीं क्या बात है कि भर्ती होने के बाद जनता को अपना ग़ुलाम समझने लगते हैं उसके लिए कुछ ऐसा करने कि आवश्यकता है कि उनमें सेवा भावना पैदा हो.
आप जगाते रहिये कभी तो शर्म आएगी
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