जागरूक बन्धुओं के अवलोकनार्थ कुछ तथ्य प्रतुत किये जा रहे हैं।
1. कक्षा सात में पढ़ने वाली मेरी बेटी ने जिज्ञासावश मुझसे एक सवाल किया कि क्या कारण है कि इतिहास में जब अकबर, शाहजहां, बहादुर शाह आदि किसी मुस्लिम राजा से सम्बन्धित कोई बात कहनी होती है तो इस प्रकार से कही जाती है कि अमुक राजा ऐसा था, ऐसे काम करता था आदि। और यदि शिवाजी, महाराणा प्रताप आदि हिन्दू राजाओं से सम्बन्धित कोई बात होती है तो सम्मानित भाषा का प्रयोग करते हुए इस प्रकार से लिखा जाता है कि वह ऐसे थे, ऐसे कार्य करते थे आदि। मैं बच्ची को जवाब से सन्तुष्ट नहीं कर सका क्योंकि मैं कैसे बतलाता कि लिखने के ढंग से ही जहां पक्षपात की गंध आ रही हो वहां सही तथ्यों पर आधारित इतिहास हमारे समक्ष प्रस्तुत किया गया होगा ऐसा नहीं प्रतीत होता।
2. न्यायपालिका की व्यवस्थानुसार किसी अदालत के द्वारा दिये गए फ़ैसले के ख़िलाफ़ उससे बड़ी अदालत में अपील करने हक़ दिया जाना इस बात को साबित करने के लिए काफ़ी है कि अदालत के फ़ैसले को स्वीकार न करना कोई जुर्म नहीं है। हो सकता है कि यह व्यवस्था जनता को अन्याय से बचाने के लिए रखी गई हो क्योंकि अक्सर ज़िले स्तर की अदालत के फ़ैसले को उच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालय द्वारा दिये गए फ़ैसले को सर्वोच्च न्यायालय बदल देता है। यदि संविधान निर्माताओं ने इससे ऊपर भी अपील की गुन्जाइश रखी होती तो बहुत सम्भव है कि सर्वोच्च न्यायालय के फ़ैसलों में से बहुत से फ़ैसले बदल दिये जाते।
3. न्यायालय प्रस्तुत किये गए साक्ष्यों के आधार पर फ़ैसले देता है लिहाज़ा न्याय, जुटाए गए साक्ष्यों पर, निर्भर होता है। इसका सीधा सा अर्थ यह हुआ कि न्याय साक्ष्य जुटाने वाले विभाग की क्षमता और निष्पक्षता पर आधारित हुआ। उदाहरणार्थ मई 2010 में मुज़फ्फ़रनगर में अजीत व अन्शु नामक प्रेमी-प्रेमिका घर से फ़रार हो गए। इसके बाद पुलिस ने अजीत के घरवालों से ज़बरदस्ती एक लाश की अजीत के रूप में शनाख़्त करा दी और प्रेमी युगल के क़त्ल के जुर्म में प्रेमिका के भाई अनुज को हिरासत में लेकर जुर्म स्वीकार करा लिया। क़त्ल का जुर्म स्वीकार कराने के बाद अनुज को जेल भेजे जाने की कार्रवाई चल ही रही थी कि प्रेमी युगल ज़िन्दा वापस आ गया अतः अनुज को रिहा करना पड़ा। सोचने की बात यह है कि यदि प्रेमी युगल ज़िन्दा वापस न आया होता तो अनुज को जुर्म स्वीकार करने के कारण क़त्ल के अपराध में सज़ा दिया जाना निश्चित था। यदि ऐसा हो गया होता तो अदालत के द्वारा साक्ष्यों के आधार पर सही न्याय किये जाने के बावजूद अन्याय हो जाता तथा इसके नतीजे में फांसी पर चढ़ाए गए बेक़सूर अनुज के सम्बन्धियों का क्या न्याययिक व्यवस्था पर भरोसा क़ायम रह सकता था?
4. फ़र्जी मुठभेड़ में पुलिस के द्वारा किसी को भी मार दिया जाना आजकल सामान्य सी घटना मात्र होकर रह गई है। ऐसे तथ्य भी प्रकाश में आए हैं कि किसी बेक़सूर को मारने के बाद उसको अपराधी साबित करने की प्रक्रिया शुरू होती है।
उपरोक्त तथ्यों के प्रकाश में बाबरी मस्जिद प्रकरण पर निष्पक्षता से ग़ौर करके देखें।
नं. 4 की तरह से क्या मस्जिद को गिराने के बाद उसकी वैधता के साक्ष्य जुटाया जाना हास्यास्पद सा प्रतीत नहीं होता है? चूंकि हमारे देश में प्राचीन काल से मूर्तिपूजा का चलन रहा है अतः किसी भी पुरानी आबादी वाले क्षेत्र में यदि खुदाई करके देखा जाए तो वहां बर्तन आदि आम इस्तेमाल की वस्तुओं के साथ मूर्तियों का निकलना अप्रत्याशित नहीं है।
नं. 1 के अनुसार इतिहास का पक्षपातपूर्ण होना भी कोई ताज्जुब की बात नहीं है।
नं. 3 की तरह से हमारे देश की कार्यपालिका असम्भव को सम्भव बना सकने में कितनी सक्षम है यह बात किसी से भी छिपी हुई नहीं है।
पिछली पोस्ट पर इस लेख के पहले भाग में जो बात कही गई थी उसका रुख़ मोड़कर साम्प्रदायिकता की ओर पहुंचा दिया गया तथा मुख्य भाव से हटकर नए सवालों में उलझा दिया गया। अतः बात को समाप्त करते हुए अन्त में बिना किसी भेदभाव के गौर करने हेतु कुछ बातें प्रस्तुत की जा रही हैं-
22@23 दिसम्बर 1949 की रात को मस्जिद में कुछ अराजक तत्वों के द्वारा चोरों की तरह से प्रशासन की छत्रछाया में मूर्ति रख दी गई।
29 दिसम्बर 1949 को मूर्ति बाहर निकालकर मस्जिद पाक करने के बजाय मस्जिद कुर्क कर ली गई और 5 जनवरी
1950 को मस्जिद की इमारत विवादित बनाकर रिसीवर को सौंप दी गई।
16 जनवरी 1950 को अयोध्यावासी गोपाल सिंह विशारद नामक व्यक्ति के अनुरोध पर सिविल कोर्ट ने नाजाइज़ तरीक़े से रखी गई मूर्ति की पूजा करने की अनुमति देकर न्याय का झण्डा बुलन्द कर दिया।
18 दिसम्बर 1961 को मुस्लिम पक्ष की तरफ़ से मस्जिद का क़ब्ज़ा दिलाए जाने का दावा दाख़िल किया गया।
6 दिसम्बर 1992 को ग़ुण्डागर्दी की इन्तेहा हो गई और मस्जिद को शहीद करके महान देश भारत का सर पूरी दुनिया के सामने शर्म से झुका दिया गया।
7 जनवरी 1993 को एक आर्डीनेन्स के द्वारा उच्च न्यायालय में चल रहे सभी मुक़दमों को निरस्त करके राष्ट्रपति की ओर से उच्चतम न्यायालय से इस सवाल का जवाब मांगा गया कि विवादित भवन के स्थान पर कोई दूसरा धार्मिक निर्माण था या नहीं।
दिसम्बर 1949 से लेकर अब तक के वाकै़आत पर निष्पक्षता से नज़र डालकर देखें तो भारत जैसे धर्मनिरपेक्ष देश में मुसलमानों की स्थिति का सही अन्दाज़ा हो जाएगा।
46 comments:
इस पर लोग कहते हैं की मुस्लमान क्योंकि अल्पसंख्यक हैं इसलिए उनको चुप रहकर बहुसंख्यकों की भावनाओं का ख्याल रखना चाहिए
सुरेश चिपलूनकर जैसे लोग खुलेआम मुसलमानों के खिलाफ बोलते हैं. और पता नहीं कौनसे अलत-गलत और कान फोडू जैसी अजीब से नामों वाले लोग खुले-आम इस्लाम के खिलाफ अपनी कुत्सित मानसिकता का परिचय देते हुए ज़हर उगलते हैं तो उनको हक बैठता है शरीफ साहब यह सब कहने का. मुसलमानों को उनका सम्मान करना चाहिए. क्योंकि वह बहुसंख्यक समुदाय के सदस्य हैं.
मुसलमान अगर सच को सच कहेंगे तो उनके खिलाफ क़ानूनी कार्यवाही की धमकी दी जाएगी. शायद अब यही इन्साफ है हिन्दुस्तान में?
शरीफ साहब आप भी पता नहीं किसे समझाने बैठ गए. यहाँ समझने की जगह गलियां और धमकियाँ देने आएँगे लोग आपको. आपको पता नहीं आपको यह सब लिखने का हक नहीं है क्योंकि आप अल्पसंख्यक हैं.
अभी कुछ दिन पहले ही बहुत से लोग मस्जिद से बहार सड़क पर नमाज़ पढने पर जोर-जोर से चिल्ला रहे थे. और पूरी ब्लॉग बिरादरी उसका समर्थन कर रही थी. आज उनके मुंह कांवड़ियों को देखकर भी बंद है और आप इन्साफ की बात करते हैं???
मुआफ कीजियेगा मैं केवल ब्लॉग पढता हूँ, कमेंट्स नहीं करता. लेकिन आज आपकी पोस्ट देखकर भावनाओं में बह कर सच्चाई को बयां कर बैठा. हर कमेन्ट के बाद नहीं सोच ने और लिखने पर मजबूर कर दिया.... आपको बुरा लगा हो मुआफ कर देना और कमेन्ट डिलीट कर देना.
यहाँ पक्षपात एक बड़ा रोग है पक्षपात आपको अधिकतर स्थानों पर नज़र आ जाएगा । आपकी सही पोस्ट पर भी लोग अपना पक्षपात पूर्ण रवैया ही जाहिर करेंगे और आपको गालियां देंगे यहाँ पर अपने आपको नास्तिक बताने वाले लोग भी यही रवैया रखते है और अपने हमनामो का ही साथ देते है
शरीफ खान साहब आप हिम्मत के साथ लिखते रहे
सरीफ भाई जी,
यदि आपके द्वारा दिए आधार पर विचार करें तो बाबरी मस्जिद के विषय में जो तथाकथित धांधली हुयी होगी, तो ठीक कुछ उसी तरह मुग़ल काल में भी संभवतः जरुर ही कि गयी होगी ये आशंका भी हम कदापि झुठला नहीं सकते.... कृपया इस लिंक http://janokti.blogspot.com/2010/05/blog-post_1183.html पर दिए तथ्यों पर भी निरपेक्ष होकर विचार करें.... हमारी तकलीफ ये है कि हम सांप निकाल जाने के बाद केवल लाठी भर भांजते रहते है..... जो कुछ होना था वो तो हो गया, (इसमें मुग़ल काल, अंग्रेजी शाषन एवं आजादी के बाद से अब तक सभी आयेंगे...) लेकिन क्या हम अपना भविष्य भी इसी तरह अधर में लटकाए रखें.....?
इस पर लोग कहते हैं की मुस्लमान क्योंकि अल्पसंख्यक हैं इसलिए उनको चुप रहकर बहुसंख्यकों की भावनाओं का ख्याल रखना चाहिए
क्या धार्मिक मसले हमारे सामाजिक मसलों से इतने अहम् हैं कि हम सामाजिक प्रगती एवं उससे जुड़े मुद्दों को ताक पर रख के केवल धर्मांध मुद्दों के पीछे ही भागते रहें... क्या कभी शिक्षा, बेरोजगारी, गरीबी, भुकमरी अराजकता, नैतिक मूल्यों के लिए कोई असरकार आन्दोलन इस देश में हुआ है??? या कभी हो पायेगा??? क्या कभी देश व्यापी स्तर पर कोई दंगा/विरोध प्रदर्शन इस लिए हुआ कि सरकार नागरिकों को सामान शिक्षा दे, गरीबी को जड़ से मिटाए, विकास करे???? हम केवल धर्मांध होकर आपस में लड़ते रहते है, आरोप प्रत्यारोप करते रहते है, परन्तु यह भूल जाते हैं कि प्रगती कैसे करें, तरक्की कैसे करें, साक्षरता स्तर कैसे बढ़ाएं, असामाजिक तत्वों को कैसे दबाएँ.... ये सब तो हम ये कह कर सह लेंगे कि हमारा बस इन पर नहीं है.... और धर्म का रोना रोते रहेंगे.... आखिर कब तक...
का हर धर्म हमें एक ही बात बताती है, और वो ये है कि मानव से प्रेम करो.... लेकिन हम धर्म के नाम पर ही दूरियाँ बढ़ाते चले जा रहे है...हिन्दुस्तान में हिन्दू-मुस्लिम-ईसाई-सिख के नाम पर वैमनस्य होता रहा है. तो वहीँ पाश्चात्य में ईसाई-यहूदी-इस्लाम एक दुसरे से टकराते रहे है| धर्म टकराव का नहीं अपितु प्रेम और आपसी सामंजस्य का प्रतिक हो ना चाहिए.... और ये बात सभी धर्मों के लोगों को बराबर रूप से समझना एवं अपनाना चाहिए... हम सभी इंसान के रूप में जन्में हैं, एवं हमारे रचयिता ने हमारे शरीर के मूलभूत ढाँचे में कोई भी प्रकार का भेदभाव नहीं रखा है.... कि हम ये बता सकें कि हिन्दू-मुस्लिम-ईसाई-सिख-यहूदी या किसी और सम्प्रदाय के लोगों के रक्त का रंग अलग-अलग है, या उनको कोई एक विशेष अंग-प्रत्यंग प्राप्त है|
ये ज़ाहीलियत का दौर है यहाँ इंसाफ़ की उम्मीद बेमानी है
जब ज़मीन हिला दी जाएगी जैसे उसे हिलाया जाना है (जब ज़मीन मे बड़े ज़ोर का ज़लज़ला आएगा , जब ज़मीन बड़े ज़ोर के ज़लज़लो मे होगी) क़ुरआन 99:1
क्यूंकि वे बहुसंख्यक ऐसे सोचते है की अल्पसंख्यक तो सिर्फ बहुसंख्यक के आगे दुम हिलाए !! जबकि इस्लाम में इस चीज़ का हल है, वहां सब बराबर है, सब ! क्या औरत क्या मर्द !! क्या अमीर क्या ग़रीब !!! और हाँ दुनियां में सबसे पहला धर्म है जिसने महिलाओं को इतना सम्मान दिया यहाँ तक की जायदाद में हिस्सा भी !!!
This is happening not only in India but the whole world. It is really amazing that In this world, created by God, many people can't tolerate the worship of that True and only God.
But everybody's every deed is well accounted in the record with God and he will treated accordingly in Parlok. Nobody can escape, Nobody.
शरीफ साहब, आदाब,
छोड़िये इन सब बातों को, नफरत तो बहुतों ने फैलाई है आइये हम कुछ भाईचारा बढ़ाने की बातें करें, कुछ गलत लोगों की करतूत के लिए सभी को ज़िम्मेदार ठहराना ठीक नहीं है, हम भाइयों की तरह रहे हैं (कुछ अपवादों को छोड़कर) ये विशाल ह्रदय भारत देश है, यहाँ सभी को रहने का हक है,आप खुद को अल्पसंख्यक ना समझें, ये कोई पाकिस्तान नहीं है!
जबकि इस्लाम में इस चीज़ का हल है, वहां सब बराबर है, सब ! क्या औरत क्या मर्द !! क्या अमीर क्या ग़रीब !!! और हाँ दुनियां में सबसे पहला धर्म है जिसने महिलाओं को इतना सम्मान दिया यहाँ तक की जायदाद में हिस्सा भी !!!
इस्लाम द्वारा महिलायों को दिया जाने वाला एक सम्मान ज़रा मैं भी बता दूं ,हर मुसलमान से शादी करने वाली औरत को जल्द ही उसकी सौतन भी उपहार स्वरूप प्रदान की जाती है और वो भी एक के साथ एक फ्री
बहुत अच्छा सम्मान है यह ,अगर यह सम्मान हर धर्म में दिया जाए तो सभी औरतों को बहुत खुशी होगी जब वे अपनी सौतनों को अपनी छाती पर पैर रखती हुई अपने ही घर में अपने जितना ही दर्ज़ा पाते हुए देखेंगे ,सच में बहुत अच्छा सम्मान देता है इस्लाम औरतों को
आपको यह सब लिखने का हक नहीं है क्योंकि आप अल्पसंख्यक हैं.
shrif bhaayi aapne shi or sch likh kr aayna dikhaya he lekin meraa maanna he ke is desh men kuch hen jo korv or raavn ki olaaden hen jo araajktaa felaate hen lekin zyaadaatr hen jo paandvon or raam ke vnshjon men se hen jo binaa bhedbhaav ke hmen ge lgaate hen . akhtar khan akela kota rajsthan
देवबंद के आलिम श्री रामचन्द्र जी और श्री कृष्ण जी का सम्मान करते हैं और कहते हैं कि हो सकता है कि वे अपने दौर के नबी रहे हों क्योंकि कुल 1,24,000 नबी हुए हैं। इसलाम में नबी का पद इनसानों में सबसे बड़ा होता है।
ईश्वर, धर्म और महापुरूषों ने सदा लोगों क्षमा,प्रेम और त्याग की तालीम दी है। उनके नाम पर लड़ना-लड़ाना खुद को मालिक की नज़र से गिराना है।
कोर्ट कुछ भी फ़ैसला दे या देश में आग लगाउ तत्व कुछ भी कहें, मुसलमान को यह देखना है कि वह शांति को कैसे क़ायम रखेगा क्योंकि शांति उसके धर्म ‘इसलाम‘ का पर्याय है, शांति भंग करना या उसे होते देखना स्वयं इसलाम पर चोट करना या होते देखना है, जिसे कोई मुसलमान कभी गवारा नहीं करता और न ही उसे करना चाहिये।
वक्त की ज़रूरत है शांति। शांति बनी रहे तो देश का बौद्धिक विकास मानव जाति को उस मक़ाम पर ले जाकर खड़ा कर देगा जहां वे सत्य का इन्कार न कर सकेंगे। बहुत से पाखण्ड तो हमारे देखते-देखते दम तोड़ भी चुके हैं और बाक़ी कुरीतियां अपने समय का इंतेज़ार कर रही हैं। मुसलमान भी सब्र करें और वे काम करें जो करने के काम हैं और उस पर फ़र्ज़ किये गये हैं।
इनमें सबसे पहला काम हरेक जुर्म और पाप से तौबा है, अपना सुधार निखार और विकास है , दूसरों के साथ भी वैसा ही व्यवहार करना है जैसा कि एक मुसलमान अपने लिये पसंद करता है। देश उनका दुश्मन नहीं है और न ही सारे देशवासी और थोड़ा बहुत उठापटख़ तो हर घर में चलती ही है, उसे हिकमत और सूझबूझ से सुलझाना चाहिये।
देश के प्रति अपनी ज़िम्मेदारियों को कोई समझे या न समझे मुसलमान को तो समझना ही चाहिये। श्री रामचन्द्र जी ने भी यही संदेश अपने आचरण से दिया है, उनके अच्छे आचरण को अपनाना उनके प्रति अपने अनुराग को प्रकट करने के लिये मैं सबसे उपयुक्त तरीक़ा मानता हूं।
हदीस पाक में आया भी है कि हिकमत मोमिन की मीरास है, जहां से भी मिले ले लो।
http://vedquran.blogspot.com/2010/08/i-like-ramchandra-ji-anwer-jamal.html
शरीफ जी, नमस्कार ...
एक सवाल है ... आप बाबरी मस्जिद मसले पर लगता है काफी खोज बिन किये होंगे, सोच विचार भी ...
विवादस्पद विषय है ... सच क्या है शायद ही कोई जानता है ... आप अपनी तरफ से तर्क रख सकते हैं ... कोई अपनी तरफ से कुछ और तर्क भी रख सकता है ...
पर एक बात पूछूं ?
इतना ही विचार, तर्क और समय मज़हब के लिए न करके ... कौम की उन्नति के लिए किया जाये तो क्या बहुत बड़ा गुनाह हो जायेगा या फिर आपके अल्लाह-ताला आपसे नाराज़ हो जायेंगे ...
या शायद आप के लिए ये सब ज़रूरी नहीं है !
एक मस्जिद बन गया और उसमे दस लोग नमाज पढ़ गए ... इससे कौम आगे बढ़ेगा या फिर ...
एक ऐसा स्कूल बन जाये जिसमें मुसलमान बच्चे आधुनिक शिक्षा ग्रहण कर सके, मदरसों में बैठकर केवल कुरान के आयतें (हाँ, जानता हूँ कि अब आप ये कहेंगे कि ये बहुत ज़रूरी है, और शायद मैं एक काफिर हूँ इसलिए आधुनिक शिक्षा को कुरान से ज्यादा महत्व देता हूँ) पढ़ने के वजाय ....
मेरी बात को आप चाहें तो ध्यान से पढ़ सकते हैं ... चाहे तो डिलीट कर सकते हैं ... जो उचित समझे ...
मैं हिंदू हूँ ... पर मैं एक भारतीय भी हूँ ... इसलिए कभी आपसे इस तरह का एक पोस्ट की उम्मीद रहेगी ...
अब ये तो आप पर है कि मज़हब बड़ी है या इंसानियत ...
शरीफ खान साहब आपकी बच्ची के मन में ऐसे प्रश्न उठाना स्वाभाविक हैं क्योंकि उसे सिखाया गया है कि उसका धर्म उसके राष्ट्र से ऊपर है.
अगर उसे बताया गया होता कि बाबर एक विदेशी आक्रमणकारी था जिसने अपनी क्रूरता और युद्ध के बेहतर तरीकों लो वजह से इस पवित्र धरा पर राज किया और यहाँ के मूल निवासियों कि श्रद्धा का अपमान किया और उसके वंशज भी ऐसी ही मानसिकता के तहत इस देश के लोगों को तंग करते थे तो शायद वो ऐसा प्रश्न नहीं करती पर उसे सिखाया गया है कि इस्लाम को मानने वाले सभी आक्रमण करी चाहे वो मोहम्मद गजनी हो चंगेज खान हो बाबर हो औरंगजेब हो या फिर आजकल भोपाल में आने वाले अरब हों सभी अच्छे लोग हैं.
मैं तो अपने बच्चों का सिखाता हूँ कि हमारा युसूफ पठन श्रीलंका के मुरलीधरन,न्यूजीलैंड के दीपक पटेल या इंग्लैंड के मोंटी पनेसर से अच्छा स्पिनर है.
अगर आप धर्म को राष्ट्र के ऊपर प्रमुखता देंगे और चाहेंगे कि पाकिस्तान के जिया उल हक, भुट्टो और मुशर्रफ़ को आदर के साथ उल्लेखित किया जाय तो बच्चे तो कन्फ्यूज होंगे ही जनाब.
नेपाली हिन्दू राजाओं ने हमारे उत्तराखंड पर आक्रमण किया और उसे बहुत दिनों तक कब्जे में रखा हम उनके लिए सम्मान कि बात नहीं करते आप भी ऐसा ही करे और अपने बच्चों को भी यही सिखाएं तभी इस देश का भला होगा.
वर्ना पाकिस्तान कि हालत हो आप से छुपी नहीं है. मुस्लिम राष्ट्र होने कि वजह से क्या दिन देख रहा है.
@ MLA - यहाँ आपने मेरा नाम लिया है, इसलिये मजबूरन टिप्पणी करनी पड़ी है। मुझे अब तक मेरे प्रश्न का स्पष्ट जवाब नहीं मिला है कि - क्या मन्दिर तोड़कर बनाई गई मस्जिद पाक होती है? क्या मन्दिर तोड़कर बनी हुई मस्जिद में नमाज़ पढ़ना चाहिये?
मुझे पता नहीं आप कहाँ के MLA हैं, लेकिन यदि आप मेरी टिप्पणियों अथवा पोस्ट में गालीगलौज का अंश दिखा दें तो मैं आपसे लिखित में माफ़ी माँग लूंगा…
शरीफ़ खान साहब बुज़ुर्ग हैं इसलिये मैं सीधे उनसे बहस करने से बच रहा हूं… गालियाँ देने का तो सवाल ही नहीं उठता। एक बार फ़िर कह रहा हूं, आप मुझे बतायें कि मैंने कब गालीगलौज की है या धमकी दी है?
हो सके तो विचारशून्य की बात पर विचार करके भी कोई जवाब दें कि - "धर्म बड़ा या राष्ट्र…"
@ विचार शून्य - भैंस के आगे बीन न बजायें प्लीज़…
@ VICHAAR SHOONYA
अगर उसे बताया गया होता कि बाबर एक विदेशी आक्रमणकारी था जिसने अपनी क्रूरता और युद्ध के बेहतर तरीकों लो वजह से इस पवित्र धरा पर राज किया और यहाँ के मूल निवासियों कि श्रद्धा का अपमान किया और उसके वंशज भी ऐसी ही मानसिकता के तहत इस देश के लोगों को तंग करते थे तो शायद वो ऐसा प्रश्न नहीं करती पर उसे सिखाया गया है कि इस्लाम को मानने वाले सभी आक्रमण करी चाहे वो मोहम्मद गजनी हो चंगेज खान हो बाबर हो औरंगजेब हो या फिर आजकल भोपाल में आने वाले अरब हों सभी अच्छे लोग हैं.
विचार शून्य जी आप कह रहे हैं कि मुसलमानों को अपने बच्चो को उपरोक्त बातें बतानी चाहिए.... अर्थात आप चाहते हैं कि जो झूटी बातें आप अपने बच्चो को बताते हैं वह ही मुसलमान भी अपने बच्चो को बताएं?
देखिये मैं मंदिर मस्जिद के नाम पर लोगो को आपस में लड़वाने वालों के पूरी तरह से खिलाफ हूँ, लेकिन आपकी तरह बे-सर पैर की बातें करने वालो के भी खिलाफ हूँ. यह तो आप भी जानते होंगे की हिन्दुस्तान में एक अलग सोच रखने वाले इतिहास को अपने हिसाब से लिखते आएं हैं. हालाँकि अधिकतर ने सही इतिहास को प्रमाणों के साथ लिखा भी है. लेकिन आपको वह झूठे नज़र आतें हैं. मैं मानता हूँ कि कुछ मुग़ल बादशाहों ने गलत कार्य किये, क्योंकि उस समय के बादशाह भी आम इंसान ही की तरह होते थे. उनमें भी अछि और बुरी बातें होती थी. लेकिन सब के सब सिरे से बुरे थे या सब के सब सिरे से अच्छे थे, यह धारणा ही हमारी दुश्मन है. और इसी धारणा के कारण भी दोनों समुदाय में कडवाहट के बीज बोएं जाते हैं.
मैं तो यथार्थ के धरातल पर सोचता हूँ कि अगर मुग़ल बादशाह क्रूर होते और हिन्दू विरोधी होते तो उनके पास ताकत भी थी, और (आपके कथन अनुसार) उन्होंने बुरे कार्य भी किए, तो फिर कैसे हिन्दू समाज इस धरती पर रह गया? और केवल रह ही नहीं गया बल्कि बहुसंख्यक है? पुरे भारत में एतेहासिक धरोहरों में हजारों हिन्दू मंदिर और इमारतों का होना उस समय की इन्साफ की नीति को चिल्ला चिल्ला कर बयां कर रही है.
वैसे आपकी जानकारी के लिए बता दूँ कि चंगेज़ खान मुसलमान नहीं था, बल्कि इंसानियत का सबसे बड़े दुश्मन चंगेज़ खान ने ही मुस्लमान देशों में सबसे अधिक खूनखराबा किया और उनको गुलाम बनाया था.
@ Suresh Chiplunkar
मुझे अब तक मेरे प्रश्न का स्पष्ट जवाब नहीं मिला है कि - क्या मन्दिर तोड़कर बनाई गई मस्जिद पाक होती है? क्या मन्दिर तोड़कर बनी हुई मस्जिद में नमाज़ पढ़ना चाहिये?
सुरेश जी आपके प्रश्न का जवाब तो शरीफ जी ने पहले ही आपनी पहली ही पोस्ट में लिख दिया था, जो कि सत्य भी है. किसी भी मंदिर को तोड़कर बने गई मस्जिद कभी भी पाक नहीं हो सकती है और ऐसी मस्जिद में जान बूझ कर नमाज़ नहीं पढ़ी जा सकती है (अनजाने में पढ़ी गई नमाज़ की बात अलग है). मस्जिद केवल किसी मुस्लमान के द्वारा खरीदी गई अथवा सरकार दे द्वारा दी गई ज़मीन पर ही बन सकती है.
@ इन्द्रनील और @ निलेश माथुर -
आप अनवर साहब की इस बात पर गौर फ़रमाएं… "हो सकता है कि वे अपने दौर के नबी रहे हों क्योंकि कुल 1,24,000 नबी हुए हैं…"
कुछ समझ में आया?
अब राम और कृष्ण को भी "नबी" बताने की साजिश शुरु हो चुकी है, ठीक उसी प्रकार जैसे मात्र 1400 साल पहले पैदा हुए धर्म को सदियों पुराना बताने के लिये जद्दोजहद शुरु की गई है…। हालांकि इससे कोई खास फ़र्क नहीं पड़ने वाला है क्योंकि नालायक से नालायक और मूढ़मति व्यक्ति भी जानता है कि इस्लाम और ईसाईयत का जन्म अभी-अभी हुआ है, जबकि सनातन और वैदिक धर्म असल में सबसे प्राचीन है…।
आप दोनों को इसलिये बताया ताकि कहीं आप "सेकुलर" और "पोलिटिकली करेक्ट" होने के चक्कर में इन चिकनी-चुपड़ी (लेकिन बकवास) बातों में फ़ँस न जायें… क्योंकि कुत्सित प्रचार लगातार जारी है। कारण एक ही है, कि हिन्दू कभी नहीं कहता कि "मेरी किताब सर्वश्रेष्ट है…", "मेरे धर्म में आ जाओ…", "मेरे भगवान अन्तिम हैं…" इत्यादि-इत्यादि। यह फ़िकरे आपने अक्सर इस्लाम और ईसाईयत के प्रचारकों से ही सुने होंगे…। ईसाई भी अपनी बाइबल, अपने जीसस को ही सर्वश्रेष्ठ और अन्तिम मानते हैं… और जिस प्रकार से ईसाईयों ने आदिवासी इलाकों में चर्च को मन्दिर का रुप दिया है और पादरियों को भगवा कपड़े पहनाकर अशिक्षितों को बेवकूफ़ बनाने का खेल सफ़लतापूर्वक रचा है, अब इस्लाम वाले भी राम और कृष्ण को "नबी" बताने, वेद और कुरान को "एक जैसा" बताने, इस्लाम को सदियों पुराना धर्म बताने जैसे कामों में लग गये हैं…
सावधान करना मेरा फ़र्ज़ था, और इस टिप्पणी का स्क्रीन शॉट सुरक्षित रखना जवाबदारी… :) :)
@ शाहनवाज़ जी -
1) यानी कि आपके अनुसार, वर्तमान में इस प्रकार की जितनी मस्जिदों में नमाज़ पढ़ी जा रही है, वह गलत है।
2) यानी कि कम से कम आपने माना तो सही, कि प्राचीनकाल में मन्दिर तोड़े गये थे (वर्तमान में तो कश्मीर में भी तोड़े गये हैं, सरकारी आँकड़ा 800 मन्दिरों का है)
3) ऐसी मस्जिदों में नमाज़ न पढ़ी जाये और उन्हें हिन्दुओं के हवाले कर दिया जाए, इसके लिये आप जैसे उदारवादी मुस्लिम क्या कदम उठा रहे हैं? (ऐसी मस्जिदों की लिस्ट मैं आपको दे सकता हूं)
4) आपने कहा कि मुगल बादशाहों से "कुछ"(?) गलतियाँ हुई होंगी, तो उन "गलतियों"(?) को सुधारने के पहले कदम के रुप में बाबरी ढाँचे की जगह राम मन्दिर बनवाने के लिये मुस्लिम लोग प्रयास क्यों नहीं करते?
जिस प्रकार दलितों के प्रति इतिहास में की गई गलतियों को सुधारने के लिये "आरक्षण" का प्रावधान किया गया है, क्यों न उसी प्रकार मुगलों द्वारा की गई गलतियों को सुधारने के लिये सरकारें एक अभियान चलाये और उसमें उदारवादी मुस्लिम अपना सहयोग दें… फ़िलहाल कश्मीर छोड़कर बाकी राज्यों में तो ऐसा किया ही जा सकता है…।
लेकिन फ़िर आपके भाई लोग कहेंगे कि "यह सबूत विश्वसनीय नहीं है…", "यह फ़ोटो गढ़ी गई है…", "यह दस्तावेज़ फ़र्जी है…" आदि, तब क्या होगा?
सुरेश जी,
इन्साफ का तकाजा तो यही कहता है कि किसी भी इलज़ाम का साबित होना ज़रूरी है. मैं बिलकुल इसका हामी हूँ कि जहाँ भी साबित हो रहा है मंदिर को तोड़कर मस्जिद बनाई गई है तो अवश्य ही उस जगह को वापिस किया जाना चाहिए. इस्लाम इस तरह के किसी भी कार्य की इजाज़त बिलकुल भी नहीं देता है. इसलिए अगर आप इन्साफ के दायरे में कोई ऐसा कदम उठाते हैं तो मैं आपके साथ हूँ.
रही बात बाबरी मस्जिद की, तो उसके लिए भी मेरा वाही मत है जो ऊपर लिखा. अगर यह साबित होता है कि वहां पहले मंदिर था तो अवश्य ही वह जगह हिन्दुओं को दे दी जानी चाहिए. और अगर वहां मंदिर नहीं था तो वह जगह मुसलमानों को दी जानी चाहिए. इन्साफ यही कहता है, और कोई भी नाइंसाफी करने वाला धर्म सच्चा नहीं होता है.
शरीफ जी,
आपके बहुत से पोस्ट पढ़े ...
साफ़ है कि विवादस्पद विषयों पर लिखते हैं ... खास कर ऐसी बातों पर जो आपके मज़हब से जुडी हुई है ... या शायद ज़बरदस्ती मज़हबी जामा पहनाया गया है ...
एक पोस्ट क्या ऐसा भी लिखा जा सकता है ... कि अब मुसलमान समाज में मज़हबी बातों के अलावा भी कुछ और बातें जैसे कि ... आधुनिक शिक्षा, विज्ञानं कि बातें, सामाजिक भाईचारे कि बातें ... इनपर तवज्जो दी जाये ... क्या इस पहल की उम्मीद हम आपसे कर सकते हैं ...
विवादस्पद बातों को लिखकर ब्लॉग को आसानी से लोकप्रिय बनाया जा सकता है ... पर असली मुद्दे कहीं खो न जाये ...
आप बुज़ुर्ग हैं ... आलिम हैं ... आपसे कुछ ज्यादा उम्मीद है ..
@Suresh Chiplunkar jee!!!
ईसा पूर्व 1000-800 के ग्रंथ अथर्ववेद (10.2.31-33) में अयोध्या का सबसे पहला उल्लेख मिलता है और वह भी एक काल्पनिक नगर के रूप में. इसे देवताओं की नगरी के रूप में चित्रित किया गया है, जो आठ चक्रों से घिरी है और नौ प्रवेश द्वारों से सज्जित है, जो सभी ओर से प्रकाश में घिरे हैं. संयुत्त निकाय (नालंदा संस्करण, खंड-3, पृष्ठ-358, खंड-4,पृष्ठ-162) में, जो लगभग ईसा पूर्व 300 का पालि ग्रंथ है, अयोध्या को गंगा नदी के कि नारे बसा हुआ दरसाया गया है, जिसका फैजाबाद जिले में सरयु नदी के किनारे बसी अयोध्या से कुछ भी लेना-देना नही है. आरंभिक पालि ग्रंथ इस विचार का समर्थन नहीं करते कि गंगा शब्द का इस्तेमाल सरयू सहित सभी नदियों के लिए आम अर्थ में किया गया है. वे मही (गंडक ) और नेरजरा (फल्गू) नदियों सहित, जिनके किनारों पर बुद्ध ने पर्यटन किया था, बहुत-सी नदियों का विशेष रूप से उल्लेख करते हैं. इनमें सरभू अथवा सरयू का भी उल्लेख है, पर एक ऐसे संदर्भ में, जिसका अयोध्या से कुछ भी लेना-देना नहीं. वाल्मीकि रामायण के आधार पर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के अतिरिक्त महानिदेशक, मुनीशचंद्र जोशी ने अयोध्या को सरयू से कुछ दूरी पर ढूंढ़ निकाला. वाल्मीकि रामायण का उत्तरकांड ईसा की आरंभिक सदियों में रचा गया है. उसके अनुसार अयोध्या सरयू से अध्यर्घ योजना दूर है. यह सस्कृंत अभिव्यित बालकांड (22.11) में भी मिलती है और टीकाकारों के मुताबिक इसका अर्थ है 6 कोस अथवा 12 मील. वे इसका अर्थ डेढ़ योजन लगाते हैं. इससे पुन: उलझन उठ खड़ी होती है क्योंकि वर्तमान अयोध्या तो सरयू तट पर स्थित है. यह नदी पूर्व की ओर बहती है तथा बलिया और सारन जिलों में इसे पूर्वी बहाव को घाघरा कहते हैं. सारन जिले में जाकर यह गंगा में मिल जाती है. सरयू अपना मार्ग बदलती चलती है. जिसकी वजह से कुछ विद्वान बलिया जिले के खैराडीह इलाके को अयोध्या मानना चाहते हैं. सातवीं शताब्दी के चीनी यात्री ह्वेनसांग द्वारा अयोध्या की अवस्थिति के संबंध में प्रस्तुत साक्ष्य से भी कठिनाइयां उठ खड़ी होती हैं. उनके अनुसार अयोध्या कन्नौज के पूर्व दक्षिणपूर्व की ओर 600 ली (लगभग 192 किलोमीटर) दूर पड़ती थी और गंगा के दक्षिण की ओर लगभग डेढ़ किमी की दूरी पर स्थित थी. अयोध्या को लगभग गंगा पर स्थित बता कर चीनी यात्री संभवत: उसकी अवस्थिति के बारे में आरंभिक बौद्ध परंपरा की ही पुष्टि करते हैं.
रामकथा को हिंदी भाषा क्षेत्र में हालांकि रामचरितमानस ने लोकप्रिय बनाया, तथापि अवधी भाषा का यह महाकाव्य वाल्मीकि के संस्कृत महाकाव्य रामायण पर आधारित है. मूल राम महाकाव्य कोई समरूप रचना नहीं है. मूल रूप से इसमें 6,000 श्लोक थे, जिन्हें बाद से बढ़ा कर 12,000 और अंतत: 24,000 कर दिया गया. विषयवस्तु के आधार पर इस ग्रंथ के आलोचनात्मक अध्ययन से पता चलता है कि यह चार अवस्थाओं से होकर गुजरा था. इसकी अंतिम अवस्था 12वीं शताब्दी के आसपास की बतायी जाती है और सबसे आरंभिक अवस्था ईपू 400 के आसपास की हो सकती है. किंतु यह महाकाव्य इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि यह वर्ग विभक्त, पितृसतात्मक और राज्यसत्ता आधारित समाज के व्यवस्थित कार्यचालन के लिए कतिपय आदर्श निर्धारित करता है. यह शिक्षा देता है कि पूत्र को पिता की, छोटे भाई को बड़े भाई की और पत्नी को पति की आज्ञा का पालन करना चाहिए. यह इस बात पर बल देता है कि विभिन्न वर्णों के लिए जो कर्तव्य निर्धारित किये गये हैं, उन्हें उनका पालन अवश्य करना चाहिए और वर्ण-जाति संबंधी कर्तव्यों से भटक जानेवालों को जब भी जरूरी हो निर्मम दंड दिया जाना चाहिए और अंत में यह राजा सहित सभी को आदेशि करता है कि धर्म के जो आदर्श राज्य, वर्ण और परिवार के अस्तित्व को बनाये रखने के लिए निर्दिष्ट किये गये हैं, उन्हीं के अनुसार चलें. विभीषण अपने कुल, जो गोत्र आधारित समाज के सदस्यों को एक साथ बांधे रखने के लिए सर्वाधिक आवश्यक था, के प्रति निष्ठा की बलि देकर भी धर्म नाम की विचारधारा में शामिल हुआ. वाल्मीकि द्वारा निर्दिष्ट सामाजिक और सांस्कृतिक मानदंड जैन, बौद्ध और अन्य ब्राह्मण महाकाव्यों और लोक कथाओं में भी दृष्टिगोचर होते हैं, महाकाव्य और लोक कथाएं भारत के सामाजिक और सांस्कृतिक इतिहास में मानदंडों, अवस्थाओं और प्रक्रियाओं को समझने के लिए निश्चय ही महत्वपूर्ण हैं, पर उनमें उल्लिखित कुछ ही राजाओं व अन्य महान विभूतियों की ऐतिहासिकता को पुरातत्व, शिलालेखों, प्रतिमाओं और अन्य स्त्रोतों के आधार पर सत्यापित किया जा सकता है. दुर्भाग्य से हमारे पास इस तरह का कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है, जो ईसा पूर्व 2000 से ईसा पूर्व 1800 के बीच एक ऐसी अवधि, जिसे पुराणों की परंपरा पर काम करनेवाले कुछ विद्वानों ने राम का काल बताया है, अयोध्या में राम की ऐतिहासिकता को सिद्ध कर सके.
सलीम की दोनो टिप्पणियों का इस पोस्ट से कोई सम्बन्ध ही नहीं है… यहाँ बहस इस बात पर नहीं हो रही कि अयोध्या कहाँ है, कैसी थी, कब बनी… या कि राम का जन्म कब हुआ आदि… इसलिये उक्त दोनों टिप्पणियों पर कोई कमेण्ट नहीं…
@ शाहनवाज़ जी - आपने कहा "इन्साफ का तकाजा तो यही कहता है कि किसी भी इलज़ाम का साबित होना ज़रूरी है. मैं बिलकुल इसका हामी हूँ कि जहाँ भी साबित हो रहा है मंदिर को तोड़कर मस्जिद बनाई गई है तो अवश्य ही उस जगह को वापिस किया जाना चाहिए.।"
प्राचीन मस्जिदों के लिये तो मुस्लिम कभी मानेंगे ही नहीं कि यह मन्दिर तोड़कर बनाई गई है, इसलिये चलिये कश्मीर से ही शुरु कीजिये, क्योंकि अब तो "सेकुलर"(?) सरकार भी मान चुकी कि वहाँ 800 से अधिक मन्दिर तोड़े गये हैं…। आप बतायें कि कश्मीर के मन्दिरों के पुनरुद्धार के लिये उदारवादी मुस्लिम क्या कर रहे हैं?
सुरेश जी,
जहाँ तक मेरी विचार है कश्मीरी पूरी तरह से पाकिस्तान के चंगुल में हैं और पाकिस्तानियों की तरह ही व्यवहार करते हैं. और पाकिस्तानी राष्ट्रवाद का दम भरने वालो से मेरे विचार कभी मिलते ही नहीं हैं. क्यों नहीं आप दिल्ली या आस-पास से शुरुआत करते हैं? मैं तो दिल्ली में रहता हूँ, और मसरूफियत के कारण कहीं और जाना थोडा मुश्किल लगता है......
वैसे पंजाब में कुछ गुरुद्वारों को तो मैंने खुद भी देखा जो पहले मस्जिदें थी. संगरूर का एक गुरुद्वारा तो बहुत बड़ा है. वहीँ कुछ मस्जिदों में भैंस, घोड़े इत्यादि बंधे हुए हैं. हजारों मस्जिदों में लोग रह रहे हैं.
ख़ैर शिकवा छोड़िये यह बताइये कि यह पोस्ट कैसी लगी । इसके बाद इस पोस्ट पर भी अपने विचार दें तो अच्छा लगेगा। http://mankiduniya.blogspot.com/2010/08/tolerance-in-india-anwer-jamal.html
मेरे कुछ भी लिखने का मकसद किसी की भावनाओं को ठेस पहुंचाना अथवा उसके द्वारा परस्पर वैमनस्य का बीज बोना न होकर बाबरी मस्जिद प्रकरण से सम्बंधित मन में उठ रही शंकाओं को बुद्धिजीवी वर्ग की ब्लोगर बिरादरी के सम्मुख रखना था. परन्तु दोनों पोस्टों में मूल भाव से हटकर दूसरी बातों में उलझा दिया गया.मेरे द्वारा दिए गए तथ्यों के प्रकाश में यदि इस पूरे प्रकरण को देखा गया होता तो बात स्पष्ट हो जाती. इन तथ्यों का अवलोकन करके देखें-
राष्ट्रपति की ओर से उच्चतम न्यायालय से इस सवाल का जवाब मांगा गया कि विवादित भवन के स्थान पर कोई दूसरा धार्मिक निर्माण था या नहीं।
क्या मस्जिद को गिराने के बाद उसकी वैधता के साक्ष्य जुटाया जाना हास्यास्पद सा प्रतीत नहीं होता है? चूंकि हमारे देश में प्राचीन काल से मूर्तिपूजा का चलन रहा है अतः किसी भी पुरानी आबादी वाले क्षेत्र में यदि खुदाई करके देखा जाए तो वहां बर्तन आदि आम इस्तेमाल की वस्तुओं के साथ मूर्तियों का निकलना अप्रत्याशित नहीं है।
आज नई मस्जिद बनाना बहुत कठिन है जबकि उसकी ज़मीन पूरी तरह से जाइज़ होती है जबकि मंदिर पुलिस चौकी में या सार्वजनिक पार्क तक में सरलता से बना दिया जाता है. उसकी वैधता को प्रमाणित नहीं किया जा सकता परन्तु मुसलमानों को इस पर कभी आपत्ति नहीं होती.
Indranil Bhattacharjee sahib assalamualaikum!
आप यह मत कहियेगा कि नमस्कार का जवाब सलाम से क्यों दिया. यह इसलिए कि जो मैंने कहा उसका अर्थ है, ''तुम पर सलामती हो.'' किसी से मिलने पर मुसलमान यह दुआ किया करते हैं. इस्लाम एक सम्पूर्ण जीवन पद्धति है. इस्लामी हुकूमत में गैरमुस्लिमों के अधिकारों कि सुरक्षा की गारंटी दी जाती है. भारत में इस्लामी हुकूमत न होकर मुसलमानों की हुकूमत रही. गांधीजी इस्लामी और ग़ैर इस्लामी शासन के अंतर को समझते थे इसीलिये भारत की स्वतंत्रता के बाद उनहोंने फ़रमाया था की, ''मैं देश में ऐसी शासन व्यवस्था चाहता हूँ जैसी हज़रत उमर की थी. पक्षपात और नफ़रत की भावना को अलग रखकर इस्लाम के बारे में जान लिया गया तो स्वतंत्रता पूर्वक सोचने की क्षमता पैदा हो जाएगी.
nilesh mathur साहब, आदाब,
छोड़िये इन सब बातों को, नफरत तो बहुतों ने फैलाई है आइये हम कुछ भाईचारा बढ़ाने की बातें करें, कुछ गलत लोगों की करतूत के लिए सभी को ज़िम्मेदार ठहराना ठीक नहीं है, हम भाइयों की तरह रहे हैं (कुछ अपवादों को छोड़कर) ये विशाल ह्रदय भारत देश है, यहाँ सभी को रहने का हक है
Dinesh Saroj said...
यदि आपके द्वारा दिए आधार पर विचार करें तो बाबरी मस्जिद के विषय में जो तथाकथित धांधली हुयी होगी, तो ठीक कुछ उसी तरह मुग़ल काल में भी संभवतः जरुर ही कि गयी होगी ये आशंका भी हम कदापि झुठला नहीं सकते
जनाबेआली अगर धांधलियों को खंगालना है तो उसके लिए वर्तमान समय से देखते चलें तो आसानी होगी. पहले ताज़ा धांधली को लेते हैं. बाबरी मस्जिद को लें जो सबके सामने गिरा दी गयी. अब यदि कुछ इन्साफ करना ही है तो पहले उसको उसकी जगह बनवा दी जाये उसके बाद जब कभी यह अवैध साबित हो जाये तो उसके अनुसार अमल किया जाये.
जो लोग मस्जिद को गिराने के ज़िम्मेदार हैं उनमें से बहुत से लोगों को पूरा देश जानता है. वीडियो आदि में सबूत क़ैद हैं. उनको १८ साल में भी सजा न मिल सकी जबकि वो ही लोग उस घटना के बाद की वारदात के अदालत के द्वारा ज़िम्मेदार माने गए अपराधियों को फांसी दिलवाने की कोशिश में रात दिन एक किये हुए हैं.
Hate propagators demolished Babri Masjid because they are in power.
शरीफ खान भाईजी,
बाबरी का मसला तो देश के सर्वोच्चतम न्यायलय में इन्साफ की गुहार लगाये दिन गिन रहा है की कब न्याय हो, वो चाहे जो भी हो.... हम इसी उम्मीद पर हैं की सर्वोच्च न्यायलय किसी के भी साथ नाइंसाफी ना होने दे... जिस मामले की पड़ताल एवं सुनवाई सर्वोच्च न्यायलय के अधीन हो उसे विवादों के घेरे में बनाये रखने का क्या आशय है.... क्यों न हम इस मुद्दे को माननीय न्यायलय के विवेक पर छोड़ कर कुछ समाज के विकास एवं सौहार्द की बातें करे और एक दुसरे के सहयोगी बनें, न की विरोधी....
मुगलकाल में जो भी सही-गलत हुआ हो, वो तो आज की तारीख में किसी भी अदालत में इन्साफ की गुहार भी नहीं लगा सकता, हम केवल ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर चर्चा-विमर्स भर ही कर सकते हैं....
एक देश की गरिमा समाज, व्यक्ति, धर्म, जाती, भाषा एवं वेश-भूषा से कहीं ऊपर होता है और प्रत्येक नागरिक को सर्वप्रथम देश हित के बारे में ही सोचना और करना चाहिए .... भारतीय संस्कृति यही रही है इसी लिए इस देश में कितने ही शाशक आए-गए लेकिन इस देश के लोगों ने सभी को स्वीकार किया और जब किसी ने अत्याचार किया तो देश के लोगों ने बहिस्कार भी किया....
बात यदि हिन्दू-मुस्लिम या इस्लाम-हिंदुत्व में परस्पर विरोधाभास की है तो.... शिवाजी महाराज के कई सिपहसालार मुस्लिम कदापि नहीं बनते.... वैसे ही मुगलों के दरबारियों में कोई हिन्दू राजा नहीं होते.... हिन्दुस्तान की हर एक आम जनता को यह बात समझनी चाहिए और आपसी सौहार्द्य बनाए रखते हुए वैमानास्यकारियों के इरादों को विफल करते रहना होगा.... धर्मांध लोगों का कोई भी धर्म नहीं होता...
Dinesh Saroj ji!
आपकी बात बहुत अच्छी है. काश ऐसी सोच के लोग हमारे देश में हों और मस्जिद पर से अपना दावा छोड़कर हिन्दू-मुस्लिम भाईचारे को मज़बूत करने की मिसाल क़ायम करें.
शरीफ खान भाईजी,
तो आइये क्यों ना हम और आप ही इसकी पहल करें.... बाकी भी शायद जुड़ने लगें....
अब विवादित मशलों पर चर्चा ना छेड़, आवाम के भलाई एवं देश के उत्थान से जुड़े मशलों एवं मुद्दों पर ही चर्चा चलायें...
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