इन तथ्यों का अवलोकन करने का कष्ट करें-
सत्तरहवीं शताब्दी में मुम्बई पर पुर्तगालियों का शासन था। 1662 ई० में जब पुर्तगाल की राजकुमारी केथरीन का विवाह इंग्लैण्ड के राजा चालर्स द्वितीय के साथ हुआ तो मुम्बई पुर्तगालियों के द्वारा अंगरेज़ों को दहेज़ में दे दी गई तथा 1668 में 10 पाउण्ड सोना वार्षिक पर ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने अंगरेज़ सरकार से लीज़ पर ले ली।
30 मार्च 1867 को रूस ने 586000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल का अलास्का प्रदेश अमेरिका को 72 लाख डालर में बेचा था।
इसी प्रकार से हांकांग शहर अंगरेज़ों को 9 जून 1898 को चीन द्वारा 99 वर्ष के लिए लीज़ पर दिया गया था।
यह सब बयान करने का मक़सद इतिहास पढ़ना नहीं है बल्कि यह बतलाना है कि राजशाही में राज्य की समस्त भूमि का मालिक राजा होता था तथा उसको इस बात का पूरा अधिकार होता था कि वह जितना क्षेत्र जब चाहे और जिसको चाहे दे सकता था। मुम्बई की तरह दहेज़ मे दे सकता था, अलास्का की तरह बेच सकता था तथा हांगकांग की तरह पट्टे पर दे रकता था। यह क़ानूनन अगर नाजाइज़ होता तो मुबई को पुर्तगाली वापस ले लेते, अलास्का पर रूस दावेदार होता और हांगकांग 99 वर्ष पूरे होने पर चीन को वापस न मिलता।
हमारे देश में मुग़लों के शासन काल में भूमि से सम्बन्धित जो भी फ़ैसले लिये गए उनको बदलने का औचित्य समझ में नहीं आता। मुग़ल बादशाहों ने मन्दिर भी बनवाए, मन्दिरों के रख रखाव के लिए जायदादें भी दीं, जिनके आज भी मन्दिर मालिक हैं। बाबरी मस्जिद भी मन्दिरों की तरह से, उन धर्मस्थलों में से एक है, जिनका निर्माण मुग़लों के द्वारा कराया गया था।
इन सारे तथ्यों के आधार पर बाबरी मस्जिद को अवैध कहना अन्याय के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। इसके अलावा एक बात यह भी है कि मस्जिद बनाने के लिए भूमि का जाइज़ होना आवश्यक है अतः मस्जिद के लिए भूमि की उपलब्धता इतनी आसान नहीं होती जितनी कि मन्दिर के लिए। क्योंकि मन्दिर तो कहीं भी बनाया जाना सम्भव है चाहे वह पुलिस थाना हो या सार्वजनिक पार्क अथवा किसी से छीनी गई गई भूमि हो।
18 comments:
आप यह कहना चाहते है कि मुगलों ने मन्दीर नहीं तोड़े थे? अगर ऐसा है तो मैं आपको 1000 मन्दीरों की सूची थमा सकता हूँ. आप एक मन्दीर बता दें जो किसी की आस्था को तोड़ कर बना हो.
शरीफ साहब बहुत ही मोअद बाना आपसे गुज़ारिश है कि आप आख़िर कहना क्या चाहते हैं.यह सारी बातें कोर्ट में की जाती है.ब्लॉग जगत कोई न्यायलय नहीं है.
और जब कोर्ट में मामला है तो उसका जो निर्णय होगा हमें उसका सम्मान करना है.
मौक़ा हो तो पढ़ें
मदरसा, आरक्षण और आधुनिक शिक्षा http://hamzabaan.blogspot.com/2010/08/blog-post_05.html
अपनी राय ज़रूर दें
मुखलिस
शहरोज़
@ संजय बेंगाणी जी! हम क्यों बता दें जबकि यह काम आदि शंकराचार्य जी पहले कर चुके हैं, आप शंकरदिग्विजय नामक ग्रंथ देख लें आपको ऐसे बहुत से जैन-बौद्ध विहार मिल जाएंगे जिनमें वैदिक संस्थान खोले गये। रही बात मुस्लिम बादशाहों द्वारा मंदिर तोड़े जाने की तो जहां भी वास्तव में उन्होंने ऐसा किया, ग़लत किया। न्याय और धर्म के विपरीत किया, निंदनीय किया। हम ऐसा कहते हैं क्या आप भी उनसे पहले के अन्यायी राजाओं और पुरोहितों के विषय में यह कहना चाहेंगे ?
musalmano nai hamesha beta baap ko mar kar gaddi par baitha bhai nai bahi ko mar kar gaddi par baitha there is no justice among the muslims.
अशोक ने अपने 99 भाई मारे । पांच पांडवों ने अपने 100 भाई और गुरू सब मार डाले। शिवाजी का बेटा अपने बाप के विरूद्ध हो गया और औरंगजे़ब की फ़ौज के साथ मिलकर बाप पर चढ़ाई की। उस सबका क्या कीजियेगा ?
@ अनवर जी, गलत को गलत कहने में कैसी गुरैज? जिसने भी गलत काम किया है उसकी निंदा होनी चाहिए.
अब एक बार ऐसा सोचें कि मुसलमानों ने राम मन्दीर के लिए जगह दे दी. क्या फर्क पड़ेगा मुसलमानों को और देश पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा? सोच कर लिखें.
गुरु एक ......... है. इसके लिये ....... क्या कहा जाये...
मुसलमानों को एक ही भाषा समझ में आती है. जो अमेरिका के पास है और इस्रायल के भी.
aur we jo samajhna nahin chahte nahij samjhenge
@ संजय बेंगाणी जी! ज़मीन अगर मंदिर की है तो उसी को मिलनी चाहिये । अदालत को फ़ैसला करने दीजिये । नेताओं को राजनीति करने का मौक़ा क्यों दिया जाये। ये किसी के सगे नहीं होते। कल्याण और मुलायम दोनों आपस में ‘गहरे दोस्त‘ निकले। मर गये दोनों तरफ़ के बेकुसूर लोग। अपनी चैधराहट क़ायम रखने के लिये ज़ालिम और खुदग़र्ज़ लोग आज भी देश में ज़हर घोलने का काम बखूबी कर रहे हैं।
शरीफ़ ख़ान साहब ! आपका लेख तथ्यपरक है लेकिन अफ़सोस ज्ञान की इस धरती पर आज लोग सत्य और तथ्य नहीं देखना चाहते। वे सिर्फ़ वही देखना चाहते हैं जिससे उनकी मंशा पूरी हो। सत्य की खोज में अपनी जायज़ संपत्ति भी त्याग देने का आदर्श पेश करने वाले महात्माओं के इस देश का बौद्धिक विकास अवरूद्ध किया जा रहा है। पढ़े लिखे लोग भी औंगी बौंगी बातें कर रहे हैं। जिसका हक़ है उसे मिलना ही चाहिये किसका हक़ है इसे या तो दोनों तरफ़ के इन्साफ़पसंद तय करें या फिर कोर्ट। खून खराबा करना या उसकी धमकियां देना उचित नहीं है। लेकिन अफ़सोस हो यही रहा है।
kaash log sahi ghalat ka farq samajh paate.
nice post
आपका बात कहने का अंदाज़ अच्छा है.
nice post
तथ्यपरक लेख
Bahut Achcha Lekh hai Sharif Khan Sahab aapka.
waah kya lekh hai dil kuch ho gaya. very nice.
@ शहरोज़ साहब ! आदमी समूह में रहता है और व्यवस्था में जीता है। व्यवस्था में ख़राबी की वजह से आदमी और समाज दुखी रहता है। वह दुख से मुक्ति का हरसंभव उपाय करता है लेकिन उसकी मुसीबतें पहले से ज़्यादा और ज़्यादा होती रहती हैं। उसे याद ही नहीं रहता कि जिस ईश्वर ने उसे जीवन दिया है उसने उसे व्यवस्था भी दी है जो जीवन के हरेक पहलू में काम देती है। राजनेता और धर्मगुरू भी अपने-अपने राजनीतिक और आध्यात्मिक दर्शनों में लोगों को उलझाये और भरमाये रहते हैं लेकिन उन्हें धर्म और दर्शन के बीच मौजूद बुनियादी फ़र्क़ तक नहीं समझाते और जो समझाना चाहते हैं उन्हें अपने हितों का दुश्मन देखकर जनता को उनके खि़लाफ़ खड़ा करने में सारा ज़ोर लगा देते हैं। पहले भी यही हुआ और मनु महाराज के काल जल प्रलय आई,आज भी यही हो रहा है और अग्नि प्रलय हर ओर हो रही है। निराश मानवता ईश्वर और उसकी दण्ड व्यवस्था के बारे में सशंकित है लेकिन अगर यहां न्याय नहीं है तो फिर न्याय कहीं और तो ज़रूर ही है। जो न्याय पूरी मानव जाति को अपेक्षित है वह उसे ज़रूर मिलेगा चाहे उसके लिये उस मालिक को फ़ना हो चुकी सारी मानव जाति को नये सिरे से जीवित करना पड़े। वह जीवनदान का दिन ही न्याय दिवस है, जो चाहे मान ले और जो चाहे इन्कार कर दे। लेकिन किसी के इन्कार से हक़ीक़त बदला नहीं करती। सृष्टि के आदि से , वेदों से लेकर कुरआन तक दोबारा जन्म, आवागमन नहीं बल्कि केवल दूसरे जन्म का जो ज़िक्र तत्वदर्शियों ने किया है, वह होकर रहेगा। जो ज़ालिम अपने दबदबे के चलते यहां सज़ा से बच निकलते हैं, वहां धर लिये जाएंगे। धर्म यही कहता है और मैं इसे मानता हूं। यही मानना आदमी को आशावादी बनाता है, जीवन के मौजूदा कष्ट झेलना आसान बनाता है।
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