जब कोई गुण्डा अपनी किसी मांग को पूरा कराने के लिये धमकी देता है कि अगर यह काम न किया तो जान से मार दूंगा तो इसको दण्डनीय अपराध मानते हुए अदालत सज़ा देती है।
मोदी ने नोटबन्दी करके जानबूझ कर देश को हानि पहुंचाने का काम किया और उसके बुरे नतीजे देखते हुए भी उस नादानी वाले फ़ैसले को बदलने के बजाय पचास दिन की समय सीमा इस शर्त पर तय कर दी कि यदि नाकामी हुई तो मुझे सार्वजनिक रूप से फांसी दे दे दी जाए।
उपरोक्त दोनों बातों में जो समानता है उस पर यदि विचार किया जाए तो नतीजे के तौर पर यह बात सामने आती है कि
दोनों मामलों में किसी काम में नाकामी के बदले में नाकाम शख़्स को क़त्ल किया जाना तय किया गया है।
पहले मामले में ऐसी बात तय वाले शख़्स को सज़ा का हक़दार मान कर सज़ा दे दी जाती है जबकि दूसरे मामले में भी नाकामी होने पर क़त्ल किया जाना तय किया गया है चाहे क़त्ल ख़ुद को ही कराया जाना तय किया हो इससे जुर्म की नेचर प्रभावित नहीं होती है क्योंकि क़त्ल किया जाना तय किया गया है चाहे ख़ुद को कराया जाए या किसी दूसरे शख़्स को कराया जाए जुर्म समान है लिहाज़ा दूसरे मामले के मुलज़िम मोदी को क़त्ल की बात तय किये जाने के जुर्म में सज़ा से क्यों बचाया गया है।
यह तो पचास दिन की समय सीमा तय करते समय तक का अपराध है। इस समय तय किये गए पचास दिन पूरे होने जा रहे हैं और उस काम की नाकामी का यह हाल है कि इसकी वजह से हज़ारों लोग मौत के मुंह में चले गए हैं। देश की अर्थ व्यवस्था को जो हानि हुई है वह तो एक न एक दिन पूरी हो जाएगी और देश जितना पिछड़ गया है वह भी आर एस एस के चंगुल से निकलने के बाद उन्नति कर लेगा लेकिन जो लोग एक जुमलेबाज़ की नादानी से नोटबन्दी के कारण असमय मृत्यु को प्राप्त हो गए हैं वह तो लौट कर आ नहीं सकेंगे। ऐसी स्थिति में इन मौतों का ज़िम्मेदार मोदी के अलावा कोई नहीं है इसलिये यह जानबूझ कर किये गए क़त्ल हैं और क़ातिल की सज़ा फांसी ही बनती है।
ऐसी स्थिति में आशा तो यह की जाती है कि देश का यह अपराधी पचास दिन पूरे होने पर स्वयं फांसी लगा कर मर जाएगा लेकिन अगर ऐसा नहीं होता है तो इन सब बातों के परिप्रेक्ष्य में न्यायपालिका से निवेदन है कि वह स्वयं संज्ञान लेते हुए इस पर कार्रवाई करे और दुर्लभ से दुर्लभतम श्रेणी में आने वाले इस अपराध में फांसी की सज़ा तय करे।
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