जिस देश में विभिन्न धर्मों और संस्कृतियों के लोग रहते हों और जहां धर्मों और जातियों के आधार पर वर्गीकरण करके समाज को बांटा गया हो वहां लोकतन्त्र भीड़तन्त्र बन जाता है और बहुसंख्यक समाज निरंकुश होकर अल्पसंख्यकों के हितों की अनदेखी करके उनके अधिकारों का हनन करने लगता है और इस प्रकार से लोकतन्त्र अल्पसंख्यकों के लिए अभिशाप बन जाता है। किसी शायर के द्वारा कहे गए यह शब्द अल्पसंख्यकों और बहुसंख्यकों के बीच सम्बन्धों का इज़हार करने के लिए पर्याप्त हैं -
हम आह भी करते हैं तो हो जाते हें बदनाम।
वो क़त्ल भी करते हैं तो चर्चा नहीं होता।।
हिन्दोस्तान में दुनिया के सबसे बड़े कहलाए जाने वाले लोकतन्त्र की भयावह तस्वीर दिखाने के लिए निम्नलिखित उदाहरण प्रस्तुत हैं -
1 - 1965 में भारत पाकिस्तान युद्ध के समय पाकिस्तान रेडियो से समाचार सुनने पर रोक लगा दी गई थी जिसके नतीजे में पुलिस अपनी आदत के अनुसार किसी भी मुसलमान को केवल यह आक्षेप लगाकर प्रताड़ित करने से नहीं चूकती थी कि वह रेडियो पाकिस्तान से समाचार सुन रहा था चाहे वह दिल्ली से गाने ही सुन रहा हो जबकि हिन्दुओं को अक्सर रेडियो पाकिस्तान से सुने हुए समाचारों पर चर्चा करते हुए देखा जा सकता था।
2 - सन् 1984 में तत्कालीन प्रधानमन्त्री श्रीमति इन्दिरा गांधी का क़त्ल हुआ और चूंकि क़ातिल सिख (जोकि एक अल्पसंख्यक समुदाय है) थे इसलिए उसकी प्रतिक्रिया का बहाना बनाकर हज़ारों बेक़सूर सिखों का क़त्ले आम कराया गया। ध्यान रहे क़त्ले आम में औरतों, बच्चों और बूढ़ों को भी नहीं बख़्शा जाता। जबकि राष्ट्रपिता गांधी जी के क़त्ल की प्रतिक्रिया इस प्रकार की न हुई क्योंकि उस घटना में अपराधी बहुसंख्यक समाज से सन्बन्धित था।
श्रीमति इन्दिरा गांधी के क़त्ल से सम्बन्धित पूरे घटनाक्रम में अफ़सोसनाक पहलू यह है कि उनके क़त्ल के आरोपियों के ख़िलाफ़ अपराध सिद्ध होने पर अदालत द्वारा सज़ा भी सुना दी गई और सज़ा दे भी दी गई जबकि उसी दौरान किये गए सिखों के क़त्ले आम के ज़िम्मेदार अपराधियों को अभी तक चैथाई सदी गुज़रने पर भी सज़ा नहीं मिली है। क्या यह इसलिए है कि यह अपराधी बहुसंख्यक समाज से सम्बन्धित हैं जबकि इनके द्वारा पीड़ित अल्पसंख्यक थे।
3 - उड़ीसा के एक गांव में रात को अपनी गाड़ी में सो रहे फ़ादर ग्राह्म स्टेन्स नामक एक पादरी को उनके दो मासूम बच्चों के साथ ज़िन्दा जला दिये जाने की दिल दहला देने वाली घटना को सभी जानते हैं। इस घटना को अंजाम देने वाला दारा सिंह नाम का एक व्यक्ति ईसाई समाज के ख़िलाफ़ कार्यरत एक संस्था का संचालक था। भा.ज.पा. और बजरंग दल के नेताओं ने दारा सिंह को क्लीन चिट देकर ईसाईयों के प्रति नफ़रत और अपराधियों से लगाव की भावना को ज़ाहिर कर दिया। उच्च न्यायालय द्वारा दारा सिंह को सुनाई गई फांसी की सज़ा के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय में की गई अपील में फैसला सुनाते हुए माननीय न्यायधीश ने अपने विवेकाधिकार का प्रयोग करते हुए फांसी की सज़ा को आजीवन कारावास में बदल दिया क्योंकि न्यायधीश महोदय ने इस अपराध को दुर्लभ से दुर्लभतम श्रेणी का नहीं पाया। इस घटना में भी पिता के साथ ज़िन्दा जला दिये गए दो मासूम बच्चे अल्प संख्यक समाज से सम्बन्धित थे। यदि ज़िन्दा जलाए जाने वाले अल्प संख्यक समाज से न होकर बहुसंख्यक समाज से सम्बन्धित होते और जलाने वाले अपराधी बहुसंख्यक समाज से न होकर अल्पसंख्यक समाज से सम्बन्धित होते तो क्या तब भी यह अपराध दुर्लभ से दुर्लभतम श्रेणी से बाहर ही होता?
4 - किसी शायर के द्वारा कही गई दो पंक्तियां देश के सबसे बड़े अल्पसंख्यक समाज की स्थिति का आईना हैं -
एक दो ज़ख्म नहीं सारा बदन है छलनी।
दर्द बेचारा परेशां है किस कल उठे।।
बहुसंख्यक समाज, चाहे वह प्रशासन से सम्बन्धित हो अथवा राजनीति से या किसी भी क्षेत्र से हो, के द्वारा बाबरी मस्जिद को मन्दिर में पविर्तित करने की घिनौनी साज़िश पर अमल करके हमेशा के लिए मानसिक यातना का जो ज़ख्म मुसलमानों को दिया गया गया है वह तब तक रिसता रहेगा जब तक मस्जिद उसी स्थान पर दोबारा नहीं बना दी जाती चाहे सदियां क्यों न गुज़र जाएं। यह बात मज़लूमों की मानसिकता के अनुरूप है।
गुजरात में महीनों तक होने वाले मुसलमानों के क़त्लेआम और उसके ज़िम्मेदार व्यक्ति को नायक के रूप में महिमामण्डित किया जाना लोकतन्त्र की ही तो देन है। इसीलिए भारत में लोकतन्त्र अल्पसंख्यकों के लिए अभिशाप है।
Sunday, May 22, 2011
Tuesday, May 17, 2011
समाज को खोखला कर रही सूदख़ोरी - Sharif Khan
ईश्वर ने हर चीज़ का जोड़ा बनाया है जैसे मर्द-औरत, दिन-रात, अन्धेरा-उजाला, सत्य-असत्य, ऊंचा-नीचा आदि। इसी प्रकार से इन्सान में जहां उच्च आदर्श रखे हैं वहीं नीचतापूर्ण कार्य करने की क्षमता भी प्रदान की है ताकि उसकी परीक्षा हो सके और उसके कर्मों के अनुसार उसको सज़ा या इनाम से नवाज़ा जा सके। समाज में सभी प्रकार के लोग रहते हैं और विभिन्न प्रकार के काम धंधे करके जीविकोपार्जन करते हैं तथा अपनी सामरथ्य के अनुसार समाज सेवा के कार्य भी अन्जाम देते हैं परन्तु एक तबक़ा ऐसा भी है जो सदैव यह कामना करता है कि समाज से ख़ुशहाली समाप्त हो जाए और लोग परेशानहाल रहें तथा कभी स्वावलम्बी न होकर सदैव ज़रूरतमन्द बने रहें। जिन लोगों के कारोबार की बुनियाद दूसरों के ऊपर आई हुई विपत्ति पर रखी गई हो और समाज में आने वाली ख़ुशहाली जिनके कारोबार में मन्दी लाने का कारण बनती हो, समाज को दीमक की तरह से खोखला करने वाले उस तबक़े के लोगों को हम सूदख़ोर के नाम से जानते हैं।
सूदख़ोर के चरित्र पर विचार करके देखें कि यदि किसी व्यक्ति का दरिद्रतावश बीमारी में इलाज नहीं हो पा रहा हो और सहायता के लिए की गई अपील के बदले में उसको सूद पर धन उपलब्ध करा दिया जाए तो उस समय चाहे उसकी ज़रूरत पूरी हो गई हो परन्तु उसके मन में एक नफ़रत की भावना पैदा होना भी स्वाभाविक है कि ऐसी विकट परिस्थिति में भी उसकी सहायता न करके उसको सूदख़ोर के चंगुल में फांस दिया गया। इसी प्रकार से धन के अभाव में यदि किसी की बेटी का विवाह नहीं हो पा रहा हो अथवा किसी का घर आग में भस्म हो गया हो या किसी दूसरी मुसीबत में फंसने के कारण धन की आवश्यकता पड़ गई हो तो सूदख़ोर उस समय उसका काम तो बेशक निकाल देता है परन्तु बदले में आसानी से समाप्त न होने वाला सूद का सिलसिला शुरू हो जाता है। यदि सूदख़ोर का अस्तित्व न रहा होता तब भी लोगों के काम चलते, यह बात दूसरी है कि थोड़ी मुश्किल पेश आती परन्तु लोगों में परस्पर सहायता करने की भावना अवश्य पैदा हो जाती। सूदख़ोरी का एक साइड इफ़ैक्ट यह है कि दूसरों की सहायता करने की भावना रखने वाले सज्जन किसी ज़रूरतमन्द व्यक्ति की अपने पास से सहायता करने के बजाय उसको सूद पर धन उपलब्ध कराने में सहायक होकर अपना कर्तव्य पालन समझकर सन्तुष्ट हो जाते हैं। यदि विकल्प के तौर पर सूदख़ोर का अस्तित्व न रहा होता तो समाज में धन ख़र्च करके परस्पर सहायता करने की भावना प्रबल हो जाती तथा बिना किसी लालच के धन उधार देकर किसी ज़रूरतमन्द का कार्य सिद्ध होने से काफ़ी धन सूदख़ोर के पास जाने से बच जाता।
सूद पर धन लेने वाले प्रायः तीन प्रकार के लोग होते हैं। पहली क़िस्म उन लोगों की होती है जो अपना व्यवसाय बढ़ाने के लिए धन लेते हैं। दूसरी क़िस्म में वह लोग आते हैं जो गाड़ी, मकान या दूसरी ऐश की चीज़ों के लिए लिए क़र्ज़ लेते हैं। ऐसे लोग ज़्यादातर बैंकों से क़र्ज़ लेकर अपना काम चलाते हैं।
तीसरी क़िस्म उन लोगों की होती है जो परिस्थितियों वश क़र्ज़ लेने के लिए मजबूर होते हैं। इनमें कोई अपने परिवार को फ़ाक़ों से बचाने के लिए क़र्ज़ लेता है तो किसी को बीमारी के इलाज के लिए धन की आवश्यकता होती है। बेटी की शादी, बच्चों की शिक्षा तथा अचानक आई किसी विपत्ति से निपटने के लिए धन की आवश्यकता पड़ने पर सूदख़ोर के चंगुल में फंसने वाले व्यक्ति वास्तव में दया के पात्र हैं। इस श्रेणी के लोग प्रायः अपने किसी प्रियजन की मौत होने पर उसके कफ़न आदि के लिए कहीं से सहायता या बिना सूद के धन उपलब्ध न होने पर सूदख़ोर से क़र्ज़ लेने पर मजबूर होते हैं।
सरकारी बैंकों से से कर्ज़ हासिल करने की प्रक्रिया इतनी जटिल और देर लगाने वाली है कि ज़रूरतमन्द व्यक्ति को मजबूरन प्राइवेट सूदख़ोरों के चंगुल में फंसने के लिए मजबूर होना पड़ता है और कभी कभी तो बैंक के मुक़ाबले में 5 गुना तक सूद देना पड़ता है। और फिर सूदख़ोर से ख़ून चुसवाने का सिलसिला बड़ी कठिनता से समाप्त हो पाता है। इस बुराई को किसी भी धर्म में भी अच्छी नज़र से नहीं देखा गया।
मनुस्मृति में ‘‘विष्ठा वार्धुषिकस्यान्न्ं‘‘ अर्थात् सूद खाने वाले का अन्न ब्राह्मण के लिए विष्ठा समान कहा गया है।
इस्लाम धर्म की बात करें तो एक हदीस में तो यहां तक फ़रमाया गया है कि सूद इतना बड़ा गुनाह है कि यदि उसके सत्तर भाग किये जाएं तो उनमें से सबसे हल्का भाग भी ऐसा है कि जैसे कोई व्यक्ति अपनी मां के साथ दुराचार करे।
दीमक की तरह से खोखला कर रहे सूदख़ोरों के चंगुल से समाज को बचाने के लिए आवश्यक है कि कुछ ऐसी संस्थाएं बनें जो छोटे और ग़रीब ज़रूरतमन्दों को बिना सूद के धन उपलब्ध कराने का प्रबन्ध करें ताकि एक अच्छे समाज का निर्माण हो।
सूदख़ोर के चरित्र पर विचार करके देखें कि यदि किसी व्यक्ति का दरिद्रतावश बीमारी में इलाज नहीं हो पा रहा हो और सहायता के लिए की गई अपील के बदले में उसको सूद पर धन उपलब्ध करा दिया जाए तो उस समय चाहे उसकी ज़रूरत पूरी हो गई हो परन्तु उसके मन में एक नफ़रत की भावना पैदा होना भी स्वाभाविक है कि ऐसी विकट परिस्थिति में भी उसकी सहायता न करके उसको सूदख़ोर के चंगुल में फांस दिया गया। इसी प्रकार से धन के अभाव में यदि किसी की बेटी का विवाह नहीं हो पा रहा हो अथवा किसी का घर आग में भस्म हो गया हो या किसी दूसरी मुसीबत में फंसने के कारण धन की आवश्यकता पड़ गई हो तो सूदख़ोर उस समय उसका काम तो बेशक निकाल देता है परन्तु बदले में आसानी से समाप्त न होने वाला सूद का सिलसिला शुरू हो जाता है। यदि सूदख़ोर का अस्तित्व न रहा होता तब भी लोगों के काम चलते, यह बात दूसरी है कि थोड़ी मुश्किल पेश आती परन्तु लोगों में परस्पर सहायता करने की भावना अवश्य पैदा हो जाती। सूदख़ोरी का एक साइड इफ़ैक्ट यह है कि दूसरों की सहायता करने की भावना रखने वाले सज्जन किसी ज़रूरतमन्द व्यक्ति की अपने पास से सहायता करने के बजाय उसको सूद पर धन उपलब्ध कराने में सहायक होकर अपना कर्तव्य पालन समझकर सन्तुष्ट हो जाते हैं। यदि विकल्प के तौर पर सूदख़ोर का अस्तित्व न रहा होता तो समाज में धन ख़र्च करके परस्पर सहायता करने की भावना प्रबल हो जाती तथा बिना किसी लालच के धन उधार देकर किसी ज़रूरतमन्द का कार्य सिद्ध होने से काफ़ी धन सूदख़ोर के पास जाने से बच जाता।
सूद पर धन लेने वाले प्रायः तीन प्रकार के लोग होते हैं। पहली क़िस्म उन लोगों की होती है जो अपना व्यवसाय बढ़ाने के लिए धन लेते हैं। दूसरी क़िस्म में वह लोग आते हैं जो गाड़ी, मकान या दूसरी ऐश की चीज़ों के लिए लिए क़र्ज़ लेते हैं। ऐसे लोग ज़्यादातर बैंकों से क़र्ज़ लेकर अपना काम चलाते हैं।
तीसरी क़िस्म उन लोगों की होती है जो परिस्थितियों वश क़र्ज़ लेने के लिए मजबूर होते हैं। इनमें कोई अपने परिवार को फ़ाक़ों से बचाने के लिए क़र्ज़ लेता है तो किसी को बीमारी के इलाज के लिए धन की आवश्यकता होती है। बेटी की शादी, बच्चों की शिक्षा तथा अचानक आई किसी विपत्ति से निपटने के लिए धन की आवश्यकता पड़ने पर सूदख़ोर के चंगुल में फंसने वाले व्यक्ति वास्तव में दया के पात्र हैं। इस श्रेणी के लोग प्रायः अपने किसी प्रियजन की मौत होने पर उसके कफ़न आदि के लिए कहीं से सहायता या बिना सूद के धन उपलब्ध न होने पर सूदख़ोर से क़र्ज़ लेने पर मजबूर होते हैं।
सरकारी बैंकों से से कर्ज़ हासिल करने की प्रक्रिया इतनी जटिल और देर लगाने वाली है कि ज़रूरतमन्द व्यक्ति को मजबूरन प्राइवेट सूदख़ोरों के चंगुल में फंसने के लिए मजबूर होना पड़ता है और कभी कभी तो बैंक के मुक़ाबले में 5 गुना तक सूद देना पड़ता है। और फिर सूदख़ोर से ख़ून चुसवाने का सिलसिला बड़ी कठिनता से समाप्त हो पाता है। इस बुराई को किसी भी धर्म में भी अच्छी नज़र से नहीं देखा गया।
मनुस्मृति में ‘‘विष्ठा वार्धुषिकस्यान्न्ं‘‘ अर्थात् सूद खाने वाले का अन्न ब्राह्मण के लिए विष्ठा समान कहा गया है।
इस्लाम धर्म की बात करें तो एक हदीस में तो यहां तक फ़रमाया गया है कि सूद इतना बड़ा गुनाह है कि यदि उसके सत्तर भाग किये जाएं तो उनमें से सबसे हल्का भाग भी ऐसा है कि जैसे कोई व्यक्ति अपनी मां के साथ दुराचार करे।
दीमक की तरह से खोखला कर रहे सूदख़ोरों के चंगुल से समाज को बचाने के लिए आवश्यक है कि कुछ ऐसी संस्थाएं बनें जो छोटे और ग़रीब ज़रूरतमन्दों को बिना सूद के धन उपलब्ध कराने का प्रबन्ध करें ताकि एक अच्छे समाज का निर्माण हो।
Thursday, May 12, 2011
देश में फैल रहे भ्रष्टाचार की ज़िम्मेदार जनता - Sharif Khan
आज हमारा महान देश भ्रष्टाचार के पन्जे में इस हद तक जकड़ा हुआ है कि सभ्य कहते हुए भी शर्म आती है। इस बात को विस्तारपूर्वक समझने के लिए निम्नलिखित बिन्दुओं पर विचार करना आवश्यक हैः
1- यह कि, ऊपर से नीचे तक भ्रष्टाचार में डूबे हुए हमारे देश में जनता को सरकार के निर्वाचन का अधिकार मिले होने के बावजूद यदि चरित्रहीन ग़ुण्डे और भ्रष्ट लोग चुने जाते हैं तो उसकी ज़िम्मेदार सिर्फ़ और सिर्फ़ जनता ही है।
2- यह कि, किसी राजनैतिक दल के द्वारा चुनाव के मैदान में उतारे गए प्रत्याशी द्वारा उपलब्ध कराए गए साक्ष्यों के आधार पर चुनाव आयोग द्वारा दी गई चुनाव लड़ने की इजाज़त उसके चरित्रवान और अच्छा इन्सान होने का मापदण्ड नहीं है अपितु सही मापदण्ड तो वह है जो जनता उसके बारे में जानकारी रखती है। धोखाधड़ी, डकैती, ग़ुण्डागर्दी, बलात्कार, क़त्ल और अपहरण आदि अपराधों में लिप्त किसी व्यक्ति ने चाहे रसूख़, दबंगई और रिश्वत के बल पर अपने गुनाहों पर परदा डलवा रखा हो परन्तु उस समाज के लोग तो उसके करतूतों से भली भांति परिचित होते हैं। इसके बावजूद भी ऐसे घिनौने चरित्र के लोगों का चुनाव में सफल होना उनके वोटरों के दुष्चरित्र होने का प्रमाण है।
3- राजनीति में भ्रष्टाचार का रोना रोने वाले लोगों को इस बात पर विचार करना चाहिए कि सरकार बनाने के लिए जनता द्वारा चुने गए राजनेता चुने जाने के बाद भ्रष्ट और चरित्रहीन नहीं हो जाते अपितु वह भ्रष्ट और चरित्रहीनता वाली पृष्ठभूमि से ही आए हुए होते हैं और उनके गन्दे आचरण ने ही उनको इस मुक़ाम पर पहुंचाया होता है। अतः जनता द्वारा ऐसे गिरे हुए लोगों का चुना जाना जनता की गन्दी मानसिकता को उजागर करने के लिए पर्याप्त है।
4- यह कि, जनता ने चुनाव के लिए जो आधार बनाए हुए हैं वह पूरी तरह से दोषपूर्ण हैं। कहीं जाति के आधार पर वोट दी जाती है तो कहीं धर्म के आधार पर। कहीं पार्टी के नाम पर वोट दी जाती है तो कहीं लालच में आकर वोट देते हैं। कुछ लोग तो गुण्डे और बदमाशों को यह कहकर वोट देते हें कि दूसरी पार्टी के गुण्डों से यही व्यक्ति टक्कर ले सकता है। इन्हीं कारणों से साफ़ सुथरी छवि के लोगों का चुना जाना लगभग असम्भव बन चुका है।
5- यह कि, किसी प्रत्याशी का चरित्रवान होना, उसमें समाज सेवा की भावना का होना तथा बिना किसी भेदभाव के कार्य करने में सक्षम होना ही उसको वोट देने का मापदण्ड होना चाहिए।
6- यह कि, एक समय ऐसा था कि किसी राजनैतिक पार्टी में यदि कोई दाग़ी चरित्र वाला नेता होता था तो उसके अस्तित्व से पार्टी की छवि ख़राब होने का अन्देशा रहता था और ऐसे व्यक्ति के गुनाहों पर परदा डालने की कोशिश की जाती थी परन्तु अब बड़ी बेशर्मी से यह कह दिया जाता है कि दूसरी पार्टियों के ग़ुण्डों से निपटने के लिए ऐसे लोगों का होना आवश्यक है या यह कह दिया जाता है कि दूसरी पर्टियों में तो इससे भी ज़्यादा बदमाश मौजूद हैं।
7- यह कि, चूंकि कोई भी राजनैतिक पार्टी ऐसी मौजूद नहीं है कि जिसमें ग़ुण्डे और बदमाशों का अस्तित्व न हो इसलिए जनता को चाहिए कि पार्टी को वोट न देकर प्रत्याशी को वोट दें चाहे वह निर्दलीय ही क्यों न हो। यदि ऐसा हो गया तो राजनैतिक पार्टियां भ्रष्ट और चरित्रहीन लोगों को सर आंखों पर बिठाने के बजाय बाहर का रास्ता दिखाने के लिए मजबूर हो जाएंगी।
अन्त में यही कहा जा सकता है कि यदि घर की रखवाली की ज़िम्मेदारी किसी चोर को सौंपी जाती है तो क़सूरवार घरवाले होंगे न कि चोर। अतः पूरे देश में फैल रहे भ्रष्टाचार की ज़िम्मेदार गन्दे और दाग़दार लोगों को चुनकर भेजने वाली जनता है न कि चुने हुए नेता।
1- यह कि, ऊपर से नीचे तक भ्रष्टाचार में डूबे हुए हमारे देश में जनता को सरकार के निर्वाचन का अधिकार मिले होने के बावजूद यदि चरित्रहीन ग़ुण्डे और भ्रष्ट लोग चुने जाते हैं तो उसकी ज़िम्मेदार सिर्फ़ और सिर्फ़ जनता ही है।
2- यह कि, किसी राजनैतिक दल के द्वारा चुनाव के मैदान में उतारे गए प्रत्याशी द्वारा उपलब्ध कराए गए साक्ष्यों के आधार पर चुनाव आयोग द्वारा दी गई चुनाव लड़ने की इजाज़त उसके चरित्रवान और अच्छा इन्सान होने का मापदण्ड नहीं है अपितु सही मापदण्ड तो वह है जो जनता उसके बारे में जानकारी रखती है। धोखाधड़ी, डकैती, ग़ुण्डागर्दी, बलात्कार, क़त्ल और अपहरण आदि अपराधों में लिप्त किसी व्यक्ति ने चाहे रसूख़, दबंगई और रिश्वत के बल पर अपने गुनाहों पर परदा डलवा रखा हो परन्तु उस समाज के लोग तो उसके करतूतों से भली भांति परिचित होते हैं। इसके बावजूद भी ऐसे घिनौने चरित्र के लोगों का चुनाव में सफल होना उनके वोटरों के दुष्चरित्र होने का प्रमाण है।
3- राजनीति में भ्रष्टाचार का रोना रोने वाले लोगों को इस बात पर विचार करना चाहिए कि सरकार बनाने के लिए जनता द्वारा चुने गए राजनेता चुने जाने के बाद भ्रष्ट और चरित्रहीन नहीं हो जाते अपितु वह भ्रष्ट और चरित्रहीनता वाली पृष्ठभूमि से ही आए हुए होते हैं और उनके गन्दे आचरण ने ही उनको इस मुक़ाम पर पहुंचाया होता है। अतः जनता द्वारा ऐसे गिरे हुए लोगों का चुना जाना जनता की गन्दी मानसिकता को उजागर करने के लिए पर्याप्त है।
4- यह कि, जनता ने चुनाव के लिए जो आधार बनाए हुए हैं वह पूरी तरह से दोषपूर्ण हैं। कहीं जाति के आधार पर वोट दी जाती है तो कहीं धर्म के आधार पर। कहीं पार्टी के नाम पर वोट दी जाती है तो कहीं लालच में आकर वोट देते हैं। कुछ लोग तो गुण्डे और बदमाशों को यह कहकर वोट देते हें कि दूसरी पार्टी के गुण्डों से यही व्यक्ति टक्कर ले सकता है। इन्हीं कारणों से साफ़ सुथरी छवि के लोगों का चुना जाना लगभग असम्भव बन चुका है।
5- यह कि, किसी प्रत्याशी का चरित्रवान होना, उसमें समाज सेवा की भावना का होना तथा बिना किसी भेदभाव के कार्य करने में सक्षम होना ही उसको वोट देने का मापदण्ड होना चाहिए।
6- यह कि, एक समय ऐसा था कि किसी राजनैतिक पार्टी में यदि कोई दाग़ी चरित्र वाला नेता होता था तो उसके अस्तित्व से पार्टी की छवि ख़राब होने का अन्देशा रहता था और ऐसे व्यक्ति के गुनाहों पर परदा डालने की कोशिश की जाती थी परन्तु अब बड़ी बेशर्मी से यह कह दिया जाता है कि दूसरी पार्टियों के ग़ुण्डों से निपटने के लिए ऐसे लोगों का होना आवश्यक है या यह कह दिया जाता है कि दूसरी पर्टियों में तो इससे भी ज़्यादा बदमाश मौजूद हैं।
7- यह कि, चूंकि कोई भी राजनैतिक पार्टी ऐसी मौजूद नहीं है कि जिसमें ग़ुण्डे और बदमाशों का अस्तित्व न हो इसलिए जनता को चाहिए कि पार्टी को वोट न देकर प्रत्याशी को वोट दें चाहे वह निर्दलीय ही क्यों न हो। यदि ऐसा हो गया तो राजनैतिक पार्टियां भ्रष्ट और चरित्रहीन लोगों को सर आंखों पर बिठाने के बजाय बाहर का रास्ता दिखाने के लिए मजबूर हो जाएंगी।
अन्त में यही कहा जा सकता है कि यदि घर की रखवाली की ज़िम्मेदारी किसी चोर को सौंपी जाती है तो क़सूरवार घरवाले होंगे न कि चोर। अतः पूरे देश में फैल रहे भ्रष्टाचार की ज़िम्मेदार गन्दे और दाग़दार लोगों को चुनकर भेजने वाली जनता है न कि चुने हुए नेता।
Friday, April 22, 2011
वैश्यावृत्ति सभ्य समाज का दुर्भाग्य by Sharif Khan
ईश्वर ने इंसान को एक मर्द और एक औरत से पैदा किया इस प्रकार से सभी लोग आपस में भाई के रिश्ते से जुड़ गए। सभ्य समाज में प्रत्येक व्यक्ति के लिए स्त्रियां ‘‘मां, बहन, बेटी या पत्नि‘‘ इन चार रूपों में जानी जाती हैं। स्त्री और पुरुष के बीच शारीरिक संरचना और क्षमता का जो भेद है उसके अनुरूप क़ायम की गई सामाजिक व्यवस्था में दिये गए अधिकार और कर्तव्यों के अनुसार महिलाओं की सुरक्षा के साथ उनकी आवश्यकताओ की पूर्ति की ज़िम्मेदारी पुरुषों के ऊपर डाल दी गई। किसी मजबूरी वश यदि महिलाओं को जीविकोपार्जन की आवश्यकता पड़ती है तो पूरे समाज को चाहिए कि उनके अनुरूप जीविका के साधन उपलब्ध करा दिए जाएं। ईश्वर ने नारी को सतीत्व एक धरोहर के रूप में प्रदान किया है जिसकी रक्षा करने में प्रायः वह अपना जीवन तक दांव पर लगा देती है। जिस प्रकार से पुरुषों के लिए स्त्री ‘‘मां, बहन, बेटी या पत्नि‘‘ का रूप होती है उसी प्रकार से एक स्त्री के लिए पुरुष ‘‘पुत्र, भाई, पिता या पति‘‘ के रूप में होता है। यदि हम संजीदगी से विचार करें तो पुत्र, भाई, पिता या पति के होते हुए क्या किसी मां, बहन, बेटी या पत्नि के सतीत्व पर आंच आ सकती है? इस सब के बावजूद पूरी सामाजिक व्यवस्था में वैश्यावृत्ति को एक पेशे के रूप में मान्यता दिया जाना समाज के ठेकेदारों के दोग़लेपन को साबित करने के लिए काफ़ी है। जो लोग धन के बदले में किसी स्त्री के साथ व्याभिचार करते हैं और उस अबला के सतीत्व (अस्मत) से खेलते हैं वही लोग उस बदनसीब औरत को वैश्या के रूप में केवल इसलिए मान्यता देते हैं ताकि आइन्दा भी उनकी यौनेच्छा की पूर्ति का साधन उपलब्ध रहे। वैश्यावृत्ति को सबसे पुराना पेशा कहकर वैश्यागामी पूर्वजों के ‘‘कमीनेपन‘‘ पर क्या कभी सभ्य कहलाने वाले लोगों को शर्मिन्दगी का एहसास नहीं होता? ध्यान रहे कि एक स्त्री तब तक वैश्या नहीं बन सकती जब तक कि कोई पुरुष उससे सम्बन्ध न बनाए इसलिए स्त्री से ज़्यादा पुरुष इस पापकर्म का ज़िम्मेदार हुआ। अब पतन की ओर जा रहे समाज के उत्थान के लिए चरित्र निर्माण का उपाय करने के बजाय वैश्यावृत्ति के रूप में फैल रही गन्दगी को सैक्स वर्कर के नाम से मान्यता देकर क्या देश की संस्कृति का जनाज़ा निकालने की तैयारी नहीं की जा रही है।
देश में सरकारी आंकड़े के अनुसार लगभग 10 लाख बदनसीब महिलाएं इस घिनौने पेशे में पड़ी हुई हैं। क्या वह देश की बेटियां नहीं हैं? राजा के लिए प्रजा संतान की तरह होती है, तो क्या देश को चलाने वाले राजनेता अपनी इन बदनसीब बेटियों को इस प्रकार के नारकीय जीवन व्यतीत करने से मुक्ति दिलाने के बजाय उनके लिए सैक्स वर्कर का नाम देकर लाइसेंस की व्यवस्था करके अपनी राक्षसी प्रवृत्ति का इज़हार नहीं कर रहे हैं? सरकार को चाहिए कि उनके पुनर्वास के लिए बनाई गई योजना में उन महिलाओं के लिए योग्यतानुसार नौकरी, यदि वह चाहें तो विवाह और समाज में उनके लिए सम्मानित जीवन जीने का आधार उपलब्ध कराए जाने का प्रावधान किया जाए। तथा उनके पुनर्वास के लिए बनाई गई योजना को विस्तार पूर्वक समझाकर यह पूछा जाए कि क्या वह इस पेशे को छोड़ना चाहती हैं और यदि जवाब हां में हो तो उनके लिए सम्मानित जीवन जिये जाने लायक़ साधन उपलब्ध कराए जाने का प्रबन्ध कराया जाए। ध्यान रहे समाज के द्वारा धुतकारी हुई देश की इन बदनसीब बेटियों में काफ़ी संख्या उन भले घरों की लड़कियों की भी है जिनको बचपन में अपहृत करके ले जाकर, कभी वापस न लौटने के लिए, वहां पहुंचा दिया गया था।
आम जनता की राय जानने के लिए किये गए सर्वे में तो केवल इतना ही प्रश्न करना पर्याप्त होगा कि क्या वैश्यावृत्ति का पेशा समाप्त होना चाहिए और यदि नहीं तो आप ‘‘मां, बहन, बेटी या पत्नि‘‘ वाले रिश्ते में से किसके पास अपनी कामपिपासा को शान्त करने के लिए जाना चाहेंगे अथवा ‘‘मां, बहन, बेटी या पत्नि‘‘ में से किसको इस पेशे में भेजकर सहयोग करना चाहेंगे।
शराफ़त के चोले में छिपे हुए समाज के ठेकेदारों का चरित्र चित्रण करते हुए किसी शायर ने कहा हैः
ख़िलाफ़े शरअ तो शेख़ जी थूकते भी नहीं।
मगर अंधेरे उजाले यह चूकते भी नहीं।।
इस पापकर्म में ऐसे शरीफ़ लोगों की भागीदारी से भी इंकार नहीं किया जा सकता।
देश में सरकारी आंकड़े के अनुसार लगभग 10 लाख बदनसीब महिलाएं इस घिनौने पेशे में पड़ी हुई हैं। क्या वह देश की बेटियां नहीं हैं? राजा के लिए प्रजा संतान की तरह होती है, तो क्या देश को चलाने वाले राजनेता अपनी इन बदनसीब बेटियों को इस प्रकार के नारकीय जीवन व्यतीत करने से मुक्ति दिलाने के बजाय उनके लिए सैक्स वर्कर का नाम देकर लाइसेंस की व्यवस्था करके अपनी राक्षसी प्रवृत्ति का इज़हार नहीं कर रहे हैं? सरकार को चाहिए कि उनके पुनर्वास के लिए बनाई गई योजना में उन महिलाओं के लिए योग्यतानुसार नौकरी, यदि वह चाहें तो विवाह और समाज में उनके लिए सम्मानित जीवन जीने का आधार उपलब्ध कराए जाने का प्रावधान किया जाए। तथा उनके पुनर्वास के लिए बनाई गई योजना को विस्तार पूर्वक समझाकर यह पूछा जाए कि क्या वह इस पेशे को छोड़ना चाहती हैं और यदि जवाब हां में हो तो उनके लिए सम्मानित जीवन जिये जाने लायक़ साधन उपलब्ध कराए जाने का प्रबन्ध कराया जाए। ध्यान रहे समाज के द्वारा धुतकारी हुई देश की इन बदनसीब बेटियों में काफ़ी संख्या उन भले घरों की लड़कियों की भी है जिनको बचपन में अपहृत करके ले जाकर, कभी वापस न लौटने के लिए, वहां पहुंचा दिया गया था।
आम जनता की राय जानने के लिए किये गए सर्वे में तो केवल इतना ही प्रश्न करना पर्याप्त होगा कि क्या वैश्यावृत्ति का पेशा समाप्त होना चाहिए और यदि नहीं तो आप ‘‘मां, बहन, बेटी या पत्नि‘‘ वाले रिश्ते में से किसके पास अपनी कामपिपासा को शान्त करने के लिए जाना चाहेंगे अथवा ‘‘मां, बहन, बेटी या पत्नि‘‘ में से किसको इस पेशे में भेजकर सहयोग करना चाहेंगे।
शराफ़त के चोले में छिपे हुए समाज के ठेकेदारों का चरित्र चित्रण करते हुए किसी शायर ने कहा हैः
ख़िलाफ़े शरअ तो शेख़ जी थूकते भी नहीं।
मगर अंधेरे उजाले यह चूकते भी नहीं।।
इस पापकर्म में ऐसे शरीफ़ लोगों की भागीदारी से भी इंकार नहीं किया जा सकता।
Friday, April 15, 2011
बिगड़ा हुआ समाज Sharif Khan
ईश्वर ने हर चीज़ को नर और मादा के जोड़ों में पैदा किया है तथा दोनों के मिलन से सन्तानोत्पत्ति होती है और नस्ल चलती है। बच्चे चूंकि मादा जनती है इसीलिए शायद उसके आकर्षण के लिए नर को मादा के मुक़ाबले में ज़्यादा सुन्दर बनाया गया है। उदाहरण के तौर पर देखें कि मोर मोरनी के मुक़ाबले में अधिक सुन्दर होता है। इसी प्रकार कबूतर कबूतरी से, शेर शेरनी से, नाग नागिन से आदि प्रत्येक जानदार में नर हमेशा मादा के मुक़ाबले में अधिक सुन्दर होता है। इंसानों पर भी यह बात लागू होना अनिवार्य है। इस तथ्य की रोशनी में यदि विचार किया जाए तो निष्कर्ष यह निकलता है कि मर्द को औरत के मुक़ाबले में अधिक सुन्दर बनाया गया है। यह बात इस तथ्य से भी साबित हो जाती है कि हमेशा औरतें ही सजनें संवरने की ओर ध्यान देती हैं, मर्द नहीं, क्योंकि सुन्दर चीज़ को सजाने संवारने की आवश्यकता ही नहीं है मर्दों को रिझाने के लिए सजने, संवरने के अलावा नाचने गाने का कार्य भी औरतें ही करती आई हैं ताकि दोनों ओर परस्पर आकर्षण बना रहे। औरतों में जो चीज़ मर्दों से बेहतर और उनको उच्चता प्रदान करने वाली है वह है करुणा, दया और ममता की भावना। सेवा, सत्कार और त्याग की भावना। क्षमा, बलिदान और संतोष की भावना। इन्हीं भावनाओं का अक्स जब चेहरे पर आता है तो वही उनके चेहरे का तेज तथा शर्म और हया उनका गहना बन जाता है। औरतों और मर्दों के बीच शारीरिक संरचना और क्षमता का जो भेद है उसके अनुरूप क़ायम की गई सामाजिक व्यवस्था में दिये गए अधिकार और कर्तव्यों के अनुसारं औरतों की सुरक्षा के साथ उनकी आवश्यकताओ की पूर्ति की ज़िम्मेदारी मर्दों के ऊपर डाल दी गई इससे बड़े सम्मान की कल्पना नहीं की जा सकती हालांकि उसके बदले में औरतें घरों की देखभाल और बच्चों की परवरिश की ज़िम्मेदारी को निभाती हैं जोकि उनकी शारीरिक संरचना और क्षमता के अनुकूल है। इस व्यवस्था के विपरीत जब औरतों ने घरों से बाहर निकल कर मर्दों के काम सम्भालने शुरू कर दिये और मर्दों ने ब्यूटी पार्लर जाकर सजना संवरना शुरू कर दिया तो समाज का ढांचा ही बिगड़ गया। इस प्रकार से पतन के रास्ते पर चलते हुए गिरावट की हद यह हो गई कि नर्तकियां जिस प्रकार से नाच गाना करके मर्दों का दिल बहलाने के साधन उपलब्ध कराती थीं (हालांकि यह भी शर्म की बात थी), उसी प्रकार से अब पतित समाज में मर्दों को नचाया जाने लगा। और जिस प्रकार से राज नर्तकियां हुआ करती थीं उसी प्रकार से अब राज नर्तक होने लगे और देश में सर्वोच्च सम्मान से नवाज़े जाने लगे। इस बात में अफ़सोस का पहलू यह है कि हमारे देश के नौजवानों का आदर्श ऐसे ही नाचने गाने वाले लोग हो गए जिन में स्टेज पर श्वसुर को बहू के साथ नाचने में कोई ऐतराज़ नहीं होता और न ही भाभी को देवर के साथ नाचने में लेशमात्र भी आपत्ति होती है बल्कि आपत्ति हो भी क्यों, किसी भी बुराई को बुराई में बुराई नज़र नहीं आया करती। अब आवश्यकता इस बात की है कि समाज के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी को समझते हुए बुद्धिजीवी वर्ग इस ओर ध्यान देकर पतन की राह पर चल पड़े समाज को सही राह पर लाने की रूपरेखा बनाएं ताकि अच्छे संस्कार से युक्त नई पीढ़ी जन्म लेकर देश को नई दिशा में ले जाने में सक्षम हो।
Wednesday, March 16, 2011
भारत में हिन्दू-मुस्लिम भाईचारे की कुन्जी Sharif Khan
लोकतन्त्र का सबसे बड़ा अभिशाप यह है कि जिस देश में यह क़ायम होता है अल्पसंख्यकों के अधिकारों का हनन होना वहां की व्यवस्था का अंग बन जाता है बहुसंख्यक समाज की संस्कृति धीरे धीरे पूरे देश में छा जाती है और भीड़ तन्त्र क़ायम हो जाता है। भारतवर्ष उपरोक्त का जीता जागता नमूना है जहां धर्मनिर्पेक्षता के नाम पर हिन्दू धर्मपक्षता क़ा बोलबाला है। आमतौर से विजित क़ौम विजेता क़ौम की संस्कृति व रीति रिवाज को अपना लेती है अथवा अपनाना पड़ता है परन्तु भारत में हिन्दू-मुस्लिम के बीच विजित और विजेता का सम्बन्ध न होते हुए भी केवल बहुसंख्यक और अलपसंख्यक होने के आघार पर ही हिन्दू संस्कृति को थोपा जा रहा है जोकि संविधान के विरुद्ध है और इसमें अफ़सोसनाक पहलू यह है कि इस्लाम की मूल शिक्षाओं को न समझने वाले मुस्लिम इसको स्वीकार करके इस्लाम की छवि को बिगाड़ने में सहयोग कर रहे हैं।
उपरोक्त कथन के संदर्भ में कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं।
1- यह कि, जब संविधान ने धर्मनिर्पेक्षता का सिद्धान्त लागू किया है तो किसी पुल के शिलान्यास में, सड़क के उद्घाटन में अथवा बिजलीघर आदि किसी भी सरकारी योजना के शुभारम्भ के अवसर पर नारियल तोड़ना, हवन का आयोजन अथवा इसी प्रकार के किसी भी धार्मिक अनुष्ठान किये जाने का क्या औचित्य है?
2- यह कि, विद्यालयों के समारोहों और सरकारी संस्थानों में आयोजित कराए जाने वाले सांस्कृतिक कार्यक्रमों में सरस्वती वन्दना, मूर्ति या तस्वीर पर माल्यार्पण अथवा इसी प्रकार के धर्माधारित कार्य कराए जाने का क्या औचित्य है।
3- यह कि, किसी सरकारी विभाग द्वारा आयोजित प्रतियोगिताओं में ‘नटराज‘ आदि किसी देवी देवता की मूर्ति इनाम के रूप में दिये जाने का क्या औचित्य है।
इसके अलावा एक बात यह भी ग़ौर करने योग्य है कि, उपरोक्त उदाहरणों के द्वारा प्रस्तुत किये गए आयोजनों में मुख्य अतिथि यदि मुसलमान हो तो उसका इस प्रकार के इस्लामविरुद्ध कार्य करने से इंकार देशद्रोह के रूप में देखा जाता है। हो सकता है कि इस्लाम की मूल शिक्षाओं का ज्ञान न रखने वाले कुछ मुसलमान भाई भी हमारी बातों से सहमत न हों जोकि हक़ीक़त को झुठलाने जैसा होगा।
इन तथ्यों पर आधारित बात कहने का मक़सद किसी की भावनाओं को ठेस पहुंचाना न होकर केवल यह बताना है कि इस प्रकार से मुसलमानों को धर्मविरुद्ध कार्य करने के लिए मजबूर किया जाना एक अजीब सी नफ़रत को जन्म देने वाला साबित होता है। यदि धर्मनिर्पेक्षता का ढिंढोरा पीटने वाली सरकार उपरोक्त आयोजनों में किसी भी धर्म पर आधारित कार्यों पर रोक लगाकर इसको अपराध घोषित कर दे और मुसलमानों के द्वारा धर्मविरुद्ध कार्य किये जाने को देशभक्ति का मापदण्ड न बनाए और मुसलमानों को मुसलमान ही रहने दे तो यही छोटी सी दिखाई देने वाली बात लाज़मी तौर से हिन्दू-मुस्लिम भाईचारा क़ायम करने की कुन्जी साबित होगी।
उपरोक्त कथन के संदर्भ में कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं।
1- यह कि, जब संविधान ने धर्मनिर्पेक्षता का सिद्धान्त लागू किया है तो किसी पुल के शिलान्यास में, सड़क के उद्घाटन में अथवा बिजलीघर आदि किसी भी सरकारी योजना के शुभारम्भ के अवसर पर नारियल तोड़ना, हवन का आयोजन अथवा इसी प्रकार के किसी भी धार्मिक अनुष्ठान किये जाने का क्या औचित्य है?
2- यह कि, विद्यालयों के समारोहों और सरकारी संस्थानों में आयोजित कराए जाने वाले सांस्कृतिक कार्यक्रमों में सरस्वती वन्दना, मूर्ति या तस्वीर पर माल्यार्पण अथवा इसी प्रकार के धर्माधारित कार्य कराए जाने का क्या औचित्य है।
3- यह कि, किसी सरकारी विभाग द्वारा आयोजित प्रतियोगिताओं में ‘नटराज‘ आदि किसी देवी देवता की मूर्ति इनाम के रूप में दिये जाने का क्या औचित्य है।
इसके अलावा एक बात यह भी ग़ौर करने योग्य है कि, उपरोक्त उदाहरणों के द्वारा प्रस्तुत किये गए आयोजनों में मुख्य अतिथि यदि मुसलमान हो तो उसका इस प्रकार के इस्लामविरुद्ध कार्य करने से इंकार देशद्रोह के रूप में देखा जाता है। हो सकता है कि इस्लाम की मूल शिक्षाओं का ज्ञान न रखने वाले कुछ मुसलमान भाई भी हमारी बातों से सहमत न हों जोकि हक़ीक़त को झुठलाने जैसा होगा।
इन तथ्यों पर आधारित बात कहने का मक़सद किसी की भावनाओं को ठेस पहुंचाना न होकर केवल यह बताना है कि इस प्रकार से मुसलमानों को धर्मविरुद्ध कार्य करने के लिए मजबूर किया जाना एक अजीब सी नफ़रत को जन्म देने वाला साबित होता है। यदि धर्मनिर्पेक्षता का ढिंढोरा पीटने वाली सरकार उपरोक्त आयोजनों में किसी भी धर्म पर आधारित कार्यों पर रोक लगाकर इसको अपराध घोषित कर दे और मुसलमानों के द्वारा धर्मविरुद्ध कार्य किये जाने को देशभक्ति का मापदण्ड न बनाए और मुसलमानों को मुसलमान ही रहने दे तो यही छोटी सी दिखाई देने वाली बात लाज़मी तौर से हिन्दू-मुस्लिम भाईचारा क़ायम करने की कुन्जी साबित होगी।
Saturday, March 5, 2011
गुरु शिष्य सम्बन्ध Sharif Khan
जिस प्रकार से कुम्हार अपनी कार्यकुशलता और क्षमता के अनुसार साधारण सी मिट्टी को ‘एक बहतरीन बर्तन का रूप देकर उपयोगी बनाता है ठीक उसी प्रकार गुरु भी अपने शिष्य को एक साधारण से इन्सान से महान व्यक्तित्व में परिवर्तित करने की ज़िम्मेदारी निभाता है। मिट्टी को बर्तन का रूप देने से पहले उसमें लचीलापन पैदा करने के लिए कुम्हार जिस प्रकार से उसे भिगोकर, दबाकर व कुचलकर तैयार करता है ठीक उसी प्रकार स्कूल में शिक्षा ग्रहण करने वाले बच्चों को आवश्यकता व बच्चों की सहनशक्ति के अनुसार यदि सज़ा दी जाती है तो इसमें बुराई की कोई बात नहीं है। एक समय ऐसा था जब बच्चे को स्कूल में दाख़िल करते समय अभिभावक यह कहते थे कि, ‘‘मास्टरजी बच्चा आपके हवाले है इसकी हड्डी हमारी और मांस आपका।‘‘ उस दौर में स्कूल में बच्चों की पिटाई भी ख़ूब होती थी परन्तु शिकायत न पिटने वाले बच्चों को होती थी और न ही अभिभावकों को। शिक्षा ग्रहण करके वह बच्चे अच्छे संस्कार हासिल करके स्कूल से निकल कर देश के आदर्श नागरिक साबित होते थे और अपनी ज़िम्मेदारी को ईमानदारी से निभाने का प्रयास करते थे। यदि राजनेता होने का सौभग्य मिलता था तो कोई भी ऐसा प्रस्ताव रखने की कल्पना तक नहीं करते थे जिस से कि चरित्रहीनता को बढ़ावा मिलने का अन्देशा हो। यदि न्यायपालिका में प्रवेश मिलता था तो पूरी कोशिश होती थी कि अपराधी को सज़ा मिले और निरपराध व्यक्ति किसी प्रकार से भी प्रताड़ित न हो। प्रशासन में सेवा का अवसर मिलने पर मानवता को दाग़दार करने वाले कार्य अंजाम देने की कल्पना तक नहीं करते थे। मीडिया को निर्भीक और निष्पक्ष बनाने की बुनियाद भी उन्हीं लोगों की डाली हुई है।
मौजूदा दौर में जब से गुरु जी को एक अच्छी पगार लेने वाले नौकर के रूप में देखा जाने लगा है, तब से गुरु के द्वारा उद्दण्ड छात्र को डांटना तक एक नौकर का मालिक को बेइज्ज़त करने के रूप में देखा जाने लगा है और उसकी प्रतिक्रिया के तौर पर पहले तो अभिभावक स्वयं वहशीपन का सबूत देते हैं तदुपरान्त मास्टरजी पर ग़ैर शाइस्ता इल्ज़ामात लगाकर उनको पुलिस के हवाले कर दिया जाता है और यदि मास्टरजी के दुर्भाग्य से छात्र अनुसूचित जाति का हुआ तो उन पर एस.सी.एस.टी. एक्ट के अन्तर्गत कार्यवाही किया जाना सुनिश्चित हो जाता है।
एक कहावत है, ‘‘बे अदब बे नसीब, बा अदब बा नसीब‘‘। इस कहावत के अनुसार समाज में सर्वोच्च स्थान पाने के हक़दार गुरुओं को बेइज़्ज़त किये जाने के कारण पूरा देश बदनसीबी की आग़ोश में आ चुका है जिसके नतीजे में चरित्र पतन का यह हाल है कि समलैंगिकता जैसे घिनौने कार्य को क़ानूनी संरक्षण दिया जा रहा है। वैवाहिक व्यवस्था आदर्श समाज के निर्माण की बुनियाद है परन्तु लिव इन रिलेशनशिप को मान्यता देने वाले गन्दे क़ानून के द्वारा बिना विवाह किये औरतों मर्दों को एक साथ रहने की छूट देकर सामाजिक ढांचे को छिन्न भिन्न किया जा रहा है। एक ईसाई पादरी को उसके दो मासूम बच्चों के साथ साम्प्रदायिकता के जुनून में आकर ज़िन्दा जला देने वाले अपराधियों की दुर्लभ से दुर्लभतम की श्रेणी का अपराध न मानते हुए विवेकाधिकार का प्रयोग करके उच्चतम न्यायालय द्वारा फांसी की सजा को उम्र क़ैद में बदल दिये जाने का मामला सब जानते ही हैं। इसके बाद भी क्या देश में न्याय प्राप्त होने की आशा की जा सकती है। पुलिस और प्रशासन में भी ज़्यादातर ऐसे ही लोगों की भरमार है जिनका गुरुओं के सम्मान से कोई लेना देना नहीं रहा इसीलिए शिक्षकों के किसी प्रदर्शन पर लाठी चार्ज तक कर देना आम सी बात हो गई है।
इन सब बातों का दर्दनाक पहलू यह है कि ऐसे ही संस्कारहीन छात्र शिक्षित होकर शिक्षक बनने लगे हैं। लिहाज़ा यह एक ऐसी समस्या बन गई है जिसका समाधान बहुत कठिन है।
मौजूदा दौर में जब से गुरु जी को एक अच्छी पगार लेने वाले नौकर के रूप में देखा जाने लगा है, तब से गुरु के द्वारा उद्दण्ड छात्र को डांटना तक एक नौकर का मालिक को बेइज्ज़त करने के रूप में देखा जाने लगा है और उसकी प्रतिक्रिया के तौर पर पहले तो अभिभावक स्वयं वहशीपन का सबूत देते हैं तदुपरान्त मास्टरजी पर ग़ैर शाइस्ता इल्ज़ामात लगाकर उनको पुलिस के हवाले कर दिया जाता है और यदि मास्टरजी के दुर्भाग्य से छात्र अनुसूचित जाति का हुआ तो उन पर एस.सी.एस.टी. एक्ट के अन्तर्गत कार्यवाही किया जाना सुनिश्चित हो जाता है।
एक कहावत है, ‘‘बे अदब बे नसीब, बा अदब बा नसीब‘‘। इस कहावत के अनुसार समाज में सर्वोच्च स्थान पाने के हक़दार गुरुओं को बेइज़्ज़त किये जाने के कारण पूरा देश बदनसीबी की आग़ोश में आ चुका है जिसके नतीजे में चरित्र पतन का यह हाल है कि समलैंगिकता जैसे घिनौने कार्य को क़ानूनी संरक्षण दिया जा रहा है। वैवाहिक व्यवस्था आदर्श समाज के निर्माण की बुनियाद है परन्तु लिव इन रिलेशनशिप को मान्यता देने वाले गन्दे क़ानून के द्वारा बिना विवाह किये औरतों मर्दों को एक साथ रहने की छूट देकर सामाजिक ढांचे को छिन्न भिन्न किया जा रहा है। एक ईसाई पादरी को उसके दो मासूम बच्चों के साथ साम्प्रदायिकता के जुनून में आकर ज़िन्दा जला देने वाले अपराधियों की दुर्लभ से दुर्लभतम की श्रेणी का अपराध न मानते हुए विवेकाधिकार का प्रयोग करके उच्चतम न्यायालय द्वारा फांसी की सजा को उम्र क़ैद में बदल दिये जाने का मामला सब जानते ही हैं। इसके बाद भी क्या देश में न्याय प्राप्त होने की आशा की जा सकती है। पुलिस और प्रशासन में भी ज़्यादातर ऐसे ही लोगों की भरमार है जिनका गुरुओं के सम्मान से कोई लेना देना नहीं रहा इसीलिए शिक्षकों के किसी प्रदर्शन पर लाठी चार्ज तक कर देना आम सी बात हो गई है।
इन सब बातों का दर्दनाक पहलू यह है कि ऐसे ही संस्कारहीन छात्र शिक्षित होकर शिक्षक बनने लगे हैं। लिहाज़ा यह एक ऐसी समस्या बन गई है जिसका समाधान बहुत कठिन है।
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