Tuesday, May 17, 2011

समाज को खोखला कर रही सूदख़ोरी - Sharif Khan

ईश्वर ने हर चीज़ का जोड़ा बनाया है जैसे मर्द-औरत, दिन-रात, अन्धेरा-उजाला, सत्य-असत्य, ऊंचा-नीचा आदि। इसी प्रकार से इन्सान में जहां उच्च आदर्श रखे हैं वहीं नीचतापूर्ण कार्य करने की क्षमता भी प्रदान की है ताकि उसकी परीक्षा हो सके और उसके कर्मों के अनुसार उसको सज़ा या इनाम से नवाज़ा जा सके। समाज में सभी प्रकार के लोग रहते हैं और विभिन्न प्रकार के काम धंधे करके जीविकोपार्जन करते हैं तथा अपनी सामरथ्य के अनुसार समाज सेवा के कार्य भी अन्जाम देते हैं परन्तु एक तबक़ा ऐसा भी है जो सदैव यह कामना करता है कि समाज से ख़ुशहाली समाप्त हो जाए और लोग परेशानहाल रहें तथा कभी स्वावलम्बी न होकर सदैव ज़रूरतमन्द बने रहें। जिन लोगों के कारोबार की बुनियाद दूसरों के ऊपर आई हुई विपत्ति पर रखी गई हो और समाज में आने वाली ख़ुशहाली जिनके कारोबार में मन्दी लाने का कारण बनती हो, समाज को दीमक की तरह से खोखला करने वाले उस तबक़े के लोगों को हम सूदख़ोर के नाम से जानते हैं।

सूदख़ोर के चरित्र पर विचार करके देखें कि यदि किसी व्यक्ति का दरिद्रतावश बीमारी में इलाज नहीं हो पा रहा हो और सहायता के लिए की गई अपील के बदले में उसको सूद पर धन उपलब्ध करा दिया जाए तो उस समय चाहे उसकी ज़रूरत पूरी हो गई हो परन्तु उसके मन में एक नफ़रत की भावना पैदा होना भी स्वाभाविक है कि ऐसी विकट परिस्थिति में भी उसकी सहायता न करके उसको सूदख़ोर के चंगुल में फांस दिया गया। इसी प्रकार से धन के अभाव में यदि किसी की बेटी का विवाह नहीं हो पा रहा हो अथवा किसी का घर आग में भस्म हो गया हो या किसी दूसरी मुसीबत में फंसने के कारण धन की आवश्यकता पड़ गई हो तो सूदख़ोर उस समय उसका काम तो बेशक निकाल देता है परन्तु बदले में आसानी से समाप्त न होने वाला सूद का सिलसिला शुरू हो जाता है। यदि सूदख़ोर का अस्तित्व न रहा होता तब भी लोगों के काम चलते, यह बात दूसरी है कि थोड़ी मुश्किल पेश आती परन्तु लोगों में परस्पर सहायता करने की भावना अवश्य पैदा हो जाती। सूदख़ोरी का एक साइड इफ़ैक्ट यह है कि दूसरों की सहायता करने की भावना रखने वाले सज्जन किसी ज़रूरतमन्द व्यक्ति की अपने पास से सहायता करने के बजाय उसको सूद पर धन उपलब्ध कराने में सहायक होकर अपना कर्तव्य पालन समझकर सन्तुष्ट हो जाते हैं। यदि विकल्प के तौर पर सूदख़ोर का अस्तित्व न रहा होता तो समाज में धन ख़र्च करके परस्पर सहायता करने की भावना प्रबल हो जाती तथा बिना किसी लालच के धन उधार देकर किसी ज़रूरतमन्द का कार्य सिद्ध होने से काफ़ी धन सूदख़ोर के पास जाने से बच जाता।

सूद पर धन लेने वाले प्रायः तीन प्रकार के लोग होते हैं। पहली क़िस्म उन लोगों की होती है जो अपना व्यवसाय बढ़ाने के लिए धन लेते हैं। दूसरी क़िस्म में वह लोग आते हैं जो गाड़ी, मकान या दूसरी ऐश की चीज़ों के लिए लिए क़र्ज़ लेते हैं। ऐसे लोग ज़्यादातर बैंकों से क़र्ज़ लेकर अपना काम चलाते हैं।

तीसरी क़िस्म उन लोगों की होती है जो परिस्थितियों वश क़र्ज़ लेने के लिए मजबूर होते हैं। इनमें कोई अपने परिवार को फ़ाक़ों से बचाने के लिए क़र्ज़ लेता है तो किसी को बीमारी के इलाज के लिए धन की आवश्यकता होती है। बेटी की शादी, बच्चों की शिक्षा तथा अचानक आई किसी विपत्ति से निपटने के लिए धन की आवश्यकता पड़ने पर सूदख़ोर के चंगुल में फंसने वाले व्यक्ति वास्तव में दया के पात्र हैं। इस श्रेणी के लोग प्रायः अपने किसी प्रियजन की मौत होने पर उसके कफ़न आदि के लिए कहीं से सहायता या बिना सूद के धन उपलब्ध न होने पर सूदख़ोर से क़र्ज़ लेने पर मजबूर होते हैं।

सरकारी बैंकों से से कर्ज़ हासिल करने की प्रक्रिया इतनी जटिल और देर लगाने वाली है कि ज़रूरतमन्द व्यक्ति को मजबूरन प्राइवेट सूदख़ोरों के चंगुल में फंसने के लिए मजबूर होना पड़ता है और कभी कभी तो बैंक के मुक़ाबले में 5 गुना तक सूद देना पड़ता है। और फिर सूदख़ोर से ख़ून चुसवाने का सिलसिला बड़ी कठिनता से समाप्त हो पाता है। इस बुराई को किसी भी धर्म में भी अच्छी नज़र से नहीं देखा गया।

मनुस्मृति में ‘‘विष्ठा वार्धुषिकस्यान्न्ं‘‘ अर्थात् सूद खाने वाले का अन्न ब्राह्मण के लिए विष्ठा समान कहा गया है।

इस्लाम धर्म की बात करें तो एक हदीस में तो यहां तक फ़रमाया गया है कि सूद इतना बड़ा गुनाह है कि यदि उसके सत्तर भाग किये जाएं तो उनमें से सबसे हल्का भाग भी ऐसा है कि जैसे कोई व्यक्ति अपनी मां के साथ दुराचार करे।

दीमक की तरह से खोखला कर रहे सूदख़ोरों के चंगुल से समाज को बचाने के लिए आवश्यक है कि कुछ ऐसी संस्थाएं बनें जो छोटे और ग़रीब ज़रूरतमन्दों को बिना सूद के धन उपलब्ध कराने का प्रबन्ध करें ताकि एक अच्छे समाज का निर्माण हो।

5 comments:

DR. ANWER JAMAL said...

Nice post.
दीमक की तरह से खोखला कर रहे सूदख़ोरों के चंगुल से समाज को बचाने के लिए आवश्यक है कि कुछ ऐसी संस्थाएं बनें जो छोटे और ग़रीब ज़रूरतमन्दों को बिना सूद के धन उपलब्ध कराने का प्रबन्ध करें ताकि एक अच्छे समाज का निर्माण हो।

Please see this also :

बात दरअसल यह है कि जनता को लोकतंत्र चाहिए और लोकतंत्र को जनता के चुने हुए प्रतिनिधि चाहिएं। चुनाव के लिए धन चाहिए और धन पाने के लिए पूंजीपति चाहिएं। पूंजीपति को ‘मनी बैक गारंटी‘ चाहिए, जो कि चुनाव में खड़े होने वाले सभी उम्मीदवारों को देनी ही पड़ती है।
देश-विदेश सब जगह यही हाल है। जब अंतर्राष्ट्रीय कारणों से महंगाई बढ़ती है तो उसकी आड़ में एक की जगह पांच रूपये महंगाई बढ़ा दी जाती है और अगर जनता कुछ बोलती है तो कुछ कमी कर दी जाती है और यूं जनता लोकतंत्र की क़ीमत चुकाती है और चुकाती रहेगी।
लोकतंत्र और अभिव्यक्ति की आज़ादी की क़ीमत अगर महज़ 5 रूपये मात्र अदा करनी पड़ रही है तो इसमें क्या बुरा है ?
और जो लोग इससे सहमत नहीं हैं , वे इसका विकल्प सुझाएँ. ऐसा विकल्प जो कि व्यवहारिक हो. नेताओं को दोष देने से पहले जनता खुद भी अपने आपे को देख ले निम्न लिंक पर जाकर :

http://ahsaskiparten.blogspot.com/2011/05/exploitation.html

S.M.Masoom said...

बहुत ही बेहतरीन लेख़

Shah Nawaz said...

वाकई सूद समाज को दीमक की तरह खोखला कर रहा है... बल्कि कर क्या रहा है, समाज को इस दीमक ने काफी हद तक खोखला कर दिया है....

Ayaz ahmad said...

शरीफ साहब आपने सूद का वास्तविक रूप उजागर कर दिया

Muhammad Ali said...

बहुत ही अच्छा लेख आपने लिखा सूदखोरी के सन्दर्भ में , पढ़कर काफी ख़ुशी हुई /
इसमे कोई शक नहीं कि सूदखोरी से सिवाए नुक्सान के कुछ हासिल नहीं! इसका सबसे बड़ा नुकसान जो मुझे समझ आता है वो ये है कि अमीर आदमी ज्यादा अमीर बनता जा रहा है और ग़रीब और भी ज्यादा ग़रीब. ! सूद चाहे वियक्तिगत तौर पर लिया हो या किसी सरकारी संस्था से वो किसी भी सूरत में इंसानी ज़िन्दगी के भले में नहीं है! हमारे देश में हो रही आत्महत्याओं का एक अच्चा क्रेडिट इस सूदखोरी और ब्याज्खोरी के खाते में जाता है! जिसमे मरने वाले अधिकतर किसान और गरीब तबका है ! अब सवाल ये है कि इसका किया हल हो जो सब के हित में हो ..................
डॉक्टर अनवर जमाल साहब ने लिखा है कि " इसका विकल्प सुझाएँ. ऐसा विकल्प जो कि व्यवहारिक हो. नेताओं को दोष देने से पहले जनता खुद भी अपने आपे को देख ले निम्न लिंक पर जाकर,
में आपके दिए हुई लिंक पर गया और नतीजा ये निकला कि आपस में एक दुसरे को दोष देकर हम इस मसले का हल नहीं निकाल सकते! ज़िम्मेदारी के तौर पर लोगो को जब तक इस बात का एहसास न कराया जाए कि वो अब तक कितनी घिनोनी चीज़ में लिप्त हैं और इसके कितने दुष्परिणाम हम रोजाना अखबारों में देख रहे हैं तब तक वो इससे नहीं रुकेंगे !
सामाजिक संस्था और कुछ सदस्यों का गठबंधन इसके लिए कारगर साबित हो सकते हैं, जिससे कि ज़रूरत मंदों कि ज़रूरत पूरी हो सके और उन पर सूद का भार न पड़े एक कोशिश का हिस्सा हैं जो कि ऊपर के ब्लॉग में राय भी है. ये राय उस वक़्त तक बिलकुल ठीक है जब तक कि इस्लामी निजाम कयाम हो.

बहुत बहुत शुक्रिया , एक अच्छी पोस्ट ..............