Wednesday, January 7, 2015

मुसलमान चाहें तो 'घर वापसी' को भाजपा के ताबूत में आख़री कील बना दें। Sharif Khan

पाप का घड़ा भरने पर जब फूटता है तो पापी के अस्तित्व को मिटा देता है। भाजपा और उसके कुनबे द्वारा रथ यात्रा, मस्जिद विध्वंस और उसके बाद गुजरात में मुसलमानों के साथ हैवानियत का खेल खेलने के बाद देश भर के शैतानों का समर्थन प्राप्त करके केन्द्र में सत्ता प्राप्ति से उत्साहित होकर अब 'घर वापसी' के नाम से मुसलमानों को हिन्दू बनाने का जो अभियान चलाया जा रहा है यह कोई सामान्य बात नहीं है। इस अभियान के पीछे केवल मुस्लिम दुश्मनी होती तो उसको दो भाइयों के झगड़े की तरह से मिल बैठ कर समाप्त किया जा सकता था लेकिन मुसलमानों को हिन्दू बनाये जाने की मानसिकता केवल मुस्लिम दुश्मनी न होकर इस्लाम दुश्मनी है जिसका अर्थ यह है कि भारत से इस्लाम के वजूद को मिटाने की योजना बनाई गई है जिसके सबूत के तौर पर एक शैतान का यह कथन ही काफ़ी है कि 2021 तक देश में कोई मुसलमान न बचेगा या यूं कहिये कि देश से इस्लाम का अस्तित्व समाप्त कर दिया जाएगा। भाजपा का ग़ुलाम मीडिया इस योजना में बराबर का शरीक है। जब पाप का घड़ा भर चुका होता है तो हर दाव उल्टा पड़ने लगता है। यदि 'घर वापसी' का दाव उल्टा पड़ गया तो भाजपा की मौत निश्चित है।  
यदि इस बात को अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर देखें तो दुनिया भर में बसे हुए और रोज़ी रोटी के लिए गए हुए हिन्दुओं को इस अभियान की प्रतिक्रिया में बहुत बड़ी क़ीमत चुकानी पड़ सकती है। 1972 में युगांडा से भारतीयों को जब निकाला गया था तो हालांकि उनको अपनी सम्पत्ति लेजाने का अधिकार दिया गया था लेकिन इसके बावजूद भी ऐसा लगता था जैसे लोग लुटे पिटे आये हों और इस घटना ने पूरे देश को हिला दिया था।  
आज हिन्दू दुनिया के लगभग हर देश में मौजूद हैं लेकिन राजनैतिक दृष्टिकोण से दो तीन छोटे छोटे देशों के अलावा कहीं भी उनका वर्चस्व क़ायम नहीं है हालांकि बांग्लादेश जैसे देश में तो करोड़ों की तादाद में हैं जबकि मुसलमान भी दुनिया के हर देश में मौजूद हैं और दुनिया के लगभग एक तिहाई देशों में हुकूमत कर रहे हैं। 
मुसलमान आपस में चाहे कितने भी लड़ते हों लेकिन ऐसे तबके के लोगों को पसन्द नहीं करते जो इस्लाम के वजूद से ही नफ़रत करता हो और उसको मिटाने के अभियान पर काम कर रहा हो और अभियान भी ऐसे योजनाबद्ध तरीक़े से हो जिसमें 2021 तक की समय सीमा भी तय कर दी गई हो। 
यदि पूरा मुस्लिम समाज भारत के इन बदमाशों की इस योजना को सारी दुनिया के देशों में प्रचारित करना अपना धार्मिक कर्तव्य बना ले और केवल शैतानों के बयानात और मुसलमानों को हिन्दू बनाये जाने की तस्वीरें ही अपने हर ज़रिये को काम में लेते हुए अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रचारित कर दे और इस प्रकार उसकी कहीं से भी प्रतिक्रिया आ गई तो निश्चित रूप से देश का हिन्दू समाज ही आर एस एस के अड्डे को उखाड़ फैंकेगा। यदि ऐसा हो सका तो भाजपा के ताबूत में तो यह आख़री कील साबित होगी। इसके बाद यह देश एक बार फिर हिन्दू मुस्लिम भाईचारे से महकता नज़र आएगा। 

Tuesday, November 25, 2014

राष्ट्रपति पद की गरिमा और उसका रख रखाव। Sharif Khan

 भारत की लोकतान्त्रिक व्यवस्था में राष्ट्रपति का पद राजनैतिक गन्दगी से दूर एक विभूति के तौर पर सृजित किया हुआ माना गया है इसीलिए यह माना जाता है कि राष्ट्रपति एक ऐसा व्यक्ति होगा जो किसी के प्रति दुर्भावना न रखता हो, किसी तरह के पूर्वाग्रह से ग्रसित न हो और किसी भी प्रकार का पक्षपात करने वाला न हो।
यहाँ एक पूर्व राष्ट्रपति और दूसरे मौजूदा राष्ट्रपति की भूमिका पर नज़र डाल कर देखते हैं -
पूर्व राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा द्वारा 7 जनवरी 1993 को एक आर्डीनेन्स के द्वारा उच्च न्यायालय में चल रहे बाबरी मस्जिद के सभी मुक़दमों को निरस्त करके उच्चतम न्यायालय से इस सवाल का जवाब मांगा गया कि विवादित भवन के स्थान पर कोई दूसरा धार्मिक निर्माण था या नहीं।
क्या ऐसा नहीं लगता कि महामहिम को यह अन्देशा रहा हो कि यदि न्यायालय इन्साफ़ कर बैठा तो नाजायज़ मन्दिर के निर्माण का सपना साकार न हो सकेगा इसलिए इस मस्जिद की नींवें तक खुदवाने का प्रबन्ध कर दिया गया। इस तरह से देश के सर्वोच्च पद की गरिमा को धूल में मिला दिया गया। 
मौजूदा राष्ट्रपति की बात करें तो अफज़ल गुरु को बेगुनाह होते हुए भी न्यायालय द्वारा फांसी की सज़ा सुनाई गई थी जोकि अदालत की टिप्पणी से ज़ाहिर थी कि देश के ज़मीर की आवाज़ के मद्दे नज़र मौत की सजा दी जा रही है। 
अदालत के सही फ़ैसले के बावजूद भी जब राष्ट्रपति को फांसी की सजा माफ़ करने का अधिकार है तो अदालत के गलत फैसले से किसी बेगुनाह को फांसी से बचाना तो फ़र्ज़ हो जाता है लेकिन महामहिम के दिल में मुसलमानों के प्रति भड़क रही नफ़रत की आग को बुझाने के लिए एक बेगुनाह को शहीद कर दिया गया। 
इस तरह से एक बार फिर सर्वोच्च पद की गरिमा दाग़ी हो गई। 
यदि राज्यपाल की बात करें तो इस पद को तो राजनैतिक गन्दगी से पूरी तरह गन्दा कर दिया गया है जबकि यह पद राष्ट्रपति के प्रतिनिधि के तौर पर राज्य का सर्वोच्च पद होता है। 
मिसाल के तौर पर बाबरी मस्जिद को गिराने में मुख्य भूमिका निभाने वाले कल्यान सिंह को राज्यपाल बनाया जाना तो किसी तरह से भी उचित नहीं हो सकता। 
उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह के जन्मदिन के खर्च के स्रोत की बाबत पूछने पर सवाल पूछने वालों की मानसिकता के अनुरूप आज़म खां ने शानदार कटाक्ष किया कि पैसा दाऊद से मिला और अबु सुलेम से मिला और आतंकवादियों से मिला। इस कटाक्ष से सवाल करने वालों को शर्मिन्दा होकर  जाना चाहिए था लेकिन उत्तर  राजयपाल राम नाईक ने अपने आकाओं की नमक हलाली का हक़ अदा करने के लिए इसी को मुद्दा बना डाला और ऐसा लगता है जैसे आज़म खां के इस बयान को इक़रारी बयान मान कर आतंकवादियों से उनके रिश्ते साबित करने की क़सम खा ली हो। 
राजयपाल के पद की गरिमा इसी तरह दाग़दार होती है। 

Friday, September 5, 2014

सहशिक्षा देश के लिए घातक है। Sharif Khan

सहशिक्षा (coeducation) की इस्लामी शरीयत इजाज़त नहीं देती इसलिए अफ़ग़ानिस्तान जैसे ग़रीब मुल्क में लड़कियों के लिए अलग स्कूलों का प्रबन्ध किये बिना किस तरह से लड़कियों को स्कूली शिक्षा दी जा सकती है? इस बात को इस्लामी शरीयत से नफ़रत करने वाले लोगों द्वारा अफ़ग़ानिस्तान को लड़कियों की शिक्षा के विरोधी के रूप में प्रचारित किया जाता रहा है। इसी सन्दर्भ में यह बात भी जान लेनी चाहिए कि क़ुरआन और हदीस को समझने वालों में तालिबान पहले दर्जे में हैं क्योंकि वह इन पर अमल करना भी जानते हैं और कराना भी जानते हैं। इस प्रकार से लड़कियों के लिए यदि अपने देश में वह अलग स्कूलों का प्रबन्ध होने तक उनको स्कूल भेजने से रोकते हैं तो क्या हर्ज है? 
भारत में भी अच्छे संस्कारों की पृष्ठभूमि वाले परिवारों में सहशिक्षा को कभी अच्छा नहीं समझा गया है लेकिन देश में प्रशासन और न्यायपालिका द्वारा संविधान का सहारा लेकर व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के नाम पर जिस तरह से लिव इन रिलेशनशिप को जायज़ करके यौन सम्बन्ध बनाये जाने की आज़ादी दी गई है उससे व्यभिचार के दरवाज़े खुल गए हैं। यह बात अलग है कि लिव इन रिलेशनशिप में साथ रहते हुए बनाये गए यौन सम्बन्ध आपस में मनमुटाव होने पर यौन शोषण या बलात्कार मान लिए जाते हैं। इस प्रकार के माहौल में सहशिक्षा, शिक्षा के साथ यौन सुख भी उपलब्ध कराने का साधन बन रही है। इसका ही नतीजा है कि भारत में भी शिक्षा पूरी होने तक सहशिक्षा की बदौलत काफी संख्या में लड़कियां यौन सुख से परिचित हो चुकी होती हैं। इस कीमत पर गैरतमंद लोग तो अपनी लड़कियों को शिक्षा दिलाना कभी पसंद नहीं कर सकते चाहे वह रूढ़िवादी या शिक्षा के क्षेत्र में पिछड़े हुए ही क्यों न कहलाएं। 
अमेरिका से शिक्षा प्राप्त लोगों को भारत में बहुत अच्छी नज़र से देखा जाता है जबकि वहां से शिक्षित 90 प्रतिशत लड़कियाँ शादी से पहले सैक्स का अनुभव प्राप्त कर चुकी होती हैं।
भारत में इस देश कि संस्कृति पर गर्व करने वाले संस्कारवान पारिवारिक पृष्ठभूमि के लोग देश की संस्कृति और सभ्यता की रक्षा के मक़सद से अगर सहशिक्षा का विरोध करते है तो नासमझ लोग उसको तालिबानीकरण का नाम देते हैं। 
सहशिक्षा को स्वीकार करने के नतीजे में अपने ज़मीर को मुर्दा करना पड़ता है क्योंकि भारत में अमेरिका के दर्शन कराने वाले देश के कर्णधार सहशिक्षा, लिव इन रिलेशनशिप से सामाजिक मान्यताओं की धज्जियाँ उड़ाते हुए अगले क़दम के तौर पर एच आई वी के संक्रमण से बचाने का बहाना करके चरित्र पर ध्यान देने के बजाए कण्डोम की सहायता से सुरक्षित यौन सम्बन्ध अर्थात व्यभिचार के लिए प्रेरित करना देश की उन्नति में सहायक मान रहे हैं। 
इस प्रकार से यदि देश की संस्कृति की रक्षा करके भारत में एक साफ़ सुथरा माहौल बनाना चाहते हैं तो सहशिक्षा को समाप्त करना पड़ेगा। 

Tuesday, September 2, 2014

लव जिहाद की हकीकत। Sharif Khan

हिन्दू समाज में लड़कियों में शिक्षा का प्रतिशत काफी अधिक होने के कारण उनमें जो जागृति आई है उसके नतीजे में वह अपने समाज की कथनी और करनी में अन्तर के उस पाखण्ड से परिचित हो चुकी हैं जिसमें कहा तो जाता है कि "जहाँ नारी की पूजा होती है वहां देवताओं का वास होता है" परन्तु यह बात कथन तक ही सीमित है क्योंकि इन्ही लोगों के कर्मों पर जब इस समाज की बेटियां नज़र डालती हैं तो अपने ही परिवार में स्वयं को एक बोझ की तरह महसूस करने लगती हैं। जब वह इस तथ्य से परिचित होती हैं कि उनका जन्म उनके माँ बाप के लिए एक अभिशाप जैसा है क्योंकि बचपन से ही वह माँ बाप को अपने विवाह की चिन्ता में ग्रस्त देखती हैं और यह भी देखती हैं कि इस समाज में बहुत सी लड़कियों का दहेज़ के बिना विवाह नहीं हो पाता है या फिर कम दहेज़ से विवाह होने के बाद ससुराल में प्रताड़ित किया जाता है और कभी कभी तो केवल कम दहेज़ के कारण बहु को जलाकर मारने के भी समाचार सुनने को मिल जाते हैं। इसके अतिरिक्त जब वह इस भयानक तथ्य से परिचित होती हैं, कि उनकी माँ के दोबारा गर्भ धारण करने के बाद जब डाक्टरी जांच से यह पता चला था कि फिर कन्या का जन्म होने वाला है तो माँ बाप ने उनकी उस बहन को पैदा होने से पहले ही मार डाला था, तो उनको ऐसे समाज से नफरत हो जाना अस्वाभाविक नहीं है।
 लड़कियों में आने वाली शिक्षा का एक प्रभाव यह भी पड़ा कि जब उन्होंने देखा कि लड़कियों के विवाह या कन्यादान को लड़कियों का दान माना जाता है, जबकि दान इंसान का न होकर जानवर या किसी वस्तु का होता है, तो उनको समाज में अपनी हैसियत का भी अन्दाज़ा हो गया। धर्म के नाम पर अपनी बेटियों को देवदासियों के रूप में वैश्या बनाया जाना भी धर्म के प्रति उनकी आस्था को डांवाडोल करने के लिए पर्याप्त साबित हुआ।
शिक्षा से हिन्दू समाज की लड़कियों में अपने अधिकारों के प्रति भी जागरूकता आई है जिसके नतीजे में ऐसे घुटन भरे वातावरण और बेटियों के लिए असुरक्षित समाज को अगर लड़कियाँ तिलाञ्जलि देकर किसी बेहतर वातावरण वाले महिलाओं के लिए सुरक्षित समाज की ओर आकर्षित होती हैं तो यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया है जिस पर अंकुश नहीं लगाया जा सकता।
युवकों के हालात पर विचार करें तो हिन्दू समाज में युवक दहेज़ के बिना विवाह को अधूरा सा समझते हैं जबकि मुस्लिम समाज के युवकों में इस कुरीति ने अभी अपनी जड़ें नहीं जमाई हैं। इसके अतिरिक्त यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि आधुनिक शिक्षा प्राप्त युवा वर्ग काफी हद तक संस्कारहीन हो रहा है जिसके नतीजे में बेपर्दा और आधुनिक वेशभूषा वाली लड़कियां चूँकि हिन्दू समाज में अधिक हैं और विपरीत लिंग में आकर्षण प्राकृतिक है इसलिए मुस्लिम युवकों का हिन्दू युवतियों के प्रति आकर्षण और हिन्दू युवतियों की अपने समाज के प्रति नफ़रत और बेहतर समाज के प्रति झुकाव दोनों को एक होने के लिए प्रेरित करते प्रतीत होते हैं।
धार्मिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो चूँकि इस्लाम धर्म किसी मुस्लिम के गैरमुस्लिम से विवाह को मान्यता नहीं देता इसलिए अपने सुरक्षित भविष्य के लिए बिना दहेज़ के किसी मुस्लिम युवक से विवाह का निर्णय लेने वाली हिन्दू लड़की आसानी से धर्म परिवर्तन करने को तैयार हो जाती है। यद्यपि केवल अल्लाह को राज़ी करने की नीयत से इस्लाम क़बूल करने ही को पसन्द फ़रमाया गया है लेकिन इस तरह से धर्म परिवर्तन भी अमान्य नहीं है यदि शेष जीवन को इस्लाम के मुताबिक़ ही ढाल लिया जाए।
 कुछ हिन्दूवादी संगठन अपनी ख़सलत के मुताबिक़ मुस्लिम दुश्मनी की भावना से प्रेरित होकर इस प्रक्रिया को लव जिहाद का नाम देकर बदनाम करके हिन्दू मुस्लिम भाईचारे को चोट पहुंचा रहे हैं और ऐसा ज़ाहिर कर रहे हैं जैसे साज़िश के तौर पर मुसलमान अपने नौजवानों द्वारा हिन्दू लड़कियों को प्रेम के जाल में फंसाकर धर्म परिवर्तन कराने का अभियान चला रहे हों। इस प्रकार से वह यह भी भूल जाते हैं कि मुसलमान ऐसा करके अपनी लड़कियों के बदले में हिन्दू लड़कियों का विवाह करना कभी नहीं चाहेंगे। 
जिस तरह से लव जिहाद का नाम देकर ऐसे विवाहों और स्वेच्छा से किये गए धर्म परिवर्तन के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने वाले अराजक तत्व अगर इस प्रकार से मुस्लिम समाज द्वारा अपनाई गई लड़कियों का सर्वे करा कर देख लें तो वह अपनी दूसरी बहनों से ज़्यादा इज्जत और सुकून की ज़िन्दगी गुजारती नज़र आएंगी। 

Saturday, January 12, 2013

संगठित साज़िश का जवाब संगठन के बिना संभव नहीं Sharif Khan

भारत में अंग्रेजों ने चूंकि मुसलामानों से हुकूमत छीनी थी इसलिए उनको मुसलमानों से ही इस बात का ख़तरा था कि उनसे हुकूमत को दोबारा हासिल करने के लिए मुसलमान ही कोशिश कर सकते हैं लिहाज़ा उन्होंने मुसलमानों को ज़ुल्म के ज़रिये दबाने और कुचलने की परम्परा प्रारम्भ की जो राजनैतिक दृष्टिकोण से अनुचित नहीं थी। अंग्रेजों के चंगुल से मुल्क को आज़ाद कराने में हिन्दुओं और मुसलमानों ने बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया और मुल्क आज़ाद हो गया परन्तु मुसलमानों के ख़िलाफ़ चलने वाला अभियान बजाय बन्द होने के और ज्यादा उग्र हो गया जिसका कोई औचित्य नहीं है। अंग्रेज़ी शासन में तो केवल हुकूमत ही मुसलमानों के खिलाफ़ कार्यरत थी परन्तु आज़ाद हिंदुस्तान में सरकार के साथ सरकार-समर्थित हिन्दूवादी संगठन भी योजनाबद्ध तरीक़े से मुसलमानों को दबाने और कुचलने के अभियान में शरीक हैं जिससे देश बारूद के ढेर पर बैठा हुआ प्रतीत हो रहा है।* देश के बटवारे के समय लाखों मुसलमानों की सांप्रदायिक तत्वों द्वारा शहादत
* 1987 में मेरठ में साम्प्रदायिक तत्वों के साथ मिलकर पुलिस और पी ए सी के द्वारा सेकड़ों मुसलमानों का क़त्ल और मुजरिमों को आजतक सज़ा न दिया जाना
* बाबरी मस्जिद को गिराने में पूरे देश के सरकारी और ग़ैरसरकारी सफेदपोश बदमाशों का एकजुट होकर देश को दुनिया के सामने कलंकित करना
* गुजरात में सरकार द्वारा प्रायोजित अभियान के द्वारा हज़ारों मुसलमानों के क़त्लेआम के साथ शरीफ़ज़ादियों की इज्ज़त से खिलवाड़
* कश्मीर में मुस्लिम बहुसंख्यक होने के कारण सांप्रदायिक तत्वों के कामयाब होने की उम्मीद न होने पर सरकार द्वारा फ़ौज के द्वारा मुसलमानों पर उपरोक्त क़िस्म का ज़ुल्म कराया जाना
आदि कुछ ऐसे उदहारण हैं जिनकी सत्यता से इन्कार नहीं किया जा सकता।
इसकी प्रतिक्रिया में यदि बचाव करने के बजाय ईंट का जवाब पत्थर से देने की परिपाटी शुरू हो गई तो बारूद के ढेर पर बैठा हुआ हिंदुस्तान तबाह हो जाएगा। इसलिए ज़रूरी है कि मज़लूम मुसलमानों के साथ देश का दर्द रखने वाले शरीफ़ हिदू (जो बहुसंख्या में हैं) भी मिलकर संगठित तौर पर मुसलमानों के खिलाफ़ चलाई जा रही इस साज़िश का उसी तरह से एकजुट होकर मुक़ाबला करें जिस तरह से देश को आज़ाद करने में एकजुट होने का सबूत दिया था।

Monday, September 24, 2012

हिन्दू मुस्लिम भाईचारे की कुन्जी Sharif Khan

‘यह देश हमारा है’ यह सोचना एक अच्छी बात है जो बुरी बात में बदल जाती है जब इसके साथ यह भी जोड़ दिया जाय कि हमारे अलावा यह देश किसी का भी नहीं है। आर. एस. एस. जनित हिन्दू मानसिकता द्वारा इस प्रकार की भावना की उत्पत्ति ने देश में अल्पसंख्यकों पर ज़ुल्म और ज़्यादती का रास्ता खोल दिया है। यदि कुछ बातों पर निष्पक्षता से विचार किया जाए तो देश को बरबादी की राह से हटा कर उन्नति की ओर ले जाया जा सकता है।


1- यह कि, हिन्दू मन्दिरों में पूजा अर्चना की पद्धति में घण्टा बजाना, आरती गाना व भजन कीर्तन आदि में माइक व दूसरे ध्वनि उत्पादक यन्त्रों का प्रयोग आनिवार्य है। इसके विपरीत मस्जिदों में दिन में पांच बार अज़ान इस प्रकार देने का नियम है कि दूर के रहने वालों को इसकी आवाज़ पहुंच जाए क्योंकि यह इस बात की पुकार है कि नमाज़ का समय हो गया है लिहाज़ा लोग मस्जिद में आ जाएं इसलिये अज़ान के लिये माइक का प्रयोग आवश्यक है इस कार्य में 2-3 मिनट से अधिक समय नहीं लगता है इसके अलावा नमाज़ पढ़ने के समय इमाम की आवाज़ मस्जिद में मौजूद सभी लोगों तक पहुंच जाए इसलिये माइक प्रयोग करते हैं परन्तु इसकी आवाज़ मस्जिद के अन्दर तक ही सीमित रहती है जिससे किसी को भी परेशानी नहीं होती।

साम्प्रदायिकता का ज़हर घुलने के बाद 2-3 मिनट की अज़ान की आवाज़ उन्ही लोगों के कानों में चुभने लगी जो जागरण और अखण्ड पाठ जैसे धार्मिक कार्यों में कान फाड़ने वाली ध्वनि के प्रयोग को भगवान की भक्ति समझते हैं।

2- यह कि, जब हिन्दू मुस्लिम भाईचारा क़ायम था और परस्पर वैर भाव के बीज नहीं बोए गए थे तब सुबह सूरज निकलने से पहले पढ़ी जाने वाली नमाज़ की समाप्ति के बाद ही मन्दिरों में पूजा अर्चना का चलन था और किसी भी धार्मिक जलूस आदि के नमाज़ के समय मस्जिद के आगे से होकर गुज़रते हुए स्वयं ही ध्वनि उत्पादक यन्त्रों की आवाज़ को कम कर लिया जाता था ताकि नमाज़ पढ़ने वालों की एकाग्रता भंग न हो। इस प्रकार से हिन्दुओं के प्रति मुसलमानों के दिलों में श्रद्धा भाव पैदा होना लाज़मी था।

अब स्थिति यह है कि अदूरदर्शी संम्प्रदायिक तत्वों द्वारा निकाले जाने वाले धार्मिक जलूसों को, यदि नमाज़ पढ़ी जा रही हो तो, जानबूझकर मस्जिद के सामने रोक कर नमाज़ में ख़लल डालने की कोशिश की जाती है।

3- यह कि, जिन मस्जिदों के पीछे सड़क या ख़ाली जगह होती है तो रमज़ान के महीने में होने वाली जुमे की नमाज़ों में जगह की कमी के कारण मस्जिद से बाहर नमाज़ पढ़ लेते हैं जिससे किसी को कोई हानि नहीं होती और इसमें आधा घण्टे से अधिक समय भी नहीं लगता।

मुसलमानों से बेमतलब का बैर रखने वाले सान्प्रदायिक हिन्दू इस प्रकार सड़क पर पढ़ी जाने वाली नमाज में अड़चन डालने की भरसक कोशिश करते हैं जबकि, भगवती जागरण आदि के आयोजनों को आमतौर से पूरी सड़क को बन्द करके किये जाने की प्रथा सी बना दी गई है चाहे उसमें 50 से अधिक लोग भी इकट्ठे न हो पाते हों। इससे मुसलमानों में हिन्दुओं के प्रति प्रेम भाव को ठेस पहुंचना लाज़मी है।

4- यह कि, होली दहन आमतौर से सड़क पर लकड़ियां जमा करके किया जाने की परम्परा सी बन गइै है जिससे आस पास के मकानों को क्षति पहुंचने के साथ जन स्वास्थ्य को भी हानि होने का अन्देशा रहता है। यदि यह कार्य किसी मैदान में या खेत में किया जाए तो सभ्यता का परिचायक होने के साथ साथ किसी के अधिकारों के हनन का थी अन्देशा नहीं रहता।

प्रायः देखने में आता है कि बज़ाहिर यह छोटी दिखाई पड़ने वाली बातें धीरे धीरे परस्पर स्थाई नफ़रत को जन्म देती हैं जिसका लाभ साम्प्रदायिक प्रवृत्ति के लोग और स्वार्थी तत्व आसानी से उठा लेते हैं। यदि दोनों सम्प्रदाय एक दूसरे की भावनाओं का आदर करें और एक दूसरे को कष्ट पहुंचाकर प्रसन्नता का इज़हार करने की प्रवृत्ति को छोड़ दें तो यही बात हिन्दू मुस्लिम भाईचारे की कुन्जी साबित होगी।

Friday, August 3, 2012

बहादुरी पुरुषत्व का गहना Sharif Khan

सभ्य समाज में प्राचीन काल से ही बहादुरों का सम्मान होता रहा है। बहादुर व्यक्ति कमज़ोर, सोए हुए और निहत्थे पर वार करने से बचता है और ऐसी हरकत करने वाले को बुज़दिल और नीच कहा जाता है। पुलिस हिरासत में मौत, जेल में क़ैदियों के साथ अमानवीय व्यवहार आदि हरकतें इसी श्रेणी में आती हैं। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर विचार करें तो अमेरिका द्वारा अफ़ग़ानिस्तान में मासूम नागरिकों का क़त्ल उसकी बुज़दिली और नीचता को साबित करने के लिए काफ़ी है। ड्रोन हमले इन्सानियत को शर्मसार करने वाला जीता जागता उदाहरण है। इन हमलों में अभी तक एक भी ऐसा व्यक्ति नहीं मारा गया है जिससे अमेरिका को किसी क़िस्म का नुक़सान पहुंचने का अन्देशा हो। बहुत सी बातें तो चीन व रूस आदि देशों की भी अमेरिकी सरकार को बुरी लगने वाली होंगी तो फिर वहां ड्रोन हमलों से सबक़ सिखाने की हिम्मत क्यों नहीं जुटाता पाता है। सभ्य समाज की परम्परा यह है कि किसी की मौत यदि हो जाती है तो दोस्त और दुश्मन सब उसके ग़म में शरीक हो जाते हैं परन्तु महान संस्कृति और सभ्यता की दौलत से मालामाल भारत अपने पड़ौसी देश के मासूम नागरिकों के बुज़दिलाना तरीक़े से किये जा रहे क़त्ल के ख़िलाफ़ नैतिकता के आधार पर भी दो शब्द कहने को तैयार नहीं है। क्या इसलिए कि मारे जाने वाले लोग मुसलमान हैं और उनके पक्ष में कुछ कहना देश के संघी हिन्दुत्व वादियों को नाराज़ कर देगा या फिर इसलिए कि दुनिया का सबसे बड़ा आतंकवादी देश अमेरिका नाराज़ हो जाएगा। ध्यान रहे कि ज़ुल्म के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलन्द करना भी बहादुरी है और यही पुरुषत्व का गहना है।