Wednesday, June 30, 2010

सत्य के खिलाफ़ असत्य एकजुट

आधे अधूरे ज्ञान के आधार पर कही गयी बात मज़ाक़ बन कर रह जाती है कोशिश यह कीजिये कि तथ्यों के आधार पर बात कहें तथा आपकी बात में नफ़रत की गंध न आये. सदैव से ही सत्य के ख़िलाफ़ असत्य एकजुट होता आया है. इसकी जिंदा मिसाल दुनिया के वर्तमान हालात हैं. ३ के नाम से जाने जाने वाले अमेरिका के आतंकवादी संगठन के सक्रिय सदस्य रहे हेरी ट्रूमैन को द्वितीय महायुद्ध में अमेरिकी जनता ने अपना प्रेसिडेंट चुनकर अपनी मानसिकता का जो परिचय दिया वो आजतक कायम है और हेरी ट्रूमैन ने अमेरिकी जनता के विश्वास को कायम रखते हुए जापान के दो नगरों पर एटम बम डालकर अमेरिका, वहां की सरकार और वहां की जनता का युद्धोन्मादी, आतंकवादी, अत्याचारी तथा मानवता के नाम पर कलंक होना साबित कर दिया और ये परंपरा आज तक कायम है अर्थात तब से लेकर आज तक अमेरिका लगातार कहीं न कहीं जंग छेड़े हुए है चाहे कोई भी प्रेसिडेंट आया हो जंग, ज़ुल्म और नाइंसाफ़ी के रास्ते से नहीं हटा है. वहां के मौजूदा प्रेसिडेंट ओबामा ने आदेश जरी किया है की अब तक जो ६० देशों में अमेरिकी फ़ौज थी वह १५ और देशों में भेजकर ७५ देशों में पहुंचा दी जाएगी. अमेरिका जैसे आतंकवादी देश को यह हक किसने और क्यों दिया, क्या बता सकेंगे? अमेरिका और तथाकथित आतंकवाद के खिलाफ़ एकजुट होने वाले अमेरिका के समर्थक देश क्या सत्य के खिलाफ़ असत्य का एकजुट होना साबित नहीं कर रहे हैं? मुस्लिम देशों में जहाँ भी शरियत लागू करने की कोशिश होती है उसी के खिलाफ़ गुंडों के गिरोह में सम्मिलित सारे देश एकजुट होकर कार्रवाई करने पर आमादा हो जाते हैं क्योंकि वह दुनिया में सऊदी अरब (जहाँ शरियत के कानून की झलक है) के जैसे माहौल की कल्पना करके परेशान हो जाते हैं. क्योंकि वह समझते हैं की यदि ऐसा हुआ तो उनके अन्दर की राक्षसी प्रवृत्तियों का दमन हो जायेगा और ...........

Saturday, June 26, 2010

पुलिस के लिए पापों के प्रायश्चित् का सुनहरी मौक़ा

1857 की क्रांति की विफलता के बाद अंग्रेज़ों ने जब दोबारा भारत में शासन की बागडोर संभाली तब शासन को मज़बूती प्रदान करने के लिए सरकार को एक ऐसे तन्त्र की ज़रूरत पेश आई जिस का जनता में भय व्याप्त हो। इसी नीति के तहत अंगे्रज़ी सरकार ने पुलिस तन्त्र कायम किया जिसका मक़सद केवल जनता के दिल में ख़ौफ़ पैदा करके हुकूमत करना था। सरकार की यह योजना कामयाब भी रही परन्तु पुलिस को सरकार ने निरंकुश होकर जनता पर अत्याचार करने की छूट फिर भी नहीं दी। जिसके नतीजे में न तो उस ज़माने की पुलिस कीे हिरासत में बेक़सूरों की मौत होती थीं, न फ़र्जी मुठभेड़ दिखाकर खुलेआम क़त्ल होते थे और न ही पुलिस थानों में महिलाओं से बलात्कार की घटनाएं होती थीं। आज 21वीं सदी में सभ्यता का ढिंढोरा पीटने वाली डांवाडोल सरकारों को इतनी फुर्सत ही नहीं है कि पुलिस द्वारा जनता पर किये जा रहे जु़ल्मों की ओर ध्यान दे सके। एक छोटा सा सुझाव यदि मान लिया जाये तो हो सकता है कि इसका शीघ्र ही अच्छा नतीजा सामने आये। सुझाव इस प्रकार है कि हर शहर और गांव में जनता की सेवा के लिए प्याऊ लगाई जाये जिसका प्रबन्ध केवल पुलिस विभाग करे तथा इसके नाम पर जनता से उगाही न हो यह सुनिश्चित कर लिया जाये। साथ ही ऐसा चक्र बनाया जाये कि माह में कम से कम एक बार प्रत्येक अधिकारी व कर्मचारी को जनता को पानी पिलाने की इस सेवा का सुअवसर प्राप्त हो सके। इस प्रकार के कार्यक्रम से सबसे बड़ा लाभ यह होगा कि पुलिस में सेवा भावना पैदा होगी, अहंकार पर अंकुश लगेगा तथा और भी यदि कुछ न हुआ तो कम से कम इसी बहाने कुछ पापों का तो प्रायश्चित हो ही जायेगा।

Thursday, June 24, 2010

हज़रत अली (रज़ि०) का इंसाफ़

हज़रत अली की खि़लाफ़त के समय की बात है। दो मित्र साथ साथ यात्रा कर रहे थे। रास्ते में दोपहर के समय दोनों मित्र एक पेड़ के साये में विश्राम करने के लिये बैठ गए। भूख लग रही थी इसलिये भोजन, जो उनके पास था, निकालकर खाने की तैयारी करने लगे। अभी भोजन करना शुरू करने वाले ही थे कि एक मुसाफ़िर आ गया जो भूखा था तथा उसके पास खाने को भी कुछ नहीं था। इस प्रकार उस मुसाफिर को भी उन्होंने खाने में शामिल कर लिया। उनमें से एक व्यक्ति के पास पांच रोटियां तथा दूसरे के पास तीन रोटियां थीं जो तीनों नें मिलकर खाईं। उस तीसरे व्यक्ति ने उन दोनों को खाने के बदले में आठ अशर्फ़ियां दीं और चला गया। जिस व्यक्ति के पास पांच रोटियां थीं उसने पांच अशर्फ़ियां अपने पास रखकर बाक़ी की तीन अशर्फ़ियां दूसरे व्यक्ति को दे दीं परन्तु दूसरे व्यक्ति नें तीन अशर्फ़ियां लेने से इंकार कर दिया तथा कहा कि दोनों को चार चार अशर्फ़ियां मिलनी चाहिएं परन्तु पांच रोटियों वाले व्यक्ति ने कहा कि चूंकि दोनों की कुल मिलाकर आठ रोटियां थीं तथा आठ ही अशर्फ़ियां मिलीं और इस प्रकार से एक अशर्फ़ी प्रति रोटी का हिसाब आया। अतः मैंने अपनी पांच रोटियों के बदले में पांच अशर्फ़ियां ले लीं तथा तुम्हें तुम्हारी तीन रोटियों के बदले में तीन अशर्फियां दे रहा हूं। परन्तु तीन रोटियों वाला व्यक्ति अपनी बात पर अड़ा रहा तथा तीन अशर्फियां लेने से इंकार कर दिया। इस प्रकार उनमें जब कोई फैसला नहीं हो पाया तो वह दोनों व्यक्ति हज़रत अली (रज़िअल्लाहो तआला अनहो) के पास अपना फैसला कराने के लिये पहुंचे। हज़रत अली (रज़ि०) ने सारी बात ग़ौर से सुनी और तीन रोटियों वाले व्यक्ति से कहा कि तुझे इसी में फ़ायदा है कि, दूसरा व्यक्ति जो तुझे अपनी खुशी से तीन अशर्फ़ियां दे रहा है, तू उन्हें कुबूल कर ले और यदि तू ऐसा नहीं करेगा तो घाटे में रहेगा। यह सुनकर उस व्यक्ति ने कहा कि मुझे तो इंसाफ़ चाहिए चाहे मैं लाभ मे रहूं या घाटे में। हज़रत अली (रज़ि०) ने फरमाया कि तुम लोगो में से एक के पास पांच रोटियां तथा दूसरे के पास तीन रोटियां थीं तथा खाने वाले तीन व्यक्ति थे। यदि यह माना जाए कि तीनों लोगों ने प्रत्येक रोटी में से बराबर बराबर खाया होगा तो प्रत्येक रोटी के तीन तीन टुकड़े करने पर आठ रोटियों के कुल चैबीस टुकड़े हुए। इस प्रकार से तीनों लोगों ने आठ आठ टुकड़े खाये। तीन रोटियों वाले व्यक्ति ने अपने नौ टुकड़ों में से आठ स्वंयं ने खा लिये तथा उसकी रोटियों में से बाक़ी बचा हुआ एक टुकड़ा तीसरे प्यक्ति ने खाया और पांच रोटियों वाले व्यक्ति की रोटियों के पन्द्रह टुकड़ों में से आठ उसने स्वंयं खाये तथा उसमें से शेष रहे सात टुकड़े तीसरे व्यक्ति ने खाये। इस प्रकार से रोटियों के आठ टुकड़ों के बदले में प्राप्त हुई आठ अशर्फ़ियों का एक अशर्फी प्रति टुकड़ा हिसाब आया। लिहाज़ा हज़रत अली (रज़ि०) ने फैसला देते हुए फरमाया कि तीन रोटियों वाले व्यक्ति को एक अशर्फ़ी तथा पांच रोटियों वाले व्यक्ति को सात अशर्फ़ियां मिलनी चाहिएं। इस फैसले से दोनों व्यक्ति खुशी खुशी चले गए।

Wednesday, June 23, 2010

मानवता और पुलिस

जनता की सुरक्षा में कार्यरत पुलिसकर्मी चूंकि भ्रष्ट आचरण से परिपूर्ण समाज से ही आते हैं तथा साम्प्रदायिकता, चरित्रहीनता के साथ गुण्डागर्दी जैसी मानवता को कलंकित करने वाली बुराइयां उनमें प्रायः मौजूद होती हैं अतः उनसे इन्सानियत की अपेक्षा करना फिजूल है। उपरोक्त कथन लांछन न होकर वास्तविकता है जिसको सिद्ध करने के लिए केवल एक ही सबूत पर्याप्त है। और वह है पुलिस हिरासत में मौत। पिछले चार वर्ष में अकेले उत्तर प्रदेश ही में सरकारी आंकड़ों के मुताबिक एक अच्छी ख़ासी तादाद में लोगों की पुलिस हिरासत में मौत की जानकारी होना क्या किसी भी व्यक्ति को व्यथित करने के लिए पर्याप्त नहीं है? जब पुलिस हिरासत में कोई मौत हो जाती है अपितु इस बात को इस प्रकार से कहना ज्यादा उचित होगा कि, जब किसी बेकसूर को अपनी इच्छानुसार बयान देने के लिए बाध्य किये जाने के बावजूद पुलिस नाकाम रहती है तो उस बदनसीब को बड़ी ही बेरहमी से कत्ल कर दिया जाता है, तो ऐसी स्थिति में उन कातिलों को सजा दिलवाने के बजाय विभाग की बदनामी के डर से पुलिस के आला अधिकारी उनका बचाव करने के षडयन्त्र में सम्मिलित हो जाते हैं। तफतीश करने वाले भी उन्हीं में से होते हैं अतः केस को इस प्रकार से न्यायालय में पेश किया जाता है कि वहां पुलिस से सहमे हुए गवाहों की गवाही व सबूतों के अभाव में कत्ल करने वाले यह वर्दी वाले अपराधी साफ छूट जाते हैं और अपनी खून की प्यास बुझाने के लिए नए शिकार की तलाश में लग जाते हैं। शासन तक यदि यह बात पहुंचती है तो वहां का और भी बुरा हाल है। क्योंकि वहां तो अपराधी पृष्ठभूमि से आए हुए ऐसे लोगों की भरमार है जो जनता की सेवा के बहाने सत्ता पर कब्जा करके स्वयं के द्वारा किये गए अपराधों पर परदा डालने के लिए पुलिस से सहायता की आशा लगाए बैठे हैं। अतः इस प्रकार के लोगों से किस प्रकार यह अपेक्षा की जा सकती है कि यह पुलिस के खिलाफ कुछ कर सकेंगे क्योंकि सत्ता हाथ से जाने के बाद इनका वास्ता सीधे तौर पर पुलिस से ही पड़ना है। अतः अब आवश्यकता इस बात की है कि बुद्धिजीवी वर्ग उपरोक्त बुराई को दूर करने के बारे में विचार विमर्श करके इसका समाधान खोजने की कोशिश करे ताकि सरकार द्वारा जनता की सुरक्षा के लिए रखे गए सुरक्षाकर्मियों से जनता सुरक्षित रह सके तथा सरकार द्वारा प्रदान की गई वर्दी अपराधियों का सुरक्षा कवच न बनकर जनता की सुरक्षा में सहायक हो रके।

Sunday, June 20, 2010

फ़तवों का मज़ाक़ उडा़ने का किसी को भी हक़ नहीं

अल्लाह ने इन्सान को पैदा करके ऐसे ही नहीं छोड़ दिया बल्कि जीवन गुज़ारने के लिए उसके मार्गदर्शन के मक़सद से समय समय पर अपनी किताबें भेजीं और उनकी व्याख्या करने के साथ उन पर अमल करके दिखाने के लिए पैग़म्बर भेजे और इस सिलसिले की अन्तिम कड़ी के तौर पर क़ुरआन भेजा और उसे समझाने तथा उसपर अमल करके दिखाने के वास्ते पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद सल्ल० को पैदा किया। पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद सल्ल० ने जो भी कार्य किये वह उनकी सुन्नत कहलाईं तथा उनके द्वारा कही गइ्र्र बातों को हदीस कहते हैं। इसके अनुसार जीवन भर एक इन्सान जो भी कर्म करता है उसका हिसाब उसको देना होगा। इसके लिए एक दिन ऐसा आएगा जब मरने के बाद सबको दोबारा ज़िन्दा किया जाएगा और उनके द्वारा किये गए कर्मों का लेखा जोखा उनके सामने रख दिया जाएगा जिसके आधार पर उन्हें जन्नत या जहन्नुम में भेज दिया जाएगा। इस्लाम का अर्थ है समर्पण लिहाज़ा जिसने स्वयं को अल्लाह की मर्ज़ी के आगे समर्पित कर दिया हो उसी को मुस्लिम कहते हैं। एक मुस्लिम के लिए यह आवश्यक है कि जीवन के हर क्षेत्र में ज़रूरत पड़ने पर क़ुरआन और हदीस से रहनुमाई हासिल करे। क़ुरआन व हदीस को समझाने के लिए दुनिया की हर भाषा में साहित्य उपलब्ध है तथा आलिम लोग इस काम को बड़ी ख़ूबी के साथ अन्जाम दे रहे हैं। चूंकि क़ुरआन और हदीस में किसी भी प्रकार की तरमीम (परिवर्तन) नहीं की जा सकती और समय समय पर ऐसी ज़रूरत पेश आ जाती है जिसका सीधे तौर से क़ुरआन और हदीस में हवाला नहीं मिल पाता तब ऐसी परिस्थिति में उसका हल तलाश करने के लिए मुफ़ती से राब्ता बनाना पड़ता है। मुफ़ती ऐसे आलिम को कहते हैं जो क़ुरआन और हदीस की रोशनी मे हर प्रकार की समस्या का समाधान करने में दक्षता प्राप्त किये हुए हो। मुफ़ती के द्वारा सुझाए गए समाधान को फ़तवा कहते हैं। फ़तवा ग़लत न हो जाए इसलिए ज़रूरत पड़ने पर मुफ़ती आपस के मशवरे से भी फतवा जारी करते हैं। इस बात का सीधा सा अर्थ यह हुआ कि जब किसी मुसलमान के सामने कोई ऐसी समस्या ख़ड़ी जाए जिसका समाधान समझ में न आ रहा हो और अनजाने में ग़लत फैसला ले लिये जाने के नतीजे में अल्लाह के द्वारा लिये जाने वाले हिसाब के वक्त पकड़े जाने का डर हो तो ऐसे मौक़े पर वह शख्स मु़फ़ती के पास जाकर अपनी समस्या का हल क़ुरआन और हदीस की रोशनी में चाहता है। पवित्र क़ुरआन की 49वीं सूरा की पहली आयत में अल्लाह तआला फ़रमाता है कि, ‘‘ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, अल्लाह और उसके रसूल के आगे पेशक़दमी न करो।‘‘ अर्थात् जिस मामले में अल्लाह या उसके रसूल हज़रत मुहम्मद सल्ल० का आदेश मौजूद हो तो उसको नजरअन्दाज़ करके अपनी राय देने का किसी को भी हक़ नहीं है चाहे राय देने वाला कोई आलिम या मुफ़ती ही क्यों न हो। इस बात का सीधा सा अर्थ है कि किसी मुफ़ती के द्वारा दिया गया फ़तवा मुफ़ती की केवल अपनी निजी राय न होकर क़ुरआन और हदीस की रोशनी में समस्या का हल होता है। यदि किसी फ़तवे से कोई व्यक्ति सन्तुष्ट न हो तो इसका सीधा सा अर्थ यह है कि वह उसको पूरी तरह से समझ नहीं पाया है लिहाज़ा ऐसी परिस्थिति में उसको चाहिए कि वह इधर उधर टक्कर मारने के बजाय किसी मुफ़ती से ही इसके बारे में मालूमात करे। आजकल देखने में यह आ रहा है कि अपनी पूरी ज़िन्दगी क़ुरआन और हदीस को समझने समझाने में लगाने वाले एक मुफ़ती के द्वारा दिये गए फ़तवे पर ऐसे लोगों से राय ली जाती है जिनको अल्लाह के दीन की बिल्कुल भी जानकारी नहीं होती। यह बात ऐसी ही है जैसे किसी बीमारी के इलाज के लिए कोई व्यक्ति किसी डाक्टर के पास न जाकर किसी मोची या किसी हलवाई के पास पहुंच जाए या किसी डाक्टर के द्वारा सुझाए गए इलाज की तसदीक़, बजाय किसी दूसरे डाक्टर से करने के, किसी साइकिल के मिस्त्री से या किसी वकील से कराने लगे। औरतों का परदे में रहना, मर्दों को दाढ़ी रखना, सूद के लेने और देने से बचना आदि ऐसी बाते हैं जिनके बारे में साफ़ साफ़ हुकुम मौजूद हैं इसके बावजूद भी यदि इन बातों को मुद्दा बनाकर कुछ तथाकथित मुस्लिम हस्तियों से आलोचना कराई जाती है तो यह बात किसी प्रकार से भी उचित नहीं है क्योंकि पवित्र क़ुरआन की 49वीं सूरा की 13वीं आयत में अल्लाह फ़रमाता है कि, ‘‘हक़ीक़त में अल्लाह के नज़दीक तुम में सबसे ज़्यादा इज़्ज़त वाला वह है जो तुम्हारे अन्दर सबसे ज़्यादा परहेज़गार है।‘‘ ध्यान रहे परहेज़गार उस शख़्स को कहते हैं जो अल्लाह के हुकुम के मुताबिक़ अपना जीवन गुज़ारता है और हर उस बात से बचने की कोशिश करता है जो अल्लाह को नापसन्द है।
शरीफ़ ख़ान

Monday, May 31, 2010

इस्लाम के नाम पर सूदख़ोरी

इस्लाम धर्म में आस्था रखने वालों को ब्याज लेने और देने के लिए सख्ती के साथ मना किया गया है। एक हदीस में तो यहां तक फ़रमाया गया है कि ब्याज इतना बड़ा गुनाह है कि यदि उसके सत्तर भाग किये जाएं तो उनमें से सबसे हल्का भाग भी ऐसा है कि जैसे कोई व्यक्ति अपनी मां के साथ दुराचार करे। सामाजिक दृष्टिकोण से यदि देखा जाए तो ब्याज एक ऐसी लानत है जिसको अपनाने पर समाज में बहुत सी बुराइयां जन्म ले लेती हैं। जैसे कि ब्याज लेने वाले व्यक्ति को पैसे से इतना लगाव और लालच हो जाता है कि उसको यदि किसी की मदद करनी पड़ जाए तो वह यह सोचने लगता है कि इस धन को किसी को मदद में देने के बजाय अगर ब्याज पर उठा दिया जाए तो इसमें कुछ न कुछ इज़ाफ़ा ही होगा। दूसरी बात यह है कि अगर कोई व्यक्ति तंगहाली के दौर से गुज़र रहा हो और अपने बच्चों को फ़ाक़ों से बचाने के लिए भीख मांगने के बजाय कुछ रुपये उधार लेना चाहता है अथवा किसी व्यक्ति के घर में मौत हो जाए और यदि कफ़न दफ़न के लिए उसे धन की आवश्यकता हो तो ऐसी परिस्थिति में भी उधार दिये गए धन पर सूदख़ोर ज़ालिम सूद लेने से बाज़ नहीं आता। इस सब के नतीजे में एक ऐसे समाज का निर्माण होने लगता है कि जिसमें ग़रीब और ज़रूरतमंद लोगों को देखकर उनसे हमदर्दी का जज़्बा पैदा होने के बजाय सूदखोरों के चेहरों पर बिल्कुल इस प्रकार से चमक आ जाती है कि जैसे पैथोलोजिकल टैस्ट में से कमीशन खाने वाले डाक्टर के चेहरे पर मरीज़ को देखकर आती है अथवा किसी बेक़सूर व्यक्ति को अपराधी कहकर लॉकअप में डालने वाले रिश्वतखोर पुलिस मैन के चेहरे पर आती है या फिर भूकम्प आदि प्राकृतिक आपदा आने के बाद सरकारी सहायता को देखकर उन भ्रष्ट अधिकारियों के चेहरों पर आती है जिनको उस सहायता राशि को पीड़ितों तक पहुंचाने की ज़िम्मेदारी सौंपी जाती है। इसके साथ ही एक ख़ास बात और ध्यान देने योग्य यह है कि सूदख़ोर व्यक्ति छोटा महाजन है तथा बैंक बड़ा महाजन। और यदि दोनों का तुलनात्मक अध्ययन किया जाए तो आप देखेंगे कि महाजन तो कभी न कभी समाज के कुछ असरदार लोगों के कहने से परेशानहाल कर्जदार का ब्याज माफ़ भी कर देता है परन्तु बैंक के यहां माफी का कोई ख़ाना नहीं होता बल्कि जिस प्रकार से सामन्ती युग में ज़मींदार के लठैत ग़रीब किसान से लगान वसूल करके लाते थे उसी प्रकार से सरकार बैंकों को वसूलयाबी के साधन उपलब्ध करा देती है तथा ज़मींदार तो केवल अपना बक़ाया धन ही वसूल करता था और धन वसूलने में लठैतों पर किया गया ख़र्चा ख़ुद वहन करता था परन्तु सरकार वसूल करने का खर्चा भी बैंक से न लेकर ग़रीब कर्जदार से ही हासिल करती है चाहे उसके लिए उस व्यक्ति का वजूद ही खतरे में क्यो न पड़ जाए। इस्लामी व्यवस्था के अनुसार सूद, चाहे बैंक से लिया गया हो और चाहे किसी दूसरे साधन से, पूर्ण रूप से हराम है तथा सूद के लेने वाले और देने वाले दोनों बराबर के ज़िम्मेदार हैं। अफ़सोस की बात यह है कि मुसलमान सूद के दलदल में इस बुरी तरह से फंस गया है कि उससे बाहर निकलना मुश्किल नज़र आ रहा है। इससे भी ज़्यादा परेशानकुन बात यह है कि मुसलमान इस दलदल से निकलने की तदबीर करने के बजाय इस कोशिश में रहने लगा है कि सूद पर आधारित इस व्यवस्था को किसी न किसी प्रकार से शरीअत तसलीम कर ले। इसी लिए कभी सूद को मुनाफ़ा कहने की साज़िश करते हैं तो कभी बैंक के सूद को सूद की परिभाषा से अलग रखने की दलील तलाश करते नज़र आते हैं। सूद के बारे में कोई संदेह न रहे इसलिए स्पष्ट रूप से बता दिया गया है कि उधार दिये गए धन पर बढ़ा कर दिया गया ऐसा धन जिसका रेट पहले से तय कर दिया गया हो वह सूद कहलाता है। इसी प्रकार से क़र्ज़ के रूप में दिये गए धन में यदि वक़्त गुज़रने के साथ इज़ाफ़ा होता रहे तो वह सूद की श्रेणी में आता है। इसी के साथ एक बात और स्पष्ट रूप से समझ लेनी चाहिए कि जो लोग किसी के व्यवसाय में रुपया लगाकर केवल लाभ में हिस्सेदार बन कर मुनाफ़ा लेते हैं वह तब तक जायज़ नहीं माना जा सकता जब तक कि नुक़सान में भी हिस्सेदार न हों। उपरोक्त सभी बातों को ध्यान में रखते हुए जनता को सूदखोरों के चंगुल से सुरक्षित रखने के लिए कुछ मुस्लिम विद्वानों ने मुस्लिम फ़ण्ड के नाम से कुछ संस्थाओं का गठन किया था। इनकी कार्यशैली इस प्रकार से बनाई्र गई थी कि जो लोग सूद से बचना चाहें वह अपना रुपया इन संस्थाओं के द्वारा स्थापित बैंकों में जमा करें और अपनी जमा की गई रक़म में से जब और जितना चाहें धन निकाल लें। इस प्रकार से जो रक़म इनके पास जमा रहे उसमें से ज़रूरतमन्दों को उचित ज़मानत लेकर बिना किसी सूद के क़र्ज दे दें। इस तरह से ज़रूरतमन्दों की ज़रूरत पूरी हो जाएगी तथा रक़म भी सुरक्षित रहेगी। इस सबके बावजूद ऐसा प्रतीत होता है कि कुछ शैतानी प्रवृत्ति के लोगों ने अपने जीवन का उद्देश्य ही यह बनाया हुआ है कि हर उस गंदगी को किसी न किसी प्रकार से समाज में क़ायम रखेंगे जिसको इस्लामी शरीअत हराम क़रार देती है। अतः इन ’’शरीफ़ लोगों’’ नें इन संस्थाओं का दुरुपयोग करते हुए पूर्ण रूप से राह से भटका दिया है। और इस समय हालत यह है कि सरकारी बैंकों की कार्य प्रणाली जिस प्रकार सूद पर आधारित है उसी प्रकार से इन संस्थाओं के द्वारा क़ायमशुदा बैंकों को चलाया जा रहा है बस फ़र्क़ केवल इतना है कि सरकारी बैंक प्रत्यक्ष रूप से सूद का कारोबार करते हैं और यह बैंक इस्लाम के नाम पर सूद का कारोबार कर रहे हैं। सरकारी बैंकों और उपरोक्त मुस्लिम बैंकों में एक ख़ास फ़र्क यह भी है कि सरकारी बैंकों में जमा किये गए धन पर सूद दिया जाता है और उसको ज़रूरतमंदों को क़र्ज़ के रूप देकर उनसे सूद लिया जाता है परन्तु इन मुस्लिम बैंकों में जो धन जमा किया जाता है वह ज़्यादातर उन लोगों का होता है जो अपने माल को सूद की गंदगी से बचाना चाहते हैं अतः उनके इस जज़्बे के अन्तर्गत बग़ैर किसी सूद के जो धन जमा होता है उसका दुरुपयोग देखकर ऐसा प्रतीत होता है जैसे उस धन को जमा करने वालों से यह कहा जा रहा हो कि सूद जैसी हराम चीज़ को खाने वाले जब हम लोग मौजूद हैं तो फिर किसी और की क्या आवश्यकता है अतः तुम्हारे इस माल पर हम सूद खाएंगे और तुमको तुम्हारा रुपया जब चाहोगे वापस कर दिया जाएगा। उपरोक्त इदारों के द्वारा चलाए जा रहे बैंकों में जमा धन को क़र्ज़ के रूप में जब दिया जाता है तो प्रति सैकड़ा प्रति माह की दर से स्टाफ़ के खर्च के नाम पर सूद वसूल किया जाता है तथा बाक़ी धन को सरकारी बैंकों में जमा करके उस पर सूद हासिल किया जाता है। अब ग़ौर करने की बात यह है कि इस्लाम के नाम का सहारा लेकर सूद का धन्धा करना क्या ऐसा नहीं है कि जैसे हलाल गोश्त की दुकान पर सूअर का गोश्त बेचा जा रहा हो। अतः मुस्लिम धर्मगुरुओं को चाहिए कि इस मामले पर ग़ौर करें और अगर इन मुस्लिम इदारों के कारोबार को नाजायज़ पाएं तो इनको इस बात के लिए पाबन्द करें कि या तो इन इदारों के नाम में से मुस्लिम शब्द हटाएं या फिर सूद के काम को बन्द

Friday, May 28, 2010

उ०प्र० पुलिस और इन्साफ़

क़त्ल क़त्ल ही होता है चाहे अवैध हथियार से हो अथवा लाइसेंसी हथियार से। इसी प्रकार से अपहरण चाहे साधारण अपराधी करे अथवा वर्दीधारी पुलिस करे अपहरण ही माना जाएगा। साधारण अपराधी की पुलिस के साथ उठ-बैठ अपराध में सुविधाजनक साबित होती है। यह बात अलग है कि कभी जनता के दबाव में आकर वह उठ-बैठ बेकार साबित होती है और अपराधी पकड़ लिया जाता है। किसी बेक़सूर की पुलिस हिरासत में मौत, वर्दीधारी पुलिस के द्वारा किये गए अपहरण के बाद क़त्ल के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है परन्तु पहले तो पुलिस को बदनामी से बचाने के लिए आला अधिकारी इस कृत्य पर परदा डालने की कोशिश करते है और फिर दबाव पड़ने पर दो चार को निलम्बित अथवा स्थानान्तरित करके समझते हैं कि न्याय हो गया। इसके नतीजे में पुलिस के प्रति जनता में नफ़रत और बढ़ जाती है। बी.बी. नगर पुलिस द्वारा सलीमुद्दीन नामक युवक का अपहरण करके सात दिन तक अवैध रूप से हिरासत में रखने के बाद गुम कर दिये जाने का मामला प्रकाश में आया है। इस मामले में भी सदैव की तरह पुलिस के द्वारा किये गए अपराध की जघन्यता को नापने का पैमाना यह होगा कि इन्साफ़ मांगने के लिए कितने लोगों को पुलिस की गोली और लाठियां खानी पड़ीं। इस सम्बन्ध में केवल इतना ही कहना पर्याप्त है कि उ०प्र० पुलिस का कोई भी सक्षम अधिकारी पीड़ित सलीमुद्दीन को अपने पुत्र के स्थान पर समझकर वर्दीधारी अपराधियों के खिलाफ़ कार्यवाही करे ताकि सही इन्साफ़ हो सके।

शरीफ़ खान