Wednesday, March 16, 2011

भारत में हिन्दू-मुस्लिम भाईचारे की कुन्जी Sharif Khan

लोकतन्त्र का सबसे बड़ा अभिशाप यह है कि जिस देश में यह क़ायम होता है अल्पसंख्यकों के अधिकारों का हनन होना वहां की व्यवस्था का अंग बन जाता है बहुसंख्यक समाज की संस्कृति धीरे धीरे पूरे देश में छा जाती है और भीड़ तन्त्र क़ायम हो जाता है। भारतवर्ष उपरोक्त का जीता जागता नमूना है जहां धर्मनिर्पेक्षता के नाम पर हिन्दू धर्मपक्षता क़ा बोलबाला है। आमतौर से विजित क़ौम विजेता क़ौम की संस्कृति व रीति रिवाज को अपना लेती है अथवा अपनाना पड़ता है परन्तु भारत में हिन्दू-मुस्लिम के बीच विजित और विजेता का सम्बन्ध न होते हुए भी केवल बहुसंख्यक और अलपसंख्यक होने के आघार पर ही हिन्दू संस्कृति को थोपा जा रहा है जोकि संविधान के विरुद्ध है और इसमें अफ़सोसनाक पहलू यह है कि इस्लाम की मूल शिक्षाओं को न समझने वाले मुस्लिम इसको स्वीकार करके इस्लाम की छवि को बिगाड़ने में सहयोग कर रहे हैं।

उपरोक्त कथन के संदर्भ में कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं।

1- यह कि, जब संविधान ने धर्मनिर्पेक्षता का सिद्धान्त लागू किया है तो किसी पुल के शिलान्यास में, सड़क के उद्घाटन में अथवा बिजलीघर आदि किसी भी सरकारी योजना के शुभारम्भ के अवसर पर नारियल तोड़ना, हवन का आयोजन अथवा इसी प्रकार के किसी भी धार्मिक अनुष्ठान किये जाने का क्या औचित्य है?

2- यह कि, विद्यालयों के समारोहों और सरकारी संस्थानों में आयोजित कराए जाने वाले सांस्कृतिक कार्यक्रमों में सरस्वती वन्दना, मूर्ति या तस्वीर पर माल्यार्पण अथवा इसी प्रकार के धर्माधारित कार्य कराए जाने का क्या औचित्य है।

3- यह कि, किसी सरकारी विभाग द्वारा आयोजित प्रतियोगिताओं में ‘नटराज‘ आदि किसी देवी देवता की मूर्ति इनाम के रूप में दिये जाने का क्या औचित्य है।

इसके अलावा एक बात यह भी ग़ौर करने योग्य है कि, उपरोक्त उदाहरणों के द्वारा प्रस्तुत किये गए आयोजनों में मुख्य अतिथि यदि मुसलमान हो तो उसका इस प्रकार के इस्लामविरुद्ध कार्य करने से इंकार देशद्रोह के रूप में देखा जाता है। हो सकता है कि इस्लाम की मूल शिक्षाओं का ज्ञान न रखने वाले कुछ मुसलमान भाई भी हमारी बातों से सहमत न हों जोकि हक़ीक़त को झुठलाने जैसा होगा।

इन तथ्यों पर आधारित बात कहने का मक़सद किसी की भावनाओं को ठेस पहुंचाना न होकर केवल यह बताना है कि इस प्रकार से मुसलमानों को धर्मविरुद्ध कार्य करने के लिए मजबूर किया जाना एक अजीब सी नफ़रत को जन्म देने वाला साबित होता है। यदि धर्मनिर्पेक्षता का ढिंढोरा पीटने वाली सरकार उपरोक्त आयोजनों में किसी भी धर्म पर आधारित कार्यों पर रोक लगाकर इसको अपराध घोषित कर दे और मुसलमानों के द्वारा धर्मविरुद्ध कार्य किये जाने को देशभक्ति का मापदण्ड न बनाए और मुसलमानों को मुसलमान ही रहने दे तो यही छोटी सी दिखाई देने वाली बात लाज़मी तौर से हिन्दू-मुस्लिम भाईचारा क़ायम करने की कुन्जी साबित होगी।

Saturday, March 5, 2011

गुरु शिष्य सम्बन्ध Sharif Khan

जिस प्रकार से कुम्हार अपनी कार्यकुशलता और क्षमता के अनुसार साधारण सी मिट्टी को ‘एक बहतरीन बर्तन का रूप देकर उपयोगी बनाता है ठीक उसी प्रकार गुरु भी अपने शिष्य को एक साधारण से इन्सान से महान व्यक्तित्व में परिवर्तित करने की ज़िम्मेदारी निभाता है। मिट्टी को बर्तन का रूप देने से पहले उसमें लचीलापन पैदा करने के लिए कुम्हार जिस प्रकार से उसे भिगोकर, दबाकर व कुचलकर तैयार करता है ठीक उसी प्रकार स्कूल में शिक्षा ग्रहण करने वाले बच्चों को आवश्यकता व बच्चों की सहनशक्ति के अनुसार यदि सज़ा दी जाती है तो इसमें बुराई की कोई बात नहीं है। एक समय ऐसा था जब बच्चे को स्कूल में दाख़िल करते समय अभिभावक यह कहते थे कि, ‘‘मास्टरजी बच्चा आपके हवाले है इसकी हड्डी हमारी और मांस आपका।‘‘ उस दौर में स्कूल में बच्चों की पिटाई भी ख़ूब होती थी परन्तु शिकायत न पिटने वाले बच्चों को होती थी और न ही अभिभावकों को। शिक्षा ग्रहण करके वह बच्चे अच्छे संस्कार हासिल करके स्कूल से निकल कर देश के आदर्श नागरिक साबित होते थे और अपनी ज़िम्मेदारी को ईमानदारी से निभाने का प्रयास करते थे। यदि राजनेता होने का सौभग्य मिलता था तो कोई भी ऐसा प्रस्ताव रखने की कल्पना तक नहीं करते थे जिस से कि चरित्रहीनता को बढ़ावा मिलने का अन्देशा हो। यदि न्यायपालिका में प्रवेश मिलता था तो पूरी कोशिश होती थी कि अपराधी को सज़ा मिले और निरपराध व्यक्ति किसी प्रकार से भी प्रताड़ित न हो। प्रशासन में सेवा का अवसर मिलने पर मानवता को दाग़दार करने वाले कार्य अंजाम देने की कल्पना तक नहीं करते थे। मीडिया को निर्भीक और निष्पक्ष बनाने की बुनियाद भी उन्हीं लोगों की डाली हुई है।

मौजूदा दौर में जब से गुरु जी को एक अच्छी पगार लेने वाले नौकर के रूप में देखा जाने लगा है, तब से गुरु के द्वारा उद्दण्ड छात्र को डांटना तक एक नौकर का मालिक को बेइज्ज़त करने के रूप में देखा जाने लगा है और उसकी प्रतिक्रिया के तौर पर पहले तो अभिभावक स्वयं वहशीपन का सबूत देते हैं तदुपरान्त मास्टरजी पर ग़ैर शाइस्ता इल्ज़ामात लगाकर उनको पुलिस के हवाले कर दिया जाता है और यदि मास्टरजी के दुर्भाग्य से छात्र अनुसूचित जाति का हुआ तो उन पर एस.सी.एस.टी. एक्ट के अन्तर्गत कार्यवाही किया जाना सुनिश्चित हो जाता है।

एक कहावत है, ‘‘बे अदब बे नसीब, बा अदब बा नसीब‘‘। इस कहावत के अनुसार समाज में सर्वोच्च स्थान पाने के हक़दार गुरुओं को बेइज़्ज़त किये जाने के कारण पूरा देश बदनसीबी की आग़ोश में आ चुका है जिसके नतीजे में चरित्र पतन का यह हाल है कि समलैंगिकता जैसे घिनौने कार्य को क़ानूनी संरक्षण दिया जा रहा है। वैवाहिक व्यवस्था आदर्श समाज के निर्माण की बुनियाद है परन्तु लिव इन रिलेशनशिप को मान्यता देने वाले गन्दे क़ानून के द्वारा बिना विवाह किये औरतों मर्दों को एक साथ रहने की छूट देकर सामाजिक ढांचे को छिन्न भिन्न किया जा रहा है। एक ईसाई पादरी को उसके दो मासूम बच्चों के साथ साम्प्रदायिकता के जुनून में आकर ज़िन्दा जला देने वाले अपराधियों की दुर्लभ से दुर्लभतम की श्रेणी का अपराध न मानते हुए विवेकाधिकार का प्रयोग करके उच्चतम न्यायालय द्वारा फांसी की सजा को उम्र क़ैद में बदल दिये जाने का मामला सब जानते ही हैं। इसके बाद भी क्या देश में न्याय प्राप्त होने की आशा की जा सकती है। पुलिस और प्रशासन में भी ज़्यादातर ऐसे ही लोगों की भरमार है जिनका गुरुओं के सम्मान से कोई लेना देना नहीं रहा इसीलिए शिक्षकों के किसी प्रदर्शन पर लाठी चार्ज तक कर देना आम सी बात हो गई है।

इन सब बातों का दर्दनाक पहलू यह है कि ऐसे ही संस्कारहीन छात्र शिक्षित होकर शिक्षक बनने लगे हैं। लिहाज़ा यह एक ऐसी समस्या बन गई है जिसका समाधान बहुत कठिन है।

Thursday, February 24, 2011

पुलिस के साथ पूरी व्यवस्था का दागदार Sharif Khan

1 अप्रैल सन 2006 को उ.प्र. में सहारनपुर जिले के दग्डोली गांव निवासी चन्द्रपाल के पुत्र कल्लू के अपहरण में नामज़द उसी गांव के निवासी जसवीर तथा पास के गांव खजूरवाला निवासी गुलज़ार अहमद को पुलिस ने गिरफ़्तार कर लिया। और फिर अपहरण व हत्या के जुर्म में पुलिस ने ऐसे पुख्ता सबूत जुटाए जिनके आधार पर 30 जनवरी 2009 को अदालत ने दोनो आरोपियों को अपराधी मानते हुए आजीवन कारावास की सज़ा सुना दी। सज़ा के 9 माह बाद कल्लू के सही सलामत घर लौट आने पर 10 अक्टूबर 2009 को पुलिस के समक्ष दिये गए बयान के मुताबिक़ वह अपनी मर्जी से अपनी रिश्तेदारी में चला गया था तथा उसका किसी ने अपहरण नहीं किया था।

यदि कल्लू घर न पहुंचकर पहले पुलिस के हत्थे चढ़ गया होता तो हो सकता है कि पुलिस उसको ज़िन्दा रहने के जुर्म में मार देती। क्योंकि जिस व्यक्ति का कत्ल होना पुलिस ने स्वीकार कर लिया हो और उसके कत्ल के जुर्म में कातिलों (बिना कत्ल किये) को सज़ा दिलवा चुकी हो, उसका ज़िन्दा रहना स्वंय में एक अपराध है।

इस घटना का दर्दनाक और मानवता को कलंकित करने वाला पहलू यह है कि एक समाचार पत्र में इस घटना के 14 माह बाद दिसम्बर 2010 में यह ख़बर इस तरह से छपी कि बिना कोई जुर्म किये सज़ा काट रहे दोनों बेक़सूर लोग अभी तक भी जेल से रिहा नहीं किये गए हैं।

दूसरा उदाहरण इस प्रकार है-
मई 2010 में मुज़फ्फ़रनगर में अजीत व अन्शु नामक प्रेमी-प्रेमिका घर से फ़रार हो गए। इसके बाद पुलिस ने अजीत के घरवालों से ज़बरदस्ती एक लाश की अजीत के रूप में शनाख्त करा दी और प्रेमी युगल के क़त्ल के जुर्म में प्रेमिका के भाई अनुज को हिरासत में लेकर जुर्म स्वीकार करा लिया। क़त्ल का जुर्म स्वीकार कराने के बाद अनुज को जेल भेजे जाने की कार्रवाई चल ही रही थी कि प्रेमी युगल ज़िन्दा वापस आ गया अतः अनुज को रिहा करना पड़ा। सोचने की बात यह है कि यदि प्रेमी युगल ज़िन्दा वापस न आया होता तो अनुज को जुर्म स्वीकार करने के कारण क़त्ल के अपराध में सज़ा दिया जाना निश्चित था।

एक और ताज़ा उदाहरण देखिए-
बुलन्दशहर ज़िले के सलेमपुर थाना क्षेत्र में रहने वाले जागन पुत्र सूरज का विवाह लगभग 6 वर्ष पहले इसी ज़िले के गांव तेजगढ़ी निवासी प्रियंका उर्फ़ लाली से हुआ था। 9 जनवरी 2011 को अचानक प्रियंका ग़ायब हो गई और 14 जनवरी को बेटी से मिलने के लिए उसकी मां जब उसकी सुसराल पहुंची और बेटी को मौजूद न पाया और इत्तफ़ाक़ से इसी दिन सलेमपुर के पास के गांव मांगलौर में एक युवती के जले हुए शव के बरामद होने पर लड़की की मां ने उसके पति जागन के ख़िलाफ़ दहेज हत्या की रिपोर्ट दर्ज करा दी तथा जोड़तोड़ में माहिर पुलिस ने उसके तार जली हुई महिला की लाश से जोड़ते हुए ग़ायब हुई प्रियंका के पति जागन को पत्नी की हत्या के जुर्म में गिरफ़्तार करके जेल भेज दिया और जली हुई लाश के अवशेष को डी.एन.ए. की जांच के लिए भेज दिया। प्रियंका के अपने ही पड़ौस के गांव से ज़िन्दा बरामद होने पर दाग़दार पुलिस की कार्यशैली का मानवता को कलंकित करने वाली साबित होती है।

सबूत जुटाने के लिए पुलिस की कार्यपद्धति जो भी हो अथवा किसी अपराधी द्वारा किये गए अपराध को किसी बेक़सूर व्यक्ति के सर थोप कर उससे उस अपराध को स्वीकार करा लेना अपने आप में एक ऐसा कारनामा है जिसके बल पर एक ओर तो पुलिस अपने निकम्मेपन पर परदा डालने में सफल हो जाती है तथा दूसरी ओर सरकार की भी बहुत सी समस्याएं हल हो जाती हैं। आरुषि का जब क़त्ल हुआ और पुलिस ने नौकर को ग़ायब पाया तो नौकर द्वारा ‘क़त्ल करके नेपाल को फ़रार हो जाने‘ का केस बना कर हल किया जाना लगभग सुनिश्चित था परन्तु सीढ़ियों पर ख़ून के धब्बे किसी के द्वारा देख लिये जाने पर पुलिस को ऊपर जाने का कष्ट करना पड़ा और वहां मिली नौकर की लाश ने मामला गड़बड़ कर दिया। इसके बाद केस सी.बी.आई के सुपुर्द करके सरकार ने उलझा दिया वरना अब तक तो उपरोक्त उदाहरणों की तरह से पुलिस कभी का इस केस को भी हल करके किसी बेगुनाह को फांसी के तख्ते तक पहुंचा चुकी होती। ध्यान रहे कि पुलिस के सिपाही हों या विवेचना अधिकारी या बड़े अधिकारी सब जिस समाज से आते हैं जज भी उसी समाज का उसी प्रकार से अंग हैं जिस प्रकार हम और आप हैं अतः अकेले पुलिस को दोषी ठहरा कर व्यवस्था के दूसरे अंगों के दोषी होने को नज़र अन्दाज़ नहीं किया जा सकता।

Friday, February 4, 2011

Mosques are not safe in independent India आज़ाद हिन्दोस्तान में मस्जिदों का वजूद ख़तरे में Sharif Khan

6 दिसम्बर 1992 को विशिष्ट आतंकवादियों ने, हिन्दुत्व के नाम पर, धार्मिक जुनून में आकर सरकार की सरपरस्ती में बाबरी मस्जिद को शहीद करके जिस अराजकता का परिचय दिया था और इलाहाबाद हाईकोर्ट ने जिस बेबाकी से मस्जिद के ख़िलाफ़ फ़ैसला देकर, इन्साफ़ का जनाज़ा निकाल कर मुसलमानों के दिलों को छलनी किया था, अभी उसकी तकलीफ़ से हिन्दोस्तान का मुसलमान तड़प ही रहा था कि दिल्ली के जंगपुरा इलाक़े में स्थित नूर मस्जिद को डी.डी.ए. की शकल में सरकारी ग़ुण्डों ने अर्धसैनिक बलों की मदद से शहीद कर दिया। पहले सुबह सवेरे पूरे इलाक़े को छावनी के रूप में बदल दिया गया और फिर मस्जिद को इस अन्दाज़ में तेज़ी से शहीद करके हाथों हाथ उसका मलबा साफ़ कर दिया गया मानों वह मस्जिद मस्जिद न होकर कोई बम का गोला हो और यदि कुछ अरसे तक यह क़ायम रह गई तो देश की सुरक्षा ख़तरे में न पड़ जाए।

ग़ौर करने की बात यह है कि आजकल हर शहर और हर इलाक़े में मन्दिरों की बाढ़ सी आई हुई है। उनके बनाने पर हमको कोई ऐतराज़ नहीं है और न ही हमारा मक़सद इस बात की खोज करना है कि यह मन्दिर जायज़ जगह पर बने हैं अथवा नाजायज़ पर परन्तु जब नाजायज़ हरकत शासन और प्रशासन की निगरानी में खुलेआम की जा रही हो और निर्भीकता व निष्पक्षता का दम भरने वाली मीडिया भी उधर से दृष्टि फेर ले तो एक अनजानी सी टीस हर भावुक व्यक्ति के दिल में होना लाज़मी है। उदाहरण के तौर पर पुलिस स्टेशनों में, सार्वजनिक पार्कों में तथा सरकारी विभागों में जो मन्दिर बनाए गए हैं और बनाए जा रहे हैं उनका क्या औचित्य है? इस प्रकार से बनाए गए मन्दिरों के नाजायज होने में जब शक की कोई गुन्जाइश ही नहीं है तो फिर इनको हटाने और भविष्य में ऐसी हरकत की रोकथाम करने की क्यों कोई योजना नहीं बनाई जाती?

'मस्जिद तोड़ो अभियान‘ के समर्थकों को इस बात की ओर भी ध्यान देने की आवश्यकता है कि यदि किसी मस्जिद में अज्ञानता वश चोरी की बिजली इस्तेमाल करने की कोशिश की जाती है तो उस मस्जिद में नमाज़ पढ़ने से शरीयत के जानकार लोग एतराज़ कर देते हैं और उस ग़लती का सुधार करा दिया जाता है। इसी प्रकार से बिना इजाज़त लिये किसी के पेड़ से काटी गई लकड़ियों से गर्म किया हुआ पानी भी मस्जिद में प्रयोग के लायक़ नहीं होता। मुसलमानों में जो लोग शराब बनाने या बेचने आदि का रोज़गार करते हैं अथवा खुलेआम ऐसा धंधा करते हैं जो इस्लामी शरीअत में हराम है तो उन लोगों के द्वारा दिया गया धन मस्जिद के किसी काम में भी लगाये जाने के लिए स्वीकार नहीं किया जाता। सोचने की बात यह है कि नाजायज़ साधनों के इस्तेमाल तक की भी जहां इजाज़त न हो तो यह कल्पना करना मूर्खता है कि मस्जिद किसी नाजायज भूमि पर बनाई गई होगी।

मन्दिर बनाए जाने के बारे में सनातन धर्म में क्या निर्देश हैं, इस बात की जानकारी चूंकि मुझे नहीं है अतः इस बारे में कुछ भी कहना अनुचित होगा परन्तु धर्म के जानकार लोगों से इस बात का आह्वान करने में कोई हर्ज नहीं है कि वह यह देखें कि अनुचित भूमि पर अथवा अनुचित साधनों को प्रयोग में लाकर बनाए गए मन्दिरों में क्या पूजा आदि कार्य सम्पन्न किये जा सकते हैं और यदि ऐसा नहीं हो सकता तो फिर किस प्रकार की कार्य योजना बनाई जाए यह एक गम्भीर विचारणीय विषय है और इस पर हिन्दू धर्माचार्यों को अवश्य ध्यान देना चाहिए।

Saturday, January 1, 2011

भारत में इस्लामी शासन व्यवस्था सभी समस्याओं का एकमात्र हल-1 Sharif Khan

सारा संसार विभिन्न प्रकार की शासन व्यवस्थाओं में बंटा हुआ है। कहीं कम्युनिज़्म पर आधारित शासन यवस्था है तो कहीं सोशलिज़्म अपनाया हुआ है। इसी प्रकार से कुछ देशों में इस्लामी निज़ाम क़ायम है तो कहीं डिक्टेटरशिप है। किसी भी देश में व्याप्त अशान्ति, अराजकता और भ्रष्टाचार को मिटाने और देश की उन्नति के लिए प्रत्येक राजनैतिक दल को यह हक़ हासिल है कि देश हित में एक बेहतर शासन व्यवस्था कायम करने का आह्वान करे। जिन लोगों ने कम्युनिज़्म को अच्छा समझा और देश में वही व्यवस्था लागू करना चाही तो उनके देशभक्त होने में शक नहीं किया जा सकता। इसी प्रकार से विभिन्न राजनैतिक दल उभर कर वजूद में आए। आर.एस.एस. जनित दलों ने हिन्दू राष्ट्र का नारा दिया और यदि उनके द्वारा इस प्रकार की मांग न की गई होती तो निश्चित रूप से उनके देश के प्रति प्रेम को शक की दृष्टि देखा जाता परन्तु बिना किसी घोषणा पत्र(संविधान) के किसी राजनैतिक व्यवस्था के लागू करने की मांग करना जनता को गुमराह करने के अतिरिक्त कुछ नहीं है।

जब कोई मुसलमान इस्लामी शासन व्यवस्था की बात कहता है तो सबसे बड़े मुस्लिम देश पाकिस्तान की मिसाल सामने आ जाती है जबकि पाकिस्तान में इस्लामी शासन न होकर भ्रष्ट मुसलमानों का शासन है जो कि इस्लाम के नाम पर कलंक जैसा है। पाकिस्तान गु़ण्डागर्दी, चरित्रहीनता और भ्रष्टाचार में हमारे देश से किसी प्रकार से भी कम नहीं है। थोड़ा सा फ़र्क यह कह सकते हैं कि पाकिस्तान में इस्लामी शासन व्यवस्था की बात कहने वालों को आतंकवादी कहकर गोलियों का निशाना बना दिया जाता है जबकि हमारे देश में मुसलमानों की कोई भी मांग न होने के बावजूद सिर्फ़ इसलिए कत्ल कर दिया जाता है कि वह मुसलमान हैं। इसके लिए गुजरात का उदाहरण देना पर्याप्त है और अब तो बाबरी मस्जिद भी भारत के इन्साफ़ को मुंह चिढ़ा रही है।

किसी देश में शासन का अच्छा और बुरा होना इस बात पर निर्भर करता है कि वहां का समाज भय मुक्त हो, बिना किसी भेद भाव के सबको मुफ़्त न्याय मिले तथा न्याय मिलने में देरी न हो। इसके लिये ज़रूरी है कि देश की जनता और शासक वर्ग दोनों समान रूप से क़ानून का सम्मान करें तथा क़ानून की गिरफ़्त में आने पर दोनों ही सामान्य अपराधी की भांति अदालत के सामने पेश किये जाएं। ख़ुलफ़ा-ए-राशिदीन (सही मार्ग पर चलने वाले ख़लीफ़ा) में से एक हज़रत उमर (रज़ियल्लाहु तआला अनहु) के बारे में गांधी जी का यह कहना कि ‘‘मैं हिन्दोस्तान में ऐसी शासन व्यवस्था चाहता हूं जैसी हज़रत उमर (रज़ि०) की थी‘‘ भारत के प्रति देशभक्ति और लगाव को ज़ाहिर करने के लिए पर्याप्त है। शासन व्यवस्था बदलकर गांधीजी की इच्छानुसार लागू करने में जो रिस्क-फ़ैक्टर है उसको बयान करने के लिए उदाहरण के तौर पर पाकिस्तान के एक मन्त्री का अपने देश के बारे में दिया गया बयान पेश किया जा सकता है। उन मन्त्री महोदय ने कहा था कि यदि पाकिस्तान में इस्लामी शासन व्यवस्था क़ायम हुई तो बहुत सारे लोगों के हाथ काट दिये जाएंगे। ध्यान रहे कि इस्लाम में चोरी की सज़ा हाथ काटना है। हमारे देश का हाल उससे भी बुरा है क्योंकि यदि हमारे देश में ऐसा कुछ हुआ तो बड़ी तादाद में लोगों की बलात्कार के जुर्म में पत्थर मार मार कर जान ले ली जाएगी जिनमें आम जनता के साथ बहुत से चहीते नेताओं के वजूद से देश की पवित्र धरती पाक हो जाएगी। हमारे देश में एक सज्जन ने एक वयोव्द्ध नेता पर आरोप लगाया है कि वह उन नेताजी से पैदा हैं। जब आरोप सिद्ध करने के लिए नेताजी का डी.एन.ए. टैस्ट कराने की बात आई तो नेताजी ने इसका विरोध किया। उनका विरोध करना ही दोष सिद्ध करने के लिए काफ़ी है। आय से अधिक सम्पत्ति वास्तव में अमानत में ख़यानत या ग़बन के मामले हैं जिनमें अनगिनत नेता व अधिकारी आरोपित हैं परन्तु समाधान शायद इसलिये नहीं निकल पा रहा है क्योंकि समाधान निकालने वालों को यदि कुरेदा गया तो उनको भी इसी कटहरे में खड़ा होना पड़ेगा जिससे पूरा मामला ही चैपट हो जाने के अन्देशे से इंकार नहीं किया जा सकता। इस्लामी शासन व्यवस्था में इन सभी की सम्प्त्ति ज़ब्त करके इनको पदमुक्त कर दिया जाएगा और इनकी जगह ईमानदार लोगों को नियुति मिल जाएगी। पुलिस विभाग के साथ यदि इन्साफ़ किया गया तो इतने लोग घर बैठा दिये जाएंगे कि उनकी जगह होने वाली नई भरती से देश की बेरोज़गारी काफ़ी हद तक समाप्त हो जाएगी यह निश्चित है। इसके अतिरिक्त यदि कुछ और बेरोजगार बाक़ी रहे तो उनके रोज़गार का प्रबन्ध तो केवल न्यायपालिका से ही हो जाएगा। क्योंकि जजों के नीचे बैठे हुए कर्मचारियों को रिश्वत लेते हुए असानी से पकड़ कर दण्डित किया जा सकता है।

ऐसी शासन व्यवस्था के लागू किये जाने का आह्वान गांधीजी की तरह हमारे देश के हर उस व्यक्ति को करना चाहिए जो देश के प्रति लगाव और हमदर्दी रखता हो ताकि हमारा देश सफलता की ऊंचाइयों को छूता हुआ विश्व नायक होने के गौरव को प्राप्त कर सके।

Sunday, December 26, 2010

Shanti ka Sandesh शान्ति का संदेश Sharif Khan

‘‘शान्ति का सन्देश‘‘ कहने और सुनने में बहुत अच्छा लगता है। शान्ति की अपील हमेशा कमज़ोर लोग किया करते हैं जबकि ताक़तवर लोग हुकुम दिया करते हैं। ताक़त अगर चरित्रवान, दयालु और न्यायप्रिय लोगों के पास होती है तब तो उनके हुकुम के मुताबिक़ शान्ति क़ायम होने की सम्भवना रहती है परन्तु यदि चरित्रहीन, ज़ालिम और अन्यायी लोग ताक़त हासिल करके शान्ति की अपील करते हैं तो अस्थाई तौर पर ख़ामोशी भले ही स्थापित हो जाए परन्तु स्थाई रूप में शान्ति क़ायम हो सके, इस बात ही कल्पना करना स्वंय को धोखा देने के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। चूंकि शान्ति स्थापित करने के इस तरीक़े में हठधर्मी, अन्याय और ज़ुल्म का समावेश होता है इसलिए इसकी प्रतिक्रिया के तौर पर किसी दूसरे रूप में जो अशान्ति फैलती है उसके नतीजे में भयानक बरबादी का होना निश्चित होता है जिसका जीता जागता उदाहरण हम मौजूदा दौर के देश और विदेश के हालात से दे सकते हैं।
आज के अशान्ति और आतंक के माहौल का विश्लेषण यदि हम निष्पक्षता से करें तो सरलता से इस नतीजे पर पहुंच सकते हैं कि 1945 से आज तक लगातार किसी न किसी देश से युद्ध करने और करोड़ों लोगों का ख़ून बहाने वाले देश अमेरिका का वजूद इसका ज़िम्मेदार है। फ्रेंकलिन डी. रूज़वेल्ट की मौत के बाद 12 अप्रैल 1945 को अमेरिका के 33वें राष्ट्रपति के तौर पर कुर्सी सम्भालने वाला हैरी ट्रूमैन ’’कू क्लक्स क्लेन’’ नाम के आतंकवादी संगठन का सक्रिय कार्यकर्ता रहा था। इस संगठन का मक़सद काले लोगों को आतंकित करके अमेरिका में वोट देने के हक़ से महरूम करना था। एक आतंकवादी को अपने देश का राष्ट्रपति पद सौंपकर अमेरिकी जनता ने भी आतंकवाद से अपने लगाव का परिचय दिया और इतना ही नहीं बल्कि लाखों लोगों की मौत के ज़िम्मेदार उस व्यक्ति को 1948 के चुनाव में दोबारा राष्ट्रपति चुनकर खूनी खेल जारी रखे जाने की भविष्य की पॉलिसी को वहां की जनता ने हरी झण्डी दिखा दी। उसके बाद से आज तक शान्ति क़ायम करने के नाम पर अमेरिका लगातार इन्सानों का ख़ून बहा रहा है। इसकी वजह यह है कि ताक़त चरित्रहीन, ज़ालिम और अन्यायी लोगों के हाथों में आ गई है। कोरिया, वियतनाम, इराक़, अफ़ग़ानिस्तान आदि देशों की बरबादी इस बात को साबित कर रही है कि शैतान के क़दम जहां पड़ जाते हैं बरबादी वहां का मुक़द्दर बन जाती है। अफ़सोस की बात यह है कि ऐसे शैतानों को समर्थक भी मिल जाते हैं।
सभ्य समाज के अजूबों का ज़िक्र करना यहां ज़रूरी है। तलवार हो या बन्दूक़ इसी प्रकार एटमी हथियार हों या रसायनिक सबका काम मारना है। इनमें तलवार या बन्दूक़ से तो केवल उसी का क़त्ल होता है जिसको मारना होता है परन्तु एटमी या रसायनिक हथियार तो उस क्षेत्र के सभी लोगों को एक साथ मौत के घाट उतार देते हैं। अमेरिका का इराक़ पर रसायनिक हथियार रखने के इल्ज़ाम में हमला करना कैसे जायज़ हो गया जबकि वह ख़ुद तो एटम बम का भी इस्तेमाल कर चुका है। ड्रोन के द्वारा किये जा रहे हमले किस श्रेणी में आते हैं इस पर भी विचार करने की आवश्यकता है। परमाणु हथियारों के बारे में अमेरिका का यह कहना कि यह ग़लत हाथों में नहीं पहुंचने चाहिएं जबकि अमेरिका के अलावा किसी भी देश में इन हथियारों का ग़लत इस्तेमाल होने की सम्भावना बहुत कम है क्योंकि अभी तक केवल अमेरिका ने ही इन हथियारों का इस्तेमाल किया है।
जिन लोगों से अफ़ग़ानिस्तान छीनकर अपने ग़ुलामों को सौंपा है यदि उन्हीं लोगों को वापस लौटा दिया जाए और एटमी हथियार उनको उपलब्ध करा दिये जाएं तो इस प्रकार से जो शक्ति सन्तुलन होगा वह अमेरिका की हैवानियत पर शायद लगाम लगा सके। कभी अवसर मिला तो अपने देश के बारे में चर्चा करेंगे।

Sunday, December 12, 2010

Muslim Society & New Year मुस्लिम समाज और नववर्ष Sharif Khan

किसी भी मशहूर घटना की याद क़ायम रखने के लिए आवश्यक है कि उस घटना को घटित हुए जितना समय गुज़रा हो उसकी गणना होती रहे। इसको यादगार बनाने का सबसे अच्छा उपाय यह है कि उस समय से सन् प्रारम्भ कर दिया जाए। यह बात अधिकतर धर्म व संस्कृतियों में देखी जा सकती है जैसे विक्रमी संवत्, ईसवी सन्, हिजरी सन् आदि। इनमें हिजरी सन् के अलावा जितने भी सन् शुरू हुए हैं वह प्रथम माह से शुरू हुए हैं परन्तु हिजरी सन् प्रथम माह से शुरू न होकर तीसरे माह से प्रारम्भ होता है। यह सन् पैग़म्बर हज़रत मौहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के मक्का से मदीना हिजरत करने के समय से शुरू होता है और पैग़म्बर सल्ल० ने तीसरे माह (रबीउल अव्वल) की पहली तारीख़ को मक्का छोड़ा था तथा 8 तारीख़ को मदीने से कुछ किलोमीटर पहले क़ुबा के मुक़ाम पर पहुंचे तथा इसके बाद 12 तारीख़ को मदीना में प्रवेश किया था। इस प्रकार से यदि मक्का छोड़ने के समय को हिजरत मानी जाए तो रबीउल अव्वल की पहली तारीख़ तथा यदि मदीने में प्रवेश करने के समय को हिजरत मानी जाए तो रबीउल अव्वल की 12 तारीख़ से हिजरी सन की शुरूआत होती है। जिस प्रकार से यात्रा आरम्भ करने के साथ ही कोई व्यक्ति यात्री कहलाने लगता है उसी तरह हिजरत के लिए घर छोड़ने के समय को हिजरत करना कहते हैं अतः रबीउल अव्वल की पहली तारीख़ से हिजरी सन् का आरम्भ हुआ।
इस बात की जानकारी होना भी आवश्यक है कि अरब में समय की गणना सूर्य से न होकर चन्द्रमा से होती रही है और प्राचीन काल से समय की गणना के लिए जो पद्धति अपनाई हुई थी उस में किसी भी प्रकार का रद्दो बदल न करके उसी को अपना लिया गया यहां तक कि महीनों के नाम भी वही क़ायम रहे जो पहले से चले आ रहे थे जोकि इस प्रकार हैं - (1) मुहर्रम (2) सफ़र (3) रबीउल अव्वल (4) रबीउस्सानी (5) जमादिउल अव्वल (6) जमादिउस्सानी (7) रजब (8) शाबान (9) रमज़ान (10) शव्वाल (11) ज़ीक़ाद (12) ज़िलहिज्ज।
इस प्रकार से हिजरी सन् का पहला महीना मुहर्रम का बेशक है परन्तु हिजरत की घटना चूंकि तीसरे माह की पहली तारीख़ को घटित़ हुई थी इसलिये नया साल मुहर्रम के महीने से आरम्भ होने का कोई औचित्य ही नहीं है। जनवरी की पहली तारीख़ को नववर्ष के तौर पर मनाने का चलन है और 31 दिसम्बर व 1 जनवरी के बीच की मध्यरात्रि को समारोह आयोजित किये जाते हैं।
साम्प्रदायिकता वादी ईस्वी सन् को ईसाई धर्म से जोड़ कर इस दिन को नववर्ष के रूप में मान्यता देने से बचते हैं और सम्वत् के अनुसार हिन्दी नववर्ष के रूप में चैत्र मास की पहली तारीख़ को मान्यता देने का संकल्प लिये हुए हैं परन्तु सफल नहीं हो पा रहे। मुस्लिम समाज यदि मुहर्रम के महीने से वर्ष की शुरुआत माने तो इस माह के पहले दस दिन मानव सभ्यता के इतिहास में सबसे ज़्यादा शर्मनाक और मानवता को कलंकित करने वाले जु़ल्म की कहानी कह रहे होते हैं अतः इसको समारोह का रूप नहीं दिया जा सकता। रबीउल अव्वल माह की पहली तारीख़ हिजरत वाला दिन है इसको ऐतिहासिक तथ्य के रूप में मान्यता तो दी जा सकती है परन्तु समारोह के तौर पर मनाया जाना इसलिए अनुचित है क्योंकि शरीअत में किसी भी घटना की वर्षगांठ मनाया जाना साबित नहीं हैं। अतः मुसलमानों को चाहिए कि नया साल, किसी का जन्म दिन, बरसी आदि हर प्रकार के आयोजनों से स्वंय दूर रखें। आवश्यकता इस बात की है कि इस्लाम धर्म के आलिम हज़रात इन तथ्यों की रोशनी में दिशा निर्देश दें ताकि मुस्लिम समाज भटकने से बचा रहे।