एक सज्जन अमेरिका में रहने वाले अपने बड़े भाई से मिलकर लौटे हैं और आजकल जहां भी जाते हैं यही चाहते हैं कि लोगों को अपने संस्मरण सुनाकर गौरवान्वित होते रहें। वहां का गुणगान वह कुछ इस अन्दाज़ में करते हैं जैसे कि स्वर्ग से लौटकर आये हों और नर्कवासियों को वहां के हालात से परिचित करा रहे हों। कुछ दोस्तों की एक महफ़िल में यह सज्जन मिले और वार्तालाप को अपने कब्जे में लेते हुए कहने लगे कि अगर स्वर्ग देखना है तो अमेरिका देख लो। उनके बात आगे बढ़ाने पहले ही मैंने कहा कि यदि नर्क देखना है तो अमेरिका को देख लो। जैसा मैं चाहता था, उसी के अनुसार प्रभाव पड़ा तथा लोग मेरी ओर आकर्षित होकर मेरी बात सुनने आमादा हो गए जो इस प्रकार थी।
हमारे पूर्वजों ने हज़ारों वर्षों में जिस प्रकार के समाज का निर्माण किया उसकी बुनियाद है वैवाहिक व्यवस्था। हमारे समाज ने बिना विवाह किये हुए किसी महिला के परपुरुष के साथ रहने को अथवा सम्बन्ध बनाने को कभी मान्यता नहीं दी तथा इस कार्य को व्याभिचार कहा गया है। इस प्रकार के सम्बन्ध बनाने वाले लोगों को सदैव ही धिक्कारा गया है तथा ऐसी महिलाओं को रखैल व इस सम्बन्ध के नतीजे में जन्मे बच्चों के लिये हरामी शब्दों का प्रयोग किया जाता है तथा इन शब्दों को गालियों के रूप में इस्तेमाल किया जाना ही यह साबित करने के लिये काफ़ी है कि सभ्य समाज में यह बात नाक़ाबिले माफ़ी अपराध है।
इस प्रकार के शब्दों का अपनी भाषा में प्रयोग मुझे शर्मसार कर रहा है जिसके लिये मैं क्षमा प्रार्थी हूं।
अमेरिकी सामाजिक परिवेश पर यदि नज़र डाली जाए तो हम देखते हैं कि वहां आधे से ज़्यादा युवतियां शादी से पहले मां बन जाती हैं और उसके बाद तय किया जाता है कि विवाह किया जाए या ऐसे ही साथ रहते रहें और यदि विवाह करना हो तो क्या बच्चों के बाप से किया जाए अथवा किसी दूसरे व्यक्ति से। इससे भी ज़्यादा अफ़सोसनाक बात यह है कि वहां के समाज ने इसे मान्यता दी हुई है। ऐसे घिनौने समाज का गुणगान करते हुए उसकी स्वर्ग से उपमा देने वाले सज्जन की बात के जवाब में यदि उसको नर्क कहा जाए तो किसी भी प्रकार से अनुचित न होगा।
हमारे देश में गर्ल फ्रेण्ड व बॉय फ्रेण्ड का चलन तो टी.वी. और फ़िल्मों के माध्यम से आरम्भ होकर व्याभिचार के द्वार खोल ही चुका है और दूसरी ओर लोकतन्त्र के चारों स्तम्भों विधायिका, न्यायपालिका, कार्यपालिका तथा मीडिया में ऐसे तत्व मौजूद हैं जो इस कार्य को क़ानून की सहायता से आगे बढ़ाते हुए अमेरिका के मानिन्द हमारे समाज का भी जनाज़ा निकालने की कोशिश में लगे हुए हैं।
ब्लॉगर बिरादरी से मेरा अनुरोध है कि यदि समाज को पतन की राह पर जाते हुए महसूस कर रहे हैं तो, बजाय ख़ामोश तमाशाई बनने के, समाज के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी को समझें और सारे भेदभाव भुलाकर इस मुद्दे को एक कॉमन प्रोग्राम की तरह से उठाने की कार्ययोजना तैयार करने में सहयोग करें वरना वह दिन दूर नहीं जब हमारा प्यारा देश भी अमेरिका की तरह से रखैलों और हरामी बच्चों के देश के रूप में पहचाना जाने लगेगा।
19 comments:
har peedhi apna smaj khud banati hai. nai peedhi hi yeh jhanda uthaye hum aur aap purani peehi ke log unka samaj tay nahi kar sakte. ye unehe hi tay karna hai, nark ya swarg.
सही कहा नर्क देखना है तो अमेरिका को देख लो
या नर्क में जाना हो तो अमेरिका हो आओ
लोगो को अब नर्क ज़्यादा अच्छा लगने लगा है इसी लिए अमेरिकन Embassy के बाहर लोग सुबह तड़के से जमा हो जाते हैं....
किसी भी क़ीमत पर...बस अमेरिका(नर्क) दर्शन हो जाएँ ?
उत्तम विचार
good post
इस्लाम शादी करना आसान और व्याभिचार करना मुश्किल बनाता है इस्लाम व्याभिचार के मूल कारणो को ही खत्म करता है
और अगर कोई व्यक्ति फिर भी व्याभिचार करता है तो इस्लाम उस व्याभिचारी को ही खत्म करने का आदेश देता है
इस तरह इस्लाम पर चलकर ही इस धरती को स्वर्ग बनाया जा सकता है अन्यथा यहाँ पर अमेरिका जैसा नरक ही बनेगा
अगर अमेरिका, युरोप वीसा सिस्तम समाप्त कर दे तो साल भर मे भारत कि आबादी आधी हो जाये, आधे से जयादा भारत के लोग अमेरिका युरोप चले जाये.
बेमिसाल पोस्ट...
में आप से सहमत हूँ !
हमारे पूर्वजों ने हज़ारों वर्षों में जिस प्रकार के समाज का निर्माण किया उसकी बुनियाद है वैवाहिक व्यवस्था। हमारे समाज ने बिना विवाह किये हुए किसी महिला के परपुरुष के साथ रहने को अथवा सम्बन्ध बनाने को कभी मान्यता नहीं दी तथा इस कार्य को व्याभिचार कहा गया है
आपने जो मुद्दा उठाया है, वाक़ई उसपर तवज्जो दी जानी चाहिये। लेकिन इस देश के लोगों को जाने क्या हो गया है कि अपनी परंपराओं को छोड़कर उन पश्चिमी लोगों के रिवाज अपना रहे हैं जिन्हें देश से निकालने के लिये लोगों ने अपनी जानें दीं अपने परिवार तबाह कर लिये। अपनी परंपराओं में विश्वास नहीं है और उन्हें छोड़कर दूसरी परंपरा अपनानी है तो फिर इस्लामी परंपरा को अपनाना चाहिये। जिसमें व्यभिचार को रोकने के लिये संपूर्ण उपाय हैं। मैंने इस सब्जेक्ट पर कई बार लिखा है जो मेरे ब्लॉग पर देखा जा सकता है। इसलाम से नफ़रत इस देश को तबाह कर देगी। इसलाम को समझो और अपनाओ। यह ईश्वरीय है, सरल है, वर्तमान समाज की अपेक्षाओं के अनुरूप है। जीवन के हरेक पक्ष में यह रास्ता दिखाता है। सन्यास लेना इसलाम में वर्जित है। जीवन की ज़िम्मेदारियां सही ढंग से पूरी करना ही जन्नत की गारंटी है। यहां न भोग में अति है और न ही वैराग्य में। हरेक चीज़ में संतुलन है , सौंदर्य है। सेक्स को इस्लाम में घृणित नहीं माना गया है। सेक्स ईश्वर का वरदान है, एक रचनात्मक ताक़त है। इसका सम्यक उपयोग केवल इस्लाम सिखाता है। आज के मां बाप अगर अपने लड़के लड़कियों को सेक्सुअली तबाह होने बचाना चाहते हैं तो उन्हें अपने बच्चों को सेक्स के संबंध में इसलाम के नियमों का ज्ञान करवाना चाहिये।
इस लाजवाब पोस्ट के लिये आपको बधाई।
Sahi Farmaya........
इस्लाम के अनुसार बिना विवाह के यौन सम्बन्ध स्थापित करना जिना कहलाता है, जिसकी सजा रजम होती है. अगर इस तरह के संबंधो को हमारे देश में अपराध घोषित कर दिया जाये तो मेरे विचार से समस्या काफी हद तक हल हो सकती है.
shrif bhaayi aadaab hmaare desh men pehle islaamik shaasn tha fir angrezi shaasn aayaa kaafi hd tk islaamik qaanun hi laagu he yhaa i.p.c ki dhaaraa 354,376,377,506,494,495,496,497,292 men aese sngin maamlon men hi szaa ka praavdhaan he lekin qaanun he ise laagu nhin kiyaa gyaa he sza jel he ot nhin aapki baat kaafi hd tk shi he lekin osho smrthkon kaa kyaa kre koi pulis ekh kr ankh mich leti he . akhtar khan akela kota rajsthan
सुधीर ji!
अमेरिकी समाज के पतन की भयावहता को देखिये कि अगर यही हाल रहा तो वहां इंसानों में भी जानवरों की तरह से सिर्फ नर और मादा का रिश्ता रह जायेगा. यदि यह कहकर खामोश रह गये कि नयी पीढ़ी को अपना समाज खुद बनाने कि छूट दे दी जाए तो यह अपनी ज़िम्मेदारी से मुंह मोड़ना होगा.
हमारा देश गरीब है यह चीख-पुकार एक नाटक है, लाचारी है, हमारे देश में बेरोजगारी है यह भी एक नाटक है। गरीबी, बेरोजगारी और भुखमरी किसी देश में तब कही जा सकती है जब गरीबी, बेरोजगारी , लाचारी और भुखमरी से सब प्रभावित हों। हमारे देश में ऐसा नहीं है।
http://hindugranth.blogspot.com/2010/07/blog-post_29.html
एक-एक हिन्दू, सेठ, साहब और सन्यासी के पास 50-50 काफिलों में चलने वाली विलायती कारें हैं। दलित दरिद्र के मनोंरंजन का साधन मात्र उसकी पत्नी और उसके बच्चे हैं, जबकि हिन्दू महन्त, मठाधीश, ज़मींदार, शरमाएदार और सेठ चोटी से पैर तक अय्यासी में डूबे हुए रहते हैं। एक तरफ दलित मासूम बच्चों को 40-40 रूपये में पेट की खातिर बाजार में बेच देते हैं वहीं इन हिन्दुओं के अपने मसाजघर, मनोरंजन थियेटर, नाचघर, जुआघर और मयखाने हैं जहां जीवित मांस का व्यापार होता है।
nice post
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