विश्व की प्राचीनतम सभ्यताओं में मैसोपोटामिया (इराक़), भारत व चीन के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। भारत की सभ्यता व संस्कृति का एक गौरवमयी इतिहास रहा है जिसको किसी भी प्रकार से नज़रअन्दाज़ नहीं किया जा सकता। सभ्यता का वजूद क़ायम रहे, इसके लिए आवश्यक है आदर्श समाज का निर्माण। भारत में समय समय पर जन्म लेने वाले महापुरुषों का आदर्श समाज के निर्माण में जो योगदान रहा है उसके महत्त्व को भुलाया नहीं जा सकता। परिवार समाज की इकाई होता है। एक परिवार में जो स्त्री-पुरुष होते हैं उनमें परस्पर बाप-बेटी, मां-बेटा तथा बहन-भाई के सम्बन्ध तो जन्म के आधार पर होते हैं परन्तु पति-पत्नि का सम्बन्ध समाज के द्वारा मान्यता दिये जाने पर ही वैध होता है जिसको हम विवाह कहते हैं। समाज निर्माण के लिये जो परम्पराएं बनाई गईं, जिन बातों को निषिद्ध किया गया तथा जिन बातों का समावेश करके मान्यता दी गई इसी को हम संस्कृति कहते हैं। अपनी संस्कृति से लगाव होना मानव प्रकृति का अंग है।
अंग्रेज़ों के चंगुल से देश तो आज़ाद हो गया लेकिन मानसिक रूप से भारत की जनता और विशेष रूप से संविधान निर्माता उनकी ग़ुलामी से आज़ाद न हो सके और उसके बाद शासन की बागडोर सम्भालने वाले नेता भी किसी न किसी रूप में उसी मानसिकता से दबावग्रस्त रहे जिसके नतीजे में आज का सामाजिक ढांचा बिगाड़ के कगार खड़ा है। संविधान निर्माताओं ने विशेष रूप से इंगलैंड, अमेरिका, फ्रांस व इटली के संविधानों की मदद से अपने देश का संविधान बनाया। मानसिक ग़ुलामी का इससे बढ़कर और क्या सबूत हो सकता है कि जिन गोरी चमड़ी वालों से देश को आज़ाद कराया था, उन्ही के संवैधानिक ढांचे के अनुसार निर्मित संविधान देश पर थोप दिया गया। ‘‘कौवा चला हंस की चाल, अपनी चाल भी भूल गया।‘‘ इस कहावत में कौवे का प्रगतिशील होना तो कम से कम दिखाई दे रहा है क्योंकि उसने अपने से बेहतर की नकल करने की कोशिश की लेकिन हमारे देश के नेताओं ने तो इस कहावत ही को पलट दिया। सभ्यता व संस्कृति के नाम पर शून्य अमेरिका जैसे भौतिकवादी देश का महान सभ्यता व संस्कृति वाला महान भारत देश यदि अनुसरण करता है तो फिर कहावत ऐसे होगी, ‘‘हंस चला कौवे की चाल, अपनी चाल भी बरबाद कर दी।‘‘
आज़ादी मिलने के बाद देश में लोकतान्त्रिक ढांचे की रूपरेखा बनाई गई। लोकतन्त्र की परिभाषानुसार सरकार ऐसी होनी चाहिए जो जनता की हो, जनता द्वारा निर्वाचित हो तथा जनता के लिए हो। लिहाज़ा जनता के हितों को दृष्टि में रखते हुए जनता की इच्छा व आवश्यकतानुसार क़ानून बनाये जाएं तथा आवश्यकता पड़ने पर संविधान में संशोधन का भी प्रावधान रखा गया। विधायिका का कार्य आवश्यकतानुसार संविधान में संशोधन करना तथा न्यायपालिका का कार्य उसकी व्याख्या करना है। अब हम सूत्रवार अपनी बात को स्पष्ट करने का प्रयत्न करते हैं
1- यह कि, देश की जनता ने जब समलैंगिकता को जायज़ क़रार दिये जाने की कभी मांग नहीं की तो फिर मानवता को कलंकित करने वाले ऐसे घिनौने कृत्य को क्यों क़ानूनी सुरक्षा प्रदान करने का प्रावधान किया जा रहा है ?
2- यह कि, देश की जनता ने जब वयस्क लड़के-लड़कियों को बिना विवाह किये साथ रहने की कभी मांग नहीं की तो फिर विवाह के द्वारा बनाए गए सामाजिक ढांचे को छिé भिé करने के लिए ‘लिव इन रिलेशनशिप‘ का क़ानून में प्रावधान करने की क्यों कोशिश की जा रही है ?
3- यह कि, देश की जनता अपनी सांस्कृतिक परम्पराओं को बचाने के लिए जब अपने जिगर के टुकड़ों तक की बलि देने को तैयार है तो फिर मां, बाप और समाज को ठेंगा दिखाकर घर से भागकर ब्याह रचाने वाले कम उम्र युवक युवतियों को विशिष्टता प्रदान करके क्यों सामाजिक ढांचे को छिé भिé करने की कोशिश की जा रही है ?
विधायिका, न्यायपालिका, कार्यपालिका तथा मीडिया लोकतन्त्र के यह चार स्तम्भ हैं। इनको संचालित करने वालेे लोग कहीं दूसरे देश से न आकर इसी सामाजिक परिवेश का अंग हैं परन्तु उपरोक्त तीन सूत्रों में दर्शाई गई बातों पर यदि ग़ौर करें तो क्या ऐसा प्रतीत नहीं होता जैसे सबने मिलकर देश की संस्कृति का जनाज़ा निकालने की एकसूत्रीय कार्ययोजना तैयार की हुई है ?
ऐसी विकट परिस्थिति में, बजाय मायूस होने या देश के वातावरण को दूषित होते देख शर्म से गर्दन झुकाकर बैठे रहने के, बुद्धिजीवी वर्ग को चाहिए कि इस समस्या पर बहस करके समाधान खेजने की कोशिश करें वरना भारत जैसे महान देश में भी निकट भविष्य में अमेरिका जैसा मानवता को कलंकित करने वाला माहौल बनते देर नहीं लगेगी और फिर बच्चे पैदा होने के बाद विवाह के बारे में विचार किया जाया करेगा। उचित मार्गदर्शन करने वाले बुजुर्गों को तो वृद्धाश्रम में भेजकर पीछा छुड़ाने चलन बनने लगा है ही।
उपरोक्त सूत्रवार कही गई बातों को समस्या का जो रूप दे दिया गया है उसके समाधान के लिये सुझाव के तौर पर हम यह कह सकते हें कि सूत्र नं. 1 व 2 वाले कृत्य को वैधानिक संरक्षण देने के बजाय अपराध घोषित किया जाए तथा नं. 3 के अंतर्गत किये गए विवाह को मान्यता देने के लिये नियमों को कड़ा करने की आवश्यकता पर बल दिया जाए। जैसे कि ऐसे विवाह की मान्यता के लिये आयु 25 वर्ष या अधिक रखी जाए क्योंकि कम उम्र में प्रेम न होकर वासना ही होती है तथा 25 साल की उम्र के बाद प्रेम और वासना के अन्तर को समझने की क्षमता पैदा हो जाती है। ध्यान रहे, ऐसे विवाह प्रायः 25 वर्ष से कम उम्र के अपरिपक्व मस्तिष्क के युगल ही करते हैं। सामाजिक मान्यताओं के ख़िलाफ़ किये गए विवाह के द्वारा अपने समाज के बुज़ुर्गों की मान मर्यादा का उल्लंघन करके रचाए गए विवाह को क़ानून चाहे संरक्षण दे परन्तु ऐसे प्रेमी युगलों को शारीरिक यातना देने के बजाय सामाजिक बहिष्कार के तौर पर दण्डित तो किया ही जा सकता है। इस प्रक्रिया के फलस्वरूप आनर किलिंग के नाम पर की जाने वाली हत्याओं में काफ़ी हद तक कमी आ सकती है।
9 comments:
आपकी बातें विचारणीय हैं।
………….
दिव्य शक्ति द्वारा उड़ने की कला।
किसने कहा पढ़े-लिखे ज़्यादा समझदार होते हैं?
nice post .
इस्लाम पर ऐतराज़ करना गलत है .
http://jhandagadu.blogspot.com/2010/07/blog-post.html
मिनी मौलाना जी , आदाब अर्ज है . लेख पढ़कर दिल ठंडा और दिमाघ गरम हो गया .
भारत का इतिहास कितना गौरवमयी है ? , देखो मेरे ब्लाग पर ।
बात में तथ्य है.
ek achchhi koshish hai.
विचारणीय...
सहसपुरिया ji!
ऑनर किलिंग की समस्या उत्पन्न होने का कारण दो पीढ़ियों के बीच सामंजस्य का न होना और नयी पीढ़ी का संस्कार विहीन होना है. इसके समाधान के लिए प्यार और सख्ती दोनों की आवश्यकता है. बुद्धिजीवी वर्ग को इस बारे में विचार करके समाज का पथप्रदर्शन करना चाहिए.
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