Sunday, March 19, 2017

“फ़तवा, उसकी हक़ीक़त और उसके ख़िलाफ़ साज़िश” – शरीफ खान

फ़तवा, शहीद और जिहाद की तरह ख़ालिस इस्लामी शब्दावली का लफ़्ज़ है जिसका असल भावार्थ जाने बिना उसके लिये वही भ्रान्तियां पैदा होती हैं जैसी शहीद और जिहाद जैसे पाक लफ़्ज़ों के प्रति पैदा कर दी गई हैं। इसकी वजह है कि इस्लामी शरीयत की सतही सी जानकारी रखने वाले मुसलमान बिना सही मालूमात के इन अल्फ़ाज़ की व्याख्या करने लगते हैं और फिर इस्लाम और मुसलमानों के ख़िलाफ़ चल रही साज़िश में शामिल इस्लाम की A B C तक न जानने वाला मीडिया और मुसलमानों के ख़िलाफ़ तरह तरह के मुद्दे पैदा करने में माहिर हिन्दुत्ववादी संगठन मूर्खतापूर्ण टिप्पणियों और तरह तरह के कटाक्ष से माहौल को ऐसा दूषित कर देते हैं कि उसके प्रभाव से कम पढ़े लिखे या शरीयत का इल्म न रखने वाले मुसलमान भी उन्ही की भाषा बोलने लगता है।
अल्लाह ने इंसानों की रहनुमाई के लिये अपने रसूल (स अ व) के ज़रीये क़ुरआन पाक भेजा और उस पर अमल करके दिखाने के साथ ही उसको समझाने की ज़िम्मेदारी भी अल्लाह ने अपने रसूल स अ व को सौंपी जिसके सबूत में रसूल (स अ व) के जीवन का एक एक पल दुनिया के सामने है जो पूरी तरह क़ुरआन के मुताबिक़ है और चूँकि रसूल स अ व के द्वारा बताई हुई हर बात अल्लाह ही की तरफ़ से थी जिसको हदीस कहते हैं और जो अमल उनके द्वारा किये गए, जो सुन्नत कहलाते हैं, भी दीन का भाग हैं।
इसके अलावा रसूल (स अ व) के साथी, जो सहाबा कहलाते हैं, ने अगर सर्व सम्मति से कोई फ़ैसला दिया हो, वह भी मुसलमानों के लिये महत्त्वपूर्ण है और उसके ख़िलाफ़ भी कोई बात कहना जायज़ नहीं है क्योंकि उन लोगों ने रसूल स अ व के जीवन को बारीकी से देखा भी था और वह प्रशिक्षित भी उन्ही के द्वारा किये हुए थे इसके अलावा एक ख़ास बात यह भी थी कि ख़लीफ़ा जैसे इस्लामी शरीयत के सर्वोच्च पद पर आसीन शख़्स भी अगर भूल वश ग़लत फ़ैसला दे देता था तो उसको हर शख़्स टोकने का अधिकार रखता था और उसकी बात सही होने पर ख़लीफ़ा अपना फ़ैसला बदल देता था। इस तरह की बहुत सी मिसालों से इस्लामी इतिहास भरा पड़ा है लेकिन यहां बात समझने के लिये केवल दो उदाहरण काफ़ी हैं।
पहला यह कि हज़रत उसमान र अ जब ख़लीफ़ा बने तो उनके सामने पहला मुक़द्दमा एक ऐसी औरत का आया जिसने विधवा होने पर इद्दत पूरी करने के बाद एक शख़्स से निकाह किया और निकाह के छः माह गुज़रने पर ही उसने एक बच्चे को जन्म दिया लिहाज़ा ऐसी स्थिति में उसका पति उसके ख़िलाफ़ ज़िना का मुक़द्दमा लेकर ख़लीफ़ा के सामने पेश हुआ और ख़लीफ़ा हज़रत उसमान र अ ने उस औरत को अपराधी मानते हुए पत्थर मार कर मौत की सज़ा सुना दी।
इस घटना के बारे में जब हज़रत अली को मालूम हुआ तो वह फ़ौरन हज़रत उसमान (र अ) से मिले और कहा कि आपने यह क्या ग़ज़ब कर दिया वह औरत तो अपराधी है ही नहीं क्योंकि क़ुरआन पाक छः माह में बच्चा पैदा होने की तसदीक़ करता है और उन्होंने क़ुरआन पाक की निम्नलिखित दो आयतों का हवाला दिया जो इस प्रकार हैं-
सूरह अलएहक़ाफ़ की15 वीं आयत में फ़रमाया गया है, अनुवाद:

“हमने इंसान को हिदायत की कि वह अपने माँ बाप के साथ नेक बर्ताव करे। उसकी माँ ने मशक़्क़त उठाकर उसे पेट में रखा और मशक़्क़त उठाकर ही उसको जना और उसके हमल और दूध छुड़ाने में तीस महीने लग गए।”

सूरह लुक़मान की 14 वीं आयत में फ़रमाया गया है, अनुवाद:

“उसकी माँ ने ज़ौफ़ पर ज़ौफ़ उठा कर उसे अपने पेट में रखा और दो साल उसका दूध छूटने में लगे। (इसीलिये हमने उसको नसीहत की कि) मेरा शुक्र कर और अपने वालिदैन का शुक्र बजा ला।”

इस तरह हज़रत अली (र अ) ने दलील पेश की कि उपरोक्त आयतों के अनुसार गर्भवती होने से बच्चा जनने और दूध छुड़ाने तक का समय तीस माह है और दूध छुड़ाने की मुद्दत दो साल है इस तरह तीस माह में से दो साल निकाल दिये जाएं तो छः माह बचते हैं इसके अनुसार वह औरत अपराधी नहीं है। इसके बाद उस औरत को छोड़ दिया गया।
दूसरी मिसाल जंगे सिफ़्फ़ीन के दौरान की है कि जब सीरिया पर हज़रत मआविया का क़ब्ज़ा था और उनकी हज़रत अली र अ से जंग की तैयारी थी ऐसे समय में हज़रत मआविया के पास सन्तान में मीरास के बटवारे का मुक़द्दमा पेश हुआ जिसमें मरने वाले की एक औलाद हिजड़ा थी लेकिन चूँकि क़ुरआन पाक में केवल लड़की और लड़के को मिलने वाले हिस्से का ही ज़िक्र है और नबी (स अ व) के सामने भी ऐसा कोई मामला तय होने के लिये नहीं आया था और हज़रत मआविया भी खुद को फ़ैसला देने में सक्षम नहीं पा रहे थे लिहाज़ा फ़ैसला ग़लत न हो जाए इस डर से उन्होंने इसका जवाब हासिल करने के लिये हज़रत अली (र अ) के पास ख़त भेजा जिसके जवाब में हज़रत अली (र अ) ने फ़रमाया कि उस हिजड़े की पेशाब की जगह देख ली जाए अगर औरतों जैसी हो तो लड़की के बराबर हिस्सा मिलेगा और लड़के जैसी होने पर लड़के के समान हिस्सा मिलेगा।
इन्ही सब की रौशनी में इस्लामी क़ानून बनाए गए और इन्ही को फ़तवा भी कहा जाता है। इसके अलावा अगर कोई नई समस्या आती है तो उसका समाधान मुफ़्ती की डिग्री प्राप्त आलिम से पूछा जाता है जो उपरोक्त तमाम चीज़ों के अध्ययन के बाद फ़तवा देता है।
इस तरह फ़तवा न सुझाव है और न राय है बल्कि किसी शख़्स की समस्या के समाधान के लये एक आलिम द्वारा शरीयत के अनुसार खोजा गया जवाब होता है।
यह जानना भी ज़रूरी है कि जो लोग किसी गुनाह से बचने की नीयत से किसी समस्या का हल प्राप्त करने के लिये मुफ़्ती से फ़तवा लेते हैं वह तो उस फ़तवे को अल्लाह का हुकुम मान कर उस पर अमल करते हैं। इसके अलावा जो लोग केवल खुराफ़ात पैदा करने के लिये फ़तवा मंगाते हैं उनके लिये वह केवल मुफ़्ती की राय होता है।
उदाहरण के लिये:
किसी खुराफ़ाती ने फ़तवा मंगवाया कि लड़कियों का मिनी स्कर्ट पहन कर खेलना कैसा है जबकि जाहिल मुसलमान भी यह जानता है कि औरतों और मर्दों के लिये जितना जिस्म ढकना फ़र्ज़ है जिसको सतर कहते हैं, उसका खोलना हराम है लिहाज़ा मुफ़्ती ने लड़की के मिनी स्कर्ट पहनने को हराम बता दिया।
चूँकि यह फ़तवा सानिया मिर्ज़ा को निशाना बना कर मंगवाया गया था और सानिया मिर्ज़ा में इस मामले में अल्लाह का ख़ौफ़ नहीं था इसलिये बजाय यह कहने के कि यह गुनाह है और मैं इस पर शर्मिन्दा हूँ, उसने जवाब दिया कि मौलवी साहब मेरा खेल देखें और मेरी टाँगे न देखें।
इस तरह मीडिया और कथित मुस्लिम बुद्धिजीवियों ने भी अल्लाह के इस हुकुम का मज़ाक़ बना कर रख दिया और फतवों के ख़िलाफ़ अच्छी ख़ासी जंग छेड़ दी।
इस प्रकार मुसलमानों को चाहिए कि फ़तवे के ख़िलाफ़ चल रही साज़िश का शिकार होने से बचें और ऐसी खुरफ़ातों से दूर रहें……………….।

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