कानून द्वारा दिए गए अधिकार का इस्तेमाल करते हुए निचली अदालत के फैसले को चुनौती देते हुए जब उससे बड़ी अदालत में अपील की जाती है तो इसका सीधा सा मतलब यह होता है कि अपीलकर्ता उस से निचली अदालत का फैसला मानने से इन्कार कर रहा है। उस अदालत से भी हारने के बाद उसका हाई कोर्ट में अपील करना और हाई कोर्ट के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील करना साबित करता है की निचली अदालत से लेकर हाई कोर्ट तक के किये गए फैसले ज़रूरी नहीं हैं कि इन्साफ पर खरे उतरें। सवाल यह पैदा होता है कि इन्ही जजों को पदोन्नत करके सुप्रीम कोर्ट का जज बनाया जाता है तो फिर यह कैसे मान लिया गया है कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला ठीक ही होगा और इन्साफ पर आधारित होगा। जब उससे निचली अदालत नाइन्साफी कर सकती है तो सुप्रीम कोर्ट में इन्साफ ही होगा इस बात की क्या दलील है? किसी अपराधी को दी जाने वाली सबसे बड़ी सजा मौत की सजा है जो सामान्यतय क़त्ल या देशद्रोह के अपराधी को दी जाती है।
मौत की सजा एक ऐसी सजा है जिसके ज़रिये से किसी शख्स को जिन्दा रहने के हक से महरूम कर दिया जाता है और इस सजा की एक ख़ास बात यह भी है कि सजा देने के बाद भूल सुधार या पुनर्विचार की गुन्जाईश ख़त्म हो जाती है। विड़म्बना यह है कि इतनी बड़ी सजा देने का मामला जज के विवेक पर छोड़ दिया गया है कि यदि उसको वह अपराध दुर्लभ से दुर्लभतम (rare to rarest) की श्रेणी में नज़र आता हो तो अपराधी से जिन्दा रहने का हक छीन लिया जाय। जबकि फैसला देने वाला शख्स भी उसी समाज का हिस्सा है जो कि साम्प्रदायिक दुर्भावना, भ्रष्टाचार से लबरेज़ है और अगर वह पूर्वाग्रह से ग्रसित भी हो तो नाइन्साफी की सम्भावना बढ़ जाती है।
यदि संविधान में इस प्रकार का संशोधन किया जाना संसद के कार्यक्षेत्र में आता हो तो प्राथमिकता के तौर पर इस तरफ ध्यान देना आवश्यक है कि मौत की सजा को केवल जज के विवेकाधिकार पर आधारित न रहने दिया जाय बल्कि ऐसे फैसलों में विभिन्न धर्म गुरुओं को भी सम्मिलित रखे जाने का प्रावधान रखा जाय क्योंकि इस भौतिकवादी युग में धर्मगुरुओं के दिलों में मौजूद ईश्वर का खौफ गलत फैसले से बचाने में सहायक साबित होगा।
यह भी सच है कि नाइन्साफी इन्कलाब को जन्म दिया करती है।
मौत की सजा एक ऐसी सजा है जिसके ज़रिये से किसी शख्स को जिन्दा रहने के हक से महरूम कर दिया जाता है और इस सजा की एक ख़ास बात यह भी है कि सजा देने के बाद भूल सुधार या पुनर्विचार की गुन्जाईश ख़त्म हो जाती है। विड़म्बना यह है कि इतनी बड़ी सजा देने का मामला जज के विवेक पर छोड़ दिया गया है कि यदि उसको वह अपराध दुर्लभ से दुर्लभतम (rare to rarest) की श्रेणी में नज़र आता हो तो अपराधी से जिन्दा रहने का हक छीन लिया जाय। जबकि फैसला देने वाला शख्स भी उसी समाज का हिस्सा है जो कि साम्प्रदायिक दुर्भावना, भ्रष्टाचार से लबरेज़ है और अगर वह पूर्वाग्रह से ग्रसित भी हो तो नाइन्साफी की सम्भावना बढ़ जाती है।
यदि संविधान में इस प्रकार का संशोधन किया जाना संसद के कार्यक्षेत्र में आता हो तो प्राथमिकता के तौर पर इस तरफ ध्यान देना आवश्यक है कि मौत की सजा को केवल जज के विवेकाधिकार पर आधारित न रहने दिया जाय बल्कि ऐसे फैसलों में विभिन्न धर्म गुरुओं को भी सम्मिलित रखे जाने का प्रावधान रखा जाय क्योंकि इस भौतिकवादी युग में धर्मगुरुओं के दिलों में मौजूद ईश्वर का खौफ गलत फैसले से बचाने में सहायक साबित होगा।
यह भी सच है कि नाइन्साफी इन्कलाब को जन्म दिया करती है।
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