अल्लाह ने इन्सान को पैदा करके ऐसे ही नहीं छोड़ दिया बल्कि जीवन गुज़ारने के लिए उसके मार्गदर्शन के मक़सद से समय समय पर अपनी किताबें भेजीं और उनकी व्याख्या करने के साथ उन पर अमल करके दिखाने के लिए पैग़म्बर भेजे और
इस सिलसिले की अन्तिम कड़ी के तौर पर क़ुरआन भेजा और उसे समझाने तथा उसपर अमल करके दिखाने के वास्ते पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद सल्ल० को पैदा किया। पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद सल्ल० ने जो भी कार्य किये वह उनकी सुन्नत कहलाईं तथा उनके द्वारा कही गइ्र्र बातों को हदीस कहते हैं। इसके अनुसार जीवन भर एक इन्सान जो भी कर्म करता है उसका हिसाब उसको देना होगा। इसके लिए एक दिन ऐसा आएगा जब मरने के बाद सबको दोबारा ज़िन्दा किया जाएगा और उनके द्वारा किये गए कर्मों का लेखा जोखा उनके सामने रख दिया जाएगा जिसके आधार पर उन्हें जन्नत या जहन्नुम में भेज दिया जाएगा।
इस्लाम का अर्थ है समर्पण लिहाज़ा जिसने स्वयं को अल्लाह की मर्ज़ी के आगे समर्पित कर दिया हो उसी को मुस्लिम कहते हैं। एक मुस्लिम के लिए यह आवश्यक है कि जीवन के हर क्षेत्र में ज़रूरत पड़ने पर क़ुरआन और हदीस से रहनुमाई हासिल करे। क़ुरआन व हदीस को समझाने के लिए दुनिया की हर भाषा में साहित्य उपलब्ध है तथा आलिम लोग इस काम को बड़ी ख़ूबी के साथ अन्जाम दे रहे हैं। चूंकि क़ुरआन और हदीस में किसी भी प्रकार की तरमीम (परिवर्तन) नहीं की जा सकती और समय समय पर ऐसी ज़रूरत पेश आ जाती है जिसका सीधे तौर से क़ुरआन और हदीस में हवाला नहीं मिल पाता तब ऐसी परिस्थिति में उसका हल तलाश करने के लिए मुफ़ती से राब्ता बनाना पड़ता है।
मुफ़ती ऐसे आलिम को कहते हैं जो क़ुरआन और हदीस की रोशनी मे हर प्रकार की समस्या का समाधान करने में दक्षता प्राप्त किये हुए हो। मुफ़ती के द्वारा सुझाए गए समाधान को फ़तवा कहते हैं। फ़तवा ग़लत न हो जाए इसलिए ज़रूरत पड़ने पर मुफ़ती आपस के मशवरे से भी फतवा जारी करते हैं। इस बात का सीधा सा अर्थ यह हुआ कि जब किसी मुसलमान के सामने कोई ऐसी समस्या ख़ड़ी जाए जिसका समाधान समझ में न आ रहा हो और अनजाने में ग़लत फैसला ले लिये जाने के नतीजे में अल्लाह के द्वारा लिये जाने वाले हिसाब के वक्त पकड़े जाने का डर हो तो ऐसे मौक़े पर वह शख्स मु़फ़ती के पास जाकर अपनी समस्या का हल क़ुरआन और हदीस की रोशनी में चाहता है। पवित्र क़ुरआन की 49वीं सूरा की पहली आयत में अल्लाह तआला फ़रमाता है कि,
‘‘ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, अल्लाह और उसके रसूल के आगे पेशक़दमी न करो।‘‘ अर्थात् जिस मामले में अल्लाह या उसके रसूल हज़रत मुहम्मद सल्ल० का आदेश मौजूद हो तो उसको नजरअन्दाज़ करके अपनी राय देने का किसी को भी हक़ नहीं है चाहे राय देने वाला कोई आलिम या मुफ़ती ही क्यों न हो। इस बात का सीधा सा अर्थ है कि
किसी मुफ़ती के द्वारा दिया गया फ़तवा मुफ़ती की केवल अपनी निजी राय न होकर क़ुरआन और हदीस की रोशनी में समस्या का हल होता है। यदि किसी फ़तवे से कोई व्यक्ति सन्तुष्ट न हो तो इसका सीधा सा अर्थ यह है कि वह उसको पूरी तरह से समझ नहीं पाया है लिहाज़ा ऐसी परिस्थिति में उसको चाहिए कि वह इधर उधर टक्कर मारने के बजाय किसी मुफ़ती से ही इसके बारे में मालूमात करे। आजकल देखने में यह आ रहा है कि अपनी पूरी ज़िन्दगी क़ुरआन और हदीस को समझने समझाने में लगाने वाले एक मुफ़ती के द्वारा दिये गए फ़तवे पर ऐसे लोगों से राय ली जाती है जिनको अल्लाह के दीन की बिल्कुल भी जानकारी नहीं होती। यह बात ऐसी ही है जैसे किसी बीमारी के इलाज के लिए कोई व्यक्ति किसी डाक्टर के पास न जाकर किसी मोची या किसी हलवाई के पास पहुंच जाए या किसी डाक्टर के द्वारा सुझाए गए इलाज की तसदीक़, बजाय किसी दूसरे डाक्टर से करने के, किसी साइकिल के मिस्त्री से या किसी वकील से कराने लगे। औरतों का परदे में रहना, मर्दों को दाढ़ी रखना, सूद के लेने और देने से बचना आदि ऐसी बाते हैं जिनके बारे में साफ़ साफ़ हुकुम मौजूद हैं इसके बावजूद भी यदि इन बातों को मुद्दा बनाकर कुछ तथाकथित मुस्लिम हस्तियों से आलोचना कराई जाती है तो यह बात किसी प्रकार से भी उचित नहीं है क्योंकि पवित्र क़ुरआन की 49वीं सूरा की 13वीं आयत में अल्लाह फ़रमाता है कि, ‘‘हक़ीक़त में अल्लाह के नज़दीक तुम में सबसे ज़्यादा इज़्ज़त वाला वह है जो तुम्हारे अन्दर सबसे ज़्यादा परहेज़गार है।‘‘ ध्यान रहे परहेज़गार उस शख़्स को कहते हैं जो अल्लाह के हुकुम के मुताबिक़ अपना जीवन गुज़ारता है और हर उस बात से बचने की कोशिश करता है जो अल्लाह को नापसन्द है।
शरीफ़ ख़ान