लोकतन्त्र का सबसे बड़ा अभिशाप यह है कि जिस देश में यह क़ायम होता है अल्पसंख्यकों के अधिकारों का हनन होना वहां की व्यवस्था का अंग बन जाता है बहुसंख्यक समाज की संस्कृति धीरे धीरे पूरे देश में छा जाती है और भीड़ तन्त्र क़ायम हो जाता है। भारतवर्ष उपरोक्त का जीता जागता नमूना है जहां धर्मनिर्पेक्षता के नाम पर हिन्दू धर्मपक्षता क़ा बोलबाला है। आमतौर से विजित क़ौम विजेता क़ौम की संस्कृति व रीति रिवाज को अपना लेती है अथवा अपनाना पड़ता है परन्तु भारत में हिन्दू-मुस्लिम के बीच विजित और विजेता का सम्बन्ध न होते हुए भी केवल बहुसंख्यक और अलपसंख्यक होने के आघार पर ही हिन्दू संस्कृति को थोपा जा रहा है जोकि संविधान के विरुद्ध है और इसमें अफ़सोसनाक पहलू यह है कि इस्लाम की मूल शिक्षाओं को न समझने वाले मुस्लिम इसको स्वीकार करके इस्लाम की छवि को बिगाड़ने में सहयोग कर रहे हैं।
उपरोक्त कथन के संदर्भ में कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं।
1- यह कि, जब संविधान ने धर्मनिर्पेक्षता का सिद्धान्त लागू किया है तो किसी पुल के शिलान्यास में, सड़क के उद्घाटन में अथवा बिजलीघर आदि किसी भी सरकारी योजना के शुभारम्भ के अवसर पर नारियल तोड़ना, हवन का आयोजन अथवा इसी प्रकार के किसी भी धार्मिक अनुष्ठान किये जाने का क्या औचित्य है?
2- यह कि, विद्यालयों के समारोहों और सरकारी संस्थानों में आयोजित कराए जाने वाले सांस्कृतिक कार्यक्रमों में सरस्वती वन्दना, मूर्ति या तस्वीर पर माल्यार्पण अथवा इसी प्रकार के धर्माधारित कार्य कराए जाने का क्या औचित्य है।
3- यह कि, किसी सरकारी विभाग द्वारा आयोजित प्रतियोगिताओं में ‘नटराज‘ आदि किसी देवी देवता की मूर्ति इनाम के रूप में दिये जाने का क्या औचित्य है।
इसके अलावा एक बात यह भी ग़ौर करने योग्य है कि, उपरोक्त उदाहरणों के द्वारा प्रस्तुत किये गए आयोजनों में मुख्य अतिथि यदि मुसलमान हो तो उसका इस प्रकार के इस्लामविरुद्ध कार्य करने से इंकार देशद्रोह के रूप में देखा जाता है। हो सकता है कि इस्लाम की मूल शिक्षाओं का ज्ञान न रखने वाले कुछ मुसलमान भाई भी हमारी बातों से सहमत न हों जोकि हक़ीक़त को झुठलाने जैसा होगा।
इन तथ्यों पर आधारित बात कहने का मक़सद किसी की भावनाओं को ठेस पहुंचाना न होकर केवल यह बताना है कि इस प्रकार से मुसलमानों को धर्मविरुद्ध कार्य करने के लिए मजबूर किया जाना एक अजीब सी नफ़रत को जन्म देने वाला साबित होता है। यदि धर्मनिर्पेक्षता का ढिंढोरा पीटने वाली सरकार उपरोक्त आयोजनों में किसी भी धर्म पर आधारित कार्यों पर रोक लगाकर इसको अपराध घोषित कर दे और मुसलमानों के द्वारा धर्मविरुद्ध कार्य किये जाने को देशभक्ति का मापदण्ड न बनाए और मुसलमानों को मुसलमान ही रहने दे तो यही छोटी सी दिखाई देने वाली बात लाज़मी तौर से हिन्दू-मुस्लिम भाईचारा क़ायम करने की कुन्जी साबित होगी।
Wednesday, March 16, 2011
Saturday, March 5, 2011
गुरु शिष्य सम्बन्ध Sharif Khan
जिस प्रकार से कुम्हार अपनी कार्यकुशलता और क्षमता के अनुसार साधारण सी मिट्टी को ‘एक बहतरीन बर्तन का रूप देकर उपयोगी बनाता है ठीक उसी प्रकार गुरु भी अपने शिष्य को एक साधारण से इन्सान से महान व्यक्तित्व में परिवर्तित करने की ज़िम्मेदारी निभाता है। मिट्टी को बर्तन का रूप देने से पहले उसमें लचीलापन पैदा करने के लिए कुम्हार जिस प्रकार से उसे भिगोकर, दबाकर व कुचलकर तैयार करता है ठीक उसी प्रकार स्कूल में शिक्षा ग्रहण करने वाले बच्चों को आवश्यकता व बच्चों की सहनशक्ति के अनुसार यदि सज़ा दी जाती है तो इसमें बुराई की कोई बात नहीं है। एक समय ऐसा था जब बच्चे को स्कूल में दाख़िल करते समय अभिभावक यह कहते थे कि, ‘‘मास्टरजी बच्चा आपके हवाले है इसकी हड्डी हमारी और मांस आपका।‘‘ उस दौर में स्कूल में बच्चों की पिटाई भी ख़ूब होती थी परन्तु शिकायत न पिटने वाले बच्चों को होती थी और न ही अभिभावकों को। शिक्षा ग्रहण करके वह बच्चे अच्छे संस्कार हासिल करके स्कूल से निकल कर देश के आदर्श नागरिक साबित होते थे और अपनी ज़िम्मेदारी को ईमानदारी से निभाने का प्रयास करते थे। यदि राजनेता होने का सौभग्य मिलता था तो कोई भी ऐसा प्रस्ताव रखने की कल्पना तक नहीं करते थे जिस से कि चरित्रहीनता को बढ़ावा मिलने का अन्देशा हो। यदि न्यायपालिका में प्रवेश मिलता था तो पूरी कोशिश होती थी कि अपराधी को सज़ा मिले और निरपराध व्यक्ति किसी प्रकार से भी प्रताड़ित न हो। प्रशासन में सेवा का अवसर मिलने पर मानवता को दाग़दार करने वाले कार्य अंजाम देने की कल्पना तक नहीं करते थे। मीडिया को निर्भीक और निष्पक्ष बनाने की बुनियाद भी उन्हीं लोगों की डाली हुई है।
मौजूदा दौर में जब से गुरु जी को एक अच्छी पगार लेने वाले नौकर के रूप में देखा जाने लगा है, तब से गुरु के द्वारा उद्दण्ड छात्र को डांटना तक एक नौकर का मालिक को बेइज्ज़त करने के रूप में देखा जाने लगा है और उसकी प्रतिक्रिया के तौर पर पहले तो अभिभावक स्वयं वहशीपन का सबूत देते हैं तदुपरान्त मास्टरजी पर ग़ैर शाइस्ता इल्ज़ामात लगाकर उनको पुलिस के हवाले कर दिया जाता है और यदि मास्टरजी के दुर्भाग्य से छात्र अनुसूचित जाति का हुआ तो उन पर एस.सी.एस.टी. एक्ट के अन्तर्गत कार्यवाही किया जाना सुनिश्चित हो जाता है।
एक कहावत है, ‘‘बे अदब बे नसीब, बा अदब बा नसीब‘‘। इस कहावत के अनुसार समाज में सर्वोच्च स्थान पाने के हक़दार गुरुओं को बेइज़्ज़त किये जाने के कारण पूरा देश बदनसीबी की आग़ोश में आ चुका है जिसके नतीजे में चरित्र पतन का यह हाल है कि समलैंगिकता जैसे घिनौने कार्य को क़ानूनी संरक्षण दिया जा रहा है। वैवाहिक व्यवस्था आदर्श समाज के निर्माण की बुनियाद है परन्तु लिव इन रिलेशनशिप को मान्यता देने वाले गन्दे क़ानून के द्वारा बिना विवाह किये औरतों मर्दों को एक साथ रहने की छूट देकर सामाजिक ढांचे को छिन्न भिन्न किया जा रहा है। एक ईसाई पादरी को उसके दो मासूम बच्चों के साथ साम्प्रदायिकता के जुनून में आकर ज़िन्दा जला देने वाले अपराधियों की दुर्लभ से दुर्लभतम की श्रेणी का अपराध न मानते हुए विवेकाधिकार का प्रयोग करके उच्चतम न्यायालय द्वारा फांसी की सजा को उम्र क़ैद में बदल दिये जाने का मामला सब जानते ही हैं। इसके बाद भी क्या देश में न्याय प्राप्त होने की आशा की जा सकती है। पुलिस और प्रशासन में भी ज़्यादातर ऐसे ही लोगों की भरमार है जिनका गुरुओं के सम्मान से कोई लेना देना नहीं रहा इसीलिए शिक्षकों के किसी प्रदर्शन पर लाठी चार्ज तक कर देना आम सी बात हो गई है।
इन सब बातों का दर्दनाक पहलू यह है कि ऐसे ही संस्कारहीन छात्र शिक्षित होकर शिक्षक बनने लगे हैं। लिहाज़ा यह एक ऐसी समस्या बन गई है जिसका समाधान बहुत कठिन है।
मौजूदा दौर में जब से गुरु जी को एक अच्छी पगार लेने वाले नौकर के रूप में देखा जाने लगा है, तब से गुरु के द्वारा उद्दण्ड छात्र को डांटना तक एक नौकर का मालिक को बेइज्ज़त करने के रूप में देखा जाने लगा है और उसकी प्रतिक्रिया के तौर पर पहले तो अभिभावक स्वयं वहशीपन का सबूत देते हैं तदुपरान्त मास्टरजी पर ग़ैर शाइस्ता इल्ज़ामात लगाकर उनको पुलिस के हवाले कर दिया जाता है और यदि मास्टरजी के दुर्भाग्य से छात्र अनुसूचित जाति का हुआ तो उन पर एस.सी.एस.टी. एक्ट के अन्तर्गत कार्यवाही किया जाना सुनिश्चित हो जाता है।
एक कहावत है, ‘‘बे अदब बे नसीब, बा अदब बा नसीब‘‘। इस कहावत के अनुसार समाज में सर्वोच्च स्थान पाने के हक़दार गुरुओं को बेइज़्ज़त किये जाने के कारण पूरा देश बदनसीबी की आग़ोश में आ चुका है जिसके नतीजे में चरित्र पतन का यह हाल है कि समलैंगिकता जैसे घिनौने कार्य को क़ानूनी संरक्षण दिया जा रहा है। वैवाहिक व्यवस्था आदर्श समाज के निर्माण की बुनियाद है परन्तु लिव इन रिलेशनशिप को मान्यता देने वाले गन्दे क़ानून के द्वारा बिना विवाह किये औरतों मर्दों को एक साथ रहने की छूट देकर सामाजिक ढांचे को छिन्न भिन्न किया जा रहा है। एक ईसाई पादरी को उसके दो मासूम बच्चों के साथ साम्प्रदायिकता के जुनून में आकर ज़िन्दा जला देने वाले अपराधियों की दुर्लभ से दुर्लभतम की श्रेणी का अपराध न मानते हुए विवेकाधिकार का प्रयोग करके उच्चतम न्यायालय द्वारा फांसी की सजा को उम्र क़ैद में बदल दिये जाने का मामला सब जानते ही हैं। इसके बाद भी क्या देश में न्याय प्राप्त होने की आशा की जा सकती है। पुलिस और प्रशासन में भी ज़्यादातर ऐसे ही लोगों की भरमार है जिनका गुरुओं के सम्मान से कोई लेना देना नहीं रहा इसीलिए शिक्षकों के किसी प्रदर्शन पर लाठी चार्ज तक कर देना आम सी बात हो गई है।
इन सब बातों का दर्दनाक पहलू यह है कि ऐसे ही संस्कारहीन छात्र शिक्षित होकर शिक्षक बनने लगे हैं। लिहाज़ा यह एक ऐसी समस्या बन गई है जिसका समाधान बहुत कठिन है।
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