Monday, September 24, 2012

हिन्दू मुस्लिम भाईचारे की कुन्जी Sharif Khan

‘यह देश हमारा है’ यह सोचना एक अच्छी बात है जो बुरी बात में बदल जाती है जब इसके साथ यह भी जोड़ दिया जाय कि हमारे अलावा यह देश किसी का भी नहीं है। आर. एस. एस. जनित हिन्दू मानसिकता द्वारा इस प्रकार की भावना की उत्पत्ति ने देश में अल्पसंख्यकों पर ज़ुल्म और ज़्यादती का रास्ता खोल दिया है। यदि कुछ बातों पर निष्पक्षता से विचार किया जाए तो देश को बरबादी की राह से हटा कर उन्नति की ओर ले जाया जा सकता है।


1- यह कि, हिन्दू मन्दिरों में पूजा अर्चना की पद्धति में घण्टा बजाना, आरती गाना व भजन कीर्तन आदि में माइक व दूसरे ध्वनि उत्पादक यन्त्रों का प्रयोग आनिवार्य है। इसके विपरीत मस्जिदों में दिन में पांच बार अज़ान इस प्रकार देने का नियम है कि दूर के रहने वालों को इसकी आवाज़ पहुंच जाए क्योंकि यह इस बात की पुकार है कि नमाज़ का समय हो गया है लिहाज़ा लोग मस्जिद में आ जाएं इसलिये अज़ान के लिये माइक का प्रयोग आवश्यक है इस कार्य में 2-3 मिनट से अधिक समय नहीं लगता है इसके अलावा नमाज़ पढ़ने के समय इमाम की आवाज़ मस्जिद में मौजूद सभी लोगों तक पहुंच जाए इसलिये माइक प्रयोग करते हैं परन्तु इसकी आवाज़ मस्जिद के अन्दर तक ही सीमित रहती है जिससे किसी को भी परेशानी नहीं होती।

साम्प्रदायिकता का ज़हर घुलने के बाद 2-3 मिनट की अज़ान की आवाज़ उन्ही लोगों के कानों में चुभने लगी जो जागरण और अखण्ड पाठ जैसे धार्मिक कार्यों में कान फाड़ने वाली ध्वनि के प्रयोग को भगवान की भक्ति समझते हैं।

2- यह कि, जब हिन्दू मुस्लिम भाईचारा क़ायम था और परस्पर वैर भाव के बीज नहीं बोए गए थे तब सुबह सूरज निकलने से पहले पढ़ी जाने वाली नमाज़ की समाप्ति के बाद ही मन्दिरों में पूजा अर्चना का चलन था और किसी भी धार्मिक जलूस आदि के नमाज़ के समय मस्जिद के आगे से होकर गुज़रते हुए स्वयं ही ध्वनि उत्पादक यन्त्रों की आवाज़ को कम कर लिया जाता था ताकि नमाज़ पढ़ने वालों की एकाग्रता भंग न हो। इस प्रकार से हिन्दुओं के प्रति मुसलमानों के दिलों में श्रद्धा भाव पैदा होना लाज़मी था।

अब स्थिति यह है कि अदूरदर्शी संम्प्रदायिक तत्वों द्वारा निकाले जाने वाले धार्मिक जलूसों को, यदि नमाज़ पढ़ी जा रही हो तो, जानबूझकर मस्जिद के सामने रोक कर नमाज़ में ख़लल डालने की कोशिश की जाती है।

3- यह कि, जिन मस्जिदों के पीछे सड़क या ख़ाली जगह होती है तो रमज़ान के महीने में होने वाली जुमे की नमाज़ों में जगह की कमी के कारण मस्जिद से बाहर नमाज़ पढ़ लेते हैं जिससे किसी को कोई हानि नहीं होती और इसमें आधा घण्टे से अधिक समय भी नहीं लगता।

मुसलमानों से बेमतलब का बैर रखने वाले सान्प्रदायिक हिन्दू इस प्रकार सड़क पर पढ़ी जाने वाली नमाज में अड़चन डालने की भरसक कोशिश करते हैं जबकि, भगवती जागरण आदि के आयोजनों को आमतौर से पूरी सड़क को बन्द करके किये जाने की प्रथा सी बना दी गई है चाहे उसमें 50 से अधिक लोग भी इकट्ठे न हो पाते हों। इससे मुसलमानों में हिन्दुओं के प्रति प्रेम भाव को ठेस पहुंचना लाज़मी है।

4- यह कि, होली दहन आमतौर से सड़क पर लकड़ियां जमा करके किया जाने की परम्परा सी बन गइै है जिससे आस पास के मकानों को क्षति पहुंचने के साथ जन स्वास्थ्य को भी हानि होने का अन्देशा रहता है। यदि यह कार्य किसी मैदान में या खेत में किया जाए तो सभ्यता का परिचायक होने के साथ साथ किसी के अधिकारों के हनन का थी अन्देशा नहीं रहता।

प्रायः देखने में आता है कि बज़ाहिर यह छोटी दिखाई पड़ने वाली बातें धीरे धीरे परस्पर स्थाई नफ़रत को जन्म देती हैं जिसका लाभ साम्प्रदायिक प्रवृत्ति के लोग और स्वार्थी तत्व आसानी से उठा लेते हैं। यदि दोनों सम्प्रदाय एक दूसरे की भावनाओं का आदर करें और एक दूसरे को कष्ट पहुंचाकर प्रसन्नता का इज़हार करने की प्रवृत्ति को छोड़ दें तो यही बात हिन्दू मुस्लिम भाईचारे की कुन्जी साबित होगी।

Friday, August 3, 2012

बहादुरी पुरुषत्व का गहना Sharif Khan

सभ्य समाज में प्राचीन काल से ही बहादुरों का सम्मान होता रहा है। बहादुर व्यक्ति कमज़ोर, सोए हुए और निहत्थे पर वार करने से बचता है और ऐसी हरकत करने वाले को बुज़दिल और नीच कहा जाता है। पुलिस हिरासत में मौत, जेल में क़ैदियों के साथ अमानवीय व्यवहार आदि हरकतें इसी श्रेणी में आती हैं। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर विचार करें तो अमेरिका द्वारा अफ़ग़ानिस्तान में मासूम नागरिकों का क़त्ल उसकी बुज़दिली और नीचता को साबित करने के लिए काफ़ी है। ड्रोन हमले इन्सानियत को शर्मसार करने वाला जीता जागता उदाहरण है। इन हमलों में अभी तक एक भी ऐसा व्यक्ति नहीं मारा गया है जिससे अमेरिका को किसी क़िस्म का नुक़सान पहुंचने का अन्देशा हो। बहुत सी बातें तो चीन व रूस आदि देशों की भी अमेरिकी सरकार को बुरी लगने वाली होंगी तो फिर वहां ड्रोन हमलों से सबक़ सिखाने की हिम्मत क्यों नहीं जुटाता पाता है। सभ्य समाज की परम्परा यह है कि किसी की मौत यदि हो जाती है तो दोस्त और दुश्मन सब उसके ग़म में शरीक हो जाते हैं परन्तु महान संस्कृति और सभ्यता की दौलत से मालामाल भारत अपने पड़ौसी देश के मासूम नागरिकों के बुज़दिलाना तरीक़े से किये जा रहे क़त्ल के ख़िलाफ़ नैतिकता के आधार पर भी दो शब्द कहने को तैयार नहीं है। क्या इसलिए कि मारे जाने वाले लोग मुसलमान हैं और उनके पक्ष में कुछ कहना देश के संघी हिन्दुत्व वादियों को नाराज़ कर देगा या फिर इसलिए कि दुनिया का सबसे बड़ा आतंकवादी देश अमेरिका नाराज़ हो जाएगा। ध्यान रहे कि ज़ुल्म के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलन्द करना भी बहादुरी है और यही पुरुषत्व का गहना है।

Tuesday, June 26, 2012

गाय पर अत्याचार Sharif Khan

ईश्वर ने हर चीज़ इन्सान के फ़ायदे के लिए बनाई है उनमें से ही पशु भी हैं जो विभिन्न प्रकार से लाभकारी होते हैं। यह सवारी करने, माल ढोने, दूध पीने व मांस खाने आदि के काम आते हैं। गाय भी उन्हीं में से एक पशु है। भारत में हिन्दुओं द्वारा गाय को विशेष सम्मान देते हुए मां के दर्जे में रखा जाने के कारण उसको लाभ के बजाय हानि ही हुई है क्योंकि जो लोग अपनी उस मां, जिसने उन्हें जना हो, को घर के काम काज के लायक़ न रहने पर वृद्धाश्रम का रास्ता दिखाने में ज़रा भी शर्म मेहसूस न करते हों उनसे दूध देना बन्द हो जाने पर एक जानवर की सेवा किया जाना कैसे अपेक्षित है। उत्तर प्रदेश में गाय आमतौर से हिन्दू ही अधिक पालते हैं और जब उसका पालना लाभकारी नहीं रहता तो उसको बेच देते हैं जोकि क़साई के अलावा किसी के काम की नहीं होती। इस प्रकार से गाय को बेचने वाले हिन्दू क्या उस क़साई से यह अपेक्षा रखते हैं कि वह उसकी केवल इसलिये सेवा करेगा क्योंकि उसको बेचने वाले उसे माता मानते हैं। यहां तक तो सब कुछ सामान्य है। इसके बाद जो खेल शुरू होता है वह इन्सानियत को शर्मसार करने के लिये काफ़ी है।

सरकार ने हिन्दुओं की भावनाओं को ध्यान में रखते हुए गोकुशी पर तो पाबन्दी लगा दी है परन्तु लाभदायक न रहने के बाद बेकार हो जाने वाली गायों की उचित देखभल न करने वाले गोपालक और गोभक्तों का कोई उत्तरदायित्व नहीं रखा है जिसके नतीजे में गायों का क़साई के हाथों बेचा जाना तय है। ऐसी गायों को ख़रीदने के बाद एक दो गायों को इधर से उधर ले जाने के लिये तो हिन्दू मज़दूरों की सेवाएं ले ली जाती हैं और जब एक जगह माल इकट्ठा हो जाता है तो फिर उसको ट्रक में लाद कर सुरक्षित स्थान पर पहुंचाया जाता है। इन गायों के व्यापारी रिस्क फैक्टर को कम करने के लिये एक ही ट्रक में इतनी गायें ठूंस कर भर लेते हैं कि उनकी हालत देखकर पत्थर दिल व्यक्ति की भी आंखों में आंसू आ जाएंगे। इस ज़ुल्म का अन्दाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि प्रायः मन्ज़िल पर पहुंचने तक उस ट्रक में कई गायें तो दम घुटने से मर जाती हैं। इस मामले में पुलिस की भूमिका भी अपेक्षानुसार ही होती है क्योंकि पहले से तयशुदा धनराशि के चश्मे से उसको हर नाजायज़ काम जायज़ नज़र आने लगता है। इसके बाद गोभक्तों के रूप में घूमने वाले अराजक तत्वों की जब ऐसे वाहन पर नज़र पड़ती है तो वह उस क्षेत्र के हिन्दुओं की भावनाओं को भड़का कर दबाव बनाकर उस माल को छीन लेते हैं और पुलिस की निगरानी में गौ माता के रूप में हाथ आये हुए उस माल को गोशाला में पहुंचा देते हैं ताकि फिर उसको दोबारा क़साई के हाथ बेचकर इनको भी कुछ धन हाथ आ जाए। इस बात की शिकायत इसलिये नहीं होती कि गोशाला में उन बेज़बान जानवरों के खाने और इलाज का उचित प्रबन्ध न होने के कारण वहां के ज़िम्मेदार लोग उनसे छुटकारा पाना ही बेहतर समझते हैं। यदि बचकर यह माल अपनी मन्ज़िल तक पहुंच जाता है तो फिर उन गायों का मांस एक्सपोर्ट कर दिया जाता है। इस पूरी कार्यवाही में मुसलमानों का रोल केवल गाय ख़रीद कर फ़ैक्ट्री तक पहुंचाना होता है बाक़ी गाय के पालने से लेकर एक्सपोर्ट तक का कार्य प्रायः हिन्दुओं के द्वारा ही अन्जाम दिया जाता है। यदि दबिश की वजह से उन गायों को मन्ज़िल तक पहुंचने से पहले ही ठिकाने लगाना पड़े तो रात के अंधेरे में किसी वीरान जगह या किसी खेत में उनको काट लेते हैं और इस करतूत की भनक लगने पर पुलिस को भी अलग से बोनस के तौर पर कुछ धन की प्राप्ति हो जाती है क्योंकि वह क़साइयों से तो रिश्वत लेककर उनको आगे काम जारी रखने के लिये फरार कर देती है और जिस खेत में वह गायें काटी गई थीं उस खेत के मालिक को गोकुशी के आरोप में जेल भेज देती है। वहां उस बेचारे ग़रीब की क़ानून लाक़ानूनियत से ज़िन्दगी बरबाद कर देता है।

यह बातें कपोल कल्पित न होकर तथ्यों पर आधारित हैं और इनको लिखने का मक़सद किसी के प्रति द्वेष भावना नहीं है बल्कि कुछ बातों पर ग़ौर करने की आवश्यकता पर ज़ोर देना है। जैसे दूध न देने वाली गायों को स्वयं पालने की स्थिति में न होने पर क़साई के हाथ न बेचकर गौशालाओं में भेजने की व्यवस्था की जाये जहां उनके चारे आदि के लिये धन उपलब्ध कराया जाना सुनिश्चित हो। इसके अलावा गोकुशी पर लगी हुई पाबन्दी को यदि हटा लिया जाये तो क़साई के द्वारा यातायात में किये जाने वाले जु़ल्म से गायें सुरक्षित हो जाएंगी और यदि फिर भी बाज़ न आयें तो उनको सख़्त सज़ा का प्रावधान रखा जाये। ईदुज़्ज़ुहा के मौक़े पर जिन जानवरों की क़ुर्बानी की जाती है उनको इतने अच्छे ढंग से रखा जाता है कभी कभी तो उनकी की जाने वाली सेवा से इन्सान भी ईर्ष्या करने लगता है यदि गाय भी क़ुर्बानी के जानवरों में शामिल कर ली जाए तो निश्चित रूप से हिन्दुओं से बेहतर मुसलमान गाय की सेवा करेगा। विदेशों में गायें केवल मांस के लिये भी पाली जाती हैं और वहां हिन्दू भी रहते हैं लेकिन उनको कोई ऐतराज़ नहीं होता। लिहाज़ा जब तक भारत में धर्मनिर्पेक्षता लागू है तब तक गोकुशी पर पाबन्दी लगाकर गोमांस खाने वाले लोगों के अधिकारों का हनन करने का कोई औचित्य नहीं है। यदि संविधान को बदलकर हिन्दू राष्ट्र बना दिया जाय तो फिर उसी के अनुसार क़ानून बनाकर गोकुशी पर पाबन्दी लगाने पर विचार किया जाने को तर्कसम्मत कहा जा सकता है।

Saturday, June 9, 2012

महिलाओं के शवों का पोस्ट मॉर्टम महिला डाक्टर द्वारा ही हो Sharif Khan

इन्सान की फ़ितरत (प्रकृति) में जहां बहुत सी बातें जन्मजात होती हैं। उनमें से शर्म, संकोच और हया भी पैदाइशी तौर पर ही होती हैं। यह बात सभ्यता से दूर आबाद जंगली जातियों के रहन सहन को देखने से साबित भी हो जाती है कि वह लोग नंगे रहने के बावजूद भी अपने यौनांगों (शर्मगाहों) को ढकने के प्रति सजग रहते हैं चाहे साधनों के अभाव में पेड़ों के पत्तों का ही प्रयोग करना पड़े। अपने गुप्तांगों को छिपाने का भाव पुरुषों की तुलना में महिलाओं में अधिक होता है और उनकी इस आदत को पुरुष समाज में भी सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है क्योंकि जो महिलाएं स्वेच्छा से या धर्म और समाज के नियमों वश शरीर को ढके रखने वाला पहनावा पहनती हैं उनको गन्दी नज़र से देखने को प्रायः गन्दे लोग भी पसन्द नहीं करते। पूर्ण रूप से शरीर को ढकने वाली पर्दानशीन मुस्लिम महिलाएं, ईसाई राहिबाएं (नन) और हिन्दू साध्वियों का जिस प्रकार समाज आदर करता है वह उदाहरण के लिए पर्याप्त है। जिस प्रकार खुली मिठाई पर ही मक्खियां आती हैं उसी प्रकार गन्दी नज़रें उन्ही औरतों का पीछा करती हैं जो अपने शरीर की नुमाइश करते हुए स्वयं को नज़ारे के लिए प्रस्तुत करती हों। बेपर्दगी का फ़ितरत के ख़िलाफ़ होना इस बात से भी ज़ाहिर होता है कि कोई भी महिला यह नहीं चाहती कि मरने के बाद उसकी लाश को बेपर्दा किया जाए चाहे उसकी ज़िन्दगी कैसी ही गुज़री हो। समाज के ज़ुल्मों का शिकार होने के बावजूद इन्साफ़ न मिलने के कारण डकैत बनने वाली मशहूर महिला फूलन देवी कथनानुसार उसके आत्म समर्पण करने के पीछे दूसरे कारणों के अलावा एक वजह यह डर भी था कि मारी जाने के बाद कहीं पुलिस उसकी लाश को नंगा करके जनता के सामने मुमाइश न करे।
 धार्मिक दृष्टिकोण से यदि देखा जाए तो जीवित महिलाओं के पर्दे का जिस तरह से आदेश है वही मरने के बाद भी है फ़र्क़ सिर्फ़ इतना है कि जीवित रहते हुए मनुष्य स्वयं अपने शरीर को ढकने या न ढकने का ज़िम्मेदार होता है जबकि मरने के बाद यह उत्तरदायित्व उसके वारिसों पर आ जाता है। इसीलिये किसी व्यक्ति का जीवन चाहे किसी भी प्रकार से गुज़रा हो परन्तु मरने के बाद उसके वारिस उसके शव को वही सम्मान देते हैं जैसा कि उसका अधिकार है। इस्लामी शरीअत के अनुसार किसी महिला का जिन लोगों से जीवन में पर्दा करना लाज़िम है, मरने के बाद भी उसके शव को उन लोगों के सामने बेपर्दा नहीं किया जा सकता। आज के युग में यदि किसी व्यक्ति की अकाल मृत्यु हो जाती है तो मौत के कारण का पता लगाने के लिये उसके शव का पोस्ट मॉर्टम किया जाता है। पोस्ट मॉर्टम लाश को नंगा किये बिना करना सम्भव नहीं है बल्कि शरीर पर किसी चोट, ज़हरीली सुई आदि के निशान का पता लगाने के लिए ज़रूरी है कि डाक्टर उसके प्रत्येक अंग का बारीकी से अवलोकन करे। यदि लाश किसी स्त्री की है तो डाक्टर के लिए यह पता लगाना ज़रूरी होता है कि मृतिका के साथ सम्भोग तो नहीं किया गया है जिसके लिए उसके शरीर में किसी भी औज़ार के दाख़िल कराए जाने की ज़रूरत को नज़र अन्दाज़ नहीं किया जा सकता। जीवित रहते हुए जिस महिला को अपराधी होने के बावजूद भी पुरुष पुलिस के द्वारा पकड़े जाने तक को बरदाश्त नहीं किया जाता और सरकार द्वारा भी महिला पुलिस उपलब्ध कराई जाती है तो फिर मरने के बाद पोस्ट मॉर्टम की आवश्यकता पड़ने पर महिला डाक्टर की सेवा क्यों नहीं ली जाती और पुरुष डाक्टर के सामने उसको बेपर्दा करने के लिये छोड़े जाने का क्या औचित्य है?
 इसके अतिरिक्त एक बात यह है कि अन्तिम संस्कार के लिए मुर्दे को यदि दूसरे सामान की तरह ले जाया जाय तो उसको न तो चोट लगने का डर होगा और न ही टूट फूट का अन्देशा परन्तु ऐसा न करके उसको कन्धों पर उठा कर सम्मान पूर्वक ले जाए जाने की परम्परा का होना मुर्दे के प्रति आदर भाव को प्रदर्शित करता है। परन्तु पोस्ट मॉर्टम की प्रक्रिया में शव की जिस प्रकार से दुर्गति होती है उसके कारण अक्सर लोग शव का पोस्ट मॉर्टम कराने से बचते हैं चाहे मौत की गुत्थी अन सुलझी ही क्यों न रह जाए।
 बुद्धिजीवी वर्ग को चाहिए कि प्रत्येक व्यक्ति अपनी क्षमतानुसार व्यक्गित अथवा संस्थागत रूप से सरकार को इस बात के लिए आमादा करने की कोशिश करे कि पोस्ट मॉर्टम किये जाने वाले शवों की दुर्गति न की जाए और महिलाओं के शवों का पोस्ट मॉर्टम केवल महिला डाक्टर के द्वारा कराया जाना सुनिश्चित किया जाए।