Sunday, December 26, 2010

Shanti ka Sandesh शान्ति का संदेश Sharif Khan

‘‘शान्ति का सन्देश‘‘ कहने और सुनने में बहुत अच्छा लगता है। शान्ति की अपील हमेशा कमज़ोर लोग किया करते हैं जबकि ताक़तवर लोग हुकुम दिया करते हैं। ताक़त अगर चरित्रवान, दयालु और न्यायप्रिय लोगों के पास होती है तब तो उनके हुकुम के मुताबिक़ शान्ति क़ायम होने की सम्भवना रहती है परन्तु यदि चरित्रहीन, ज़ालिम और अन्यायी लोग ताक़त हासिल करके शान्ति की अपील करते हैं तो अस्थाई तौर पर ख़ामोशी भले ही स्थापित हो जाए परन्तु स्थाई रूप में शान्ति क़ायम हो सके, इस बात ही कल्पना करना स्वंय को धोखा देने के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। चूंकि शान्ति स्थापित करने के इस तरीक़े में हठधर्मी, अन्याय और ज़ुल्म का समावेश होता है इसलिए इसकी प्रतिक्रिया के तौर पर किसी दूसरे रूप में जो अशान्ति फैलती है उसके नतीजे में भयानक बरबादी का होना निश्चित होता है जिसका जीता जागता उदाहरण हम मौजूदा दौर के देश और विदेश के हालात से दे सकते हैं।
आज के अशान्ति और आतंक के माहौल का विश्लेषण यदि हम निष्पक्षता से करें तो सरलता से इस नतीजे पर पहुंच सकते हैं कि 1945 से आज तक लगातार किसी न किसी देश से युद्ध करने और करोड़ों लोगों का ख़ून बहाने वाले देश अमेरिका का वजूद इसका ज़िम्मेदार है। फ्रेंकलिन डी. रूज़वेल्ट की मौत के बाद 12 अप्रैल 1945 को अमेरिका के 33वें राष्ट्रपति के तौर पर कुर्सी सम्भालने वाला हैरी ट्रूमैन ’’कू क्लक्स क्लेन’’ नाम के आतंकवादी संगठन का सक्रिय कार्यकर्ता रहा था। इस संगठन का मक़सद काले लोगों को आतंकित करके अमेरिका में वोट देने के हक़ से महरूम करना था। एक आतंकवादी को अपने देश का राष्ट्रपति पद सौंपकर अमेरिकी जनता ने भी आतंकवाद से अपने लगाव का परिचय दिया और इतना ही नहीं बल्कि लाखों लोगों की मौत के ज़िम्मेदार उस व्यक्ति को 1948 के चुनाव में दोबारा राष्ट्रपति चुनकर खूनी खेल जारी रखे जाने की भविष्य की पॉलिसी को वहां की जनता ने हरी झण्डी दिखा दी। उसके बाद से आज तक शान्ति क़ायम करने के नाम पर अमेरिका लगातार इन्सानों का ख़ून बहा रहा है। इसकी वजह यह है कि ताक़त चरित्रहीन, ज़ालिम और अन्यायी लोगों के हाथों में आ गई है। कोरिया, वियतनाम, इराक़, अफ़ग़ानिस्तान आदि देशों की बरबादी इस बात को साबित कर रही है कि शैतान के क़दम जहां पड़ जाते हैं बरबादी वहां का मुक़द्दर बन जाती है। अफ़सोस की बात यह है कि ऐसे शैतानों को समर्थक भी मिल जाते हैं।
सभ्य समाज के अजूबों का ज़िक्र करना यहां ज़रूरी है। तलवार हो या बन्दूक़ इसी प्रकार एटमी हथियार हों या रसायनिक सबका काम मारना है। इनमें तलवार या बन्दूक़ से तो केवल उसी का क़त्ल होता है जिसको मारना होता है परन्तु एटमी या रसायनिक हथियार तो उस क्षेत्र के सभी लोगों को एक साथ मौत के घाट उतार देते हैं। अमेरिका का इराक़ पर रसायनिक हथियार रखने के इल्ज़ाम में हमला करना कैसे जायज़ हो गया जबकि वह ख़ुद तो एटम बम का भी इस्तेमाल कर चुका है। ड्रोन के द्वारा किये जा रहे हमले किस श्रेणी में आते हैं इस पर भी विचार करने की आवश्यकता है। परमाणु हथियारों के बारे में अमेरिका का यह कहना कि यह ग़लत हाथों में नहीं पहुंचने चाहिएं जबकि अमेरिका के अलावा किसी भी देश में इन हथियारों का ग़लत इस्तेमाल होने की सम्भावना बहुत कम है क्योंकि अभी तक केवल अमेरिका ने ही इन हथियारों का इस्तेमाल किया है।
जिन लोगों से अफ़ग़ानिस्तान छीनकर अपने ग़ुलामों को सौंपा है यदि उन्हीं लोगों को वापस लौटा दिया जाए और एटमी हथियार उनको उपलब्ध करा दिये जाएं तो इस प्रकार से जो शक्ति सन्तुलन होगा वह अमेरिका की हैवानियत पर शायद लगाम लगा सके। कभी अवसर मिला तो अपने देश के बारे में चर्चा करेंगे।

Sunday, December 12, 2010

Muslim Society & New Year मुस्लिम समाज और नववर्ष Sharif Khan

किसी भी मशहूर घटना की याद क़ायम रखने के लिए आवश्यक है कि उस घटना को घटित हुए जितना समय गुज़रा हो उसकी गणना होती रहे। इसको यादगार बनाने का सबसे अच्छा उपाय यह है कि उस समय से सन् प्रारम्भ कर दिया जाए। यह बात अधिकतर धर्म व संस्कृतियों में देखी जा सकती है जैसे विक्रमी संवत्, ईसवी सन्, हिजरी सन् आदि। इनमें हिजरी सन् के अलावा जितने भी सन् शुरू हुए हैं वह प्रथम माह से शुरू हुए हैं परन्तु हिजरी सन् प्रथम माह से शुरू न होकर तीसरे माह से प्रारम्भ होता है। यह सन् पैग़म्बर हज़रत मौहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के मक्का से मदीना हिजरत करने के समय से शुरू होता है और पैग़म्बर सल्ल० ने तीसरे माह (रबीउल अव्वल) की पहली तारीख़ को मक्का छोड़ा था तथा 8 तारीख़ को मदीने से कुछ किलोमीटर पहले क़ुबा के मुक़ाम पर पहुंचे तथा इसके बाद 12 तारीख़ को मदीना में प्रवेश किया था। इस प्रकार से यदि मक्का छोड़ने के समय को हिजरत मानी जाए तो रबीउल अव्वल की पहली तारीख़ तथा यदि मदीने में प्रवेश करने के समय को हिजरत मानी जाए तो रबीउल अव्वल की 12 तारीख़ से हिजरी सन की शुरूआत होती है। जिस प्रकार से यात्रा आरम्भ करने के साथ ही कोई व्यक्ति यात्री कहलाने लगता है उसी तरह हिजरत के लिए घर छोड़ने के समय को हिजरत करना कहते हैं अतः रबीउल अव्वल की पहली तारीख़ से हिजरी सन् का आरम्भ हुआ।
इस बात की जानकारी होना भी आवश्यक है कि अरब में समय की गणना सूर्य से न होकर चन्द्रमा से होती रही है और प्राचीन काल से समय की गणना के लिए जो पद्धति अपनाई हुई थी उस में किसी भी प्रकार का रद्दो बदल न करके उसी को अपना लिया गया यहां तक कि महीनों के नाम भी वही क़ायम रहे जो पहले से चले आ रहे थे जोकि इस प्रकार हैं - (1) मुहर्रम (2) सफ़र (3) रबीउल अव्वल (4) रबीउस्सानी (5) जमादिउल अव्वल (6) जमादिउस्सानी (7) रजब (8) शाबान (9) रमज़ान (10) शव्वाल (11) ज़ीक़ाद (12) ज़िलहिज्ज।
इस प्रकार से हिजरी सन् का पहला महीना मुहर्रम का बेशक है परन्तु हिजरत की घटना चूंकि तीसरे माह की पहली तारीख़ को घटित़ हुई थी इसलिये नया साल मुहर्रम के महीने से आरम्भ होने का कोई औचित्य ही नहीं है। जनवरी की पहली तारीख़ को नववर्ष के तौर पर मनाने का चलन है और 31 दिसम्बर व 1 जनवरी के बीच की मध्यरात्रि को समारोह आयोजित किये जाते हैं।
साम्प्रदायिकता वादी ईस्वी सन् को ईसाई धर्म से जोड़ कर इस दिन को नववर्ष के रूप में मान्यता देने से बचते हैं और सम्वत् के अनुसार हिन्दी नववर्ष के रूप में चैत्र मास की पहली तारीख़ को मान्यता देने का संकल्प लिये हुए हैं परन्तु सफल नहीं हो पा रहे। मुस्लिम समाज यदि मुहर्रम के महीने से वर्ष की शुरुआत माने तो इस माह के पहले दस दिन मानव सभ्यता के इतिहास में सबसे ज़्यादा शर्मनाक और मानवता को कलंकित करने वाले जु़ल्म की कहानी कह रहे होते हैं अतः इसको समारोह का रूप नहीं दिया जा सकता। रबीउल अव्वल माह की पहली तारीख़ हिजरत वाला दिन है इसको ऐतिहासिक तथ्य के रूप में मान्यता तो दी जा सकती है परन्तु समारोह के तौर पर मनाया जाना इसलिए अनुचित है क्योंकि शरीअत में किसी भी घटना की वर्षगांठ मनाया जाना साबित नहीं हैं। अतः मुसलमानों को चाहिए कि नया साल, किसी का जन्म दिन, बरसी आदि हर प्रकार के आयोजनों से स्वंय दूर रखें। आवश्यकता इस बात की है कि इस्लाम धर्म के आलिम हज़रात इन तथ्यों की रोशनी में दिशा निर्देश दें ताकि मुस्लिम समाज भटकने से बचा रहे।

Saturday, October 23, 2010

akhandta ke naam par desh khandit अखण्डता के नाम पर देश खण्डित sharif khan

संसार के सबसे बड़े लोकतान्त्रिक देश भारत में बाबरी मस्जिद के नाम से पहचानी जाने वाली मस्जिद, जिसमें ख़ालिक़े काएनात (सृष्टि के रचियता) की उपासना सदियों से हो रही थी, को एक सोची समझी साज़िश के तहत विवादित बनाकर उच्च न्यायालय में विवाद को सुलझाने के लिए भेज दिया गया। विवाद को क़ानून के अनुसार सुलझाने में अदालत को अन्देशा था कि सही हक़दार को उसका हक़ दिये जाने से 1992 में मस्जिद विध्वंस के ज़िम्मेदार, मन्दिर पक्ष के आतंकवादी, देश की शान्ति को भंग करने में कोई कसर न छोड़ेंगे। लिहाज़ा क़ानून के घर में क़ानून के बजाय आस्था का सहारा लेकर फ़ैसला दिया गया। राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद में अपना फ़ैसला सुनाते हुए न्यायमूर्ति एस यू ख़ान का यह कहना कि, ‘‘यदि छः दिसम्बर 1992 की घटना दोहराई जाती है तो देश दोबारा खड़ा नहीं हो पाएगा।‘‘ इस बात को साबित करने के लिए पर्याप्त है।

आस्थानुसार ही राम के जन्म के स्थान पर निशान लगा दिया गया। अब कुछ प्रश्न जो किसी भी निष्पक्ष व्यक्ति के ज़हन में उठ सकते हैं तथा जिनका तय होना नितान्त आवश्यक है, इस प्रकार हैं -

1- यह कि, क्या किसी बच्चे की पैदाइश के स्थान पर उस बच्चे का मालिकाना हक़ हो जाता है ? और यदि यह कहा जाए कि भगवान इस बन्दिश से अलग है, तो क्या राम का जन्म एक राजकुमार के रूप में न होकर भगवान के रूप में हुआ था ?

चूंकि भगवान के रूप में राम का जन्म होना सिद्ध नहीं है इसलिए अस्पतालों और अपने घर के अलावा दूसरे स्थानों पर पैदा होने वाले बच्चों को उनके जन्म स्थान वाली भूमि पर मालिकाना हक दिलाए जाने के लिए क्या उच्च न्यायालय का यह फ़ैसला नज़ीर (रूलिंग) बन सकता है ? और यदि यह कहा जाए कि राम का जन्म तो किसी दूसरे की जगह में न होकर उनके अपने घर (महल) में हुआ था, तो क्या भारत पर लगभग 800 साल हुकूमत करने वाले मुसलमान बादशाहों के शहज़ादों के जन्मस्थानों वाली भूमि पर उनके वारिस मालिकाना हक़ का क्लेम कर सकते हैं।

2- यह कि, किसी महिला को बच्चा जनने के लिए कितनी भूमि की आवश्यकता होती है ? क्या उसके लिए 1 मीटर चैड़ी और 2 मीटर लम्बी चारपाई अर्थात् 2 वर्ग मीटर स्थान पर्याप्त नहीं है ?

यदि यह बात सही है तो 2 वर्ग मीटर भूमि के बजाय सैकड़ों वर्ग मीटर भूमि देने का क्या औचित्य है? यदि फ़ैसले में इस दो मीटर ज़मीन पर एक ऊंचा सा स्तम्भ बनवाकर कथित रामभक्तों को देने का प्रावधान किया जाना उच्च न्यायालय सुनिश्चित करता तो फ़ैसले में से न्याय की गन्ध अवश्य आ रही होती हालांकि वह भी मस्जिद की जगह का अतिक्रमण ही होता। इस छूट के नतीजे में 67 एकड़ भूमि पर दावा करना कहां तक उचित है।

राम जन्म भूमि आन्दोलन से जुड़े कुख्यात नेता तोगड़िया जी ने वात्सल्य ग्राम में हुए समागम में फ़रमाया है कि मातृभूमि का विभाजन हो चुका है, राम जन्म भूमि का विभाजन किसी क़ीमत पर भी नहीं होने दिया जाएगा। जो लोग ज़मीन को देश की संज्ञा देते हैं उनकी सोच इसी प्रकार की होती है। देश बनता है देशवासियों से और उनके बीच भाईचारे से। यदि पाकिस्तान के रूप में ज़मीन का बटवारा होने के बावजूद भी हिन्दू-मुस्लिम भाईचारा क़ायम करने की कोशिशें की गई होतीं और पाकिस्तान को तोड़ कर बंगलादेश बनवाने में फौजी सहयोग देने की भूल न की गई होती तो हो सकता है कि दिलों के मेल से जिस प्रकार से जर्मनी बटने के बाद फिर से एक हो गए उसी प्रकार भारत और पाकिस्तान को भी मिलाने की कोशिश चल रही होती। लेकिन देश की अखण्डता का नारा देने वाले सरफिरों ने मस्जिद गिरा कर जो हमेशा के लिए हिन्दू-मुस्लिम भाईचारे को चोट पहुंचाई है सही अर्थों में यही देश का खण्डित होना है। पहले भूमि के रूप में देश खण्डित हुआ था और अब दिलों में दूरी बनाकर देश को खण्डित किया जा रहा है जोकि नाक़ाबिले माफ़ी है।

Thursday, October 21, 2010

a solution of the problem of masjid-mandir मस्जिद और मन्दिर की समस्या का समाधान sharif khan

भारत विभिन्न धर्म और संस्कृतियों के देश के रूप में प्राचीन काल से ही जाना जाता रहा है। यदि अलग अलग धर्म और संस्कृतियों के लोग परस्पर सहयोग व भाईचारे के साथ रहें तो यही देश एक महकता हुआ गुलदस्ता बन सकता है और यदि इसके विपरीत आचरण किया गया तो यही देश जहन्नुम बन जाएगा। परस्पर प्रेम व भाईचारा क़ायम करने के लिए कहीं से कोई विशेष ट्रेनिंग लेने की आवश्यकता नहीं है अपितु केवल इतना ध्यान रखें कि हम जो कुछ भी करें उससे किसी दूसरे को शारीरिक व मानसिक कष्ट न पहुंचे तथा इसके साथ इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि यह देश प्रत्येक देशवासी का है और संविधान ने सबको बराबर के अधिकार दिये हैं। अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ लड़ी गई आज़ादी की जंग में हिन्दू-मुस्लिम एकता और आपसी भाईचारे ने सामाजिक तौर पर एक महकते हुए गुलदस्ते की मिसाल क़ायम की थी जिसके नतीजे में भारत एक धर्मनिर्पेक्ष राष्ट्र के रूप में संसार के मानचित्र दुनिया के सबसे बड़े लोकतन्त्र के तौर पर उभरा।

उ० प्र० सरकार में उपमन्त्री रहे स्व० शमीम आलम ने एक बार अपने पिता मौलवी अलीमुद्दीन साहब के संस्मरण सुनाते हुए कहा कि अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ हो रहे आन्दोलन से सम्बन्धित कांग्रेसियों की सभा अक्सर मन्दिर में कर लिया करते थे और यदि उसी दौरान नमाज़ का समय हो जाता तो मौलवी साहब के मस्जिद में जाने से सभा की कार्रवाई काफ़ी देर के लिए रुक जाती थी। इसके समाधान के तौर पर यह तय पाया कि नमाज़ मन्दिर ही में पढ़ ली जाए परन्तु चूंकि मूर्तियों की मौजूदगी में नमाज़ नहीं पढ़ी जा सकती इसलिए मन्दिर के चबूतरे पर मौलवी साहब के नमाज़ पढ़ने का प्रबन्ध किये जाने में किसी को भी ऐतराज़ नहीं होता था। इसके बाद देश के आज़ाद होने पर स्थिति यह हो गई है कि नमाज़ पढ़ने के लिए बनी हुई मस्जिद का वजूद भी आर एस एस द्वारा परिभाषित हिन्दुत्ववादी तत्वों को बरदाश्त नहीं रहा। मुसलमानों को विभिन्न प्रकार से आतंकित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी जाती। कौन नहीं जानता कि इस्लाम में अल्लाह के अलावा किसी की वन्दना करना जाइज़ नहीं है और ऐसा अमल इस्लाम धर्म की मूल भावना के ही विरुद्ध है तो इसका सीधा सा अर्थ यह है कि एक मुसलमान तभी तक मुसलमान है जब तक वह अल्लाह के अलावा किसी और की इबादत (वन्दना) नहीं करता चाहे मां(जननी) हो, वतन हो, पवित्र किताब हो या फिर कुछ और हो। इसके बावजूद मुसलमानों से वन्देमातरम् कहलवाने पर क्यों ज़ोर दिया जाता है और ग़ुण्डों की भाषा इस्तेमाल करते हुए यह नारा क्यों लगाया जाता है कि, ‘‘भारत में रहना है तो वन्देमातरम् कहना होगा‘‘ जबकि सारा संसार इस बात का गवाह है कि ‘‘वन्दे मातरम्‘‘ न कहने वाले लोगों ने ज़रूरत पड़ने पर इस देश के लिए हज़ारों जानें क़ुर्बान करने में तनिक भी संकोच नहीं किया। देश के प्रधानमन्त्री की कुर्सी हासिल करने का स्वप्न देखने वाले अडवानी साहब तो संसद में भारत को भारत या हिन्दुस्तान न कहकर ‘‘हिन्दुस्थान‘‘ (हिन्दू + स्थान) कहते हैं जिससे उनकी मानसिकता का पता चलता है

शायर द्वारा कहे गए यह शब्द भारत के मुसलमानों के दिल से निकली हुई आवाज़ मालूम पड़ते हैं

एक दो ज़ख्म नहीं सारा बदन है छलनी। दर्द बेचारा परीशां है कहां से उठे।।

देश को इस दूषित वातावरण से मुक्ति देकर एक महकते हुए गुलदस्ते में परिवर्तित करने के लिए हमको इस प्रदूषण की जड़ को तलाश करना पड़ेगा जिससे कोई भी अनभिज्ञ नहीं है। 22-23 दिसम्बर 1949 की रात में बाबरी मस्जिद में नमाज़ के बाद किसी समय मूर्ति का रखा जाना प्रारम्भ था इस प्रदूषण का और इसको हवा देने वालों को भी पूरा देश जानता है। यदि इन लोगों को जनता की भावनाओं को भड़काने का मौक़ा न दिया जाए तो तादाद के लिहाज़ से यह बहुत ज़्यादा नहीं हैं। लिहाज़ा करना केवल इतना है कि 22-23 दिसम्बर 1949 से लेकर आज तक के अन्तराल में जो कुछ हुआ उसको एक दुःस्वप्न की तरह से भुलाकर देश के ऐतिहासिक रिकार्ड में से इन 61 वर्षों की कटुतापूर्ण बातों को निकाल दिया जाए और किसी भी दिन सुबह से नमाज़ के लिए मस्जिद को मुक्त कर दिया जाए।

यदि मुसलमानों से कोई भूल हुई है तो बहुसंख्यक समाज पर क्षमा की ज़िम्मेदारी बनती है कयोंकि:

‘‘छमा बड़ेन को चाहिए छोटन को उत्पात‘‘

Monday, October 18, 2010

definition of terrorism आतंकवाद की परिभाषा sharif khan

दशहरे के अवसर पर नागपुर के रेशम बाग़ मैदान में एक रैली को सम्बोधित करते हुए आर एस एस प्रमुख मोहन भागवत ने कहा कि आतंकवाद और हिन्दुत्व विपरीत धारा है और कभी भी इन्हें एक दूसरे से नहीं जोड़ा जा सकता। उन्होंने यह भी कहा कि आमतौर पर हिन्दू आतंकवादी गतिविधियों में शामिल नहीं होते।
उपरोक्त कथन में उनका यह कहना कि, ‘‘आमतौर पर हिन्दू आतंकवादी गतिविधियों में शामिल नहीं होते‘‘ काफ़ी हद तक सत्य के क़रीब है क्योंकि, जहां पर संगठित रूप से योजना बनाकर आतंक फैलाया जाता हो, वहां यही कहना हक़ीक़त पसंदी है। आमतौर पर आतंकवादी गतिविधियों में शामिल होना तो तब माना जाता है जब कोई पीड़ित व्यक्ति इन्साफ़ न मिलने की प्रतिक्रिया में कोई वारदात कर बैठता है।
संगठित आतंकवाद का नमूना सारा संसार 1992 में बाबरी मस्जिद के विध्वंस के रूप में देख ही चुका है। इसके साथ ही राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद में अपना फ़ैसला सुनाते हुए न्यायमूर्ति एस यू ख़ान का यह कहना कि, ‘‘यदि छः दिसम्बर 1992 की घटना दोहराई जाती है तो देश दोबारा खड़ा नहीं हो पाएगा।‘‘ एक प्रकार से हिन्दू आतंकवाद पर अपनी मोहर लगा देने के समान है।
देश में योजनाबद्ध तरीक़े से पनपाए गए इस आतंकवादी संगठन के हौसले कितने बुलन्द हैं इसका प्रमाण इस संगठन के एक नेता द्वारा समझौते की पेशकश के तौर पर कहे गए इन शब्दों को पेश करना ही काफ़ी है कि यदि मुसलमान बाबरी मस्जिद पर से अपना दावा छोड़ दें तो काशी और बनारस की मस्जिदों पर से हम अपना दावा छोड़ देंगे। क्या यह ब्लैकमेलरों और अपहरणकर्ताओं द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली भाषा नहीं है?
अन्त में आप कल्पना करके देखिये कि यदि क़ानून को ताक़ पर रख कर फ़ैसला न किया गया होता और सही इन्साफ़ करते हुए मस्जिद अराजकता के भंवर से निकाल दी गई होती, तो क्या देश इस वक्त छः दिसम्बर 1992 के आतंकवादियों द्वारा न जलाया जा रहा होता। मुस्लिम समाज ने अपने साथ किये गए ज़ुल्म की प्रतिक्रिया में जिस प्रकार से सब्र और धैर्य से काम लेकर सभ्यता, देशहित और अमनपसंदी का सबूत पेश किया है वह क़ाबिले तारीफ़ है।
इन बातों को ध्यान में रखते हुए आर एस एस प्रमुख मोहन भागवत के आतंकवाद से सम्बन्धित बयान से ऐसा लगता है कि आदरणीय आतंकवाद को जिस प्रकार से परिभाषित करना चाहते हैं उसको समझने में निम्नलिखित उदाहरण शायद सहायक हो सके।
एक बार चंगेज़ ख़ान घोड़े पर सवार कहीं जा रहा था कि रास्ते में उसको किसी महिला के रोने की आवाज़ सुनाई दी जिसको सुनकर वह रुका और आवाज़ की ओर चला। वहां उसने देखा कि एक औरत का बच्चा एक गड्ढे में गिरा हुआ था जिसको वह बाहर निकालने में असमर्थ होने के कारण रो रही थी। अपने जीवन में शायद पहली बार चंगेज़ ख़ान को दया आई अतः उसने उस बच्चे को गड्ढे में से निकाल कर उसकी मां के सुपुर्द कर दिया यह बात दूसरी है कि गड्ढे में से बच्चे को बाहर निकालने का तरीक़ा कुछ अलग सा था क्योंकि चंगेज़ ख़ान ने अपने भाले की नोक से बच्चे को इस तरह उठाकर उसकी मां के सुपुर्द किया जिस तरह से कांटे से खरबूज़े आदि के टुकड़े उठाकर खाए जाते हैं। अतः चंगेज़ ख़ान से आतंकवाद की परिभाषा यदि पूछी जाती तो वह जैसी होती उसका उदाहरण हमारे देश में देखा जा सकता है।

Thursday, September 30, 2010

social values and materialism सामाजिक मूल्य और भौतिकवाद sharif khan

भौतिकवाद सभ्य समाज के लिए एक ऐसा अभिशाप है जिसने सामाजिक मूल्यों को समाप्त कर दिया है। आज के युग में प्रेम, ममता, आस्था और श्रद्धा का मापदण्ड पैसा समझ लिया गया है।
भावनात्मक दृष्टि से देखें तो अनाथालय और वृद्धाश्रम सभ्य समाज पर कलंक के समान हैं। आज कुत्ते पालने के शौक़ीन लोग एक कुत्ते पर जो धन ख़र्च करते हैं उससे कम से कम 2 अनाथ बच्चों का पालन पोषण बहुत अच्छे ढंगसे हो सकता है। सुबह को कुत्ते वाले लोग जब अपने प्यारे कुत्ते के साथ टहलने निकलते हैं तो ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे कुत्ता उनको टहलाने निकला है क्योंकि जब ज़मीन सूंघते हुए कुत्ता रुक जाता है तो वह भी रुक जाते हैं और जब कुत्ता चल देता है तो उनको भी उसके पीछे चलना पड़ता है। यदि कुत्ते के बजाय किसी इन्सान के बच्चे को पालने की भावना पैदा हो जाए तो शायद अनाथालय में नारकीय जीवन जी रहे बदनसीब बच्चे भी मानव होने के सुख से परिचित हो सकें। मेरे साथ जूनियर हाई स्कूल में अनाथालय का एक छात्र पढ़ता था। एक दिन उसने ज़हर खा लिया परन्तु समय पर उपचार मिलने से उसकी जान बच गई। सोचने वाली बात यह है कि उस बच्चे के साथ क्या परिस्थितियां रही होंगी कि उसको यह क़दम उठाने के लिए मजबूर होना पडा़। केवल यह अकेली घटना ही अनाथालयों के अन्दर की स्थिति की पोल खोलने के लिए पर्याप्त है।
एक व्यक्ति सन्तान प्राप्ति के बाद उसके उज्ज्वल भविष्य के लिए अपना जीवन समर्पित करके एक अजीब सा सन्तोष और इतमीनान महसूस करता है। वही सन्तान जब उसको वृद्धाश्रम का रास्ता दिखाती है तब उसको ऐसा महसूस होता है कि जैसे जीवनभर की कमाई डकैत ले गए हों। हालांकि वृद्ध माता-पिता को सन्तान की आंखों में अपने प्रति केवल प्रेम और मौहब्बत से भरी दृष्टि की ही चाह होती है।
माता-पिता और सन्तान के दरम्यान जो प्रेम भावना होती है उसको शब्दों में बयान करना सम्भव नहीं है। यह तो ‘‘गूंगे को ज्यों मीठा फल अन्तर ही अन्तर भावै‘‘ वाला भाव है। काफ़ी समय पहले की एक घटना है कि अदालत में एक बृज पाल नाम के एक जज साहब मुक़दमे की बहस सुन रहे थे कि इसी बीच उनकी माता जी के देहान्त का टेलीग्राम आ गया जिसको पढ़कर वह अपनी भावनाओं को नहीं रोक पाए और रोने लगे तथा मुक़दमे की बहस को रोक दिया गया। अदालत में मौजूद वकीलों ने सान्त्वना दी जिसके जवाब में जज साहब ने केवल इतना कहा कि ‘‘मुझे सबसे बड़ा ग़म इस बात को याद करके हुआ है कि अब मुझे ‘‘बिरजू‘‘ कहने वाला कोई नहीं रहा।
कलयुगी पुत्र की कथा के बिना बात अधूरी न रह जाए अतः उसका बयान करना भी ज़रूरी सा प्रतीत होता है। एक युवक अपने वृद्ध पिता को तरह तरह से प्रताड़ित करता था, बुरा भला कहना तथा बात बात में धुतकारना उसकी दिनचर्या में शामिल था। एक दिन अपने बूढ़े पिता से छुटकारा पाने का इरादा करके उस युवक ने एक चादर में पिता को बांधा और सर पर रख कर जंगल की ओर चल दिया। रास्ते में उसको एक कुआं दिखाई दिया। उस कुएं में अपने पिता को फैंकने के इरादे से उसने सर से गठरी उतारी और चादर की गांठ खोली ताकि चादर वापस ले जाए। उसके पिता ने चारों ओर देखकर सारा माजरा समझते हुए अपने पुत्र से कहा कि ‘‘बेटा! मैं समझ रहा हूं कि तू मुझे कुएं में फैंकने के इरादे से लाया है और मैं कुछ कर भी नहीं सकता। यह जानते हुए भी कि तूने मेरी कभी कोई बात नहीं मानी, मैं केवल यह चाहता हूं कि तू मेरी अंतिम इच्छा समझकर मेरी एक बात मान ले। उसके पुत्र द्वारा पिता की अन्तिम इच्छा पूछे जाने पर पिता ने कहा कि तू मुझे इस कुएं में न डालकर किसी दूसरे कुएं में डाल दे। पुत्र ने जब इसका कारण जानना चाहा तो उसके पिता ने कहा कि इस कुएं में मैंने अपने पिता को डाला था। इस कथा को ध्यान में रखते हुए अपने बुज़ुर्गों से दुवर्यवहार करने वाले इतना ध्यान में रखें कि ऐसी परिस्थिति उनके सामने भी आ सकती है।
कहने तात्पर्य यह है कि अल्लाह ने पूरी सृष्टि में सबसे अच्छा इन्सान को बनाया है। इन्सान और जानवरों में ख़ास फ़र्क़ यह है कि इन्सानों में सोचने समझने की शक्ति होती है, भावनाएं होती हैं तथा एक दूसरे के प्रति ज़िम्मेदारी का भाव होता है जोकि जानवरों में नहीं होता। अतः हमको चाहिए कि अपनी ज़िम्मेदारियों को समझें और मानवता को कलंकित करने वाले कार्यों से दूर रहें।

Monday, September 27, 2010

student's future in india either safe or not क्या देश में छात्रों का भविष्य सुरक्षित है ? sharif khan

कई वर्ष पुरानी बात है कि मेरी एक लेक्चरर मित्र ने मुझसे बी ए की ऐसे विषय की कापियां जांचने का अनुरोध किया जिसका मैंने कभी अध्ययन नहीं किया था अतः मैंने असमर्थता प्रकट कर दी जिसके जवाब में उन्होंने कहा कि आपको पढ़ना कुछ नहीं है और क्या लिखा गया है उससे भी आपका कोई सरोकार नहीं है बल्कि छात्र द्वारा कितना लिखा गया है उसके अनुसार अंक देने हैं। अब लगभग 30 वर्ष के बाद एक समाचार पढ़ कर उस घटना की याद ताज़ा हो गई।
एक समाचार के अनुसार यू पी बोर्ड के द्वारा सम्पन्न कराई गई परीक्षाओं में परीक्षकों ने साइंस, अंग्रेज़ी तथा सामाजिक विज्ञान की 1 लाख 98 हज़ार कापियों पर बिना जांचे सेकिण्ड डिवीज़न के अंक दे दिये। 70 प्रतिशत और उस से अधिक अंक लाने वाले कुछ मेधावी छात्रों के द्वारा की गई आपत्तियों को ख़ारिज किये जाने पर जब न्यायालय में जाने की धमकी दी गई तब जाकर सुनवाई हुई और जांच में 411 परीक्षकों को दोषी पाया गया जिनके ख़िलाफ़ कार्रवाई किये जाने की प्रक्रिया चल रही है। इन अपराधियों को सज़ा, मिल पाएगी या नहीं अथवा मिलेगी तो कितनी मिलेगी, यह बात इस पर आधारित है कि सज़ा देने वाले अधिकारी भ्रष्ट हैं या नहीं और यदि भ्रष्ट हैं तो किस हद तक हैं।
इस से पहले चै. चरणसिंह विश्वविद्यालय द्वारा आयोजित परीक्षाओं की उत्तर पुस्तिकाओं के आंकलन सम्बन्धी अनियमितताओं के प्रति सरकार का उदासीनतापूर्ण व्यवहार उसके चरित्र और कर्तव्यबोध की सही तस्वीर पेश कर ही चुका है। जिन अध्यापकों को इम्तेहान की कापियां जांचने का कार्य सौंपा गया था, उनके द्वारा यह कार्य खुद न करके अपने नौकरों और छठी सातवीं क्लास में पढ़ने वाले बच्चों से करवाया गया। इस अपराध का पता चलते ही सरकार को सख्ती के साथ इन अपराधियों के खिलाफ़ कार्यवाही करनी चाहिए थी परन्तु ऐसा न होकर छात्रों को सरकार से अपने कर्तव्य का पालन करवाने के लिये धरना और प्रदर्शन का सहारा लेना पड़ा। यह कैसी विडम्बना है कि अपराध कितना संगीन है, यह इस बात से नापा जाता है कि अपराधियों के खिलाफ़ कार्यवाही करवाये जाने के लिये कितने बड़े स्तर पर प्रदर्शन हुए और कितनी जान माल की क्षति हुई।
यदि कापियां इसी प्रकार से जांची जाती हैं तो परीक्षओं का कोई औचित्य ही नहीं रह जाता है। इन हालात में सरकार को चाहिये कि अपराधियों के खिलाफ सख्त से सख्त कदम उठाने के लिये प्रशासन पर जोर डाले तथा प्रायश्चित् के तौर पर गत वर्षों में घटित उन मामलों की भी छानबीन कराये जिनमें परीक्षाओं में फेल होने के कारण छात्रों को आत्महत्या करने पर मजबूर होना पड़ा था। इस प्रकार से यदि गलत ढंग से कापियां जांची जाने के कारण फेल होने वाले किसी छात्र द्वारा की गई आत्महत्या का कोई मामला सामने आये तो इसके जिम्मेदार अध्यापकों के खिलाफ मुकदमा चलाकर सजा दिलवाई जाये।

Sunday, September 5, 2010

doctor is human or demon डाक्टर मानव या दानव sharif khan

परिवार में यदि कोई बीमार हो जाए तो उसका इलाज करने वाला डाक्टर सबके लिए सम्मान का पात्र होता है। पूरे परिवार को उसके रूप में ख़ुशी और राहत दिखाई पड़ती है। ऐसे सम्माननीय पेशे को कुछ लोगों ने लालचवश बदनाम कर दिया है। दो वर्ष पहले की बात है, मेरी पत्नि के सीने में दर्द महसूस होने पर शहर के इकलौते हृदयरोग विशेषज्ञ के नर्सिंग होम में ले जाने का इत्तेफ़ाक़ हुआ। वहां का अजीब हाल देखकर दिल को दुःख हुआ। पहली बात तो यह है कि घर से चलते समय वह केवल सीने में हल्के दर्द की शिकायत कर रही थीं परन्तु डॉक्टर की निगरानी में पहुंच कर वह मानसिक रूप से भी दिल की बीमार हो गईं। उनके शरीर से कुछ उपकरण जोड़ दिये गए जिनकी रीडिंग किसी ने नहीं लीं। दूसरे दिन शाम तक डॉक्टर ने हम लोगों को इस बात के लिए मानसिक रूप से तैयार रहने के लिए कहा कि एन्जियोग्राफ़ी के लिए नोएडा ले जाने की आवश्यकता पड़ सकती है। शुगर कण्ट्रोल करने के लिए जो दवा दी गई उसके एक घण्टे बाद शुगर 300 से बढ़कर 500 हो गई। रात को 11 बजे डॉक्टर ने फ़रमाया कि फ़ौरन नोएडा ले जाइए। हमको सुबह तक का वक्त भी देने के लिए तैयार नहीं थे। एक दूसरे डॉक्टर, जिनका पहले से इलाज चल रहा था, कहीं बाहर गए हुए थे। हमने उनका कॉन्टेक्ट नम्बर हासिल करके उनको स्थिति से अवगत कराया और दोनों डाक्टरों की परस्पर बात कराई। दूसरे डॉक्टर ने जब यह कहा कि ख़तरे की कोई बात नहीं है क्योंकि बी पी आदि सब नॉर्मल हैं तब जाकर मरीज़ा को नर्सिंग होम में रहने दिया गया और फिर कटाक्ष करते हुए डॉक्टर ने हमसे पूछा कि बताइए क्या ट्रीटमेण्ट दिया जाए क्योंकि अब तो हम आपके कहे अनुसार ही इलाज करेंगे। अगले दिन सुबह को हालत काफ़ी नॉर्मल हो गई और जब हमने मरीज़ा को घर ले जाने के लिए कहा तो डॉक्टर ने कहा कि अभी कम से कम दो दिन और एडमिट रहने दीजिए उसके बाद घर ले जाइएगा। बाद में एक बार किसी दूसरे हार्ट के मरीज़ को देखने के लिए नोएडा जाने का इत्तेफ़ाक़ हुआ तो उस अस्पताल के एक कमरे के बाहर हमने उन्हीं डॉक्टर साहब की नेम प्लेट लगी देखी तो सारा माजरा समझ में आ गया।
उलझन यह है कि जब मरीज़ा नर्सिंग होम में एडमिट थी और डॉक्टर के कहे अनुसार हालत ठीक नहीं होने के कारण डॉक्टर की निगरानी की ज़रूरत थी तो उस वक्त रात के 11 बजे नोएडा ले जाने के लिए कहना क्या अनुचित नहीं था। और जब हालत ठीक थी और डॉक्टर की निगरानी की ज़रूरत नहीं थी तो फिर दो दिन और रोकने का क्या औचित्य था।
यह तो एक छोटी सी घटना है। एक घिनौनी तथा मानवता को कलंकित करने वाली हरकत जो कुछ डॉक्टर मरीज़ों के साथ करते हैं, वह है कमीशनखोरी। पैथोलौजिकल टैस्ट, रोग के निदान में जितना सहायक होता है उससे ज़्यादा, पैथोलौजिस्ट के द्वारा मिला हुआ कमीशन, कमीशनख़ोर डॉक्टर की तन्दरुस्ती बढ़ाता है। अक्सर यह भी देखा गया है कि यदि अपनी इच्छानुसार किसी ऐसे पैथोलौजिस्ट से टैस्ट करा लिया गया हो, जिसकी डॉक्टर से सैटिंग नहीं है, तो उस टैस्ट रिपोर्ट को नकारते हुए दोबारा उस पैथोलौजिस्ट से जांच कराए जाने के लिए कह दिया जाता है, जिससे डॉक्टर की सैटिंग होती है। एक और नापाक हरकत कुछ डॉक्टर करने लगे हैं जिसकी जितनी भतर्सना की जाए कम है, वह यह है कि मरीज़ के ठीक होने पर एक और पैथोलौजिकल टैस्ट करवाया जाता है जिसके पर्चे में उस डॉक्टर के द्वारा एक निशान लगा दिया जाता है जो पैथोलौजिस्ट के लिए इस बात का निर्देश होता है कि उस पर्चे के मुताबिक़ टैस्ट न करके केवल नार्मल की रिपोर्ट देनी है तथा इस रिपोर्ट के बिल का पूरा धन डॉक्टर के खाते में जाना है। ऐसे डॉक्टर कम्पिनियों द्वारा दी गई सेम्पिल की दवाइयों के भी पैसे बनाने से नहीं चूकते क्योंकि सेवा भावना तो उनमें होती ही नहीं।
जो लोग बिना डॉक्टर के पर्चे के कोई टैस्ट कराना चाहते हैं उनसे भी पैथोलौजिस्ट पूरे ही पैसे लेता है क्योंकि वह इस बात से डरता है कि कहीं ऐसा न हो कि बाद में कभी यह डाक्टर के पर्चे से टैस्ट कराने आए तो कमीशनबाज़ी की पोल खुल जाएगी।
जो लोग डाक्टरी के पेशे में सेवा भावना से आए हैं उनको कमीशनख़ोरी तो दूर की बात है बल्कि ग़रीबों को मुफ़्त दवाई देते हुए भी देखा गया है। सही अर्थों में ऐसे लोग ही समाज में आदर और सम्मान पाने के योग्य हैं।

Thursday, September 2, 2010

self respect आत्मसम्मान sharif khan

बहुत पुरानी बात है, भारतीय मूल के इंगलैण्ड के नागरिक एक अविवाहित सज्जन ने अपने विभाग में स्वयं को विवाहित दर्शाया हुआ था और भारत में रहने वाली अपनी एक सम्बन्धी महिला को अपनी पत्नी बताकर सरकार द्वारा मिलने वाले पारिवारिक भत्ते को वसूल करके भारत में अपने घर भेज दिया करते थे। मैंने उनसे पूछा कि यदि आपकी शिकायत हो जाए तो आपकी क्या स्थिति होगी। तब उन्होंने जवाब दिया कि जिस देश की मुझे नागरिका मिली हुई है उस देश का नागरिक सरकार की नज़र में एक सम्मानित व्यक्ति होता है तथा अपने देश के नागरिक के सम्मान की सुरक्षा को सरकार सर्वोच्च प्राथमिकता देती है। लिहाज़ा मेरे खि़लाफ़ इस प्रकार की शिकायत होने पर मेरे सम्मान की रक्षा करते हुए शिकायतकर्ता ही को झूठा मानकर शिकायत रद्द कर दी जाएगी।
हमारे देश का उदाहरण देखिए। मेरे पड़ौस में रहने वाले एक सज्जन किसी फ़र्म में नौकरी करते हैं। एक बार वह फ़र्म के कुछ रुपये बैंक में जमा करने जा रहे थे कि उनके थैले में से किसी ने रुपये निकाल लिये। इस बात की रिपोर्ट करने जब वह कोतवाली पहुंचे तो उनकी रिपोर्ट लिखकर कोई कार्रवाई करने के बजाय उनको कोतवाली में ही बैठा लिया गया और उनसे कहा गया कि रुपये चोरी नहीं हुए हैं बल्कि तुम्हारे पास हैं और तुम झूठ बोलकर फ़र्म के रुपये हज़म करना चाहते हो। इस प्रकार से कुछ ऐसी विकट स्थिति पैदा हो गई कि उनके सामने स्वंय को वर्दी वाले ग़ुण्डों से आज़ाद कराना एकमात्र लक्ष्य बन गया। इसके बाद फ़रियाद करने की जो गुस्ताख़ी उनसे हो गई थी, उसकी सजा के तौर पर कुछ रक़म अदा करने की शक्ल में एक और चोट खाकर, ‘‘पिटे और पिटाई दी‘‘ वाली कहावत को चरितार्थ करते हुए लौट आए।
यह तो एक छोटी सी मिसाल है वरना आप स्वंय इस बात से अनभिज्ञ नहीं हैं कि किसी भी सरकारी विभाग में प्रस्तुत की गई हर बात को शक की निगाह से देखा जाता है। क्या यह देश के सभ्य नागरिकों को अपमानित करने जैसा नहीं है?
विकसित देशों में मन्त्री-पुत्रों और दूसरी महान हस्तियों को यातायात के नियमों के उल्लंघन की सज़ा दिये जाने की घटनाओं की ख़बरें अक्सर समाचार पत्रों के मिलती रहती है जबकि हमारे देश में ऐसे अपराधियों को सज़ा न दिया जाना देश की परम्परा बन गया है क्योंकि कहीं तो नेताओं व दूसरे उच्चाधिकारियों का ख़ौफ़ कर्तव्य पालन नहीं होने देता है और कहीं आस्था आड़े आ जाती है।
नए रईस ज़ादों के शराब पीकर गाड़ी चलाने व दूसरी बदमाशियों में उनकी संलग्नता जग ज़ाहिर है। आस्थावश अपने कर्तव्यों से विमुखता का एक उदाहरण प्रस्तुत है। रामायण सीरियल में सीताजी की भूमिका अदा करने वाली दीपिका नामक अभिनेत्री चेन्नई में यातायात के नियमों का उल्लंघन करते हुए गाड़ी चलाते हुए यातायात पुलिस द्वारा रोकी गई परन्तु दीपिका के रूप में पहचानी जाने पर उस सिपाही ने सीताजी के रूप की आस्थावश माता जी नमस्ते कहते हुए पैर छुए और क्षमा मांगते हुए जाने का इशारा किया।
विकसित देशों में चरित्रहीनता भले ही चरम स्थिति पर पहुंच रही हो परन्तु वहां की सरकार अपने देश के नागरिकों के सम्मान व दूसरे मूल अधिकारों की सुरक्षा को सर्वोच्च प्राथमिकता देती है। हमारे देश में सामाजिक व्यवस्था को बरबाद करके चरित्रहीन समाज का निर्माण तरक्क़ी की कुंजी समझ लिया गया है परन्तु अपमानित जीवन जी रहे देश के नागरिकों के सम्मान की सुरक्षा को नज़रअन्दाज़ कर दिया गया है।

Tuesday, August 31, 2010

success of life जीवन की सफलता sharif khan

अल्लाह सुबहाना व तआला पवित्र क़ुरआन के 7 वें अध्याय की 175 व 176 वीं आयतों में फ़रमाता है, अनुवाद, ‘‘और उनसे उस व्यक्ति का हाल बयान करो जिसे हमने अपनी आयतों का इल्म प्रदान किया था किन्तु वह उनकी पाबन्दी से निकल भागा। आख़िरकार शैतान उसके पीछे लग गया यहां तक कि वह गुमराह लोगों में शामिल हो गया। यदि हम चाहते तो इन आयतों के द्वारा उसे उच्चता प्रदान करते किन्तु वह तो ज़मीन ही की ओर झुक कर रह गया और अपनी इच्छा के पीछे चला। अतः उसकी मिसाल कुत्ते जैसी है कि यदि तुम उस पर हमला करो तब भी वह ज़बान लटकाए हांपता रहे या तुम उसे छोड़ दो तब भी वह ज़बान लटकाए ही रहे। यही मिसाल उन लोगों की है, जिन्होंने हमारी आयतों को झुठलाया हैं तो तुम वृत्तान्त उनको सुनाते रहो, शायद कि वह सोच विचार कर सकें।‘‘
जिस व्यक्ति की यहां मिसाल दी गई है उसको अल्लाह की आयतों का ज्ञान था अर्थात् सत्य को पहचानता था और यदि वह उसी के अनुसार अपने जीवन को ढाल लेता तो अल्लाह उसको इन्सानियत का ऊंचा स्थान प्रदान करता लेकिन ऐसा न करके वह दुनिया के लाभ, लज़्ज़तों तथा ऐशो आराम में पड़ गया। बुराई को अपनाकर उसने उन सब बातों से किनारा कर लिया जो इल्म हासिल होने की वजह से उस पर लाज़िम थीं। शैतान, जो कि ऐसे लोगों की घात में रहता है, उसके पीछे लग गया और उसे निम्न से निम्नतर की ओर ले जाते हुए गुमराहों में शामिल कर दिया।
इसके बाद अल्लाह तआला उस व्यक्ति की स्थिति की कुत्ते से उपमा देता है जिसकी हमेशा लटकती हुई ज़बान और उससे टपकती हुई राल एक न बुझने वाली प्यास को ज़ाहिर करती है। कुत्ते की ख़ास तौर से यह आदत होती है कि वह मुंह लटकाए हुए हर वस्तु को इस आशा में सूंघता हुआ चलता है कि शायद कुछ खाने की चीज़ हाथ लग जाए। उसको डांटो तब भी भौंकता है और यदि उसके हाल पर छोड़ दो तब भी भौंकता है और इसी आशा में ज़बान लटकाए हुए देखता रहता है कि शायद कुछ खाने को मिल जाए चाहे भूखा हो या न हो। उसको यदि कोई चीज़ फैंक कर मारी जाती है तो उसको भी इस आशा मे लपकता है कि शायद हड्डी या कोई दूसरी खाने की वस्तु हो। कहीं पर बहुत सा खाने को हो तो दूसरे कुत्तों के साथ बांट कर खाने के बजाए अकेला हड़पना चाहता है। इसके अतिरिक्त दूसरी चीज़ जिसको पाने के लिए भटकता रहता है वह है सैक्स। ऐसा लगता है कि जैसे खाना तथा यौनेच्छा पूर्ति ही उसके जीवन का लक्ष्य हो। अपने व दूसरे साथी के सिर्फ़ जननांग से ही सबसे ज़्यादा दिलचस्पी रखता है मुलाक़ात होने पर केवल उसी स्थान को सूंघता व चाटता है। ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे कुत्ता भूख और सैक्स का पर्याय हो।
कहने का तात्पर्य यह है कि दुनिया परस्त व्यक्ति जब इल्म और ईमान की बन्दिशों से आज़ाद होकर भागता है और नफ़्स (इच्छाओं) का ग़ुलाम बन जाता है तो उसकी हालत कुत्ते की हालत जैसी हो जाती है। हमको चाहिए कि अपने ऊपर नज़र डाल कर अपनी स्थिति का अवलोकन करते रहा करें और यदि स्वंय को ऐसी राह पर पाएं जो कुत्ते वाली स्थिति की ओर ले जाने वाली हो तो राह बदल कर जीवन को बर्बाद होने से बचा लें।

Sunday, August 29, 2010

Straight Path सीधा रास्ता sharif khan

अल्लाह ने तो ‘कुछनहीं‘ से सब कुछ बनाया है। इन्सान को इतना ज्ञान दिया है कि वह उसका प्रयोग करके बहुत कुछ करने में सक्षम है जिसके उदाहरण के तौर पर साइन्स में की गई उन्नति को पेश किया जा सकता है। इसके बावजूद यदि ज़रूरत की सारी चीज़ें उपलब्ध करा दी जाएं तो हवाई जहाज़ आदि मशीनी चीज़ें तो वह बेशक बना सकता है परन्तु जानदार चीज़ों में एक मक्खी तक नहीं बना सकता। कुछ भी उपलब्ध न होने की स्थिति में वह कुछ भी नहीं बना सकता लिहाज़ा सक्षम होने के बावजूद कितना अक्षम है। और हवाई जहाज़ भी इन्सान तो बेशक बना सकता है परन्तु अल्लाह के अलावा जिनकी उपासना की जाती है यदि उनका कोई वजूद है तब भी वह सब मिलकर इतना भी नहीं बना सकते जितना इन्सान बना लेता है। हैं न इन्सान से भी ज़्यादा कमज़ोर! अपने से कमज़ोर की उपासना का औचित्य समझ से बाहर है। इस बात को आलोचना न समझ कर कसौटी के रूप में लेकर देखें ताकि सही व ग़लत के निर्णय में सुविधा हो सके।
इसी संदर्भ में अल्लाह सुबहाना व तआला पवित्र क़ुरान के 22 वें अध्याय की 73 वीं आयत में फ़रमाता है, अनुवाद, ‘‘ऐ लोगो! एक मिसाल पेश की जाती है। उसे ध्यान से सुनो, अल्लाह से हटकर तुम जिन्हें पुकारते हो वह सब मिलकर एक मक्खी भी पैदा करना चाहें तो नहीं कर सकते और अगर मक्खी उनसे कोई चीज़ छीन कर ले जाए तो उससे वह उसको छुड़ा भी नहीं सकते। मदद चाहने वाले भी कमज़ोर और जिनसे मदद चाही जाती है वह भी कमज़ोर।‘‘
पवित्र क़ुरआन एक दुआ से आरम्भ होता है और जब नमाज पढ़ी जाती है तो वह भी उस दुआ के बग़ैर पूरी नहीं होती। उस दुआ में अल्लाह रब्बुल आलमीन से सीधा रास्ता (सिराते मुस्तक़ीम) दिखाए जाने की प्रार्थना की जाती है ताकि ग़लत रास्ते पर चल कर कहीं गुमराही के अंधेरों में न भटकते फिरें।

Thursday, August 12, 2010

Independence day भारत का स्वतन्त्रता दिवस sharif khan

मानव की प्रकृति स्वतन्त्र रहने की रही है। किसी की ग़ुलामी में रहना सबसे ज़्यादा पीड़ाजनक होता है। ग़ुलामी के जीवन की भयावहता को गुलाम ही जान सकता है। ग़ुलाम एक व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति का भी हो सकता है और एक देश किसी दूसरे देश का भी हो सकता है। हमारे देश ने भी काफ़ी समय तक अंगरेज़ों की ग़ुलामी का दंश झेला है। देशभक्ति की भावना देशवासियों में जब जागृत हुई तो अपनी जान की परवाह न करते हुए अंगरेज़ों के ख़िलाफ़ आन्दोलन शुरू कर दिया और जैसे जैसे उस आन्दोलन को दबाने के लिए अंगरेज़ों के अत्याचार बढ़ते गए, आन्दोलनकारियों के हौसले भी उतने बुलन्द होते चले गए। इस प्रकार से बहुत सी क़ीमती जानों की क़ुर्बानी देने के बाद हमारा प्यारा देश 15 अगस्त 1947 को अंगरेज़ों के वजूद से पाक होकर स्वतन्त्र हो गया। अतः इस दिन को हम हर वर्ष स्वतन्त्रता दिवस के रूप में मनाते हैं।
देश को दो भागों में बांटकर स्वतन्त्र किया गया और इस प्रकार से पाकिस्तान वजूद में आया। भारत के इतिहास में इससे ज़्यादा ख़ुशी का दिन शायद ही कोई रहा हो। हालांकि पाकिस्तान विशेष रूप से मुसलमानों के लिये भारत में से काटकर बनाया गया था परन्तु भारत में रह रहे मुसलमानों को इस बात की आज़ादी दी गई थी कि जो स्वेच्छा से पाकिस्तान जाना चाहे वह चला जाए और जो भारत में रहना चाहे वह यहीं रहे परन्तु बहुत से मुसलमानों को एक तरफ़ तो साम्प्रदायिक तत्वों द्वारा पलायन करने पर मजबूर किया गया तथा दूसरी तरफ़ रास्ते में अराजक तत्वों से उनकी सुरक्षा का कोई प्रबन्ध नहीं किया गया जिसके नतीजे में लाखों की तादाद में मुसलमानों को अपनी जानें गंवानी पड़ीं। इस प्रकार से आज़ादी की ख़ुशी और स्वजनों की मौत के ग़म के साथ पहला स्वतन्त्रता दिवस मनाया गया। इसी तरह वर्ष पर वर्ष गुज़रते गए और 15 अगस्त 2010 को देश की स्वतन्त्रता का 64वां पर्व आ गया जिसको धूमधाम से मनाने की तैयारियां चल रही हैं। जैसी कि परम्परा रही है उसी के अनुसार इस पर्व पर देश के प्रधानमन्त्री का भाषण होगा जिसमें वह बीते वर्ष की उपलब्धियां गिनवाएंगे और भविष्य की योजनाओं से अवगत कराएंगे।
इन 63 वर्ष के अन्तराल में देश ने क्या खोया और क्या पाया ? इस प्रश्न के उत्तर पर चर्चा करें तो हम आसानी से इस नतीेजे पर पहुंच सकते हैं कि देश की आज़ादी हासिल करने में जिन लोगों ने क़ुर्बानियां दी थीं और पुलिस की बदसलूकी के अलावा जेलों में दिये गए कष्ट झेले थे, वह लोग जब तक सत्ता में रहे तब तक देश का भविष्य उज्जवल होने के लक्षण नज़र आते रहे। उसके बाद के अन्तराल को हम नैतिक मूल्यों के आधार पर दो चरणों में बांट सकते हैं।
पहले चरण में शासन की बागडोर जिन लोगों के हाथों में आई उनमें देश के प्रति तो बेशक प्रेम, लगाव और सेवा भावना थी परन्तु सत्ता प्राप्त करने के लिए उन लोगों नें गुण्डों, बदमाशों और विभिé प्रकार के अपराधी तत्वों का सहारा लेना प्रारम्भ कर दिया था। इस प्रकार से अपराधी वर्ग के लोग किंग-मेकर की हैसियत से समाज के प्रतिष्ठित लोगों में सम्मिलित होने लगे और यहीं से नैतिक पतन आरम्भ हो गया। इसके साथ ही सरकार बनाने में सहायक रहे उन अपराधी वर्ग के लोगों को नाजाइज फायदे पहुंचाकर सन्तुष्ट करना शासक वर्ग की मजबूरी हो गई तथा इस प्रकार से शासक वर्ग द्वारा निर्देशित प्रशासन में भ्रष्टाचार पनपना शुरू हो गया। पुलिस विभाग में अपराधियों की बैठ-उठ शुरू होने से नैतिक मूल्यों में गिरावट लाजमी थी।
दूसरे चरण में देश की राजनैतिक व्यवस्था पर पूर्ण रूप से उन लोगों का क़ब्ज़ा हो गया जो पहले चरण में किंग-मेकर थे। इस प्रकार से अराजकता, भ्रष्टाचार और चरित्रहीनता हमारे देश की राष्ट्रीय पहचान बन गईं। इस समय हमारा देश इसी नाज़ुक दौर से गुज़र रहा है।
ऐसे हालात में भी मायूस होने के बजाय कुछ उपाय करना आवश्यक हो गया है। जिस प्रकार से देश के जागरूक नागरिकों ने देश पर राज करने वाले विदेशियों के पन्जे से देश को आज़ाद करा लिया था उसी प्रकार ऐसे लोगों की एक बार फिर परीक्षा की घड़ी आ गई है जोकि पहले से आसान है।
करना केवल यह है कि जनता में इस बात की जागृति पैदा की जाए कि वह अपने वोट का सही प्रयोग करना सीख ले और भ्रष्ट नेताओं के चंगुल से देश को आज़ाद कराने में सहयोग करे तभी सही आर्थों में स्वतन्त्रता दिवस का पर्व मनाने में एक अजीब क़िस्म के आनन्द की अनुभूति होगी।

Wednesday, August 11, 2010

shaitani chaal शैतानी चंगुल में फंसता समाज sharif khan

पैग़म्बर हज़रत मौहम्मद सल्ल० की शान में गुस्ताख़ी के तौर पर डेनमार्क के एक समाचार पत्र में कार्टून छापने जैसा दुस्साहसिक कार्य अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर मुसलमानों के खिलाफ़ चल रहे विभ्न्नि प्रकार के षडयन्त्रों की श्रंखला की एक कड़ी है। अन्तर्राष्ट्रीय क़ानून के मुताबिक़ जिस देश में कोई जुर्म होता है उसी देश के क़ानून के अनुसार अभियुक्त के खि़लाफ़ कार्यवाही होती है। चूंकि डेनमार्क की सरकार ने इस हरकत को ‘विचारों की अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता‘ का नाम देकर साफ़ तौर पर कह दिया है कि प्रत्येक व्यक्ति को स्वतन्त्र रूप से अपने विचार व्यक्त करने का अघिकार है इसलिये सरकार इसके खि़लाफ़ कोई कार्यवाही नहीं कर सकती। इन परिस्थितियों में ‘विचारों की अभिव्क्ति की स्वतन्त्रता’ की अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर व्याख्या की आवश्यकता है।
बारूद के ढेर पर बैठे हुए संसार की बरबादी के लिये विकृत मनोवृत्ति के व्यक्ति के द्वारा किया गया कोई एक कार्य ही चिंगारी साबित हो सकता है। चाहे वह कार्य किताब के रूप में हो या कार्टून के रूप में हो अथवा किसी धर्मग्रंथ में दिये गए आदेशों, निर्देशों में परिवर्तन की मांग के रूप में हो या फिर किसी समाज की आस्था का ध्यान न रखते हुए उसके द्वारा पूजनीय देवी-देवताओं के अश्लील चित्रों के रूप में हो। इसके साथ एक बात और भी आवश्यक है कि ऐसे समाज दुश्मन लोगों अथवा संस्थाओं के समर्थन में लामबन्द होने वाले लोग भी इस कार्य में बराबर के भागीदार माने जाने चाहिएं और उन पर भी अंकुश लगाने की आवश्यकता है।
अल्लाह के क़ानून के अनुसार इस्लामी हुकूमत में पैग़म्बर सल्ल० की शान में गुस्ताख़ी करने वाले की सज़ा मौत है। सारे भेदभाव भुला कर बुद्धिजीवी वर्ग को चाहिए कि सब मिलकर यू०एन०ओ० जैसी अन्तर्राष्ट्रीय संस्था पर इस बात के लिये दबाव बनाएं कि वह इस बात को सुनिश्चित करे कि किसी भी देश को इस बात की छूट न दी जाए कि वहां का कोई भी नागरिक संविधान का सहारा लेकर ऐसी हरकत कर बैठे जिसके नतीजे में लोगों की भावनाओं, आस्था और विश्वास को ठेस पहुंचे तथा इसके कारण ऐसे हालात पैदा न हो जाएं जिनके नतीजे में लोगों को क़ानून अपने हाथ मे लेने के लिए मजबूर होना पड़े।
हमारे देश में दूसरे क़िस्म की शैतानी चाल चली जा रही है जिसके चंगुल में फंसकर एक बहुत बड़े समाज की आस्थाओं को चोट पहुंचाई जा रही है। उस चाल के अनुसार उस समाज के द्वारा पूजे जाने वाले देवी, देवताओं व अवतारों के चरित्र पर अश्लील टिप्पणियां उसी समाज के किसी व्यक्ति के द्वारा करवा कर परस्पर वैमनस्य के बीज बोए जा रहे हैं। चूंकि टिप्पणी करने वाला व्यक्ति उसी समाज से सम्बन्धित होता है अतः उसके विरोध में कोई आवाज़ नहीं उठती जिसके नतीजे में उन सब अनर्गल बातों को विरोध के अभाव में मान्यता प्राप्त समझ लिया जाता है और फिर यह सब बातें दुष्प्रचार में सहयोगी साबित होती हैं।

Sunday, August 8, 2010

terrorism and its solution दहशतगर्दी और उसका हल sharif khan

मुहज़्जब दुनिया में जंगी क़ायदे के मुताबिक़ आबादी पर हमलाआवर होने को किसी भी क़ौम और मज़हब में उस वक्त तक जायज़ नहीं माना गया है जबतक कि उस आबादी में कोई ख़तरनाक साज़िश तैयार न की जा रही हो लेकिन इन सब क़ायदे क़ानून को बालाए ताक़ रखते हुए दूसरी जंग-ए-अज़ीम में अमेरिका ने जापान के टोकियो शहर पर जो बमबारी की उसके नतीजे में एक रात में 80,000 लोग मारे गए और इसके बाद 6 अगस्त 1945 को अमेरिका ने जापान के एक शहर हिरोशीमा पर एटम बम गिराकर अपनी सफ़्फ़ाकी और दहशतगर्दी का खुला सबूत पेश किया। चन्द सेकिण्डों में एक हंसते खेलते शहर का नामो निशान मिट गया। अब अगर यह कहा जाए कि अमेरिकी ज़ालिमों को एटम बम के नुक़सान का यह अन्दाज़ा नहीं था कि इसके इस्तेमाल से पूरा शहर फ़ना हो जाएगा और अगर पहले से इसके नुक़सान का अन्दाज़ा होता तो शायद वह ऐसी घिनौनी हरकत न करते तो यह कहने की गुन्जाइश अमेरिका के इस अमल से ख़त्म हो जाती है कि इस ज़लील हरकत के तीन रोज़ बाद यानि 9 अगस्त 1945 को जापान के दूसरे शहर नागासाकी पर एक और बम डालकर अमेरिका ने यह साबित कर दिया कि उसके पास सबकुछ है लेकिन इंसानियत नहीं है। यह बात अमेरिकी सद्र फ्रेंकलिन डी. रूज़वेल्ट की मौत के बाद 12 अप्रैल 1945 को अमेरिका के 33वें सद्र के तौर पर कुर्सी सम्भालने वाले हैरी ट्रूमैन के बेशर्मी से लबरेज़ उस बयान से साबित हो जाती है जोकि उसने उन दो शहरों को तबाह करने के बाद दिया था। हैरी ट्रूमैन ने कहा था, ‘‘बम गिराने का यह सिलसिला तब तक जारी रहेगा जब तक जापान जंग से अलग नहीं होता।’’ इसी के साथ यह जान लेना भी ज़रूरी है कि ’’कू क्लक्स क्लेन’’ नाम की दहशतगर्द तन्ज़ीम का हैरी ट्रूमैन सरगर्म कारकुन रहा था। इस तन्ज़ीम का मक़सद काले लोगों को दहशतज़दा करके अमेरिका में वोट देने के हक़ से महरूम करना था। एक साबितशुदा दहशतगर्द को अपने मुल्क के सदर की कुर्सी सौंपकर अमेरिकी अवाम ने भी दहशतगर्दी से अपने लगाव का बखूबी इज़हार कर दिया और इतना ही नहीं बल्कि लाखों लोगों की मौत के ज़िम्मेदार उस शख़्स को 1948 के इन्तख़ाबात में दोबारा सद्र मुन्तख़ब करके खूनी खेल जारी रखे जाने की मुस्तक़बिल की पॉलिसी को अवाम ने हरी झण्डी दिखा दी। इस तरह से अमेरिका के सदर बदल जातेे रहे लेकिन ज़ुल्म व तशद्दुद की पॉलिसी में कोई फ़र्क़ नहीं आया। और इस तरह से सारी दुनिया देखती रही और दुनिया का सबसे बड़ा साबितशुदा दहशतगर्द मुल्क अम्न के नाम पर मुल्क के मुल्क तबाह करता चला गया। मौजूदा सदर बराक ओबामा ने इस पॉलिसी पर अमल करते हुए अमेरिकी फ़ौज को 25 और मुल्कों में भेजने का फ़ैसला किया है और इस तरह से 75 मुल्कों में अमेरिकी फ़ौज की तईनाती हो जाएगी। इससे भी ज़्यादा अफ़सोसनाक बात यह है कि ऐसे इन्सानियत के दुश्मन मुल्क की हिमायत करने वाले ग़ुलाम ज़हनियत के लोगों की भी दुनिया में कमी नहीं है।
इस बात को मद्देनज़र रखते हुए कुछ हक़ायक़ (तथ्यों) पर ग़ौर करना ज़रूरी है।
एटमी हथियार इस्तेमाल करने वाला दुनिया का वाहिद मुल्क अमेरिका है लिहाज़ा मुस्तक़बिल में इनके इस्तेमाल का सबसे ज़्यादा अन्देशा अमेरिका से ही हो सकता है। इसके बावजूद अमेरिका को यह हक़ किसने दे दिया कि वह इस बात को तय करे कि कौन इन हथियारों को बना सकता है और कौन नहीं बना सकता।
कोरिया और वियतनाम में जंग के नाम पर किये गए बेक़ुसूर लोगों के क़त्ले आम के बाद इराक़ और अफ़ग़ानिस्तान की बरबादी और वहां किये जा रहे मज़ालिम का हाल सभी जानते हैं। आप तसव्वुर करके देखिये कि आप घर में बैठे हुए हैं और बग़ैर पाइलैट वाला ड्रोन नाम का जहाज़ आपके घर पर बम डालकर चला जाता है और उसके बाद उस हमले के शिकार होने वाले आप और आपके साथ आपके अहले ख़ाना के मुताल्लिक़ अख़बारात में ख़बर छपती है कि ड्रोन हमले में इतने दहशतगर्द मारे गए।
बात को मुख्तसर करते हुए अगर हम इन सब बातों का तजज़िया करें तो नतीजे के तौर पर कह सकते हैं कि एक साबितशुदा दहशतगर्द मुल्क ‘अमेरिका‘ और उसकी हिमायत में बयान देने वाले दीगर मुमालिक जिन अफ़राद को, तन्ज़ीमों को और क़ौमों (मुमालिक) को दहशतगर्द कहते हैं, वह कुछ भी हों लेकिन दहशतगर्द नहीं हो सकते। सच बात तो यह है कि अमेरिका और उसके गिरोह में शामिल मुमालिक के मज़ालिम का शिकार लोगों को दहशतगर्द कहकर इन्सानियत का मज़ाक़ उड़ाया जा रहा है।
लिहाज़ा दुनिया से दहशतगर्दी का अगर ख़ात्मा करना चाहते हैं तो सबसे पहले दहशतगर्द को दहशतगर्द कहने की हिम्मत जुटाएं वरना इन्सानियत का दावा करना तर्क कर दें।

Friday, August 6, 2010

babri masjid last part बाबरी मस्जिद तथ्यों के प्रकाश में अन्तिम भाग sharif khan

इन तथ्यों का अवलोकन करने का कष्ट करें-
सत्तरहवीं शताब्दी में मुम्बई पर पुर्तगालियों का शासन था। 1662 ई० में जब पुर्तगाल की राजकुमारी केथरीन का विवाह इंग्लैण्ड के राजा चालर्स द्वितीय के साथ हुआ तो मुम्बई पुर्तगालियों के द्वारा अंगरेज़ों को दहेज़ में दे दी गई तथा 1668 में 10 पाउण्ड सोना वार्षिक पर ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने अंगरेज़ सरकार से लीज़ पर ले ली।
30 मार्च 1867 को रूस ने 586000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल का अलास्का प्रदेश अमेरिका को 72 लाख डालर में बेचा था।
इसी प्रकार से हांकांग शहर अंगरेज़ों को 9 जून 1898 को चीन द्वारा 99 वर्ष के लिए लीज़ पर दिया गया था।
यह सब बयान करने का मक़सद इतिहास पढ़ना नहीं है बल्कि यह बतलाना है कि राजशाही में राज्य की समस्त भूमि का मालिक राजा होता था तथा उसको इस बात का पूरा अधिकार होता था कि वह जितना क्षेत्र जब चाहे और जिसको चाहे दे सकता था। मुम्बई की तरह दहेज़ मे दे सकता था, अलास्का की तरह बेच सकता था तथा हांगकांग की तरह पट्टे पर दे रकता था। यह क़ानूनन अगर नाजाइज़ होता तो मुबई को पुर्तगाली वापस ले लेते, अलास्का पर रूस दावेदार होता और हांगकांग 99 वर्ष पूरे होने पर चीन को वापस न मिलता।
हमारे देश में मुग़लों के शासन काल में भूमि से सम्बन्धित जो भी फ़ैसले लिये गए उनको बदलने का औचित्य समझ में नहीं आता। मुग़ल बादशाहों ने मन्दिर भी बनवाए, मन्दिरों के रख रखाव के लिए जायदादें भी दीं, जिनके आज भी मन्दिर मालिक हैं। बाबरी मस्जिद भी मन्दिरों की तरह से, उन धर्मस्थलों में से एक है, जिनका निर्माण मुग़लों के द्वारा कराया गया था।
इन सारे तथ्यों के आधार पर बाबरी मस्जिद को अवैध कहना अन्याय के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। इसके अलावा एक बात यह भी है कि मस्जिद बनाने के लिए भूमि का जाइज़ होना आवश्यक है अतः मस्जिद के लिए भूमि की उपलब्धता इतनी आसान नहीं होती जितनी कि मन्दिर के लिए। क्योंकि मन्दिर तो कहीं भी बनाया जाना सम्भव है चाहे वह पुलिस थाना हो या सार्वजनिक पार्क अथवा किसी से छीनी गई गई भूमि हो।

Wednesday, August 4, 2010

BABRI MASJID-2 बाबरी मस्जिद तथ्यों के प्रकाश में-2 sharif khan

जागरूक बन्धुओं के अवलोकनार्थ कुछ तथ्य प्रतुत किये जा रहे हैं।
1. कक्षा सात में पढ़ने वाली मेरी बेटी ने जिज्ञासावश मुझसे एक सवाल किया कि क्या कारण है कि इतिहास में जब अकबर, शाहजहां, बहादुर शाह आदि किसी मुस्लिम राजा से सम्बन्धित कोई बात कहनी होती है तो इस प्रकार से कही जाती है कि अमुक राजा ऐसा था, ऐसे काम करता था आदि। और यदि शिवाजी, महाराणा प्रताप आदि हिन्दू राजाओं से सम्बन्धित कोई बात होती है तो सम्मानित भाषा का प्रयोग करते हुए इस प्रकार से लिखा जाता है कि वह ऐसे थे, ऐसे कार्य करते थे आदि। मैं बच्ची को जवाब से सन्तुष्ट नहीं कर सका क्योंकि मैं कैसे बतलाता कि लिखने के ढंग से ही जहां पक्षपात की गंध आ रही हो वहां सही तथ्यों पर आधारित इतिहास हमारे समक्ष प्रस्तुत किया गया होगा ऐसा नहीं प्रतीत होता।
2. न्यायपालिका की व्यवस्थानुसार किसी अदालत के द्वारा दिये गए फ़ैसले के ख़िलाफ़ उससे बड़ी अदालत में अपील करने हक़ दिया जाना इस बात को साबित करने के लिए काफ़ी है कि अदालत के फ़ैसले को स्वीकार न करना कोई जुर्म नहीं है। हो सकता है कि यह व्यवस्था जनता को अन्याय से बचाने के लिए रखी गई हो क्योंकि अक्सर ज़िले स्तर की अदालत के फ़ैसले को उच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालय द्वारा दिये गए फ़ैसले को सर्वोच्च न्यायालय बदल देता है। यदि संविधान निर्माताओं ने इससे ऊपर भी अपील की गुन्जाइश रखी होती तो बहुत सम्भव है कि सर्वोच्च न्यायालय के फ़ैसलों में से बहुत से फ़ैसले बदल दिये जाते।
3. न्यायालय प्रस्तुत किये गए साक्ष्यों के आधार पर फ़ैसले देता है लिहाज़ा न्याय, जुटाए गए साक्ष्यों पर, निर्भर होता है। इसका सीधा सा अर्थ यह हुआ कि न्याय साक्ष्य जुटाने वाले विभाग की क्षमता और निष्पक्षता पर आधारित हुआ। उदाहरणार्थ मई 2010 में मुज़फ्फ़रनगर में अजीत व अन्शु नामक प्रेमी-प्रेमिका घर से फ़रार हो गए। इसके बाद पुलिस ने अजीत के घरवालों से ज़बरदस्ती एक लाश की अजीत के रूप में शनाख़्त करा दी और प्रेमी युगल के क़त्ल के जुर्म में प्रेमिका के भाई अनुज को हिरासत में लेकर जुर्म स्वीकार करा लिया। क़त्ल का जुर्म स्वीकार कराने के बाद अनुज को जेल भेजे जाने की कार्रवाई चल ही रही थी कि प्रेमी युगल ज़िन्दा वापस आ गया अतः अनुज को रिहा करना पड़ा। सोचने की बात यह है कि यदि प्रेमी युगल ज़िन्दा वापस न आया होता तो अनुज को जुर्म स्वीकार करने के कारण क़त्ल के अपराध में सज़ा दिया जाना निश्चित था। यदि ऐसा हो गया होता तो अदालत के द्वारा साक्ष्यों के आधार पर सही न्याय किये जाने के बावजूद अन्याय हो जाता तथा इसके नतीजे में फांसी पर चढ़ाए गए बेक़सूर अनुज के सम्बन्धियों का क्या न्याययिक व्यवस्था पर भरोसा क़ायम रह सकता था?
4. फ़र्जी मुठभेड़ में पुलिस के द्वारा किसी को भी मार दिया जाना आजकल सामान्य सी घटना मात्र होकर रह गई है। ऐसे तथ्य भी प्रकाश में आए हैं कि किसी बेक़सूर को मारने के बाद उसको अपराधी साबित करने की प्रक्रिया शुरू होती है।
उपरोक्त तथ्यों के प्रकाश में बाबरी मस्जिद प्रकरण पर निष्पक्षता से ग़ौर करके देखें।
नं. 4 की तरह से क्या मस्जिद को गिराने के बाद उसकी वैधता के साक्ष्य जुटाया जाना हास्यास्पद सा प्रतीत नहीं होता है? चूंकि हमारे देश में प्राचीन काल से मूर्तिपूजा का चलन रहा है अतः किसी भी पुरानी आबादी वाले क्षेत्र में यदि खुदाई करके देखा जाए तो वहां बर्तन आदि आम इस्तेमाल की वस्तुओं के साथ मूर्तियों का निकलना अप्रत्याशित नहीं है।
नं. 1 के अनुसार इतिहास का पक्षपातपूर्ण होना भी कोई ताज्जुब की बात नहीं है।
नं. 3 की तरह से हमारे देश की कार्यपालिका असम्भव को सम्भव बना सकने में कितनी सक्षम है यह बात किसी से भी छिपी हुई नहीं है।
पिछली पोस्ट पर इस लेख के पहले भाग में जो बात कही गई थी उसका रुख़ मोड़कर साम्प्रदायिकता की ओर पहुंचा दिया गया तथा मुख्य भाव से हटकर नए सवालों में उलझा दिया गया। अतः बात को समाप्त करते हुए अन्त में बिना किसी भेदभाव के गौर करने हेतु कुछ बातें प्रस्तुत की जा रही हैं-
22@23 दिसम्बर 1949 की रात को मस्जिद में कुछ अराजक तत्वों के द्वारा चोरों की तरह से प्रशासन की छत्रछाया में मूर्ति रख दी गई।
29 दिसम्बर 1949 को मूर्ति बाहर निकालकर मस्जिद पाक करने के बजाय मस्जिद कुर्क कर ली गई और 5 जनवरी
1950 को मस्जिद की इमारत विवादित बनाकर रिसीवर को सौंप दी गई।
16 जनवरी 1950 को अयोध्यावासी गोपाल सिंह विशारद नामक व्यक्ति के अनुरोध पर सिविल कोर्ट ने नाजाइज़ तरीक़े से रखी गई मूर्ति की पूजा करने की अनुमति देकर न्याय का झण्डा बुलन्द कर दिया।
18 दिसम्बर 1961 को मुस्लिम पक्ष की तरफ़ से मस्जिद का क़ब्ज़ा दिलाए जाने का दावा दाख़िल किया गया।
6 दिसम्बर 1992 को ग़ुण्डागर्दी की इन्तेहा हो गई और मस्जिद को शहीद करके महान देश भारत का सर पूरी दुनिया के सामने शर्म से झुका दिया गया।
7 जनवरी 1993 को एक आर्डीनेन्स के द्वारा उच्च न्यायालय में चल रहे सभी मुक़दमों को निरस्त करके राष्ट्रपति की ओर से उच्चतम न्यायालय से इस सवाल का जवाब मांगा गया कि विवादित भवन के स्थान पर कोई दूसरा धार्मिक निर्माण था या नहीं।
दिसम्बर 1949 से लेकर अब तक के वाकै़आत पर निष्पक्षता से नज़र डालकर देखें तो भारत जैसे धर्मनिरपेक्ष देश में मुसलमानों की स्थिति का सही अन्दाज़ा हो जाएगा।

Friday, July 30, 2010

babri masjid बाबरी मस्जिद तथ्यों के प्रकाश में sharif khan

जब कोई व्यक्ति स्वयं को अल्लाह की ग़ुलामी में समर्पित कर देता है तो उसको मुस्लिम कहते हैं। अल्लाह ने अपने ग़ुलामों की रहनुमाई के लिये क़ुरआन भेजा और उसको समझाने व उसके अनुसार जीवन गुज़ारकर दिखाने हेतु अपने दूत के रूप में हज़रत मुहममद सल्ल० को नबी बनाकर भेजा। नबी के द्वारा किये गए कार्यों को सुन्नत तथा उनके द्वारा कही गई बातों को हदीस कहते हैं लिहाज़ा हर मुसलमान इस बात के लिये बाध्य हो गया कि वह केवल क़ुरआन और हदीस के मुताबिक़ ही अपना जीवन गुज़ारे। अल्लाह की इबादत के लिये मस्जिद बनाई जाती है जिसके लिये जो नियम बनाए गए हैं उनके अनुसार यह आवश्यक है कि मस्जिद की जगह ख़रीदी गई हो या किसी मुसलमान द्वारा स्वेच्छा से दी गई हो अथवा सरकार द्वारा उपलब्ध कराई गई हो। किसी नाजाइज़ जगह पर बनाई गई मस्जिद में नमाज़ नहीं पढ़ी जा सकती इसीलिए न तो पुलिस थानों में मस्जिद बनाने की मांग की जाती है न सार्वजनिक स्थलों को घेरकर और न ही पार्क आदि में मस्जिदों का निर्माण होता है।
चूंकि हर मुसलमान इन बातों के साथ इस बात से भी वाक़िफ़ है कि अवैध स्थान पर बनी हुई मस्जिद में पढ़ी गई नमाज़ अल्लाह के यहां क़ुबूल नहीं होती लिहाज़ा किसी मस्जिद में लगातार नमाज़ पढ़ा जाना ही मस्जिद की वैधता को साबित करने के लिये काफ़ी है। बाबरी मस्जिद में लगातार नमाज़ पढ़ी जाती रही परन्तु 22@23 दिसम्बर 1949 की रात में इशा की नमाज़ के बाद जब सब लोग चले गए तब मस्जिद के अन्दर मूर्ति रख दी गई और सुबह को जब फजर की अज़ान देने के लिये मुअजि़जन आया तो मस्जिद में मूर्ति देखकर इमाम साहब को इस बात की सूचना देने के लिये वापस लौट गया। इसके बाद इस बात की कोतवाली में एफ़.आई.आर. दर्ज कराई गई। इसके बाद के तथ्यों पर ग़ौर करके देखें तो भारत में लोकतन्त्र के चारों स्तम्भों के खोखलेपन का अन्दाज़ा आसानी से हो जाएगा।
1. यह कि, मस्जिद में मूर्ति रखे जाने की शिकायत को दूर करने का कार्य कोतवाल के अधिकार क्षेत्र में ही आता था लिहाज़ा यदि साज़िश के तहत यह कार्य न किया गया होता तो मस्जिद में से मूर्ति निकलवाकर मस्जिद को पाक करने में कोतवाल के सक्षम होने के बावजूद उसके द्वारा यह कार्य न किया जाना साज़िश साबित करता है।
2. यह कि, के.के. नैयर, जो उस समय वहां का डी.एम. था, ने वहां आकर इमाम साहब व दूसरे मुसलमानों से कहा कि दो तीन सप्ताह ठहर जाइये जांच करके मामले को सुलझा दिया जाएगा तब तक कोई मुसलमान मस्जिद से 100 मीटर दायरे के अन्दर न आए। इस प्रकार से मामले को उलझा दिया गया और इस घिनौने कार्य के बदले इनाम के तौर पर इसी डी.एम. को जनसंघ पार्टी से एम.पी. बनवाया गया। डी.एम. का इस साज़िश में शामिल होना मूर्ति रखने वाले महन्त रामसेवक दास के मीडिया के सामने दिये गए इस बयान से साबित हो जाता है कि ‘‘मुझसे तो मूर्ति रखने के लिये नैयर साहब ने कहा था।‘‘
3. यह कि, मामला तो केवल मूर्ति निकलवाने का था न कि मस्जिद की वैधता को साबित करना परन्तु सबके देखते देखते मस्जिद को ढांचा कहा जाने लगा और मन्दिर की दावेदारी को स्वीकृति देने की राह हमवार की जाने लगी।
4. यह कि, मस्जिद की जगह पर कराये जाने वाले मन्दिर निर्माण की साज़िश के सहयोगियों में अपना नाम दर्ज करवाने हेतु राजीव गांधी द्वारा मस्जिद का ताला खुलवा दिया गया। और बाक़ी काम भा.ज.पा. के लिये छोड़ दिया गया।
5. यह कि, ताला खुलने के बाद देश में आतंकवाद का दौर शुरू हुआ जिसको सफल बनाने का बीड़ा भा.ज.पा. ने उठाया और उसके नेताओं ने इस काम को निहायत ईमानदारी से पूरा भी किया। मुसलमानों को आतंकित करने के लिये हर प्रकार के हथकण्डे अपनाए गए। एक नारा लगाया कि, ‘‘यह अन्दर की बात है प्रशासन हमारे साथ है‘‘ और प्रशासन ने पुलिस की सुरक्षा में इस प्रकार के नारे लगाते हुए जलूसों को आज़ादी से निकलवाया और मीडिया ने प्रचारित किया। लाल कृष्ण अडवानी ने रथ यात्रा निकाल कर पूरे देश के वातावरण को साम्प्रदायिकता की गन्दगी से दूषित कर दिया। ज़्यादा तफ़सील में जाने की ज़रूरत इसलिये नहीं है क्योंकि पूरा देश इसका गवाह है।
6. यह कि, चूंकि क़ानून हाथ में लेकर किसी इमारत को तोड़ डालने वाले को ग़ुण्डा कहते हैं इसलिये हम भी इस शब्द का इस्तेमाल करते हुए कहते हैं कि दो लाख ग़ुण्डों ने इकट्ठा होकर मस्जिद को शहीद करके ताला खुलवाने के बाद राजीव गांधी द्वारा सौंपे गए काम को पूरा कर दिया और देश का प्रधानमन्त्री टी.वी. पर इस कार्रवाई को देखता रहा। उस समय के माहौल का अन्दाज़ा करने के लिये सिर्फ़ इतना कहना ही काफ़ी है कि देश में रह रहे 20 करोड़ मुसलमानों की मौजूदगी में यह घिनौना कार्य होना तब तक सन्भव नहीं था जब तक कि उनको आतंकित न कर दिया गया होता। इस पूरी कार्रवाई को अन्जाम देने में केन्द्रीय सरकार, प्रदेश सरकार व प्रशासन का पूरा सहयोग रहा।
इसके बाद के हालात भी सब जानते हैं कि भा.ज.पा. के द्वारा किये गए इस घिनौने कार्य के इनाम के रूप में उसकी केन्द्र में सरकार बनवाकर हमारे देश के आदर्शवादी कहलाए जाने वाले समाज ने आतंकवाद में अपनी आस्था भलीभांति साबित कर दी। न्यायालय में चल रहे मुक़दमे के दौरान एक पक्ष के यह कहने,‘‘अदालत का फ़ैसला कुछ भी हो मन्दिर यहीं बनेगा‘‘ में न्यायालय की अवमानना किसी को भी नज़र न आई।
पवित्र क़ुरआन के 72 वें अध्याय की 18 वीं आयत में अल्लाह तआला फ़रमाता है, अनुवाद, और यह मस्जिदें अल्लाह ही के लिए ख़ास हैं अतः इनमें अल्लाह के साथ किसी और को न पुकारो‘‘ इस प्रकार से चाहे तो बाबरी मस्जिद एक्शन कमैटी हो या फिर कोई दूसरी संस्था हो, यदि वह मस्जिद जहां थी और जितनी थी उसी के मुताबिक़ उसको को दोबारा वहीं तामीर करा सकें तो ठीक है वरना इसके अतिरिक्त किसी भी प्रकार का समझौता करने का हक़ किसी को भी नहीं है। लिहाज़ा चाहे ज़बरदस्ती या किसी क़ानून का सहारा लेकर यदि मस्जिद के स्थान पर कुछ और तामीर हुआ तो मुसलमानों को चाहिए कि उसको तस्लीम न करके यह समझ कर धैर्य रखें कि देश में जहां बहुत से मुसलमानों को क़त्ल करके शहीद किया जा रहा है वहां मस्जिद भी शहीद कर दी गई।

Tuesday, July 27, 2010

swarg nark स्वर्ग और नर्क sharif khan

एक सज्जन अमेरिका में रहने वाले अपने बड़े भाई से मिलकर लौटे हैं और आजकल जहां भी जाते हैं यही चाहते हैं कि लोगों को अपने संस्मरण सुनाकर गौरवान्वित होते रहें। वहां का गुणगान वह कुछ इस अन्दाज़ में करते हैं जैसे कि स्वर्ग से लौटकर आये हों और नर्कवासियों को वहां के हालात से परिचित करा रहे हों। कुछ दोस्तों की एक महफ़िल में यह सज्जन मिले और वार्तालाप को अपने कब्जे में लेते हुए कहने लगे कि अगर स्वर्ग देखना है तो अमेरिका देख लो। उनके बात आगे बढ़ाने पहले ही मैंने कहा कि यदि नर्क देखना है तो अमेरिका को देख लो। जैसा मैं चाहता था, उसी के अनुसार प्रभाव पड़ा तथा लोग मेरी ओर आकर्षित होकर मेरी बात सुनने आमादा हो गए जो इस प्रकार थी।
हमारे पूर्वजों ने हज़ारों वर्षों में जिस प्रकार के समाज का निर्माण किया उसकी बुनियाद है वैवाहिक व्यवस्था। हमारे समाज ने बिना विवाह किये हुए किसी महिला के परपुरुष के साथ रहने को अथवा सम्बन्ध बनाने को कभी मान्यता नहीं दी तथा इस कार्य को व्याभिचार कहा गया है। इस प्रकार के सम्बन्ध बनाने वाले लोगों को सदैव ही धिक्कारा गया है तथा ऐसी महिलाओं को रखैल व इस सम्बन्ध के नतीजे में जन्मे बच्चों के लिये हरामी शब्दों का प्रयोग किया जाता है तथा इन शब्दों को गालियों के रूप में इस्तेमाल किया जाना ही यह साबित करने के लिये काफ़ी है कि सभ्य समाज में यह बात नाक़ाबिले माफ़ी अपराध है।
इस प्रकार के शब्दों का अपनी भाषा में प्रयोग मुझे शर्मसार कर रहा है जिसके लिये मैं क्षमा प्रार्थी हूं।
अमेरिकी सामाजिक परिवेश पर यदि नज़र डाली जाए तो हम देखते हैं कि वहां आधे से ज़्यादा युवतियां शादी से पहले मां बन जाती हैं और उसके बाद तय किया जाता है कि विवाह किया जाए या ऐसे ही साथ रहते रहें और यदि विवाह करना हो तो क्या बच्चों के बाप से किया जाए अथवा किसी दूसरे व्यक्ति से। इससे भी ज़्यादा अफ़सोसनाक बात यह है कि वहां के समाज ने इसे मान्यता दी हुई है। ऐसे घिनौने समाज का गुणगान करते हुए उसकी स्वर्ग से उपमा देने वाले सज्जन की बात के जवाब में यदि उसको नर्क कहा जाए तो किसी भी प्रकार से अनुचित न होगा।
हमारे देश में गर्ल फ्रेण्ड व बॉय फ्रेण्ड का चलन तो टी.वी. और फ़िल्मों के माध्यम से आरम्भ होकर व्याभिचार के द्वार खोल ही चुका है और दूसरी ओर लोकतन्त्र के चारों स्तम्भों विधायिका, न्यायपालिका, कार्यपालिका तथा मीडिया में ऐसे तत्व मौजूद हैं जो इस कार्य को क़ानून की सहायता से आगे बढ़ाते हुए अमेरिका के मानिन्द हमारे समाज का भी जनाज़ा निकालने की कोशिश में लगे हुए हैं।
ब्लॉगर बिरादरी से मेरा अनुरोध है कि यदि समाज को पतन की राह पर जाते हुए महसूस कर रहे हैं तो, बजाय ख़ामोश तमाशाई बनने के, समाज के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी को समझें और सारे भेदभाव भुलाकर इस मुद्दे को एक कॉमन प्रोग्राम की तरह से उठाने की कार्ययोजना तैयार करने में सहयोग करें वरना वह दिन दूर नहीं जब हमारा प्यारा देश भी अमेरिका की तरह से रखैलों और हरामी बच्चों के देश के रूप में पहचाना जाने लगेगा।

Saturday, July 24, 2010

poverty and its solution भूख और उसका समाधान sharif khan

महाभारत का युद्ध समाप्त होने के पश्चात् कौरवों की मां गान्धारी अपने सभी सौ पुत्रों के मारे जाने के समाचार से आहत होकर युद्ध क्षेत्र का अवलोकन करने पहुंची और जब अपने एक पुत्र के शव को पड़े देखा तो बिलखकर रोने लगी। इस मन्ज़र को देखकर वहां उपस्थित लोगों के हृदय भी द्रवित हो गए परन्तु इसके पश्चात् जब उसका एक के बाद दूसरे और दूसरे के बाद तीसरे शव से लिपटकर रोने का क्रम जारी हुआ तो इस हृदय विदारक दृश्य ने सभी उपस्थित जनों को विचलित कर दिया। वहां उपस्थित लोगों के आग्रह पर श्री कृष्ण ने इस शोकपूर्ण वातावरण को बदलने का उपाय इस प्रकार से किया कि गान्धारी को भूख का एहसास करा दिया। इस प्रकार वह भूख से इतनी विचलित हुई कि अपने पुत्रों की मृत्यु के दुःख को भूलकर पेट की भूख मिटाने का उपाय सोचने लगी। चारों ओर नजर दौड़ाने पर एक बेरी का वृक्ष दिखाई पड़ा जिसपर एक बेर लगा हुआ था। अपनी क्षुधापूर्ति हेतु गान्धारी ने उस बेर को तोड़ने का प्रयास किया परन्तु वहां तक हाथ न पहुंच पाया। हाथ बेर तक पहुंचे, इसके लिए जो तरकीब अपनाई गई उसका वर्णन रोंगटे खड़े करने देने वाला तो है ही साथ ही उससे यह भी ज़ाहिर होता है कि भूख से जो पीड़ा उत्पन्न होती है वह सारे दुःखों पर भारी है। वर्णन कुछ इस प्रकार है
जब बेर तोड़ने के लिये गान्धारी का हाथ वहां तक नहीं पहुंच पाया तो नीचे ज़मीन पर पड़े हुए अपने एक पुत्र के शव को पेड़ के नीचे तक खींच कर लाई और उस पर चढ़कर प्रयास किया परन्तु हाथ फिर भी बेर तक न पहुंच पाया। फिर दूसरे पुत्र का शव खींच कर लाई और उसको पहले पुत्र के शव के ऊपर रखा परन्तु फिर भी सफल न हो पाई। चूंकि वहां आस पास उसी के पुत्रों के शव पड़े थे इसलिये वह उन्हीं को एक के बाद एक लाती रही और बेर तोड़ने का प्रयास करती रही। इस दिल हिला देने वाली घटना के बाद भूख को गान्धारी ने इस प्रकार से बयान किया है
वसुदेव जरा कष्टम् कष्टम दरिद्र जीवनम्।
पुत्रशोक महाकष्टम् कष्टातिकष्टम परमाक्षुधा।।
अर्थात् हे कृष्ण! बुढ़ापा स्वयं में एक कष्ट है। ग़रीबी उससे भी बड़ा कष्ट है। पुत्र का शोक महा कष्ट है परन्तु इन्तहा दर्जे की भूख सारे कष्टों से भी बड़ा कष्ट है। ध्यान रहे गान्धारी ने स्वयं यह सारे कष्ट झेले थे।
हज़रत उमर (रजि०) ने ख़लीफ़ा बनने के बाद यह फ़रमाया था कि अगर एक बकरी भी भूख से मरती है तो उसका ज़िम्मेदार मैं होऊंगा। शायद इन्हीं विशेषताओं को ध्यान में रखकर देश के आज़ाद होने के बाद गांधीजी ने आम सभा में फ़रमाया था कि मैं हिन्दोस्तान में हज़रत उमर जैसी शासन व्यवस्था चाहता हूं। असहनीय भूख तो कष्टकारी होती ही है। आप कल्पना करके देखिये कि भूख से जो मौतें होती हैं वह कितनी पीड़ादायक होती होंगी। शायद पुलिस हिरासत में होने वाली मौतों से भी ज़्यादा भयानक होती हों।
हमारे देश के विधायक और सांसद यदि देश सेवा का संकल्प लेकर राजनीति में आए हैं तो एक साधारण क्लर्क के बराबर वेतन के बदले देश सेवा करें। इस प्रकार से उनको मिलने वाले वेतन व भत्ते आदि से होने वाली बचत ही इतनी हो जाएगी कि उसको यदि ग़रीबों पर ख़र्च किया गया तो हमारे देश से भूख के विदा होने में देर नहीं लगेगी।

Wednesday, July 21, 2010

muslims and media भारत में मुसलमानों की छवि और मीडिया का चरित्र sharif khan

भारत आबादी के ऐतबार से दुनिया का सबसे बड़ा लोकतान्त्रिक देश है। विधायिका, न्यायपालिका, कार्यपालिका एवं मीडिया (पत्रकारिता) लोकतन्त्र के चार स्तम्भ माने जाते हैं। आज के युग में चतुर्थ स्तम्भ (मीडिया) का तो प्रत्येक क्षेत्र में इतना अधिक महत्त्व हो गया है कि इसके बिना देश का लोकतान्त्रिक ढांचा क़ायम रह पाना असम्भव प्रतीत होता है। समाचार पत्र व पत्रिकाएं उन खिड़कियों के समान है जिनके द्वारा देश की आन्तरिक स्थिति का बाहर से तथा वाह्य स्थिति का अन्दर से अवलोकन किया जा सकता है तथा यदि मीडिया को देश की आंखें व कान कहा जाए तो अतिश्योक्ति न होगी। अतः मीडिया रूपी आंखों व कानों का स्वस्थ होना अति आवश्यक है। जिस प्रकार बीमार आंखों से कभी एक के दो दिखाई देते हैं और कभी सब कुछ अस्पष्ट दिखाई देता है तथा रोगग्रस्त कानों से सत्यता का ज्ञान होना कठिन है उसी प्रकार यदि मीडिया निर्भीक, निष्पक्ष तथा स्पष्टवादी न होकर पूर्वाग्रह जैसे रोग से ग्रसित हो तो उसके द्वारा समाज की विचारधारा को ग़लत राह पर मोड़ दिये जाने की आशंका से इंकार नहीं किया जा सकता है।
देश के स्वतन्त्रता संग्राम में भारत की पत्रकारिता ने जो शानदार भूमिका निभाई वह सर्वविदित है। स्वतन्त्रता सेनानियों के दिलों में देशभक्ति की भावना जागृत करने तथा आवश्यकता पड़ने पर देश के लिए अपने प्राण तक न्योछावर कर देने की लालसा पैदा करने में मीडिया की भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता। इसी प्रकार यदि मीडिया गुजरात के जंगल राज से देश की जनता को अवगत न कराती तो वहां मुसलमानों के ऊपर किये गए ज़ुल्म, लूट व हज़ारों लोगों के क़त्ल से दुनिया के लोग अनभिज्ञ ही रहते। 1984 में प्रधानमन्त्री श्रीमति इन्दिरा गांधी की हत्या के बाद सिखों पर जो अत्याचार हुए तथा हज़ारों बेकसूर सिखों की हत्या कर दी गई, इसका जिस निर्भीकता और निष्पक्षता से वर्णन किया गया उसके लिए मीडिया निःसंकोच तारीफ़ के क़ाबिल है। इसी प्रकार चाहे नेताओं के द्वारा किये गए घोटाले हों, भ्रष्टाचारियों के काले करतूत हों अथवा पुलिस की हैवानियत के मानवता को कलंकित करने वाले कारनामे हों, आदि के बारे में जनता को भलीभांति परिचित कराने का श्रेय मीडिया को ही जाता है।
मीडिया से जुड़े हुए व्यक्तियों का खोजी स्वभाव का होना तो आवश्यक है ही परन्तु इसके साथ यदि उनमें सत्यता, निष्पक्षता तथा निर्भीकता के गुण नहीं हैं तो उसका नतीजा बहुत बुरा निकलता है। अफ़सोस की बात यह है कि पिछले कुछ समय से कुछ ऐसे तत्वों का मीडिया में प्रवेश होता जा रहा है जिनमें सत्यता को जानने और निष्पक्षता से कार्य करने की भावना का अभाव है। बल्कि यह कहना अनुचित न होगा कि इस प्रकार के व्यक्ति हर घटना को साम्प्रदायिकता के चश्मे से देखने के आदी हो गए है। और ऐसा प्रतीत होता है कि मुख्यतः मुसलमानों के खिलाफ़ तो एक संगठित अभियान के रूप में इस षडयन्त्र पर कार्य किया जा रहा है।
अब कुछ ऐसे संगठन पैदा हो गए हैं जिनका मकसद देश में साम्प्रदायिकता फैलाकर आपसी भाईचारे को समाप्त करना है चाहे इस कार्य के लिए उनको कितना ही घिनौना कार्य करना पड़े। समाज को हिन्दू और ग़ैर-हिन्दू दो भागों में बांटने की नापाक कोशिश की जा रही है। ऐसे अराजक तत्वों ने गैर-हिन्दुओं (मुसलमान, ईसाई आदि) के अधिकारों का हनन ही हिन्दुत्व की परिभाषा मान लिया है। इसी मानसिकता के लोगों का वर्चस्व होने के कारण उनके इस कार्य में मीडिया भी बराबर की भागीदार प्रतीत होती है। देशहित के विरुद्ध किये जा रहे इस घृणित कार्य के इतनी त्वरित गति से होने के पीछे पुलिस का सहयोग भी अपने स्थान पर विशेष महत्त्व रखता है।
ग़ैर-हिन्दुओं में मुसलमान सबसे बड़ा अल्पसंख्यक वर्ग है जिसकी छवि को धूमिल करने की ज़िम्मेदारी मीडिया ने अपने ऊपर ले रखी है जिसको वह बड़ी तत्परता से निभा रही है। देश में कहीं भी कोई आतंकवादी घटना यदि घटती है तो उसकी ज़िम्मेदारी मुसलमानों पर थोप दी जाती है। पुलिस फर्जी मुठभेड़ दिखाकर कुछ बेक़सूर मुसलमानों को मार देती है और कुछ को फ़रार दिखाकर कुछ और बेक़सूरों को मारने के लिए रास्ता खोले रखती है। यदि मीडिया ऐसे मामलों में निष्पक्षता से काम ले तो पुलिस के क्रूर हाथों से बेक़सूर मुसलिम नौजवान न मारे जाएं। मीडिया की मुसलमानों के प्रति दुर्भावना को सिद्ध करने के लिए बहुत से उदाहरण दिये जा सकते हैं।
यह मीडिया का ही कमाल है कि अबुल बशर नाम के एक ऐसे आलिम को, जो मोबाइल का प्रयोग तो दूर साइकिल तक चलाना तक न जानता हो, को तो आतंकवादियों के मास्टर माइण्ड के रूप में जनता के सामने पेश किया गया तथा इण्टरनेट का प्रयोग करने वाली, मोटरसाइकिल आदि चलाने वाली, बात बात में मुसलमानों के खिलाफ़ विषवमन करने वाली और रिवाल्वर से लेकर ए.के. 47 तक का प्रयोग करना जानने वाली प्रज्ञा सिंह को साध्वी के रूप में महिमामण्डित किये जाने में तनिक भी संकोच न किया गया।
सबसे ज्यादा अफ़सोसनाक बात यह है कि आर. एस. एस. के हिन्दुत्व वाली विचारधारा के लोगों की जो पौध तैयार की गई थी उसने अब परिपक्व होकर लगभग प्रत्येक राजनैतिक दल में तथा कुछ हद तक मीडिया में अपनी जड़ें जमा ली हैं जिसके नतीजे में देश की आज़ादी में हज़ारों जानें क़ुर्बान करने वाले मुस्लिम समाज को आतंकवादी दल का रूप देकर कलंकित करने में तनिक भी संकोच नहीं किया जाता है।
मुसलमानों की छवि धूमिल करने के इस अभियान में मीडिया काफी हद तक सफल रही है जिसके परिणामस्वरूप मुसलमानों को आतंक का पर्याय बना दिया गया है जोकि देशहित के पूर्ण रूप से खिलाफ़ है।

Tuesday, July 20, 2010

कटु सत्य sharif khan

अरबी भाषा का एक शब्द है ‘उलू‘ जिसका अर्थ है बुलन्दी, ऊंचाई, महानता।
इसी प्रकार से एक शब्द है ‘दुनू‘ जिसका अर्थ है पस्ती, गिरावट, निम्नता।
उलू से बना आला जिसका अर्थ हुआ महान या ऊंचा
और दुनू से बना अदना जिसका अर्थ हुआ निम्न या नीचा।
आला शब्द का स्त्रीलिंग होता है उलिया
अतः जिस प्रकार से हम किसी महापुरुष के लिये कहते हैं आला हज़रत .....
उसी प्रकार से किसी महान महिला के लिये कहेंगे उलिया हतज़रत ........
इसी के अनुसार अदना शब्द का स्त्रीलिंग होता है दुनिया अर्थात् निम्नतम श्रेणी से सम्बन्धित चीज़ के लिये दुनिया शब्द बनता है।
अल्लाह ने पूरी कायनात (ब्रह्माण्ड) में सबसे बेहतर (आला) इन्सान को बनाया है। और उसको निम्नतम श्रेणी से सम्बन्धित स्थान अर्थात् दुनिया में भेजा। इसके साथ ही अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए दुनिया से विदा होने पर मनुष्य की जो स्थिति होती है उसको उदाहरण के तौर पर समझाने हेतु हम कह सकते हें कि सफ़ेद कपड़े पहनाकर यदि कुछ लोगों को कोयलों की कोठरी में से होकर गुज़ारने के बाद उनका अवलोकन करें तो हम देखेंगे कि किसी व्यक्ति के कपड़ों पर कम दाग़ होंगे, किसी के कपडों पर अधिक होंगे, कुछ के कपड़े ऐसे होंगे कि रंग का पता ही न चलेगा और उनमें जो उत्तम श्रेणी के लोग होंगे उनके कपड़ों पर कोई दाग़ न होगा और वही कामयाब कहलाने के हक़दार होंगे। इन्हीं सब बातों को ध्यान नें रखते हुए हमको अपने जीवन का मक़सद समझना चाहिए और कोशिश करनी चाहिए कि इस दुनिया से विदा होते समय हमारा दामन दाग़दार न हो।

Monday, July 19, 2010

कर्ज़न के गधे by-sharif khan

अंगरेज़ों के राज में भारत के वायसराय लार्ड कर्ज़न जब अपने देश वापस जाने लगे तो परम्परानुसार उन्होंने लोगों को उनकी हैसियत और ख़िदमत के मुताबिक़ पुरस्कार आदि दिये। जैसी कि एक कहावत है कि, ‘‘दिल का रास्ता पेट से होकर जाता है‘‘ के मुताबिक़ सबसे ज़्यादा जिस व्यक्ति से वह खुश थे वह था उनका बावर्ची (रसोइया) लिहाज़ा उसको उसी की इच्छानुसार इनाम देने के लिये उससे कहा कि चूंकि तुमने हमारी बहुत सेवा की है और बहुत लज़ीज़ खाने खिलाए हैं इसलिए हम चाहते हैं कि तुम जो मांगना चाहो वह हमसे मांग लो। यह सुनकर बावर्ची ने कहा कि सरकार आपने सदैव मेरा ख़याल रखा है इसलिए मुझे जो कुछ आप देंगे उस से बेहतर मेरे लिए कुछ नहीं हो सकता लेकिन जब उससे दोबारा उसकी इच्छा पूछी गई तो उसने कहा कि हुज़ूर मेरा बेटा पढ़ने में कमज़ोर होने के कारण हाई स्कूल में फ़ेल हो गया है। यदि आप मुझे कुछ देना ही चाहते हैं तो मेरे बेटे को कलक्टर बना दीजिए। और इस प्रकार से उस बावर्ची का हाई स्कूल फ़ेल पुत्र कलक्टर बना दिया गया। ऐसे विशिष्ट पद उपरोक्त पाविारिक पृष्ठभूमि व शैक्षिक योग्यता वाले व्यक्ति के को सौंपा जाना एक अजूबा था और अजूबा ही साबित भी हुआ क्योंकि उसने अपने स्तर के अनुसार ऐसे अनाप शनाप काम किये कि जल्दी ही उसके ख़िलाफ़ शिकायतों की एक पूरी फ़ाइल तैयार हो गई परन्तु उसके ख़िलाफ़ कार्रवाई करने में कोई भी सक्षम नहीं था। अन्त में उसके ख़िलाफ़ तैयार की गई फ़ाइल को लार्ड कर्ज़न के अवलोकनार्थ इस टिप्पणी के साथ इंग्लैण्ड भेजा गया कि कृपया अपने इस गधे के कारनामों पर विचार करके निर्देश देने का कष्ट करें।
जवाब में लार्ड कर्ज़न ने लिखा कि भारत में बहुत सारे गधे पल रहे हैं उनके साथ यदि मेरा भी एक गधा परवरिश पाता रहेगा तो देश का बहुत ज़्यादा अहित न होगा।
उपरोक्त कथन चाहे सच पर आधारित न हो परन्तु यदि हम बारीकी से देखें तो क्या प्रत्येक क्षेत्र में कर्ज़न के गधे मौजूद नहीं हैं? पुलिस हो चाहे प्रशासन हो, ऐसे अजीब फ़ैसले लिये जाते हैं कि सुनकर हैरानी होती है। पुलिस हिरासत में मौत (क़त्ल), फ़र्जी मुठभेड़ के द्वारा क़त्ल और आला अधिकारियों के द्वारा इस प्रकार के अपराधियों का पक्ष लेना आदि वारदातों की बाढ़ सी आई हुई है और ऐसे नरपिशाचों की सरपरस्ती करने के लिये देश में ही बहुत सारे कर्ज़न मौजूद हैं। बुद्धिजीवी वर्ग इस ओर भी ध्यान देकर यदि कुछ समाधान निकाल सके तो देशहित में योगदान होगा।

Saturday, July 17, 2010

holy books are respectable पवित्र ग्रन्थ की ग़लत व्याख्या करना मानसिक दिवालियापन sharif khan

स्वतन्त्र भारत में देश के संविधान ने विचारों की अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता बेशक दी है परन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि किसी भी धर्म और आस्थाओं के खि़लाफ़ कोई भी ऐसी टिप्पणी या अनर्गल बात कही जाए जिससे लोगों की भावनाओं को ठेस पहुंचने का अन्देशा हो। बंगलादेश की कुख्यात लेखिका ‘तस्लीमा नसरीन’ ने एक अंग्रेज़ी अख़बार में पवित्र क़ुरआन की ग़लत व्याख्या देकर अपनी जहालत और इस्लाम दुश्मनी का सबूत पेश किया है। उदाहरण के तौर पर क़ुरआन के हवाले से वह कहती हैं कि सूर्य पृथ्वी के चारों ओर चक्कर लगा रहा है, जबकि पृथ्वी पहाड़ों की मदद से अपनी जगह रुकी हुई है। हालांकि क़ुरआन में ऐसा कुछ भी नहीं लिखा। क़ुरआन की ग़लत व्याख्या करके लेखिका का मक़सद शायद यह साबित करना रहा हो कि सृष्टि की रचना करने वाले अल्लाह को ऐसे सामान्य से तथ्यों का भी ज्ञान नहीं है जिनको एक हाई स्कूल का छात्र भी जानता है। इसी लिये हम सभी को पैदा करने वाले की पवित्र किताब में ग़लती निकालने के बजाय उसकी आयतों का सही मतलब जान लिया गया होता तो उपरोक्त लेखिका का मानसिक दिवालियापन ज़ाहिर न होता।
पवित्र क़ुरआन के 36वें अध्याय की 38वीं आयत में अल्लाह फ़रमाता है कि ‘‘और सूरज अपने ठिकाने की ओर जा रहा है।’’ इससे सूर्य का पृथ्वी के चारों ओर चक्कर लगाना कहीं भी साबित नहीं होता। एन्साइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका में ‘सन’ की व्याख्या में यह लिखा है कि सौरमण्डल 20 किलोमीटर प्रति सेकिण्ड के वेग से चल रहा है। अर्थात सूर्य अपने ग्रहों सहित उपरोक्त वेग से चल रहा है। यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि पवित्र कु़रआन में यह बात उस समय कही गई थी जब यह माना जाता था कि पृथ्वी ब्रह्माण्ड का केन्द्र है और चांद सूरज आदि सब उसके चक्कर लगा रहे हैं। फिर यह माना जाने लगा कि सूर्य एक जगह रुका हुआ है और पृथ्वी उसके चक्कर लगा रही है। इस प्रकार से जैसे जैसे मनुष्य के ज्ञान में वृद्धि होती गई उसी के अनुसार वह उन तथ्यों से अवगत होता गया जिनसे पहले अनभिज्ञ था। परन्तु क़ुरआन तो जैसा प्रारम्भ में था वह ही आज है और हमेशा ऐसा ही रहेगा।
इसके बाद वह लिखती हैं कि क़ुरआन में महिलाओं को ग़ुलाम तथा कामवासना को शान्त करने का साधन मात्र कहा गया है।
इस संदर्भ में पवित्र क़ुरआन की दो आयतों का हवाला देना ही पर्याप्त होगा। दूसरे अध्याय की 187वीं आयत में पति-पत्नि के आपसी सम्बन्ध के सिलसिले में अल्लाह फ़रमाता है कि ‘‘वह तुम्हारी लिबास हैं और तुम उनके लिबास हो।’’ इन थोड़े से शब्दों में बहुत कुछ कह दिया गया है। अर्थात जिस प्रकार लिबास शरीर की सुरक्षा करता है, उसी प्रकार पति-पत्नि एक दूसरे की सुरक्षा करें। और शरीर के लिए जिस प्रकार से लिबास सौन्दर्य का साधन होता है, उसी प्रकार से पति-पत्नि भी एक दूसरे की ज़ीनत बनकर रहें तथा जिस प्रकार जिस्म और लिबास के बीच कोई पर्दा नहीं होता, उसी प्रकार पति-पत्नि के बीच कोई पर्दा नहीं होता। यदि महिलाओं को ग़ुलाम समझा गया होता तो क्या उनमें परस्पर जिस्म और लिबास का सम्बन्ध क़ायम करने की बात कही जा सकती थी। इसी प्रकार पवित्र क़ुरआन के अध्याय चार की 34वीं आयत में अल्लाह फ़रमाता है कि मर्द औरतों पर क़व्वाम हैं, इस बिना पर कि अल्लाह ने उनमें से एक को दूसरे पर फ़ज़ीलत दी है।’’ जैसा कि सभी जानते हैं कि शारीरिक दृष्टि से तथा धैर्यवान होने आदि अनेक बातों में मर्द औरत की तुलना में बेहतर और मज़बूत होता है इसीलिए अल्लाह ने मर्द को औरत का क़व्वाम बनाकर ज़्यादा ज़िम्म्मेदारी सौप दी क्योंकि क़व्वाम कहते हैं सुरक्षा करने वाला तथा खाने पहनने व दूसरी हर प्रकार के हितों की देखभाल करने वाला और ज़रूरतों को पूरा करने वाला। इसका साफ़ मतलब यह है कि महिलाओं को हर प्रकार के टेन्शन से आज़ाद कर दिया। इस कथन में तो मर्द ग़ुलामों वाले काम करता हुआ प्रतीत होता है न कि औरत परन्तु तसलीमा नसरीन ने पता नहीं किस तरह से औरतों को मर्दों का ग़ुलाम समझे जाने का मतलब निकाल लिया।
इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए हमको चाहिए कि किसी भी धर्म के पवित्र ग्रन्थों की अपने तौर से ग़लत व्याख्या करने का प्रयास करने के बजाय उनमें दी गई शिक्षाओं से लोगों को अवगत कराने कोशिश करके आपसी भाईचारे को बढ़ाने में मददगार साबित हों।

Wednesday, July 14, 2010

parivartan तन्त्र का परिवर्तन वर्तमान की आवश्यकता sharif khan

भारतीय मूल के एक सज्जन, जोकि ब्रिटिश नागरिक हैं, का एक संस्मरण उन्हीं के शब्दों में सुनिए।
मैं और मेरी पत्नि लन्दन में रात को लगभग 2 बजे अपनी कार द्वारा अपने घर लौट रहे थे। हमारी गाड़ी की पीछे वाली लाइट टूटी हुई थी जिसको गश्ती पुलिस के एक सिपाही ने देख लिया और मोटरसाइकिल द्वारा हमारा पीछा करने लगा। घर चूँकि अधिक दूर नहीं रह गया था अतः घर के मेन गेट से हमारे अन्दर घुसते ही वह पुलिसमैन भी पहुंच गया। गाड़ी चँूकि मेरी पत्नि चला रही थीं अतः उन्हीं को सम्बोधित करते हुए उसने पहले तो ‘‘गुड मॉर्निंग मैडम’’ कहा और उसके बाद उसने कहा,‘‘मैडम, शायद आपको पता नहीं है कि आपकी गाड़ी की बैक लाइट टूटी हुई है। इसकी वजह से दूसरों के साथ आपको भी नुकसान पहुंच सकता है इसलिए गाड़ी चलाने से पहले आप इसको ठीक करा लीजिए।’’ इतना कहकर वह वापस चला गया।
यह बात सुनाकर वह सज्जन कहने लगे कि एक ऐसे देश का नागरिक होने पर हमें क्यों गर्व न हो जहाँ पुलिस विभाग से सम्बन्धित लोग तक इतना अच्छा व्यवहार करते हों और देश के नागरिकों का सम्मान करना अपना कर्तव्य तथा उस कर्तव्य का पालन करना अपना धर्म समझते हों।
इस मामूली सी घटना के बारे में पढ़कर सम्भव है आप इसकी तुलना हमारे देश की पुलिस के नागरिकों के प्रति व्यवहार से करें बल्कि दुव्र्यवहार कहना ज़्यादा उचित है क्योंकि सद्व्यवहार की तो पुलिस से आशा करना एक स्वप्न मात्र है। और ब्रिटेन के लोगों से ईष्र्या की भावना पैदा होने लगे। हमारे देश में पुलिस का नागरिकों के प्रति जो व्यवहार है उसको विस्तार में बताने की आवश्यकता इसलिए नहीं है कि आप दो घटनाओं का वर्णन करेंगे तो सुनने वाला उससे भी ज़्यादा दर्दनाक चार घटनाओं की जानकारी दे देगा। ऐसा नहीं है कि आम नागरिकों का पुलिस के द्वारा सताया जाना और उस ज़ुल्म को होते हुए खामोशी से देखना और चाहते हुए भी मज़लूमों की कोई मदद न कर सकना ही अफ़सोसनाक हो बल्कि उससे भी ज़्यादा दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि इस सबको हम अपनी नियति समझकर ख़ामोश रहें। इसका हल तलाश करने के लिए हमको पुलिस के इतिहास पर नज़र डालनी पड़ेगी।
1857 की क्रांति की विफलता के बाद अंग्रेज़ों ने जब दोबारा भारत में शासन की बागडोर संभाली तब शासन को मज़बूती प्रदान करने के लिए सरकार को एक ऐसे तन्त्र की ज़रूरत पेश आई जिस का जनता में भय व्याप्त हो। इसी नीति के तहत अंगे्रज़ी सरकार ने पुलिस तन्त्र कायम किया जिसका मक़सद केवल जनता के दिल में ख़ौफ़ पैदा करके हुकूमत करना था और इसको कार्यरूप देते हुए जिस प्रकार की पुलिस अंग्रेज़ों ने बनाई उसका अन्दाज़ा इस बात से लगा सकते हैं कि अंग्रेजी सरकार की पुलिस के एक मामूली सिपाही का किसी गांव में आ जाना ही ग्रामवासियों को भयभीत करने के लिए काफी होता था। सरकार की यह योजना कामयाब भी रही परन्तु पुलिस को सरकार ने निरंकुश होकर जनता पर अत्याचार करने की छूट फिर भी नहीं दी। जिसके नतीजे में न तो उस ज़माने की पुलिस माया त्यागी कांड की तरह से किसी बेबस महिला को नंगा करके घुमाती थी, न फ़र्ज़ी मुठभेड़ में बेक़सूर लोगों को मारकर अपनी बहादुरी का सिक्का जमाती थी और न ही मुल्ज़िमों को प्यास लगने पर अपना मूत्र पिला कर अपनी राक्षसी प्रवृति का सबूत देती थी। आज की पुलिस के कारनामों की जानकारी समाचार-पत्रों, टी.वी. चैनलों तथा फिल्मों के द्वारा सभी लोगों को होती रहती है।
देश को आज़ादी मिलने के समय से वर्तमान समय तक के अन्तराल को हम नैतिक मूल्यों के आधार पर तीन भागों में बांट सकते हैं। देश को आज़ाद कराने में जिन लोगों ने जान और माल की कुर्बानी दी सही अर्थों में आज़ादी की कद्र वही लोग जानते थे। जब तक शासन की बागडोर ऐसे नेताओं के हाथों में रही तब तक प्रशासन भ्रष्ट नहीं हो सका और पुलिस पर भी शासक वर्ग का अंकुश रहा।
दूसरे चरण में शासन की बागडोर जिन लोगों के हाथों में आई उनमें देश के प्रति तो बेशक प्रेम, लगाव और सेवा भावना थी परन्तु सत्ता प्राप्त करने के लिए उन लोगों नें गुण्डों, बदमाशों और विभिé प्रकार के अपराधी तत्वों का सहारा लेना प्रारम्भ कर दिया। इस प्रकार से अपराधी वर्ग के लोग किंग-मेकर की हैसियत से समाज के प्रतिष्ठित लोगों में सम्मिलित होने लगे और यहीं से नैतिक पतन आरम्भ हो गया। इसके साथ ही सरकार बनाने में सहायक रहे उन अपराधी वर्ग के लोगों को नाजाइज फायदे पहुंचाकर सन्तुष्ट करना शासक वर्ग की मजबूरी हो गई तथा इस प्रकार से शासक वर्ग द्वारा निर्देशित प्रशासन में भ्रष्टाचार पनपना शुरू हो गया। पुलिस विभाग में अपराधियों की बैठ-उठ शुरू होने से नैतिक मूल्यों में गिरावट लाजमी थी।
तीसरे चरण में देश की राजनैतिक व्यवस्था पर पूर्ण रूप से उन लोगों का क़ब्ज़ा हो गया जो दूसरे चरण में किंग-मेकर थे। इस प्रकार से अराजकता, भ्रष्टाचार और चरित्रहीनता हमारे देश की राष्ट्रीय पहचान बन गईं।
वर्तमान भारतवासियों का और विशेष रूप से देश के युवा वर्ग का नायक कैसा हो इसके लिए जो मापदण्ड अपनाया गया उसको देखकर सर शर्म से स्वतः ही झुक जाता है। अब स्थिति यह है कि एक नाचने गाने वाले व्यक्ति को पूरे देश ने अपना हीरो स्वीकार कर लिया है। एक ईसाई पादरी को उसके दो मासूम बच्चों के साथ ज़िन्दा जला देने वाला अपराधी अपने क्षेत्र का नायक बन गया। गुजरात प्रदेश से जो नायक उभरकर आया उसके मानवता को कलंकित करने वाले कारनामे याद करके शायद ही कोई भावुक व्यक्ति स्वंय को व्यथित होने से रोक पाए। एक धर्मस्थल को गिराने का इरादा करके पूरे देश के धर्म विशेष के नागरिकों को आतंकित करके अपने इरादे को पूरा करने वाले बदनाम शख्स को भावी प्रधानमन्त्री के तौर पर पेश किया जाना भारतीय संस्कृति और सभ्यता को बदनाम करने के लिए पर्याप्त है। उपरोक्त धर्मस्थल को गिराने में मुख्य भूमिका निभाने वाले उस व्यक्ति का ज़िक्र करना भी आवश्यक है जिसने इस घिनौने कार्य को करने के बाद कहा था कि हमें गर्व है कि हमने देश से इस कलंक को मिटा दिया। आज वही व्यक्ति एक ऐसी राजनैतिक पार्टी के लीडर की आंखों का तारा बना हुआ है जो उस धर्मस्थल को बचाने का दम भरता था। कहने का तात्पर्य यह है कि अच्छाई और बुराई का पैमाना बदलने से देश के भविष्य के प्रति आशंका पैदा होना लाज़िम है।
देश के राजनैतिक स्वरूप को इतना विकृत करने के लिए देश की जनता ही ज़िम्मेदार है क्योंकि चुनाव लड़ने वाले व्यक्ति का कोई भी ऐब जनता से छिपा हुआ नहीं रहता यहांतक कि उस व्यक्ति द्वारा किए गए ऐसे अपराधों से भी जनता वाक़िफ़ रहती है जिनकी रिपोर्ट पुलिस द्वारा न लिखी गई हो। यदि देश के राजनैतिक ढांचे को चरित्रहीन लोगों के वजूद से पाक न किया गया तो विदेशों में ऋषियों और मुनियों का यह देश कहीं ग़ुण्डों, बदमाशों, बलात्कारियों, क़ातिलों, रिश्वतख़ोरों और आतंकवादियों का देश न कहलाने लगे और यथा राजा तथा प्रजा की उक्ति चरितार्थ न हो जाए।
इन तथ्यों का अवलोकन करने के बाद यह निष्कर्ष निकलता है कि देश जिस भयावह स्थिति की ओर जा रहा है यदि अब भी इसको बदलने की कोशिश न की गई तो आने वाली नस्लें हमें कभी माफ़ न करेंगी।
इस सबके बावजूद मायूस होने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि संसार में कोई भी समस्या ऐसी नहीं है जिसका हल मौजूद न हो और यह समस्या तो जनता ही की पैदा की हुई है क्योंकि देश को चलाने वाले नेता लोगों का चुनाव करना देश की जनता के ही हाथ में है चाहे वह स्वतन्त्रता के प्रथम दौर सरीखे मुल्क का दर्द रखने वाले चरित्रवान नेता हों या फिर मौजूदा दौर के जातिवाद को हवा देकर जोड़ तोड़ की राजनीति करने वाले सिद्धांतहीन लोग हों। इस समस्या के समाधान के लिए देश की जनता को प्रायश्चित् के तौर पर मानवता को कलंकित करने वाले राजनीतज्ञों के वजूद से देश को पाक करना पड़ेगा। इसके लिए जनता को चाहिए कि जब भी मौक़ा मिले साफ़ छवि के लोगों को चुनकर देश की बागडोर सम्भालने का अवसर दे। इसके पश्चात् नवनिर्वाचित सरकार प्राथमिकता के तौर पर यदि निरंकुश हो चुकी पुलिस को सुधार पाई तो हमारे देश के नागरिक भी स्वंय को अपमानित सा महसूस न करके सम्मान से जीवन व्यतीत करने के सुख से परिचित हो सकेंगे।

Monday, July 12, 2010

janta ka dosh दोषी सरकार के निर्वाचक निर्दोष नहीं sharif khan

किसी वन में एक साधु तपस्या किया करता था। उसका एक शिष्य था जो अपने गुरु की सेवा करना ही अपना धर्म समझता था। साधु प्रायः ईश्वर से प्रार्थना किया करता था कि हे ईश्वर यदि तू मुझे इस देश का राजा बना दे तो मैं जनता भलाई के कामों में अपना शेष जीवन अर्पित कर दूंगा। भयमुक्त समाज का निर्माण करूंगा। जितने भी नेक और भले लोग हैं उनका उनकी नेकी व भलाई के अनुसार आदर सत्कार करूंगा तथा ज्ञानी जनों को अच्छे पदों पर सुशोभित करूंगा। आदि। साधु द्वारा की जाने वाली प्रार्थना का ज्ञान उसके शिष्य को भी था और शिष्य को ऐसा विश्वास था कि एक न एक दिन गुरु की प्रार्थना रंग लाएगी और वह अवश्य ही राजा बन जाएंगे। अतः राजा बनने पर मेरी सेवा के बदले में मन्त्रीपद मुझे भी मिल जाएगा। इसी प्रकार से काफ़ी समय व्यतीत हो गया और साधु बूढ़ा होने लगा तथा शिष्य का विश्वास डगमगाने लगा।
इसके नतीजे में शिष्य ने विचार किया कि हो सकता है कि ईश्वर को मेरे गुरू की इच्छा के अनुरूप राजा बनाना मन्ज़ूर न हो इसलिए शिष्य गुरु की प्रार्थना के विपरीत स्वयं इस प्रकार से प्रार्थना करने लगा कि हे ईश्वर यदि तू मुझे इस देश का राजा बना दे तो मैं ऐसा अराजकता का माहौल बना दूंगा कि लोग त्राहि त्राहि करने लगेंगे। जितने अपराधी हैं वह देश की नाक कहलाएंगे। भले और नेक लोगों को मुंह छिपाने की जगह मिलना सम्भव न रहेगा तथा उनको जेलों में डाल दिया जाएगा। आदि। अक्सर जोश में आकर शिष्य आवाज़ के साथ प्रार्थना करता था जिससे गुरु अप्रसन्न हो जाते थे परन्तु कुछ कह न पाते थे।
इसी प्रकार दिन बीतते गए और एक दिन ऐसा हुआ कि उस देश के राजा की मृत्यु हो गई। नए राजा के चुनाव के लिये वहां की जनता ने तय किया कि जो व्यक्ति सुबह को सबसे पहले नगर में प्रवेश करेगा उसी को राजा बना दिया जाएगा। साधु का शिष्य सुबह सवेरे भीख मांगने के लिये जाता ही था अतः नगर में प्रवेश करने वाला पहला व्यक्ति होने के कारण उसको सर्व सम्मति से देश का राजा बना दिया गया।
जिन वादों के साथ वह राजगद्दी तक पहुंचा था उनके अनुसार कार्य करते हुए उसने जेलों के द्वार खुलवा दिये और ‘जितना बड़ा अपराधी उतना बड़ा पद‘ के फ़ार्मूले पर अमल करते हुए देश की शासन व्यवस्था क़ायम की। कमज़ोर व बूढ़ों को जेलों में डाल दिया गया और शिक्षित, सज्जन व अच्छी पारिवारिक पृष्ठभूमि वाले नौजवान या तो देश से पलायन करने पर मजबूर हो गए या फिर पुलिस हिरासत में मारे जाने लगे अथवा फ़र्ज़ी मुठभेड़ में उनको जीवित रहने के हक़ से वन्चित किया जाने लगा। जब पानी सर से गुज़रने लगा तो कुछ बुज़ुर्ग लोगों ने देश को इस लानत से बचाने के लिये एक योजना बनाई जिसके अनुसार यह पता लगाया गया कि नया राजा कहां से आया है और पता लगाते हुए वह लोग उस साधु के पास पहुंचे। साधु सारी बातें सुनने के बाद अपने शिष्य को समझाने के लिये राजदरबार में पहुंचा और राजा से उसने सही रास्ते पर चलने का अनुरोध किया जिसके जवाब में शिष्य ने कहा, ‘‘महाराज, आप मेरे गुरु हैं और मैंने इतने दिन आपकी सेवा की है अतः इन बातों का ध्यान रखते हुए तो मैं आपकी जान बख्शता हूं वरना अच्छी सलाह देकर आपने जो जुर्म किया है वह माफ़ी के क़ाबिल नहीं है।
इसके बाद राजा ने दरबार में मौजूद लोगों की ओर इशारा करते हुए कहा कि, ‘‘इन बदनसीबों ने मुझमें कौन सी ख़ूबी देखी जो मुझे अपना राजा बना लिया। जिस देश की जनता राजा का चुनाव करने का अधिकार प्राप्त होने के बावजूद बिना सोचे समझे अपना राजा चुनकर जो पाप करती है, ईश्वर उस देश की जनता के सर पर उसके द्वारा किये गए इस पाप की सज़ा के तौर पर मुझ जैसा स्वार्थी, निकम्मा व मानवता को कलंकित करने वाला चरित्रहीन व्यक्ति राजा के रूप में थोप देता है। लिहाज़ा मुझ पर दोष न देकर इन पापियों को अपने किये की सज़ा भुगतने दीजिए।‘‘

Saturday, July 10, 2010

hum hain na हम से बढ़कर कौन sharif khan

‘‘बढ़ते अपराधों पर क़ाबू पाने को गुजरात पुलिस का अनौखा तरीक़ा‘‘ इस विषय के अन्तर्गत हिन्दी के एक दैनिक समाचार पत्र में छपी एक ख़बर आपके अवलोकनार्थ प्रतुत हैं ‘‘गुजरात में अपराधों के बढ़ते ग्राफ़ को घटाने और अपराधियों के काम करने के ढंग को जानने के लिए राज्य सरकार ने अनोखा तरीक़ा निकाला है। उसने पुलिस से अपराधियों की चालें सीखने को कहा है ताकि उसका उपयोग आज़ाद घूम रहे अपराधियों को पकड़ने और अपराधिक मामलों को सुलझाने में किया जा सके। अतः गुजरात पुलिस को अब ट्रेनिंग के बजाय जेल में क़ैदियों के पास भेजा जाएगा ताकि वे अपराध के ‘वास्तविक विशेषज्ञों‘ से तरकीबें सीखें। गृह विभाग द्वारा तैयार योजना के मुताबिक़ पुलिसकर्मी ज़िला जेलों में अपराधों की सज़ा काटने वाले क़ैदियों से युक्तियां सीखेंगे। विभाग ने डी.एस.पी. और पुलिस कमिश्नर को इस योजना को ग्रामीण और शहरी इलाक़ों में लागू करने को कहा है।‘‘
उपरोक्त समाचार को पढ़कर निकाले गए निष्कर्ष को आपकी राय जानने हेतु सूत्रवार प्रस्तुत किया जा रहा हैः
1. यह कि, शासन द्वारा जेलें अपराधियों को सुधारने के लिए क़ायम की गई हैं न कि अपराधों की बारीकियों को समझने और अपराधों का प्रशिक्षण देने के लिए।
2. यह कि, अपराधियों को सुधरने के लिए प्रायश्चित् करना आवश्यक है जो कि किये गए अपराध पर शर्मिन्दा होकर उसे भुलाये बिना सम्भव नहीं हो सकता।
3. यह कि, अपराध करने से ज़्यादा उसको छिपाना कठिन होता है तथा जो अपराधी योजनाबद्ध तरीक़े से कार्य करते हैं, उनके पकड़े जाने की सम्भावना कम ही रहती है लिहाज़ा फूलप्रूफ़ योजना पुलिस के साथ मिलकर अधिक आसानी से तैयार की जा सकती है। इस योजना का लाभ अपराधी तो जेल में बन्द रहने के कारण मुश्किल ही से उठा पाएंगे परन्तु पुलिस को अपराध करने में आसानी हो जाएगी और चूंकि पकड़े जाने की सम्भावना कम होगी इसलिए पुलिस की किरकिरी भी न होगी कयोंकि अब तो कोई पुलिसकर्मी यदि अपाराध करते हुए न चाहते हुए भी पुलिस को पकड़ना पड़ जाता है तो आला अधिकारियों को उसको बेदाग़ घोषित करके कभी न कभी शर्मिन्दा होना पड़ ही जाता है। जेल से छूटने के बाद कोई अपराधी यदि अपनी शिष्य पुलिस के साथ मिलकर बनाई गई योजना के अनुसार अपराध करने की केाशिश करेगा तो उसका फ़र्जी एन्काउण्टर करके पुलिस अपराध जगत में भी अपना एकछत्र राज क़ायम कर लेगी।
निष्कर्ष के तौर पर यह कहा जा सकता है कि, सुपारी लेकर क़त्ल करने, अपराधियों के साथ साठगांठ रखने, डकैती और दूसरे विभिन्न प्रकार के अपराधों से पुलिस का दामन पहले ही दाग़दार है। इस योजना के अन्तर्गत अपराध का सरकारीकरण करके प्राइवेट सैक्टर के अपराधियों सफ़ाया करने की जो बेहतरीन योजना गुजरात सरकार ने बनाई है वह तारीफ़ के काबिल है।

Tuesday, July 6, 2010

vandematram मुसलमानों पर वन्देमातरम गीत थोपना अपराध sharif khan

पवित्र क़ुरआन में अल्लाह फ़रमाता है,‘‘ला इकराहा फ़िद्दीन’’ अर्थात् दीन के मामले में कोई ज़बरदस्ती नहीं। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि इस्लाम किसी पर थोपा नहीं जा सकता परन्तु यदि इस्लाम धर्म का पालन करने में कोई कठिनाई या अड़चन पैदा की जाती है अथवा धर्म की शिक्षाओं के प्रचार की राह में बाधा उत्पन्न की जाती है या इस्लाम की शिक्षा के खि़लाफ़ कोई भी बात यदि मुसलमानों पर थोपी जाती है तो इन सब कठिनाइयों, अड़चनों और बाधाओं आदि के खि़लाफ़ आवाज़ उठाना हर मुसलमान का कर्तव्य (फ़र्ज़) हो जाता है। सारी ज़मीन अल्लाह ही की है। प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य है कि वह एक ऐसे समाज के निर्माण में योगदान करे कि धरती पर कहीं भी फ़साद न फैले, सबको सम्मान से जीने का अधिकार प्राप्त हो, किसी भी व्यक्ति की बेवजह हत्या न हो तथा व्याभिचार, बलात्कार, सूदखोरी आदि बुराइयों से लोगों को बचाया जाए।
‘‘अल्लाह के एक और केवल एक होने पर विश्वास रखना, अल्लाह के समकक्ष किसी को न समझना तथा केवल उसी की इबादत (वन्दना या पूजा) करना‘‘ इस्लाम धर्म की बुनियाद है। इस प्रकार जब अल्लाह के अलावा किसी की इबादत जाइज़ ही नहीं है और इस्लाम धर्म की मूल भावना के ही विरुद्ध है तो इसका सीधा सा अर्थ यह है कि एक मुसलमान तभी तक मुसलमान है जब तक वह अल्लाह के अलावा किसी और की इबादत नहीं करता चाहे मां(जननी) हो, वतन हो, पवित्र किताब हो या फिर कुछ और हो। जहां तक मातृभूमि की पूजा का सवाल है, तो इस बारे में केवल इतना ही कहना काफ़ी है कि पूजा तो अपनी मां की भी नहीं की जा सकती जो हमारी वास्तविक जननी है। सम्मान में सर्वोच्च स्थान मां का अवश्य है परन्तु पूजनीय नहीं है। अतः मुसलमानों पर उनकी की आस्था और विश्वास के खिलाफ़ वन्दे मातरम् गीत को थोपकर क्या हिन्दू-मुस्लिम भाईचारे को चोट नहीं पहुंचाई जा रही है ? अतः देश के बुद्धिजीवी वर्ग से हमारी अपील है कि वह संविधान का अध्ययन करके देखे कि वन्दे मातरम् गीत को थोपकर मुसलमानों को इस्लाम धर्म की मूल भावना के विरुद्ध कार्य करने के लिये मजबूर करना क्या संविधान के अनुसार अपराधिक कार्य है ? और यदि संविधान इसको अपराधिक कार्य मानता हो तो ऐसे लोगों के खिलाफ़ कानूनी कार्यवाही करके देश में पनप रहे नफरत के माहौल से देश को बचाने में योगदान करें।
इसके साथ ही यह बात समझना भी आवश्यक है कि इबादत हुकुम मानने को कहते हैं न कि सर झुकाने को लिहाजा जब यह कहा जाता है कि केवल अल्लाह ही की इबादत करो तो इसका सीधा सा अर्थ होता है कि सिर्फ़ अल्लाह ही का हुकुम मानो। अब चूंकि अल्लाह ने अपने अलावा किसी के आगे सर झुकाने की इजाज़त नहीं दी इसलिए वन्देमातरम कहकर इसके खि़लाफ़ अमल करके गुनाहगार नहीं बना जा सकता। इस चर्चा का निष्कर्ष यह निकला कि अल्लाह ने चूंकि देश से ग़द्दारी की भी छूट नहीं दी है लिहाज़ा वन्देमातरम न कहते हुए देश के प्रति वफ़ादार रहना तो अल्लाह के हुकुम के मुताबिक़ हर मुसलमान की मजबूरी है।

Monday, July 5, 2010

देश की मुख्यधारा क़ुरान की रोशनी में

अल्लाह सुबहाना व तआला पवित्र क़ुरआन के चैथे अध्याय की 135वीं आयत में फ़रमाता है, अनुवाद,‘‘ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, इन्साफ़ का झण्डा उठाओ और ख़ुदा वास्ते के गवाह बनो चाहे तुम्हारे इन्साफ़ और तुम्हारी गवाही की चपेट में तुम स्वयं या तुम्हारे मां बाप और रिश्तेदार ही क्यों न आते हों। प्रभावित व्यक्ति (जिसके ख़िलाफ़ तुम्हें गवाही देनी पड़े) चाहे मालदार हो या ग़रीब, अल्लाह तुमसे ज़्यादा उनका भला चाहने वाला है। अतः तुम अपनी इच्छा के अनुपालन में इन्साफ़ से न हटो। और अगर तुमने लगी लिपटी बात कही या सच्चाई से हटे तो जान रखो कि, जो कुछ तुम करते हो, अल्लाह को उसकी ख़बर है।‘‘
उपरोक्त आदेश उन लोगों के लिए है जो ईमान वाले हैं। ईमान वाले वह लोग होते हैं जो अल्लाह का हुकुम मानने वाले हों। अतः इस आयत में दिये गए आदेश के अनुसार अमल करके हम समाज में फैली हुई बहुत सी बुराइयों को दूर करने में सहायक हो सकते हैं। आजकल खाने पीने की चीज़ों और दवाइयों आदि में मिलावट करके जो लोग इन्सानों की ज़िन्दगियों से खिलवाड़ कर रहे हैं उनकी ओर से नज़र बचाने के बजाय हमको चाहिए कि ऐसे घिनौने काम करने वाले समाज दुश्मन तत्वों की जानकारी यदि हम रखते हों तो इस बात की सूचना हम सम्बन्धित सरकारी विभागों को दें चाहे इससे हमारा कोई निजी नुकसान होता हो या हमारा कोई सगा सम्बन्धी ही क्यों न प्रभावित हो रहा हो।
इस काम के करने में हो सकता है कुछ ऐसी अड़चनें आएं जिनकी आपने कल्पना भी न की हो। उदाहरण के तौर पर जब आप इस बिगड़े हुए समाज में सुधार की बात करेंगे तो हो सकता है कि आपके कुछ ऐसे मित्र व सम्बन्धी आपके खि़लाफ़ हो जाएं जिनके उन मिलावटखोरों से मधुर सम्बनध हों जिनके खि़लाफ़ आप कार्रवाई करने जा रहे हैं। दूसरी दिक्क़त आपको सम्बन्धित सरकारी विभागों व पुलिस के उन भ्रष्ट कर्मचारियों से पेश आ सकती है जिनकी सरपरस्ती में यह धन्धा फलफूल रहा है। तीसरी दिक्क़त उन राजनैतिक नेताओं से आ सकती है जिनकी परवरिश इसी गन्दगी में हुई है और अब सफ़ेदपोश लोगों में शामिल होकर चोरी छिपे इन अपराधों में सहायता कर रहे हैं।
इस कार्य को अकेले करने के बजाय यदि संस्थागत (इजतेमाई) तौर से किया जाए और देश की मुख्यधारा में शामिल कर लिया जाए तो मुख्यधारा का ढिंढोरा पीटने वालों में शामिल मिलावटखोरों को प्रायश्चित् करने का अवसर भी मिल जाएगा।

Friday, July 2, 2010

आनर किलिंग एक समस्या और उसका समाधान

विश्व की प्राचीनतम सभ्यताओं में मैसोपोटामिया (इराक़), भारत व चीन के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। भारत की सभ्यता व संस्कृति का एक गौरवमयी इतिहास रहा है जिसको किसी भी प्रकार से नज़रअन्दाज़ नहीं किया जा सकता। सभ्यता का वजूद क़ायम रहे, इसके लिए आवश्यक है आदर्श समाज का निर्माण। भारत में समय समय पर जन्म लेने वाले महापुरुषों का आदर्श समाज के निर्माण में जो योगदान रहा है उसके महत्त्व को भुलाया नहीं जा सकता। परिवार समाज की इकाई होता है। एक परिवार में जो स्त्री-पुरुष होते हैं उनमें परस्पर बाप-बेटी, मां-बेटा तथा बहन-भाई के सम्बन्ध तो जन्म के आधार पर होते हैं परन्तु पति-पत्नि का सम्बन्ध समाज के द्वारा मान्यता दिये जाने पर ही वैध होता है जिसको हम विवाह कहते हैं। समाज निर्माण के लिये जो परम्पराएं बनाई गईं, जिन बातों को निषिद्ध किया गया तथा जिन बातों का समावेश करके मान्यता दी गई इसी को हम संस्कृति कहते हैं। अपनी संस्कृति से लगाव होना मानव प्रकृति का अंग है।

अंग्रेज़ों के चंगुल से देश तो आज़ाद हो गया लेकिन मानसिक रूप से भारत की जनता और विशेष रूप से संविधान निर्माता उनकी ग़ुलामी से आज़ाद न हो सके और उसके बाद शासन की बागडोर सम्भालने वाले नेता भी किसी न किसी रूप में उसी मानसिकता से दबावग्रस्त रहे जिसके नतीजे में आज का सामाजिक ढांचा बिगाड़ के कगार खड़ा है। संविधान निर्माताओं ने विशेष रूप से इंगलैंड, अमेरिका, फ्रांस व इटली के संविधानों की मदद से अपने देश का संविधान बनाया। मानसिक ग़ुलामी का इससे बढ़कर और क्या सबूत हो सकता है कि जिन गोरी चमड़ी वालों से देश को आज़ाद कराया था, उन्ही के संवैधानिक ढांचे के अनुसार निर्मित संविधान देश पर थोप दिया गया। ‘‘कौवा चला हंस की चाल, अपनी चाल भी भूल गया।‘‘ इस कहावत में कौवे का प्रगतिशील होना तो कम से कम दिखाई दे रहा है क्योंकि उसने अपने से बेहतर की नकल करने की कोशिश की लेकिन हमारे देश के नेताओं ने तो इस कहावत ही को पलट दिया। सभ्यता व संस्कृति के नाम पर शून्य अमेरिका जैसे भौतिकवादी देश का महान सभ्यता व संस्कृति वाला महान भारत देश यदि अनुसरण करता है तो फिर कहावत ऐसे होगी, ‘‘हंस चला कौवे की चाल, अपनी चाल भी बरबाद कर दी।‘‘

आज़ादी मिलने के बाद देश में लोकतान्त्रिक ढांचे की रूपरेखा बनाई गई। लोकतन्त्र की परिभाषानुसार सरकार ऐसी होनी चाहिए जो जनता की हो, जनता द्वारा निर्वाचित हो तथा जनता के लिए हो। लिहाज़ा जनता के हितों को दृष्टि में रखते हुए जनता की इच्छा व आवश्यकतानुसार क़ानून बनाये जाएं तथा आवश्यकता पड़ने पर संविधान में संशोधन का भी प्रावधान रखा गया। विधायिका का कार्य आवश्यकतानुसार संविधान में संशोधन करना तथा न्यायपालिका का कार्य उसकी व्याख्या करना है। अब हम सूत्रवार अपनी बात को स्पष्ट करने का प्रयत्न करते हैं

1- यह कि, देश की जनता ने जब समलैंगिकता को जायज़ क़रार दिये जाने की कभी मांग नहीं की तो फिर मानवता को कलंकित करने वाले ऐसे घिनौने कृत्य को क्यों क़ानूनी सुरक्षा प्रदान करने का प्रावधान किया जा रहा है ?

2- यह कि, देश की जनता ने जब वयस्क लड़के-लड़कियों को बिना विवाह किये साथ रहने की कभी मांग नहीं की तो फिर विवाह के द्वारा बनाए गए सामाजिक ढांचे को छिé भिé करने के लिए ‘लिव इन रिलेशनशिप‘ का क़ानून में प्रावधान करने की क्यों कोशिश की जा रही है ?

3- यह कि, देश की जनता अपनी सांस्कृतिक परम्पराओं को बचाने के लिए जब अपने जिगर के टुकड़ों तक की बलि देने को तैयार है तो फिर मां, बाप और समाज को ठेंगा दिखाकर घर से भागकर ब्याह रचाने वाले कम उम्र युवक युवतियों को विशिष्टता प्रदान करके क्यों सामाजिक ढांचे को छिé भिé करने की कोशिश की जा रही है ?

विधायिका, न्यायपालिका, कार्यपालिका तथा मीडिया लोकतन्त्र के यह चार स्तम्भ हैं। इनको संचालित करने वालेे लोग कहीं दूसरे देश से न आकर इसी सामाजिक परिवेश का अंग हैं परन्तु उपरोक्त तीन सूत्रों में दर्शाई गई बातों पर यदि ग़ौर करें तो क्या ऐसा प्रतीत नहीं होता जैसे सबने मिलकर देश की संस्कृति का जनाज़ा निकालने की एकसूत्रीय कार्ययोजना तैयार की हुई है ?

ऐसी विकट परिस्थिति में, बजाय मायूस होने या देश के वातावरण को दूषित होते देख शर्म से गर्दन झुकाकर बैठे रहने के, बुद्धिजीवी वर्ग को चाहिए कि इस समस्या पर बहस करके समाधान खेजने की कोशिश करें वरना भारत जैसे महान देश में भी निकट भविष्य में अमेरिका जैसा मानवता को कलंकित करने वाला माहौल बनते देर नहीं लगेगी और फिर बच्चे पैदा होने के बाद विवाह के बारे में विचार किया जाया करेगा। उचित मार्गदर्शन करने वाले बुजुर्गों को तो वृद्धाश्रम में भेजकर पीछा छुड़ाने चलन बनने लगा है ही।

उपरोक्त सूत्रवार कही गई बातों को समस्या का जो रूप दे दिया गया है उसके समाधान के लिये सुझाव के तौर पर हम यह कह सकते हें कि सूत्र नं. 1 व 2 वाले कृत्य को वैधानिक संरक्षण देने के बजाय अपराध घोषित किया जाए तथा नं. 3 के अंतर्गत किये गए विवाह को मान्यता देने के लिये नियमों को कड़ा करने की आवश्यकता पर बल दिया जाए। जैसे कि ऐसे विवाह की मान्यता के लिये आयु 25 वर्ष या अधिक रखी जाए क्योंकि कम उम्र में प्रेम न होकर वासना ही होती है तथा 25 साल की उम्र के बाद प्रेम और वासना के अन्तर को समझने की क्षमता पैदा हो जाती है। ध्यान रहे, ऐसे विवाह प्रायः 25 वर्ष से कम उम्र के अपरिपक्व मस्तिष्क के युगल ही करते हैं। सामाजिक मान्यताओं के ख़िलाफ़ किये गए विवाह के द्वारा अपने समाज के बुज़ुर्गों की मान मर्यादा का उल्लंघन करके रचाए गए विवाह को क़ानून चाहे संरक्षण दे परन्तु ऐसे प्रेमी युगलों को शारीरिक यातना देने के बजाय सामाजिक बहिष्कार के तौर पर दण्डित तो किया ही जा सकता है। इस प्रक्रिया के फलस्वरूप आनर किलिंग के नाम पर की जाने वाली हत्याओं में काफ़ी हद तक कमी आ सकती है।

Wednesday, June 30, 2010

सत्य के खिलाफ़ असत्य एकजुट

आधे अधूरे ज्ञान के आधार पर कही गयी बात मज़ाक़ बन कर रह जाती है कोशिश यह कीजिये कि तथ्यों के आधार पर बात कहें तथा आपकी बात में नफ़रत की गंध न आये. सदैव से ही सत्य के ख़िलाफ़ असत्य एकजुट होता आया है. इसकी जिंदा मिसाल दुनिया के वर्तमान हालात हैं. ३ के नाम से जाने जाने वाले अमेरिका के आतंकवादी संगठन के सक्रिय सदस्य रहे हेरी ट्रूमैन को द्वितीय महायुद्ध में अमेरिकी जनता ने अपना प्रेसिडेंट चुनकर अपनी मानसिकता का जो परिचय दिया वो आजतक कायम है और हेरी ट्रूमैन ने अमेरिकी जनता के विश्वास को कायम रखते हुए जापान के दो नगरों पर एटम बम डालकर अमेरिका, वहां की सरकार और वहां की जनता का युद्धोन्मादी, आतंकवादी, अत्याचारी तथा मानवता के नाम पर कलंक होना साबित कर दिया और ये परंपरा आज तक कायम है अर्थात तब से लेकर आज तक अमेरिका लगातार कहीं न कहीं जंग छेड़े हुए है चाहे कोई भी प्रेसिडेंट आया हो जंग, ज़ुल्म और नाइंसाफ़ी के रास्ते से नहीं हटा है. वहां के मौजूदा प्रेसिडेंट ओबामा ने आदेश जरी किया है की अब तक जो ६० देशों में अमेरिकी फ़ौज थी वह १५ और देशों में भेजकर ७५ देशों में पहुंचा दी जाएगी. अमेरिका जैसे आतंकवादी देश को यह हक किसने और क्यों दिया, क्या बता सकेंगे? अमेरिका और तथाकथित आतंकवाद के खिलाफ़ एकजुट होने वाले अमेरिका के समर्थक देश क्या सत्य के खिलाफ़ असत्य का एकजुट होना साबित नहीं कर रहे हैं? मुस्लिम देशों में जहाँ भी शरियत लागू करने की कोशिश होती है उसी के खिलाफ़ गुंडों के गिरोह में सम्मिलित सारे देश एकजुट होकर कार्रवाई करने पर आमादा हो जाते हैं क्योंकि वह दुनिया में सऊदी अरब (जहाँ शरियत के कानून की झलक है) के जैसे माहौल की कल्पना करके परेशान हो जाते हैं. क्योंकि वह समझते हैं की यदि ऐसा हुआ तो उनके अन्दर की राक्षसी प्रवृत्तियों का दमन हो जायेगा और ...........

Saturday, June 26, 2010

पुलिस के लिए पापों के प्रायश्चित् का सुनहरी मौक़ा

1857 की क्रांति की विफलता के बाद अंग्रेज़ों ने जब दोबारा भारत में शासन की बागडोर संभाली तब शासन को मज़बूती प्रदान करने के लिए सरकार को एक ऐसे तन्त्र की ज़रूरत पेश आई जिस का जनता में भय व्याप्त हो। इसी नीति के तहत अंगे्रज़ी सरकार ने पुलिस तन्त्र कायम किया जिसका मक़सद केवल जनता के दिल में ख़ौफ़ पैदा करके हुकूमत करना था। सरकार की यह योजना कामयाब भी रही परन्तु पुलिस को सरकार ने निरंकुश होकर जनता पर अत्याचार करने की छूट फिर भी नहीं दी। जिसके नतीजे में न तो उस ज़माने की पुलिस कीे हिरासत में बेक़सूरों की मौत होती थीं, न फ़र्जी मुठभेड़ दिखाकर खुलेआम क़त्ल होते थे और न ही पुलिस थानों में महिलाओं से बलात्कार की घटनाएं होती थीं। आज 21वीं सदी में सभ्यता का ढिंढोरा पीटने वाली डांवाडोल सरकारों को इतनी फुर्सत ही नहीं है कि पुलिस द्वारा जनता पर किये जा रहे जु़ल्मों की ओर ध्यान दे सके। एक छोटा सा सुझाव यदि मान लिया जाये तो हो सकता है कि इसका शीघ्र ही अच्छा नतीजा सामने आये। सुझाव इस प्रकार है कि हर शहर और गांव में जनता की सेवा के लिए प्याऊ लगाई जाये जिसका प्रबन्ध केवल पुलिस विभाग करे तथा इसके नाम पर जनता से उगाही न हो यह सुनिश्चित कर लिया जाये। साथ ही ऐसा चक्र बनाया जाये कि माह में कम से कम एक बार प्रत्येक अधिकारी व कर्मचारी को जनता को पानी पिलाने की इस सेवा का सुअवसर प्राप्त हो सके। इस प्रकार के कार्यक्रम से सबसे बड़ा लाभ यह होगा कि पुलिस में सेवा भावना पैदा होगी, अहंकार पर अंकुश लगेगा तथा और भी यदि कुछ न हुआ तो कम से कम इसी बहाने कुछ पापों का तो प्रायश्चित हो ही जायेगा।

Thursday, June 24, 2010

हज़रत अली (रज़ि०) का इंसाफ़

हज़रत अली की खि़लाफ़त के समय की बात है। दो मित्र साथ साथ यात्रा कर रहे थे। रास्ते में दोपहर के समय दोनों मित्र एक पेड़ के साये में विश्राम करने के लिये बैठ गए। भूख लग रही थी इसलिये भोजन, जो उनके पास था, निकालकर खाने की तैयारी करने लगे। अभी भोजन करना शुरू करने वाले ही थे कि एक मुसाफ़िर आ गया जो भूखा था तथा उसके पास खाने को भी कुछ नहीं था। इस प्रकार उस मुसाफिर को भी उन्होंने खाने में शामिल कर लिया। उनमें से एक व्यक्ति के पास पांच रोटियां तथा दूसरे के पास तीन रोटियां थीं जो तीनों नें मिलकर खाईं। उस तीसरे व्यक्ति ने उन दोनों को खाने के बदले में आठ अशर्फ़ियां दीं और चला गया। जिस व्यक्ति के पास पांच रोटियां थीं उसने पांच अशर्फ़ियां अपने पास रखकर बाक़ी की तीन अशर्फ़ियां दूसरे व्यक्ति को दे दीं परन्तु दूसरे व्यक्ति नें तीन अशर्फ़ियां लेने से इंकार कर दिया तथा कहा कि दोनों को चार चार अशर्फ़ियां मिलनी चाहिएं परन्तु पांच रोटियों वाले व्यक्ति ने कहा कि चूंकि दोनों की कुल मिलाकर आठ रोटियां थीं तथा आठ ही अशर्फ़ियां मिलीं और इस प्रकार से एक अशर्फ़ी प्रति रोटी का हिसाब आया। अतः मैंने अपनी पांच रोटियों के बदले में पांच अशर्फ़ियां ले लीं तथा तुम्हें तुम्हारी तीन रोटियों के बदले में तीन अशर्फियां दे रहा हूं। परन्तु तीन रोटियों वाला व्यक्ति अपनी बात पर अड़ा रहा तथा तीन अशर्फियां लेने से इंकार कर दिया। इस प्रकार उनमें जब कोई फैसला नहीं हो पाया तो वह दोनों व्यक्ति हज़रत अली (रज़िअल्लाहो तआला अनहो) के पास अपना फैसला कराने के लिये पहुंचे। हज़रत अली (रज़ि०) ने सारी बात ग़ौर से सुनी और तीन रोटियों वाले व्यक्ति से कहा कि तुझे इसी में फ़ायदा है कि, दूसरा व्यक्ति जो तुझे अपनी खुशी से तीन अशर्फ़ियां दे रहा है, तू उन्हें कुबूल कर ले और यदि तू ऐसा नहीं करेगा तो घाटे में रहेगा। यह सुनकर उस व्यक्ति ने कहा कि मुझे तो इंसाफ़ चाहिए चाहे मैं लाभ मे रहूं या घाटे में। हज़रत अली (रज़ि०) ने फरमाया कि तुम लोगो में से एक के पास पांच रोटियां तथा दूसरे के पास तीन रोटियां थीं तथा खाने वाले तीन व्यक्ति थे। यदि यह माना जाए कि तीनों लोगों ने प्रत्येक रोटी में से बराबर बराबर खाया होगा तो प्रत्येक रोटी के तीन तीन टुकड़े करने पर आठ रोटियों के कुल चैबीस टुकड़े हुए। इस प्रकार से तीनों लोगों ने आठ आठ टुकड़े खाये। तीन रोटियों वाले व्यक्ति ने अपने नौ टुकड़ों में से आठ स्वंयं ने खा लिये तथा उसकी रोटियों में से बाक़ी बचा हुआ एक टुकड़ा तीसरे प्यक्ति ने खाया और पांच रोटियों वाले व्यक्ति की रोटियों के पन्द्रह टुकड़ों में से आठ उसने स्वंयं खाये तथा उसमें से शेष रहे सात टुकड़े तीसरे व्यक्ति ने खाये। इस प्रकार से रोटियों के आठ टुकड़ों के बदले में प्राप्त हुई आठ अशर्फ़ियों का एक अशर्फी प्रति टुकड़ा हिसाब आया। लिहाज़ा हज़रत अली (रज़ि०) ने फैसला देते हुए फरमाया कि तीन रोटियों वाले व्यक्ति को एक अशर्फ़ी तथा पांच रोटियों वाले व्यक्ति को सात अशर्फ़ियां मिलनी चाहिएं। इस फैसले से दोनों व्यक्ति खुशी खुशी चले गए।