ईश्वर की उपलब्ध कराई हुई नेमतों में से लोग दूध आदि अनेक पवित्र चीजों का सेवन करते हैं परन्तु कुछ लोग इन चीजों के अलावा किसी आस्था वश गाय का पेशाब भी पीते हैं। इस प्रकार यदि पेशाब में आस्था रखने वाले लोग यह कहें कि पीने की क्रिया चूँकि समान है इसलिये दूध पीने वालों को गाय का पेशाब भी पी लेना चाहिए या दूध की महत्ता को देखते हुए वह यह कहने लगें कि दूध में पेशाब मिला कर पीने से आपस का भेदभाव ख़त्म होगा और भाईचारा बढ़ेगा तो यह मूर्खता है। वास्तव में भाईचारा बढ़ाने के लिये तो ज़रूरी यह है कि अपनी आस्था को न तो दूसरों पर थोपने की कोशिश की जाए और न ही दूसरों की आस्था पर किसी तरह का ऐतराज़ किया जाए और दोनों चीज़ों को मिलाकर बीच का रास्ता निकालने की कोशिश तो आपस में नफ़रत बढ़ाने वाली साबित होगी क्योंकि दूध में गाय का पेशाब मिला कर बीच का रास्ता तो बेशक कहलाएगा लेकिन वह स्वीकार्य किसी को भी न होगा। योगी आदित्य नाथ ने जिस तरह सूर्य नमस्कार और नमाज़ कि क्रिया को समानता के पैमाने पर नापने की कोशिश की है तो वह शारीरिक क्रिया के रूप में चाहे समान हो लेकिन आस्था में समानता नहीं हो सकती जबकि नमाज़ और सूर्य नमस्कार दोनों ही अमल केवल आस्थावश ही किये जाते हैं। इस तरह हिन्दू मुस्लिम के बीच पैदा की जा रही नफ़रत को किसी की आस्था के साथ छेड़खानी करके और ज़्यादा न बढ़ाया जाए और दोनों को अलग ही रहने दिया जाए तभी भाईचारा क़ायम रह सकता है।
बहुत पुरानी बात है हमारे एक मित्र इंग्लैण्ड चले गए थे और उनको वहां की नागरिता प्राप्त हो गई थी। उनकी माँ और एक अविवाहित बहन यहीं रहते थे जिनके खर्चे के लिये वह इंग्लैण्ड से रूपये भेजा करते थे। एक बार जब वह भारत आए तब मुझसे मुलाक़ात होने पर बातचीत के दौरान उन्होंने बताया कि उन्होंने खुद को विवाहित दर्शाया हुआ है और पत्नी के नाम के कॉलम में अपनी बहन का नाम दर्ज कराया हुआ है ताकि सरकार से मिलने वाला फ़ैमिली भत्ता हासिल कर सकें। इस प्रकार प्राप्त होने वाले उस धन को वह भारत में अपनी माँ और बहन के खर्च के लिये भेज दिया करते हैं। मैंने जब उनसे पूछा कि आपकी अगर शिकायत हो जाए तो आप थोड़े से लाभ के लिये क़ानून की गिरफ़्त में आ जाएंगे। इसके जवाब में उन्होंने जो कहा केवल वह सुनाने के लिये इतनी कहानी सुनानी पड़ी है। उन्होंने जवाब दिया था कि मुझे गर्व है उस देश का नागरिक होने पर कि जहां इस तरह की शिकायत प्राप्त होने पर सरकार यह कह कर उस शिकायत को नज़रअन्दाज़ कर देती है कि इस देश का नागरिक इस तरह का झूट नहीं बोल सकता और सरकार ऐसी शिकायत की सुनवाई करके अपने नागरिक के सम्मान को ठेस नहीं पहुंचाएगी। उत्तर प्रदेश में जिस तरह सरकारी और ग़ैरसरकारी एण्टी रोमियो स्क्वाड बना कर प्रदेश भर में फैला दिये गए हैं उन्होंने ऐसा आतंक फैलाया हुआ है कि शरीफ़ लोगों के लिये अपने नौजवान बच्चों को बाहर भेजना कठिन हो गया है। अजीब बात यह है कि क़ानून द्वारा वैध की गई लिव इन रिलेशन शिप के अन्तर्गत साथ रहने वाले बालिग़ लड़के लड़की का साथ साथ घर के बाहर निकलना किस तरह अवैध हो सकता है। इस समय इन एण्टी रोमियो दस्तों द्ववारा की जाने वाली वारदातों में एक के अन्तर्गत तो देवरिया ज़िले में साथ साथ जा रहे भाई बहन को पकड़ कर कोतवाली ले जाया गया जहां उनके मां बाप द्वारा अपने बेटे बेटी के रूप में पहचान कराने के बाद ही उनको छोड़ा गया। किसी शरीफ़ खानदान की बेटी को कोतवाली में ले जाए जाने पर उसके माँ बाप के दर्द को क्या विभिन्न प्रकार के आरोपों से ग्रस्त सरकार चलाने वाले लोग समझ पाएंगे? यहां एक ओर तो उपरोक्त इंग्लैण्ड की सरकार द्वारा अपने नागरिक के सम्मान की सुरक्षा की मिसाल है और दूसरी तरफ़ उत्तर प्रदेश में शरीफ़ लोगों को अपमानित जीवन व्यतीत करने पर मजबूर किया जा रहा है। इस प्रकार जो सरकार अपने नागरिकों के सम्मान की भी सुरक्षा करने में समर्थ न हो उसको बने रहने का कोई अधिकार नहीं है।
कानून द्वारा दिए गए अधिकार का इस्तेमाल करते हुए निचली अदालत के फैसले को चुनौती देते हुए जब उससे बड़ी अदालत में अपील की जाती है तो इसका सीधा सा मतलब यह होता है कि अपीलकर्ता उस से निचली अदालत का फैसला मानने से इन्कार कर रहा है। उस अदालत से भी हारने के बाद उसका हाई कोर्ट में अपील करना और हाई कोर्ट के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील करना साबित करता है की निचली अदालत से लेकर हाई कोर्ट तक के किये गए फैसले ज़रूरी नहीं हैं कि इन्साफ पर खरे उतरें। सवाल यह पैदा होता है कि इन्ही जजों को पदोन्नत करके सुप्रीम कोर्ट का जज बनाया जाता है तो फिर यह कैसे मान लिया गया है कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला ठीक ही होगा और इन्साफ पर आधारित होगा। जब उससे निचली अदालत नाइन्साफी कर सकती है तो सुप्रीम कोर्ट में इन्साफ ही होगा इस बात की क्या दलील है? किसी अपराधी को दी जाने वाली सबसे बड़ी सजा मौत की सजा है जो सामान्यतय क़त्ल या देशद्रोह के अपराधी को दी जाती है। मौत की सजा एक ऐसी सजा है जिसके ज़रिये से किसी शख्स को जिन्दा रहने के हक से महरूम कर दिया जाता है और इस सजा की एक ख़ास बात यह भी है कि सजा देने के बाद भूल सुधार या पुनर्विचार की गुन्जाईश ख़त्म हो जाती है। विड़म्बना यह है कि इतनी बड़ी सजा देने का मामला जज के विवेक पर छोड़ दिया गया है कि यदि उसको वह अपराध दुर्लभ से दुर्लभतम (rare to rarest) की श्रेणी में नज़र आता हो तो अपराधी से जिन्दा रहने का हक छीन लिया जाय। जबकि फैसला देने वाला शख्स भी उसी समाज का हिस्सा है जो कि साम्प्रदायिक दुर्भावना, भ्रष्टाचार से लबरेज़ है और अगर वह पूर्वाग्रह से ग्रसित भी हो तो नाइन्साफी की सम्भावना बढ़ जाती है। यदि संविधान में इस प्रकार का संशोधन किया जाना संसद के कार्यक्षेत्र में आता हो तो प्राथमिकता के तौर पर इस तरफ ध्यान देना आवश्यक है कि मौत की सजा को केवल जज के विवेकाधिकार पर आधारित न रहने दिया जाय बल्कि ऐसे फैसलों में विभिन्न धर्म गुरुओं को भी सम्मिलित रखे जाने का प्रावधान रखा जाय क्योंकि इस भौतिकवादी युग में धर्मगुरुओं के दिलों में मौजूद ईश्वर का खौफ गलत फैसले से बचाने में सहायक साबित होगा। यह भी सच है कि नाइन्साफी इन्कलाब को जन्म दिया करती है।
डॉक्टर ज़ाकिर नाईक ने इस्लाम के साथ ही दूसरे विभिन्न धर्मों का जिस गहराई से अध्ययन किया है और वह जिस प्रकार विभिन्न धर्म के लोगों के सवालों के जवाब देकर उनको सन्तुष्ट करते हैं, यह अपने आप में एक अजूबा होने के साथ हिन्दू मुस्लिम भाईचारा क़ायम करने में सहायक हो रहा है। इसी वजह से साम्प्रदायिकता के आधार पर वजूद में आने वाली सरकार डॉक्टर ज़ाकिर नाईक जैसे महान स्कॉलर के ख़िलाफ़ देशद्रोह, आतंकवाद और ऐसे ही दूसरे बेबुनियाद आरोप लगा कर उनको अपने ज़ुल्म का शिकार बनाने पर तुली हुई है क्योंकि हिन्दू मुस्लिम भाईचारा तो इस सरकार की रीढ़ की हड्डी तोड़ने के समान साबित होगा और उससे उसके वोटरों का ध्रुवीकरण प्रभावित होकर सरकार को ही खत्म कर देगा। मीडिया का भी ज़ाकिर साहब पर अनजाने में होने वाला एक एहसान है कि उसने जिस तरह बंगलादेश की एक घटना को आधार बना कर उनको अन्तर्राष्ट्रीय स्तर का आतंकवादी प्रचारित करना शुरू किया था उसी से पूरी दुनिया के अमन पसन्द लोग समझ गए थे कि अफ़ज़ल गुरु और याक़ूब मेमन की तरह एक और ज्यूडीशियल मर्डर की योजना बन चुकी है और उस समय डॉक्टर साहब का विदेश में होना भी उनके लिये लाभकारी साबित हुआ वरना देश में रहते हुए तो अब तक वह जेल में डाल दिये गए होते और उनके ख़िलाफ़ अदालत की आवश्यकतानुसार गवाह पैदा करके देश भर के गुण्डे 'ज़ाकिर नाईक को फांसी दो' के नारे लगा कर अदालत को फ़ैसला देने का नैतिक आधार तैयार कर चुके होते। हिन्दू मुस्लिम भाईचारे की बात करें तो डॉक्टर ज़ाकिर नाईक ग़ैर मुस्लिमों द्वारा पूछे गए सवालों के जवाब उन्ही की धार्मिक पुस्तकों से देने का प्रयत्न करते हैं और फिर इस्लाम से तुलना करते हुए यह साबित करने की कोशिश करते हैं कि जो बुनियादी बातें उनकी धार्मिक पुस्तकों में कही गई हैं वह क़ुरआन से भिन्न नहीं हैं। चूँकि हर बात वह सन्दर्भ सहित कहते हैं लिहाज़ा उसके नतीजे में ग़ैरमुस्लिमों के बुद्धिजीवी वर्ग में उन सन्दर्भों के अनुसार अपनी और इस्लामी किताबों को पढ़ कर उन बातों को जांचने की उत्सुकता पैदा होती है। इस प्रकार उनमें से जो लोग सत्य को पहचान जाते हैं तो वह अपनी इच्छा से अपना धर्म भी परिवर्तित कर लेते हैं। इस प्रकार हिन्दू समाज के जो लोग अपनी ही धार्मिक पुस्तकों को पढ़ने का शौक़ नहीं रखते थे वह डॉक्टर ज़ाकिर नाईक के कार्यक्रम को देख और सुन कर उनका इस बात के लिये एहसान मानते हैं कि उनके ज़रीये से वह भी अपने धर्म का ज्ञान प्राप्त करने के साथ इस्लाम से भी परिचत हो रहे हैं। ऐसी स्थिति में डॉक्टर ज़ाकिर नाईक के ख़िलाफ़ सरकार द्वारा की जाने वाली कार्रवाई बुद्धिजीवी वर्ग के इन हिन्दुओं पर भी ज़ुल्म साबित होगी।
फ़तवा, शहीद और जिहाद की तरह ख़ालिस इस्लामी शब्दावली का लफ़्ज़ है जिसका असल भावार्थ जाने बिना उसके लिये वही भ्रान्तियां पैदा होती हैं जैसी शहीद और जिहाद जैसे पाक लफ़्ज़ों के प्रति पैदा कर दी गई हैं। इसकी वजह है कि इस्लामी शरीयत की सतही सी जानकारी रखने वाले मुसलमान बिना सही मालूमात के इन अल्फ़ाज़ की व्याख्या करने लगते हैं और फिर इस्लाम और मुसलमानों के ख़िलाफ़ चल रही साज़िश में शामिल इस्लाम की A B C तक न जानने वाला मीडिया और मुसलमानों के ख़िलाफ़ तरह तरह के मुद्दे पैदा करने में माहिर हिन्दुत्ववादी संगठन मूर्खतापूर्ण टिप्पणियों और तरह तरह के कटाक्ष से माहौल को ऐसा दूषित कर देते हैं कि उसके प्रभाव से कम पढ़े लिखे या शरीयत का इल्म न रखने वाले मुसलमान भी उन्ही की भाषा बोलने लगता है।
अल्लाह ने इंसानों की रहनुमाई के लिये अपने रसूल (स अ व) के ज़रीये क़ुरआन पाक भेजा और उस पर अमल करके दिखाने के साथ ही उसको समझाने की ज़िम्मेदारी भी अल्लाह ने अपने रसूल स अ व को सौंपी जिसके सबूत में रसूल (स अ व) के जीवन का एक एक पल दुनिया के सामने है जो पूरी तरह क़ुरआन के मुताबिक़ है और चूँकि रसूल स अ व के द्वारा बताई हुई हर बात अल्लाह ही की तरफ़ से थी जिसको हदीस कहते हैं और जो अमल उनके द्वारा किये गए, जो सुन्नत कहलाते हैं, भी दीन का भाग हैं।
इसके अलावा रसूल (स अ व) के साथी, जो सहाबा कहलाते हैं, ने अगर सर्व सम्मति से कोई फ़ैसला दिया हो, वह भी मुसलमानों के लिये महत्त्वपूर्ण है और उसके ख़िलाफ़ भी कोई बात कहना जायज़ नहीं है क्योंकि उन लोगों ने रसूल स अ व के जीवन को बारीकी से देखा भी था और वह प्रशिक्षित भी उन्ही के द्वारा किये हुए थे इसके अलावा एक ख़ास बात यह भी थी कि ख़लीफ़ा जैसे इस्लामी शरीयत के सर्वोच्च पद पर आसीन शख़्स भी अगर भूल वश ग़लत फ़ैसला दे देता था तो उसको हर शख़्स टोकने का अधिकार रखता था और उसकी बात सही होने पर ख़लीफ़ा अपना फ़ैसला बदल देता था। इस तरह की बहुत सी मिसालों से इस्लामी इतिहास भरा पड़ा है लेकिन यहां बात समझने के लिये केवल दो उदाहरण काफ़ी हैं।
पहला यह कि हज़रत उसमान र अ जब ख़लीफ़ा बने तो उनके सामने पहला मुक़द्दमा एक ऐसी औरत का आया जिसने विधवा होने पर इद्दत पूरी करने के बाद एक शख़्स से निकाह किया और निकाह के छः माह गुज़रने पर ही उसने एक बच्चे को जन्म दिया लिहाज़ा ऐसी स्थिति में उसका पति उसके ख़िलाफ़ ज़िना का मुक़द्दमा लेकर ख़लीफ़ा के सामने पेश हुआ और ख़लीफ़ा हज़रत उसमान र अ ने उस औरत को अपराधी मानते हुए पत्थर मार कर मौत की सज़ा सुना दी।
इस घटना के बारे में जब हज़रत अली को मालूम हुआ तो वह फ़ौरन हज़रत उसमान (र अ) से मिले और कहा कि आपने यह क्या ग़ज़ब कर दिया वह औरत तो अपराधी है ही नहीं क्योंकि क़ुरआन पाक छः माह में बच्चा पैदा होने की तसदीक़ करता है और उन्होंने क़ुरआन पाक की निम्नलिखित दो आयतों का हवाला दिया जो इस प्रकार हैं-
सूरह अलएहक़ाफ़ की15 वीं आयत में फ़रमाया गया है, अनुवाद:
“हमने इंसान को हिदायत की कि वह अपने माँ बाप के साथ नेक बर्ताव करे। उसकी माँ ने मशक़्क़त उठाकर उसे पेट में रखा और मशक़्क़त उठाकर ही उसको जना और उसके हमल और दूध छुड़ाने में तीस महीने लग गए।”
सूरह लुक़मान की 14 वीं आयत में फ़रमाया गया है, अनुवाद:
“उसकी माँ ने ज़ौफ़ पर ज़ौफ़ उठा कर उसे अपने पेट में रखा और दो साल उसका दूध छूटने में लगे। (इसीलिये हमने उसको नसीहत की कि) मेरा शुक्र कर और अपने वालिदैन का शुक्र बजा ला।”
इस तरह हज़रत अली (र अ) ने दलील पेश की कि उपरोक्त आयतों के अनुसार गर्भवती होने से बच्चा जनने और दूध छुड़ाने तक का समय तीस माह है और दूध छुड़ाने की मुद्दत दो साल है इस तरह तीस माह में से दो साल निकाल दिये जाएं तो छः माह बचते हैं इसके अनुसार वह औरत अपराधी नहीं है। इसके बाद उस औरत को छोड़ दिया गया।
दूसरी मिसाल जंगे सिफ़्फ़ीन के दौरान की है कि जब सीरिया पर हज़रत मआविया का क़ब्ज़ा था और उनकी हज़रत अली र अ से जंग की तैयारी थी ऐसे समय में हज़रत मआविया के पास सन्तान में मीरास के बटवारे का मुक़द्दमा पेश हुआ जिसमें मरने वाले की एक औलाद हिजड़ा थी लेकिन चूँकि क़ुरआन पाक में केवल लड़की और लड़के को मिलने वाले हिस्से का ही ज़िक्र है और नबी (स अ व) के सामने भी ऐसा कोई मामला तय होने के लिये नहीं आया था और हज़रत मआविया भी खुद को फ़ैसला देने में सक्षम नहीं पा रहे थे लिहाज़ा फ़ैसला ग़लत न हो जाए इस डर से उन्होंने इसका जवाब हासिल करने के लिये हज़रत अली (र अ) के पास ख़त भेजा जिसके जवाब में हज़रत अली (र अ) ने फ़रमाया कि उस हिजड़े की पेशाब की जगह देख ली जाए अगर औरतों जैसी हो तो लड़की के बराबर हिस्सा मिलेगा और लड़के जैसी होने पर लड़के के समान हिस्सा मिलेगा।
इन्ही सब की रौशनी में इस्लामी क़ानून बनाए गए और इन्ही को फ़तवा भी कहा जाता है। इसके अलावा अगर कोई नई समस्या आती है तो उसका समाधान मुफ़्ती की डिग्री प्राप्त आलिम से पूछा जाता है जो उपरोक्त तमाम चीज़ों के अध्ययन के बाद फ़तवा देता है।
इस तरह फ़तवा न सुझाव है और न राय है बल्कि किसी शख़्स की समस्या के समाधान के लये एक आलिम द्वारा शरीयत के अनुसार खोजा गया जवाब होता है।
यह जानना भी ज़रूरी है कि जो लोग किसी गुनाह से बचने की नीयत से किसी समस्या का हल प्राप्त करने के लिये मुफ़्ती से फ़तवा लेते हैं वह तो उस फ़तवे को अल्लाह का हुकुम मान कर उस पर अमल करते हैं। इसके अलावा जो लोग केवल खुराफ़ात पैदा करने के लिये फ़तवा मंगाते हैं उनके लिये वह केवल मुफ़्ती की राय होता है।
उदाहरण के लिये: किसी खुराफ़ाती ने फ़तवा मंगवाया कि लड़कियों का मिनी स्कर्ट पहन कर खेलना कैसा है जबकि जाहिल मुसलमान भी यह जानता है कि औरतों और मर्दों के लिये जितना जिस्म ढकना फ़र्ज़ है जिसको सतर कहते हैं, उसका खोलना हराम है लिहाज़ा मुफ़्ती ने लड़की के मिनी स्कर्ट पहनने को हराम बता दिया।
चूँकि यह फ़तवा सानिया मिर्ज़ा को निशाना बना कर मंगवाया गया था और सानिया मिर्ज़ा में इस मामले में अल्लाह का ख़ौफ़ नहीं था इसलिये बजाय यह कहने के कि यह गुनाह है और मैं इस पर शर्मिन्दा हूँ, उसने जवाब दिया कि मौलवी साहब मेरा खेल देखें और मेरी टाँगे न देखें।
इस तरह मीडिया और कथित मुस्लिम बुद्धिजीवियों ने भी अल्लाह के इस हुकुम का मज़ाक़ बना कर रख दिया और फतवों के ख़िलाफ़ अच्छी ख़ासी जंग छेड़ दी।
इस प्रकार मुसलमानों को चाहिए कि फ़तवे के ख़िलाफ़ चल रही साज़िश का शिकार होने से बचें और ऐसी खुरफ़ातों से दूर रहें……………….।
ईश्वर ने हर चीज़ को नर और मादा के जोड़ों में पैदा किया है तथा दोनों के मिलन से सन्तानोत्पत्ति होती है और नस्ल चलती है। बच्चे चूंकि मादा जनती है इसलिए नर में आकर्षण रखा गया है ताकि मादा द्वारा नर की ओर आकर्षित होने से दोनों का मिलन सम्भव हो सके इसीलिए उसको मादा के मुक़ाबले में ज़्यादा सुन्दर बनाया गया है।
उदाहरण के तौर पर देखें कि मोर मोरनी के मुक़ाबले में अधिक सुन्दर होता है। इसी प्रकार कबूतर कबूतरी से, शेर शेरनी से, नाग नागिन से आदि प्रत्येक जानदार में नर हमेशा मादा के मुक़ाबले में अधिक सुन्दर होता है। इस प्रकार हर जानदार प्राणी की तरह इंसानों पर भी यह बात लागू होना अनिवार्य है। इस तथ्य की रोशनी में यदि विचार किया जाए तो निष्कर्ष यह निकलता है कि पुरुष महिला के मुक़ाबले में अधिक सुन्दर होता है। यह बात इस तथ्य से भी साबित हो जाती है कि हमेशा महिलायें ही सजनें संवरने की ओर ध्यान देती हैं, मर्द नहीं, क्योंकि सुन्दर चीज़ को सजाने संवारने की आवश्यकता ही नहीं है। पुरूषों को रिझाने के लिए सजने, संवरने के अलावा नाचने गाने का कार्य भी महिलाएं ही करती आई हैं ताकि अपनी अदाओं से पुरुषों को आकर्षित कर सकें परन्तु कवियों और शायरों ने महिलाओं की झूठी तारीफें करके उनका दिंमाग आसमान पर पहुंचा दिया है।
इस हक़ीक़त को अगर पुरुष समाज समझ ले तो वह महिलाओं का पीछा करना छोड़ देगा और यदि ऐसा हुआ तो महिलाओं का यौन शोषण भी बन्द हो जायेगा और उनके नख़रे भी ढीले हो जाएंगे और फिर महिलाएं पुरुषों का पीछा करती नज़र आएंगी।
गुजरात में दो मुस्लिम नौजवान भाईयों को आई एस से जुड़े होने के आरोप में गिरफ़्तार किया गया है। गुजरात ए टी एस के पुलिस महानिरीक्षक के कथनानुसार उनके क़ब्ज़े से कुछ विस्फ़ोटक और जिहादी साहित्य बरामद किये गए हैं। सवाल यह है कि क्या जिहादी लिटरेचर अपने पास रखना अपराध है? जिहादी लिटरेचर पर बात करें तो जिसमें जिहाद, उसका महत्त्व और उससे सम्बन्धित निर्देश दिये गए हों वही जिहादी लिटरेचर कहलाता है। इस सम्बन्ध में यह जानना भी ज़रूरी है कि अपनी सम्पूर्ण शक्ति और सामर्थ्य से किसी काम के करने की कोशिश को जिहाद कहते हैं और यही कोशिश अगर अल्लाह की राह में की जाए तो उसको जिहाद फ़ी सबीलिल्लाह कहा जाता है जिसको इस्लामी शब्दावली में केवल 'जिहाद' भी कहते हैं। किसी मुसलमान के लिये पवित्र क़ुरआन में दिये गए आदेशों का पालन करना फ़र्ज़ है और उन आदेशों का इंकार करने करने पर वह शख़्स मुसलमान नहीं रहता और चूँकि पवित्र क़ुरआन में जिहाद से सम्बन्धित आदेश मौजूद हैं लिहाज़ा क़ुरआन से बड़ी कोई जिहादी किताब नहीं है। इसके लिये निम्लिखित उदाहरण काफ़ी है जिसमें सच्चे मुसलमान के सम्बन्ध में इस प्रकार फ़रमाया गया है। क़ुरआन पाक की सूरह अलहुजुरात की 15 वीं आयत में फ़रमाया गया है, अनुवाद, "हक़ीक़त में तो मोमिन वह हैं जो अल्लाह और उसके रसूल पर ईमान लाए फिर उन्होंने कोई शक न किया और अपनी जानों और मालों से अल्लाह की राह में जिहाद किया। वही सच्चे लोग हैं।" इस तरह चूँकि कोई मुस्लिम घर ऐसा नहीं है जिसमें क़ुरआन पाक मौजूद न हो और पढ़ा न जाता हो लिहाज़ा उपरोक्त ए टी एस के पुलिस महानिरीक्षक ने जिस धारा के अन्तर्गत दो मुस्लिम युवकों को जिहादी लिटरेचर रखने पर आरोपी बनाया है उस धारा के अनुसार तो हर मुसलमान पर आरोप लगा कर उनको बन्द किया जा सकता है। हक़ीक़त यह है कि यदि जिहादी लिटरेचर देश के लिये हानिकारक होता तो देश आज आज़ाद न होता क्योंकि मौलाना अबुल कलाम आज़ाद, मौलाना हुसैन अहमद मदनी और मौलाना मौहम्मद अली जौहर जैसे हज़ारों मुस्लिम आलिमों ने इसी लिटरेचर से प्रेरणा पाकर आज़ादी की जंग में हिस्सा लिया था और अंग्रेजों की ग़ुलामी से आज़ादी दिलवाने को अल्लाह का आदेश मानते हुए और अंग्रेजों के ख़िलाफ़ की जाने वाली आज़ादी की जंग को जिहाद मान कर अपनी जानों और मालों की क़ुरबानी दी थी। इसी प्रकार का जिहाद करते हुए अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान ने पहले रुसी फ़ौजों को मार कर भगाया था और अब अमेरिका उनके हाथों ज़लील हो रहा है। जिहाद करने वालों की कामयाबी के मुतअल्लिक़ क़ुरआन पाक की सूरह अलफ़तह की 22 व 23 वीं आयतों में फ़रमाया गया है, अनुवाद, "यह काफ़िर लोग अगर उस वक़्त तुमसे लड़ गए होते तो यक़ीनन पीठ फेर जाते और कोई हामी व मददगार न पाते। यह अल्लाह की सुन्नत है जो पहले से चली आ रही है और तुम अल्लाह की सुन्नत में कोई तबदीली न पाओगे।" इन आयतों में मक्के के काफ़िरों से हुदैबिया नामक स्थान पर जब मदीने से आए हुए मुसलमानों ने जंग के बजाय सुलह कर ली थी तो उस समय का ज़िक्र करते हुए अल्लाह ने फ़रमाया है कि अल्लाह की यह सुन्नत है कि वह अन्त में फ़ी सबीलिल्लाह किये जाने वाले जिहाद करने वालों को ही कामयाबी देता है। इस तरह जिहाद शब्द को बदनाम न करते हुए यह कोशिश होनी चाहिए कि मुसलमानों के ख़िलाफ़ इस तरह का माहौल न बनने दिया जाए कि उनको उसके ख़िलाफ़ जिहाद के लिये आमादा होना पड़े क्योंकि अपने इस देश को बचाने के लिये जिस तरह अंग्रेजों के ख़िलाफ़ जिहाद किया था उसी तरह देश की अखण्डता के लिये मुसलमान किसी भी तरह की क़ुरबानी से में पीछे न रहेंगे।
सोचने समझने की सामर्थ्य रखने वाले इंसानों के ज़ेहन में कुछ सवाल पैदा होते रहे हैं जैसे कि- मैं क्या हूँ? यह दुनिया क्या है? क्या इंसान प्राकृतिक रूप से पैदा हो गया है या उसको किसी ने पैदा किया है? इंसान में जो रूह होती है वह कहां से आती है और मरने के बाद कहां चली जाती है? क्या मरने के बाद इंसान का वजूद ख़त्म हो जाता है या किसी दूसरे रूप में बाक़ी रहता है? अगर इंसानों को पैदा करने वाला कोई है तो वह कौन है और उसका मक़सद क्या है? आदि अनेक सवाल हैं जिनको जानने की जिज्ञासा हमेशा से इंसान के अन्दर रही है, इसी को फ़िलॉसफ़ी या दर्शनशास्त्र और चिन्तन मनन करके इन सवालों के जवाब देने वाले लोगों को फ़िलॉस्फ़र या दार्शनिक कहा जाता है। यह भी सच है कि जितने भी दार्शनिक पैदा हुए हैं उन्होंने दूसरे दार्शनिकों को पढ़ा और चिन्तन मनन करके उनके कुछ विचारों का समर्थन किया और कुछ को नकार कर अपने विचार प्रकट किये और इस प्रकार नए नए नज़रिये लोगों के सामने आते रहे लेकिन अन्तिम और अकाट्य नज़रिया न बन सका। इस बात को किसी शायर ने इन शब्दों में बयान किया है कि- फ़लसफ़े में फ़लसफ़ी को है ख़ुदा मिलता नहीं। डोर को सुलझा रहा है पर सिरा मिलता नहीं। यह भी सत्य है कि किसी भी दार्शनिक ने अपने विचारों को तथ्य या हक़ीक़त न कह कर विचार ही माना है लिहाज़ा सारी फ़िलॉसफ़ी एक बेबुनियाद बात के अलावा कोई महत्त्व नहीं रखती है। यदि हम हक़ीक़त को तलाश करने की कोशिश करें तो उसके लिये केवल एक ही रास्ता है और वह यह है कि इंसान को पैदा करने वाले के सन्देशों को तलाश किया जाए इस विश्वास के साथ कि इंसान जैसे प्रतिभावान प्राणी को बेमक़सद न बनाया गया होगा और उसके लिये अवश्य ही कुछ सन्देश भी भेजे गए होंगे। इस प्रकार तौरैत, इंजील वग़ैरा अनेक किताबें, जो पूरी काएनात को बनाने वाले के द्वारा अपने दूतों या पैग़म्बरों के ज़रीये से भेजी जाने के कारण आसमानी किताबें कहलाती हैं, उनमें इंसान की आवश्यकतानुसार हर तरह के सन्देश मौजूद हैं।इन्ही किताबों का अन्तिम ऐडीशन क़ुरआन है और अन्तिम ईशदूत हज़रत मुहम्मद स अ व हैं। पहले आई हुई किताबें चूँकि असली रूप में मौजूद नहीं हैं और उनका अन्तिम ऐडीशन क़ुरआन के रूप में उपलब्ध है और अन्तिम पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद स अ व के द्वारा कही हुई हर बात का रिकॉर्ड भी मौजूद है जिसको हदीस कहा जाता है। क़ुरआन और हदीस के द्वारा जो आदेश और निर्देश दिये गए हैं वही इस्लाम है। इस प्रकार फ़िलॉसफ़ी कहलाने वाले उपरोक्त सवालों के जवाब जो क़ुरआन और हदीस में हज़रत मुहम्मद स अ व के ज़रिये दिये गए हैं वह किसी फ़िलॉस्फ़र के विचार न होकर हक़ीक़त हैं और यही इस्लामी फ़िलॉसफ़ी है जिसको नज़रअन्दाज़ करके कोई भी फ़िलॉस्फ़र अगर कोई विचार प्रकट करता है तो वह इस्लामी दृष्टिकोण से जहालत है। अन्त में यह बात भी जान लेना ज़रूरी है कि जहालत किसी बात के न जानने को कहते हैं और किसी बात को न जानने वाला उस बात का जाहिल कहलाता है। इस प्रकार हक़ीक़त जानने का ज़रीया उपलब्ध होते हुए उसको नज़रअन्दाज़ करके अपने विचार प्रकट करने वाला जाहिल ही तो होता है।